विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी 'नर्क से थोड़ा कम'
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विमल चन्द्र पाण्डेय |
मनुष्य के जीवन की एक निश्चित अवधि होती है। हालांकि जब वह यह जीवन जी रहा होता है तो लगता है जैसे यह असमाप्य हो। इसी जीवन में वह जैसे सारे जन्मों का इंतजाम कर लेना चाहता हैं। इस इंतजाम में बुरे और भले का सामान्य विवेक भी समाप्त हो जाता है। विमल चन्द्र पाण्डेय ऐसे कहानीकार हैं जो उन विषयों पर कहानियां लिखते हैं जो लीक से थोड़ा अलग हट कर होती हैं। आपराधिक कार्यों में जुटे दो दोस्तों के मनोभावों को ले कर विमल ने इस कहानी का जो ताना बाना बुना है वह अन्त में हमें विचलित करता है। एक कहानीकार के रूप में यही विमल की खासियत है। इन दिनों वे फिल्म निर्माण की राह पकड़े हुए हैं जिससे कहानियों की राह थोड़ी विरल हुई है। फिर भी विमल के कहानीकार के ऊपर भरोसा किया जा सकता है। यह कहानी पुस्तकनामा से साभार ली गई है। तो आइए आज पहली बार पर एक अरसे के बाद हम पढ़ते हैं विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी 'नर्क से थोड़ा कम'।
'नर्क से थोड़ा कम'
विमल चन्द्र पाण्डेय
सही समझ कर जितने निर्णय उसने जीवन में लिए थे, सारे के सारे एक सिरे से गलत साबित हुए थे। अब सही गलत का अधिक बोझ नहीं रह गया था। परिणाम अधिक मायने रखते थे।
रणीराम को रात में खून की चार उल्टियाँ हुई थीं और सुबह तक ज़मीन पर पैर रखने में धरती घूमती हुई महसूस हो रही थी। पत्नी को मायके गए तीन महीने पूरे हुए थे और रात ढाई बजे उसकी कॉल आने के बाद से वो सोया नहीं था। बेटा सूरत में एक मिल में काम करता था लेकिन मिल बंद होने के कगार पर थी और दो महीने से कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला था। बेटा कुछ पैसे चाहता था ताकि कोई काम धंधा शुरू कर सके। वह हर तीन-चार दिन पर उदास आवाज़ में फोन कर पूछता कि पापा, पैसों का कुछ इंतज़ाम हुआ क्या! और रणीराम बातें बनाने लगता था।
नहाने भर में साँस फूलने लगी थी। धुला पायजामा और बनियान पहन कर वह पाठक का इंतज़ार करने लगा। इलाज करवाने के लिए जो घमंड वो सरकार के बनाये मेडिकल कार्ड पर कर रहा था, बेरहमी से अस्पताल वालों ने तोड़ दिया था। जितनी बचत उसने बेटे के भविष्य और अपने बुढ़ापे के लिए कर के रखी थी, धीरे-धीरे सब स्वाहा हो गयी थी। इसके बाद एक संस्था ने उसके इलाज का जिम्मा लिया और इलाज डेढ़ महीने चला भी। बस दिक्कत ये थी कि अस्पताल में एक जांच के बदले ये लोग रणीराम से इतने कागजों पर दस्तख़त करवाते, अंगूठा लगवाते, पंजों की छाप लेते और इतनी जगह खिड़की में उसका मुंह घुसा कर सामने वाले को दिखाते कि रणीराम को इससे चिढ़ हो गयी थी। उसने एक दिन डॉक्टर का कॉलर पकड़ कर पूछा था कि इस इलाज से वो कितने महीने में ठीक हो जायेगा। डॉक्टर ने सपाट बताया था कि उसके बचने के कोई चांस नहीं हैं लेकिन वो कोशिश कर रहे हैं कि वो दो महीने की जगह पांच महीने जी जाये या फिर मरते हुए आकर्षक न दिखे। इलाज के दौरान सिर के बाल कई बार छील के देह में कुछ क्रियाएं की जाएँगी, वजन घट के तिहाई हो जायेगा, मुंह चुचुक जायेगा और लगेगा कि कोई इन्सान नहीं कोई कंकाल मरने वाला है। रणीराम इसके बाद अस्पताल नहीं लौटा।
आधे घंटे के इंतज़ार के बाद पाठक बुलेट से पहुंचा। उसके कंधे पर काला फटेहाल बैग था जिसमें गहने और नगदी थी। आते ही वो कमरे में बैग रख के बाथरूम में घुस गया। इस कमरे में यही फायदा था कि मकान मालिक का कोई दखल नहीं था। वो दूर दराज के मोहल्ले में रहता था और किराये के लिए सिर्फ़ तब फोन करता था जब एक की जगह दो महीने हो जाते थे। कौन आया, कौन गया, कमरे में मुर्गा कटा या आदमी, उसको कोई मतलब नहीं रहता था। बाथरूम से निकल कर पाठक सीधा किचेन में पहुँच गया।
“कुछ खाने को है क्या?” उसने किचेन में बरतन पलटते हुए पूछा।
“चाय बनाता हूँ बैठ।” रणीराम भी किचेन में आ गया। उसने पाठक के चेहरे की ओर देखा। उसका बाईस साल पुराना दोस्त। हर सुख दुःख का भागी। आज उससे बिछड़ जायेगा। उसे रोना आने लगा तो उसने चेहरा पलट लिया और फ्रिज से दूध निकालने लगा।
“कुछ खाने को भी चाहिए यार। रात दो बजे सोया और सुबह पांच बजे ही आंख खुल गयी। बहुत बुरा सपना देखा।”
रणीराम का मन हुआ कि वह पूछे कि पाठक ने क्या सपना देखा है लेकिन उसके मन में चोर था। वो कोई बुरी बात न करना चाहता था न सोचना चाहता था। उसने झुक फ्रिज में झाँका और दूध के साथ चार अंडे निकाल लिए।
“बैठ ऑमलेट बना देता हूँ। चाय के साथ गटक लेंगे।” उसने फिर से पाठक को कमरे में बैठने का इशारा किया लेकिन वो बेचैनी में था।
“ब्रेड है क्या?” उसने फिर से फ्रिज खोला और झांकते हुए पूछा।
“नहीं होगा, खाना ही बना दूं क्या तेरे लिए?” रणीराम चाहता था वो जल्दी से एक नतीजे पर पहुंचे और कमरे में जाए।
“अरे नहीं, इतनी भी भूख नहीं लगी। बस समझ ले ऑमलेट से थोड़ी ज्यादा है और खाना खाने से थोड़ी कम।” पाठक हँसा। ये उनका पुराना पैटर्न था। जब पैसों की कम जरूरत होती तो वो एक दूसरे से पैसे लिया करते थे लेकिन उसे न मदद कहते न उधार।
“मदद नहीं चाहिए, इतने पैसों की कोई मदद नहीं करता।” पाठक कहता।
“तो? उधार चाहिए?” रणीराम पूछता।
“नहीं, वो तो तय मियाद पर चुकाना पड़ता है।” पाठक कहता।
“फिर?”
“मदद से थोड़ा ज्यादा, उधार से थोड़ा कम।” दोनों हँसते। मतलब यही होता कि उधारी कहीं दर्ज नहीं होगी लेकिन जब सामने वाले को पैसे की ज़रूरत होगी तो अगला कहीं से भी इंतज़ाम कर के देगा। तीन साल पहले तक ये वादा निर्बाध गति से पूरा होता रहा लेकिन कोविड के बाद से दुनिया बदल गयी थी। महंगाई आसमान चीर गयी थी और बैठे बिठाये धंधे चौपट होने से लोग पैसों की लगातार तंगी से जूझने लगे थे. दोनों दोस्त भी इसकी चपेट में थे।
अचानक पाठक को कुछ याद आया।
“आलू होगा ना?”
“हाँ।” रणीराम ने सोचते हुए कहा।
“तो भुजिया बना ना, जो पहले बनाता था।” रणीराम पुरानी यादों में खोने लगा। वो आलू की भुजिया बहुत तेज़ बनाता था। एकदम तेल में तले, कुरकुरे आलू।
“वही?” रणीराम ने पूछा। ये अक्सर रात को बनने वाला व्यंजन था।
“भुजिया से थोड़ा ज्यादा, चिप्स से थोड़ा कम।” पाठक चहका। कमरे में शराब पीने पर वही दोनों का पसंदीदा चखना हुआ करता।
“ठीक है। तू भी क्या याद करेगा।” रणीराम पहली बार मुस्कराया तो पाठक भी मुस्कराया। मुस्कराहट में अपनापन था।
“और? भाभी से बात हुई?” पाठक ने फ्रिज से एक बोतल पानी निकाल लिया था और सिर ऊपर कर पी रहा था।
“हाँ, बहुत बुरा हो गया कल रात।” रणीराम का कलेजा फिर से फटने-फटने हो आया और बात मुँह से निकलते ही उसने सोचा कि ये बात तो दुनिया में किसी से नहीं कही जा सकती फिर उसने पाठक से क्यों कही। उसके दिमाग ने उसे दो कारण बताये। एक झूठ था एक सच। एक ये कि वो उसका पुराना दोस्त है, सुख दुःख का साथी। ये बात उससे तो बांटी ही जा सकती है। दूसरा कि कल इन सब बातों का क्या ही मतलब रह जायेगा। उसके साथ इस घिनौनी बात का अस्तित्व भी हवा में विलीन हो चुका होगा। उसने बात बदलने की सोची और सिंक में आलू धोने लगा। लेकिन पाठक उसकी आवाज़ के उतार चढ़ाव से उसे पहचानता था। वह समझ चुका था कोई गंभीर बात है। उसने रणीराम को घेर लिया. आखिरकार रणीराम को बताना ही पड़ा कि कल उसकी पत्नी ने अपने कमरे में आधी रात के बाद अपने किशोर उमर के भतीजे को पकड़ा है जो अपने मोबाइल से पता नहीं उसकी नींद में कैसी तस्वीरें ले रहा था।
“क्या बात कर रहे हो? राम विलास का बेटा न? कितनी उमर है?” पाठक की आँखें घृणा और हैरानी से फ़ैल गयी थीं।
“सोलह हुआ है पिछले महीने। बता रही थी हर समय मोबाइल में खोया रहता है। उसको नींद में लगा उसके पेटीकोट के अंदर कुछ हलचल है। चौंक के उठी कोई कीड़ा वीड़ा न हो। जगते ही वो भागा। उसने पकड़ के मोबाइल छीन लिया. उसमें....क्या बताऊँ क्या क्या था!” रणीराम बात की डीटेल में नहीं जाना चाहता था।
“क्या था?” उत्सुकता का बीज पाठक के पेट में पेड़ बन रहा था।
“छोड़ यार। मुझे ही यकीन नहीं हुआ।” रणीराम ने बात बदलनी चाही। पाठक ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। उत्सुकता के पेड़ पर जिज्ञासा के फल लग गये थे।
“अरे दुनिया बहुत हरामजादी हो चुकी है। तू बोल तो।” उसने रणीराम को उकसाया।
“मोबाइल की गैलरी में घर में काम करते हुए, सोये हुए, और तो और उसकी नहाते हुए भी बहुत तस्वीरें थीं जो उसने छिप के ली थीं। पता नहीं आजकल के बच्चे कहाँ जा रहे हैं।” रणीराम की आवाज़ में समय से हार मान जाने की निराशा थी। पाठक सुन कर एकदम सन्न रह गया था।
“बताओ साला, सोलह साल का लड़का! मोबाइल ने लोगों को शैतान बना दिया है।” पाठक की आवाज़ में भी हताशा थी।
कमरे में थोड़ी देर सन्नाटा रहा। पाठक समझ गया रणीराम की उदासी की वजह क्या है। उसने बात बदलने की कोशिश की।
“कल पुलिस आई थी मोहल्ले में सुना।”
इस बात पर रणीराम के हावभाव सचमुच बदल गए। चेहरे पर पहले डर फिर राहत की साँस आयी। जमुना पार के करावल नगर में पुलिस का आना बड़ी घटना नहीं थी। मोहल्ले और इसके आस पास अक्सर पुलिस के सायरन बजते रहते थे।
“दिक्कत ये है कि बिना सायरन आई थी। मैं पेशाब करने के लिए उठा था और खिड़की से यूँ ही बाहर झाँका। सब चुपचाप सामने वाले घर के सामने खड़े थे। मेरी फट गयी। एक सेकंड के लिए लगा जाने से पहले क्या-क्या देखना पड़ेगा. फिर ध्यान से देखा तो सामने वाले घर में छापा पड़ा था।”
“तुम नॉट आउट जाओगे गुरु।” पाठक ने अपनी नज़र में तारीफ ले कर रणीराम की ओर देखा। रणीराम मुस्कराया और आलू गर्म तेल में डाल दिए।
“तुझे कौन सा छू सके हैं ठुल्ले!” रणीराम ने तारीफ वापस लौटाई।
“मेरा गेम तो चल रहा है, तू आउट हो रहा है ना!” पाठक हँसा तो रणीराम को भी हँसी आ गयी। पाठक मौत पर इतने हलके ढंग से मज़ाक कर लेता है कि उसकी वजह से ही रणीराम को भरोसा हो चला है कि मरना कोई बड़ी बात नहीं है। रोज़ लाखों लोग पैदा होते हैं लाखों लोग मरते हैं। मरने मारने को रोज़ी-रोटी बनाया जाय तो विश्वास तो करना ही पड़ेगा कि ये एक आम कारोबार है। आखिर ऐसा भरोसा सिर्फ ईश्वर ही क्यों करे। ये वाहियात खेल वो अकेले क्यों खेले? उन्होंने ऐसी फालतू बातें सोच कर धंधा शुरू नहीं किया था। वो तो एक ज़रूरत थी जो धीरे-धीरे अपने आप साकार होती गयी। पाठक ने लगातार बारह साल प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की थी और हर साल आरक्षण के लिए उसकी नफरत गहरी होती गयी। जिन परीक्षाओं के लिए वह ओवरएज होता गया, उन सबको भ्रष्टाचार का अड्डा घोषित करता गया और आखिर में उसने पूरे देश को भ्रष्टाचारी घोषित कर दिया था। रणीराम ने गढ़वाल के सरकारी कॉलेज से बी. एड. किया था और कई साल प्राइवेट कॉलेजों में एडहॉक पर पढ़ाने के बाद दिल्ली आ गया था। यहाँ जैसा उसने सुना था, सब झूठ निकला। यहाँ भी पैसा कम मिलता था और खर्चे गढ़वाल से बहुत ज्यादा थे। फिर भी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में उसे सांध्यकालीन कक्षाएं लेने को मिल गयीं। पैसा बहुत कम था। जब पाठक ने पहली बार उसे एक व्यापारी को लूटने का प्रस्ताव दिया था तो दोनों पैंतीस साल के थे। रणीराम को कॉलेज से निकाल दिया गया था क्योंकि एक युवा टीचर उससे कम पैसों पर पढ़ाने को तैयार था। उस दिन गुस्से में रणीराम वहां से निकल गया था लेकिन चार दिन गुस्से और अफसोस में रहने के बाद वह पाँचवे दिन कॉलेज के हेड के पास गया था और उनसे हाथ जोड़ कर कहा था कि वो उस लड़के से भी कम पैसे में काम करने को तैयार है। प्रिंसिपल नहीं माना था क्योंकि बकौल उसके नए लड़के में पोटेंशियल अधिक था।
चाय पक रही थी। भुजिया कुरकुरी हो रही थी। पाठक दो बार कमरे में बैठने के बाद फिर से बेचैन होकर टहलता हुआ किचेन में आ गया था। कोई बात थी जो उसको बेचैन किये हुए थी। देखा जाय तो उसकी बेचैनी रणीराम से ज़रा भी कम नहीं थी। रणीराम को लगा वो किसी भी तरह अपना सपना सुनाना चाहता है। पुरानी दोस्ती में अंदाज़े कितने सही होते हैं, ये अगले ही पल उसे पता चल गया।
“साले पूछा नहीं सपना क्या देखा मैंने।” पाठक ने उलाहना देते हुए कहा।
रणीराम ने भुजिया तल कर बाहर निकाल लिया था। दो प्लेटों में रख के उसने चाय छानना शुरू किया और पाठक ने एक आलू उठा कर मुंह में डाल लिया था। एकदम गरम आलू मुँह में जाने के बाद अपना तेवर दिखाने लगा था और पाठक दो बार आलू चबा कर अब मुँह खोल कर हवा बाहर फेंक रहा था। रणीराम ने देखा तो उसे हँसी आ गयी। उसने पाठक के खुले मुँह में दो बार फूंका जैसे उसका मुँह कोई प्लेट हो और दो बार कूंचा हुआ आलू प्लेट में रखा कोई व्यंजन जिसे बच्चे को खिलाया जाना हो।
“पाणी...पाणी।” पाठक ने मुँह खोले हुए ही अस्पष्ट आवाज़ में कहा। रणीराम वापस फ्रिज के पास भागा और एक बोतल निकाली तब तक पाठक की आवाज़ आई, “एडम चिल्ड।” उसने वो बोतल अंदर रखी और फ्रीजर से एकदम बरफ जमी बोतल निकाली। पाठक तब तक एक कप चाय उठा चुका था।
“अबे वो मेरा कप है, रख दे। ये तेरा है, तुझे ज्यादा चाहिए थी न चाय।” रणीराम ने ज्यादा भरा हुआ कप सामने खिसकाते हुए कहा और पाठक के पास से कप ले लिया।
धीरे धीरे पाठक ने आलू चबाया और दूसरे आलू को उठा कर हथेली में ही उसे ठंडा करने लगा।
“क्या देखा?” रणीराम ने पूछा।
“अजीब ही था। देखा हम दोनों साथ कहीं भाग रहे हैं। भागते हुए एक पहाड़ पर पहुँच गए। ठुल्ले दिखाई तो नहीं दे रहे लेकिन उनकी गाड़ी के सायरन की आवाज़ एकदम पास से आ रही है। हम दोनों दो पहाड़ों के बीच में एक पतली चट्टान से गुजर रहे हैं। मैं आगे तू पीछे। एक आदमी के ही जाने की जगह है। मुझे एक सेकंड के लिए लगा जैसे तू मुझे धकेलने वाला है। मैं डर के पीछे पलटा और मेरा पाँव फिसल गया. नीचे हज़ारों फुट गहरी खाई। सीधा खाई में गिरा। झटके से नींद खुल गयी उसके बाद बहुत कोशिश की, नहीं लगी। पूरा शरीर पसीने पसीने हो गया था।” पाठक के शरीर में सपना सुनाते हुए झुरझुरी दौड़ गयी जिसे रणीराम ने भी महसूस किया।
“होता है। समय ठीक नहीं चल रहा ना। सब कुछ निगेटिव है।” रणीराम ने सांत्वना देने की कोशिश की। उसे पता था कि पाठक की बेटी की शादी ठीक नहीं चल रही। पिछले साल सारी जमा पूँजी लगा कर उसने बेटी को मुंहमांगा दहेज़ दे कर शादी की थी लेकिन जब उसने सुना कि अच्छे सरकारी पोस्ट पर बैठा दामाद उसकी बेटी पर हाथ उठाता है तो उसका मन खट्टा हो गया। उसने बेटी को शुरू से समझाया था कि वो जब चाहे अपने पति को छोड़ के घर वापस आ सकती है। हाथ उठाने वाले पति के खिलाफ वो तलाक का केस डाले तो उसका पिता हमेशा उसके साथ रहेगा। लेकिन बेटी का कहना था कि उसके परिवार में औरतों पर हाथ उठाने की पुरानी परम्परा रही है और ससुर आज भी गाहे बगाहे सास को एकाध झापड़ लगा देते हैं। उसका पति पढ़ा लिखा है इसलिए कभी किसी के सामने उसे नहीं मारता बल्कि अकेले में अपने गुस्से का इज़हार करता है। वैसे भी माँ के जाने के बाद पिता वैसे ही मुश्किल से ज़िन्दगी बिता रहे हैं और वो पिता पर बोझ नहीं बनना चाहती। उसने बताया था कि आवास विकास में क्लर्क के पद पर तैनात उसका पति रात में बिस्तर पर उससे सबसे ज्यादा नाराज़ इस बात पर होता है कि जब उसके बाप ने कहा था कि वो अपनी बेटी की विदाई चारपहिया में कर सकता है तो उसने आखिर कार दिया क्यों नहीं।
“तो यहाँ से पापा जी ने ही तो कहा था कि कार की जगह आठ लाख कैश दे दो, कार हम खुद खरीद लेंगे।” बेटी ने हल्का प्रतिवाद किया तो पति भड़क गया था।
“अरे कार मुझे चलानी थी ना, इनको तो कैश गिनने से मतलब है। तेरे बाप को सोचना चाहिए था या फिर मुंह नहीं खोलना चाहिए था।”
बेटी ने फिर से बाप का बचाव किया था और उसके गाल पर पहला थप्पड़ पड़ा जो अब गाहे बगाहे पड़ता रहता था।
पाठक ने रणीराम के साथ मिल कर आख़िरी वारदात की थी और पहली बार एक साथ दोनों को अपनी बढ़ती उम्र का एहसास हुआ था। रणीराम तो खैर बीमार था लेकिन पाठक भी असफल वारदात के बाद उस रात भागता-भागता हांफ गया था। मोहल्ले के अलर्ट लोगों की भीड़ ने उनका पीछा करीब एक किलोमीटर तक किया था। पाठक रणीराम के थूक में लाल रंग निकलता देख हैरान हुआ था कि उसने पान कब खाया। रणीराम ने बताया कि ये मामला पिछले एक महीने से है और उसने चेक नहीं करवाया है। पाठक की ज़िद पर रणीराम ने चेकअप करवाया था। वो दिन और आज का दिन है कि रणीराम के सारे पैसे इलाज में फुंक जाने के बाद वो उस बीमारी के और बिगड़े स्वरुप के साथ ख़ाली जेब खड़ा है। पाठक ने दामाद को छोटी मोटी कार देने का सोचा था लेकिन उसे क्रेटा चाहिए थी जिसकी ऑन रोड प्राइस बारह लाख से ऊपर ठहरती थी। कुछ पैसे और जेवर जो इसके पहले की वारदातों के बचे रह गए थे, वो पाठक के ही पास थे। कुल मिला कर पन्द्रह लाख कैश और चार पांच लाख के जेवर थे जिनके बँटवारे के लिए वो आज इकठ्ठा हुए थे। इस इकठ्ठा होने में ये स्वीकृति भी थी कि अब उनकी उम्र ये सब काम करने की नहीं रही और जो भी धन हिस्से में आ रहा है, उसको लेकर कोई छोटा मोटा धंधा शुरू किया जाए। रणीराम किराने की दुकान खोलने के पक्ष में था तो पाठक मोबाइल एसेसरीज की दुकान डालना चाहता था।
“मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ मेरे जाने के बाद मेरी बीवी को भीख न मांगनी पड़े। कहाँ बेचारी गयी थी मायके के घर में अपना एक कमरा मांगने, कहाँ अपनी इज्जत के ही लाले पड़े हैं।” रणीराम की आवाज़ में बहुत अफसोस था। पाठक के चेहरे पर भयानक घिन और गुस्सा आया।
“उसको अपने भाई को बताना चाहिए था। हल्ला मचा देना चाहिए था। छी...सोच के घिन आती है।”
रणीराम ने पाठक की ओर देखा। वो उसका सच्चा दोस्त है। पैंतीस से अठावन की उमर तक दोनों को कभी किसी की ज़रूरत नहीं पड़ी। एक दूसरे का साथ इतनी शिद्दत से निभाया कि डेढ़ लाख का इनामी होने के बावजूद पुलिस के पास इनकी कोई हालिया फोटो नहीं है। थाने में जो तस्वीरें लगी हैं वो बीस साल पुरानी हैं जिन्हें देख कर रणीराम को ही लगता है कि ये दोनों उस ज़माने की फिल्मों के हीरो हैं कोई चोर लुटेरे नहीं। उसने भुजिया ख़तम करते हुए अपनी चाय का आखिरी घूँट मारा।
“कैसा लगा?” उसने पाठक से पूछा जो लपालप भुजिया खाए जा रहा था।
“अद्भुत! तेरे हाथ का जादू एक बार और महसूस करना चाहता था। रसोई का राजा है तू। कितना नमक खा चुका हूँ तेरा, अंदाजा नहीं है।” पाठक के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे वो आखिरी बार रणीराम के हाथ की भुजिया खा रहा है और इस बात का उसे बेहद अफसोस है। रणीराम के अंदर डर और हिचक की एक लहर दौड़ गयी। उसे लगा उसकी चोरी पकड़ी गयी है। उसने तुरंत पैंतरा बदला।
“अबे फिर खा लेना। कल ही थोड़ी मर रहा हूँ।” रणीराम ने माहौल को हल्का किया।
“मरने से पहले एक बार और खिलायेगा ना? प्रॉमिस कर ले।” पाठक भी चुहल में शामिल हुआ।
“मरते हुए भी खिला दूंगा यार। तू बोलेगा तो चिता से उठ के तेरे लिए आलू फ्राई कर दूंगा फिर वापस लेट जाऊंगा।” रणीराम ने हँसते हुए कहा। पाठक भी हँसा और प्लेट ख़ाली कर सिंक की तरफ गया। प्लेट और चाय का कप धुलते हुए उसने देखा कि रणीराम ने बैग के जेवर और नगदी वहीँ बिस्तर पर ख़ाली कर दिए हैं।
“तू गिनेगा?” रणीराम ने पाठक की ओर देखते हुए पूछा। पाठक ने वहीँ से जवाब दिया।
“तू बाँट।”
रणीराम मुस्कराया। पाठक हमेशा अपने हाथ से माल का बँटवारा करता था। हालाँकि दोनों एक दूसरे के साथ पूरी ईमानदारी से फेयर बंटवारा ही करते थे लेकिन पाठक को लूट का माल अपने हाथों से बाँटना बहुत पसंद था। शुरुआती बहुत सालों तक वो अपने अपने हिस्से से दसवां हिस्सा धर्मार्थ कार्यों के लिए अलग करते थे लेकिन पिछले कुछ सालों से ये क्रम टूट गया था।
“दशमांश निकाल लेना।” पाठक ने वहीँ से कहा। रणीराम को देख के झटका लगा कि हमेशा अपने ब्राह्मण होने का लोड लेकर चलने वाला पाठक उसके भी कप प्लेट धो रहा था।
“अबे छोड़ दे ना, बर्तन पूरा धुलना ही है मुझे।” रणीराम ने ऊँची आवाज़ में कहा लेकिन पाठक की नज़रों में अपने दोस्त के लिए अपार प्रेम दिख रहा था।
“अपने में से निकाल या नहीं, मेरे में से निकालना।” पाठक की बात पर रणीराम सहमत नहीं हुआ।
“कोई मतलब नहीं। कहीं कोई भगवान तो है नहीं, सब मन का वहम है।”
“तुझे लगता है तो ठीक है, मैंने कुछ मनौती मानी है।” पाठक हाथ पोंछता हुआ बिस्तर के पास पहुंचा।
“तेरी मनौती ना, हस्पताल के डॉक्टरों से ज्यादा मजबूत नहीं है।” रणीराम ने पुरानी दोस्ती का सूत्र पकड़ने का सबूत पेश करना चाहा। पाठक ने उससे साफ़ इनकार कर दिया।
“अबे तेरा टिकट तो कट चुका है। ये मैंने अपने लिए मानी है। ये ठीक हो गया काम तो कल से तन से तो गलत काम बंद कर ही चुका हूँ, मन से भी बंद कर दूंगा।”
रणीराम बिस्तर की टेक लगा कर बैठ गया। उसने माल पाठक के सामने सरका दिया कि वही बाँटे।
“मान न मान, हमें हमारे पाप ही वापस मिले हैं। जो हमारे साथ हुआ, हमारे अपनों के साथ हो रहा है, सब हमारे पापों का फल है।” रणीराम ने निराशा भरी आवाज़ में कहा।
“सुना था बुढ़ौती में बड़े से बड़ा पापी भगत हो जाता है। तुझे देख के विश्वास हो रहा है।” पाठक ने फिर से बात को हँसी में उड़ाया। वह नोटों और गहनों को दो हिस्सों में बाँटने लगा था। रणीराम ने देखा पैसे तो पाठक ने बराबर बांटे थे, गहनों में वो हमेशा से उलट बेहद उदारता से पेश आ रहा था। गले की दो चेनें उसने रणीराम के हिस्से में अधिक रख दी थीं।
“ये क्या?” रणीराम ने जिज्ञासा दिखाई।
“ऐश कर।” पाठक की आवाज़ में चाहते हुए भी चुहल की जगह एक अफ़सोस था जिसे रणीराम समझ नहीं पाया। उसने दोनों चेनें वापस पाठक की तरफ रख दीं।
“तू ऐश कर ले आज।” पाठक ने हैरानी भरी नज़रों से रणीराम को देखा। वो मुस्कराया। उसने इशारे से एक सैल्यूट मारते हुए अपना हिस्सा वापस फटेहाल बैग में डाल लिया।
“मैं तैयार हो लेता हूँ। चलते हैं एक राउंड गोल चक्कर तक मार के वापस आ जायेंगे।” रणीराम ने प्रस्ताव दिया। पाठक ने भौहें उचकायी।
“सिगरेट चल रही है क्या?”
“और क्या? अब कुछ भी क्यों बंद करना?” रणीराम की आवाज़ की दृढ़ता से पाठक भी प्रभावित हुआ।
“हाँ सही बात है। चलते हैं चल।” पाठक सामान समेटने लगा।
“टी शर्ट पहन के आता हूँ।” रणीराम अंदर के कमरे में जाते हुए बोला।
“ठीक।” पाठक ने कहा और बिस्तर पर पसर कर रणीराम के इंतज़ार की मुद्रा में आ गया।
रणीराम अंदर आया। उसने टी शर्ट पहनने की बजाय पहनी हुई बनियान भी उतार दी और एक मिनट दरवाज़े के ही पास खड़ा रहा। उसने पर्दा हटा कर कमरे में झाँका। पाठक शर्ट के बटन ढीले कर बिस्तर पर अधलेटा हो गया था। यही मौका था।
उसने अंदर वाले बिस्तर के नीचे दबे चाकू को निकाला। चाकू में धार तेज थी। रणीराम का मन एक बार फिर से कमज़ोर हुआ। इतने पुराने दोस्त को मारने के बाद इतनी बड़ी दुनिया में उसका कोई रह नहीं जाना था लेकिन मन को उसने ये कह के मनाया था कि आखिर एकाध महीने में उसे वैसे भी दुनिया से चले जाना है तो मोह माया का क्या फायदा। जाने से पहले अगर पत्नी और बेटे के लिए कुछ छोड़ कर नहीं गया तो जितनी वाहियात उसकी ज़िन्दगी चल रही थी, मौत उससे भी बदतर होगी। उसकी बीवी आज के आधुनिक समय को देखते हुए सावित्री से भी बढ़ के है। उसने सब गहनों के बाद अपना मंगलसूत्र तक गिरवी रख दिया था ताकि पति ठीक हो सके। पति अब नहीं ठीक हो सकता तो कम से कम पत्नी का भविष्य तो इतना अँधेरे में न हो जितना यहाँ से दिख रहा है।
रणीराम ने चाकू पीछे छिपा लिया और फिर से परदे के पास आया। पाठक सिर ऊपर उठाये छत को एकटक देख रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वो अपने जीवन की सबसे बड़ी उधेड़बुन में है। ऊपर देखते देखते उसकी आँखें बीच बीच में कुछ सेकंड्स के लिए बंद हो रही थीं। रणीराम समझ गया यही मौका है जब उसे आक्रमण कर देना है। इस बार जैसे ही पाठक की आँखें बंद हुईं, रणीराम पलक झपकते ही पाठक के सामने था और उसका चाकू वाला हाथ पाठक की गर्दन पर चल गया।
पाठक झटके में हलकी चीख से उठा और रणीराम के हाथ से चाकू छूट गया। इत्तेफ़ाक था कि वो चाकू बिस्तर पर गिरने से पहले पाठक के हाथ में फँस गया और पाठक ने अपने जीवन की आखिरी फुर्ती दिखाते हुए उसे रणीराम के पेट में उतार दिया। कायदे से पाठक का स्टाइल था चाकू पेट में डाल कर तीन बार घुमाने का जिससे नसें और पसलियाँ बेकाम हो जाती थीं लेकिन इस बार का मामला वैसा नहीं था। पाठक की गर्दन के घाव से लगातार खून बह रहा था। उसने अपनी गर्दन पर हाथ रखा और खून दबाने की कोशिश की लेकिन धार तेज़ थी। पाठक की आँखों के सामने अँधेरा होने लगा था। उसकी चेतना लुप्त हो रही थी। रणीराम ज़मीन पर गिर गया था लेकिन पूरे होश में था। चाकू हालाँकि पेट में जिस जगह लगा था, वो अपने अनुभव से समझ गया था कि जल्दी से जल्दी डॉक्टर की जरूरत है। उसने खुद को किसी तरह उठाया और पास रखी टी शर्ट को पेट पर दबाने लगा। पाठक उसे देख रहा था। पाठक अँधेरे में जाते हुए आखिरी बार मुस्कराया। रणीराम समझ नहीं पाया कि वो आखिर मुस्करा क्यों रहा है। पाठक ने शर्ट की जेब में हाथ डालने की कोशिश की लेकिन उसका हाथ बुरी तरह काँपने लगा था। पूरी कोशिश के बाद भी वो हाथ को शर्ट की जेब में नहीं डाल पाया और एक तरफ लुढ़क गया।
रणीराम की आँखों में दर्द और दोस्त को मारने के एहसास से आंसू फिर से भर आये थे। उसने किसी तरह वहीं पड़ी कल की पहनी हुई शर्ट में एक बांह डाली और पेट पर टी शर्ट लपेट कर उसे एक गमछे से बाँध दिया। शर्ट की दूसरी बाँह में मुश्किल से हाथ डाला। उसने अपने गहने और पैसे भी पाठक के बैग में किसी तरह भरे। उसको कमज़ोरी महसूस होने लगी थी। उसे जल्दी से जल्दी डॉक्टर के पास पहुंचना था। उसने मोबाइल पर रंजन का नम्बर डायल कर दिया जो उसे गली के बाहर से पिक कर लेता। इमरजेंसी के समय रंजन हमेशा एकदम समय से आता था और समस्या का समाधान करता था भले उसकी कीमत ज्यादा हुआ करती थी। रणीराम को इस समय कीमत की फिकर नहीं थी। वो जल्दी से जल्दी डॉक्टर के यहाँ पहुँच कर इतना ठीक हो जाना चाहता था कि कम से कम एक हफ्ते से पहले न मरे। इस एक हफ्ते में उसे बीवी और बेटे के भविष्य के सारे इंतजाम कर देने थे और फिर चैन से मरना था। नम्बर एक बार में नहीं उठा तो वो थक कर पाठक की लाश के पास बैठ गया और दुबारा नम्बर लगाने लगा।
उसने सोचा आखिर पाठक शर्ट की जेब से क्या निकालना चाहता था और क्यों मुस्करा रहा था। उसने पाठक की जेब में हाथ डाला। जेब से एक छोटा सा पाउच निकला जिसमें अनाज को कीड़ों से बचाने वाला सल्फास था; आधे से ज्यादा पैकेट ख़ाली था। उसे याद आया जब वो फ्रिज से पाठक के लिए पानी निकालने मुड़ा था तो वो उसकी चाय का कप उठा रहा था। उसे समझ आ गया कि क्यों पाठक लगातार किचेन में बना हुआ था और उसके कई बार कहने के बावजूद वो अंदर जाकर कमरे में क्यों नहीं बैठ रहा था। इस पैकेट को देखते ही रणीराम को अपने पेट में बाहर से जो दर्द हो रहा था, उससे भयानक दर्द भीतर से महसूस हुआ। रंजन ने कॉल बैक किया तो वो मुश्किल से बोल पाया कि वो जल्दी से गली के मोड़ से उसे पिक करे। रंजन ने कहा कि वो निकल रहा है और हद्दाहद्दी दस पन्द्रह मिनट में वहाँ पहुँच जाएगा। वो जल्दी से उठा, कंधे पर बैग डाला और पेट को कपड़े से दबाए बाहर निकला।
गली में सब उसे देख रहे थे। पेट में दबाया गया कपड़ा एकदम लाल हो चुका था। रणीराम जैसे ही गली के मोड़ पर पहुंचा, उसे उलटी आई और वो उलटी करता हुआ बैठ गया। उसे सूरज एकदम अपने सिर के पास उगा हुआ महसूस हुआ। उसने सिर उठा कर आसमान में देखा। उसे लगा बादलों में पाठक का चेहरा बना हुआ है और वो उसे देख कर मुस्करा रहा है। रणीराम के चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी। उसे लगा अभी जो कुछ हुआ है, वो सिर्फ एक दुखद सपना है। वो टी शर्ट पहनने अंदर के कमरे में आया था और शायद पाठक को लेटा देख खुद भी थोड़ी देर के लिए लेट गया था। अभी पाठक उसे आवाज़ देता हुआ अंदर आएगा और उसकी आँख खुल जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो वो चुपचाप उठेगा, पाठक के साथ गोल चक्कर तक आकर सिगरेट पिएगा और उसको गले लगा कर विदा करेगा। वापस घर जायेगा और पाठक के दिए ज़हर से भले मर जायेगा लेकिन इस लालच भरे वाहियात प्लान पर अमल नहीं करेगा।
ये सोचने पर सड़क पर बैठे हुए भी उसके होंठों पर एक हलकी मुस्कान आ गयी। लोग उसके आसपास इकठ्ठा होने लगे थे। उसे याद आया कि पाठक के होंठों पर भी ऐसी ही हलकी मुस्कान थी। सच कहते हैं लोग, उसमें और पाठक में बहुत कुछ एक जैसा है। आँखें बंद होने से तुरंत पहले उसे एहसास हुआ कि अपने बीवी बच्चों के साथ से ज्यादा अच्छा वक़्त उसने पाठक के साथ बिताया है और अपने परिवार से ज्यादा ख़ुश वो पाठक के साथ रहा है। उसके होंठों पर फैली मुस्कान और लम्बी हो गयी थी और जिस तरह उसका शरीर ज़मीन पर लहरा कर गिरा, ऐसा लगा ये मुस्कान स्थायी हो गयी है।
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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