उद्भ्रान्त का आलेख 'सीमित संसाधन, संघर्षधर्मी वैचारिकता का लघु पत्रिका आंदोलन'

 

उद्भ्रान्त 



'लघु पत्रिका' सामान्य तौर पर उसे माना जाता है जिसे निजी या अत्यल्प साधनों द्वारा प्रकाशित किया जाता हो। जिसके प्रकाशन में किसी महत्त्वपूर्ण प्रतिष्तोठान का हाथ न हो। आजादी के पहले अनेक ऐसी पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं, जिन्होंने अंग्रेजी सरकार को परेशान कर दिया। आजादी के बाद भी ऐसी पत्रिकाओं का प्रकाशन जारी रहा जिन्होंने समय समय पर सरकारों को उनके दायित्व बोध से अवगत कराने का कार्य किया। बदली परिस्थितियों में लघु पत्रिका आन्दोलन के समक्ष नई चुनौतियां हैं। युवा जैसी पत्रिका के सम्पादक उद्भ्रान्त इन चुनौतियों की तरफ इशारा करते हुए उचित ही लिखते हैं 'अब स्थितियां-परिस्थियां बदल चुकी हैं। पत्रिकाओं के संदर्भ में ही नहीं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो राजनीतिक आकाश में भी घना कोहरा छाया है। नई पीढ़ी उस तरह संघर्ष करने में विश्वास नहीं करती। उसे पठन-पाठन में भी रुचि नहीं। प्रौद्योगिकी बहुत आगे बढ़ गई है। बाजार ने विश्व पर आधिपत्य स्थापित कर लिया है। हर व्यक्ति के हाथ में स्मार्ट फोन है और कृत्रिम बुद्धिमत्ता आपको हर मामले में सलाह देने और निर्देशित करने को तैयार है।' यह आलेख 'प्रेरणा अंशु' पत्रिका से साभार लिया गया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं उद्भ्रान्त का आलेख 'सीमित संसाधन, संघर्षधर्मी वैचारिकता का लघु पत्रिका आंदोलन'।


'सीमित संसाधन, संघर्षधर्मी वैचारिकता का लघु पत्रिका आंदोलन'


उद्भ्रांत 



'लघु पत्रिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जैसा मेरे ध्यान में है- सातवें दशक के अंत में देखने में आया, वर्ष 1968 के आसपास, जब इलाहाबाद से मार्कण्डेय ने 'कथा' का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। 'कथा' निजी प्रयासों से निकाली गई ऐसी पत्रिका थी, जिसमें साहित्य के साथ व्यवस्था विरोधी वामपंथी राजनीति से संबंधित विचारोत्तेजक सामग्री भी थी। स्वयं मार्कण्डेय वैचारिक रूप से वामपंथी राजनीति से संबद्ध थे, किंतु उनकी संपादन-दृष्टि में व्यापकता का समावेश दिखा-जब उन्होंने लोहियावादी विचारों और लेखकों से परहेज नहीं किया। इसका संकेत व्यावसायिक पत्रिका 'माया' के वृहद्‌काय 'भारत 1965' जैसे अव्यावसायिक वैचारिक विशेषांक का संपादन करते हुए उन्होंने पहले ही दे दिया था, जिसमें 'नई कहानी' आंदोलन- जिसके वे स्वयं अग्रणी कथाकार थे- के अतिरिक्त 'अकहानी' आंदोलन से जुड़े कथाकारों को भी शामिल करने का साहस उन्होंने दिखाया था।


'कथा' ने प्रवेशांक से ही एक ऐसी पत्रिका के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर ली, जो सीमित संसाधनों के बावजूद अपनी प्रखर संघर्षधर्मी वैचारिकता से हमें उद्वेलित करने में समर्थ थी। चूँकि पत्रिका हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों द्वारा नहीं निकाली जा रही थी और इन पत्रिकाओं की तरह उसके सामने वैसे व्यावसायिक लक्ष्य भी नहीं थे, अतः उसे 'लघु पत्रिका' का पद दिया जा सकता था। संसाधनों में लघुता के बावजूद उसका फलक बड़ा था। इस तरह की लघु पत्रिकाओं की जल्दी ही बाढ़ आ गई। छोटे-बड़े नगरों और कस्बों से अनेक प्रतिबद्ध कवि, रचनाकार, संस्कृतिकर्मी उठ खड़े हुए और आर्थिक संकटों से जूझते हुए भी एक-एक कर ऐसी पत्रिकाएं निकलती गई। धीरे-धीरे इन्होंने लघु पत्रिकाओं के एक व्यापक आंदोलन का ही रूप ले लिया। इस दृष्टि से मार्कण्डेय को उस लघु पत्रिका आंदोलन का जनक कहा जा सकता है, जिसने आठवें दशक में अपनी महत्ता का जयघोष किया। मगर यह 'लघु पत्रिका आंदोलन' आसमान से टपकी चीज तो नहीं थी। आखिर यह कहाँ से उद्भूत हुआ और इसके पीछे कौन से कारक तत्व सक्रिय थे, जिनके दबाव में कालांतर में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकारिता का इतिहास बदल देने वाले इस महत्त्वपूर्ण आंदोलन का जन्म हुआ।


अगर 'लघु पत्रिका' को निजी या अल्प साधनों द्वारा निकाली गई पत्रिका ही माना जाए, तो स्वाधीनता पूर्व के बीसवीं सदी के भारत में समय-समय पर अनेक पत्रिकाएं ऐसी निकलती थीं, जिनका योगदान कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। एक ओर भारतेंदु की 'कवि वचन सुधा' से ले कर 'चाँद', 'रूपाभ', 'कर्मभूमि', 'हंस', 'माधुरी', 'मतवाला' थीं तो 'सरस्वती', 'नया पथ', 'नया जमाना', 'विशाल भारत', 'नई धारा' जैसी पत्रिकाएं भी थीं, जो किसी प्रतिष्ठान से निकल रही थीं। उस काल की पत्रिकाओं का जायजा लेते हुए एक बात यह सामने आती है कि उन्हें निकालने के मूल में भले ही प्रारंभिक कारण किसी बड़े कवि की तत्कालीन प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के यशस्वी संपादकों द्वारा की गई अनुचित उपेक्षा रही हो (प्रसाद, पंत, निराला और माखन लाल चतुर्वेदी), किंतु उन पत्रिकाओं का चरित्र-कभी प्रकट तो कभी प्रच्छन्न रूप से-समकालीन विदेशी शासन से मुक्ति हेतु संघर्ष की अविच्छिन्न अंतर्धारा लिए था। इस अर्थ में वे पत्रिकाएं भी एक तरह से और आज के अर्थ में भी व्यवस्था-विरोध की ही पत्रिकाएं थीं। तो क्या उन्हें भी 'लघु पत्रिकाओं' की संज्ञा से अभिहित किया जाना समीचीन होगा? शायद नहीं।


मार्कण्डेय 


वर्ष 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली तो पूर्व में प्रकाशित पत्रिकाओं का मुख्य कारक तत्व तो दृश्य से हट गया, मगर तब दूसरी समस्याओं ने जन्म लिया। जिनमें विभाजन से होने वाली त्रासदी भी शामिल थी। जिस तरह स्वातंत्र्य पूर्व की अर्द्धशताब्दी में रचे गए साहित्य में राष्ट्री विचारधारा के अतिरिक्त गाँधी, मार्क्स, अरविंद और इनसे अलग हट कर भारतीय रहस्यवाद से ले कर पाश्चात्य छायावाद और स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों का प्राधान्य दिखा, उसी तर्ज पर स्वतंत्रता के बाद के हिंदी लेखन में भी पश्चिम कुछ प्रमुखता से बोलता नजर आया- विभाजन की त्रासदी, राजे-महाराजाओं के खात्मे, गाँधीवादी भूदान आंदोलन और इनके बीच पंडित नेहरू के उदारवादी सोवियत मॉडल के समर्थक होने के कारण एक क्षीण-सी आवाज के साथ सर्वहारा आंदोलन और इन सबसे अलग राम मनोहर लोहिया के साधारण जन के विचार से उद्भूत लेखन के अतिरिक्त। आजादी के छठे दशक के प्रारंभ में जो पत्रिकाएं निकलीं, उनमें ये प्रमुख कारक मौजूद थे। इन पत्रिकाओं में पहले से चली आ रहीं 'हंस', 'विशाल भारत', 'सरस्वती' अपनी चमक काफी हद तक खो चुकी थीं। 'नया पथ' चूँकि साम्यवादी विचार से जुड़ी थी, उसका अपने निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ना जारी था। मगर इस छठे दशक में श्रीपत राय ने भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में 'कहानी' निकाली, अज्ञेय ने 'प्रतीक', अश्क ने 'संकेत' जैसी पत्रिकाएं निकालीं, जो महत्त्वपूर्ण थीं। इस क्रम में 'कल्पना', 'ज्ञानोदय', 'कवि', 'त्रिपथगा' जैसी पत्रिकाओं का भी उल्लेख उतना ही आवश्यक है। मगर क्या इन या इन जैसी कुछ और पत्रिकाओं को भी 'लघु पत्रिका' कहा जा सकता था?


इसी काल में जगदीश गुप्त के संपादन में 'नई कविता' के आठ अंक निकले, जो अज्ञेय के पाश्चात्य प्रभाव से युक्त तथाकथित प्रयोगवादी आंदोलन के बाद कविता द्वारा 'नई' का विशेषण लगा कर अपने नए अवतार की उद्घोषणा थी। आखिर कहानी क्यों पीछे रहती? वहाँ भी 'नई कहानी' आंदोलन का सूत्रपात हो गया। 'नई कविता' के आंदोलन की प्रतिक्रिया में और लोहिया के विचार से प्रेरित हो, साही ने 'लघु मानव' की अवधारणा को साहित्य में रेखांकित किया जो शीघ्र ही विचारोत्तेजक बहसों का केंद्र हो गई। यह 'लघु मानव' वस्तुतः मनुष्य की गरिमा का संवाहक था तो उसकी स्वतंत्रता का भी, और 'लघु' होने के बावजूद अपनी वैचारिक संपन्नता-उसे 'विराटता' भी तो कह सकते हैं-का भी उद्घोष करता था। 'सर्वहारा' के शक्ति-प्रदर्शन के समानांतर साहित्य में पहली बार 'लघु' विशेषण में अपने 'विराट' रूप का संकेत दिया।


सातवें दशक के मध्य में 'इकाई', 'परिकथा', 'शताब्दी', 'कविता', 'वातायन', 'लहर' जैसी पत्रिकाओं के अतिरिक्त पूर्व में मध्य प्रदेश से निकल रही ' 'वाणी', लखनऊ से 'त्रिपथगा' जैसी पत्रिकाएं भी चर्चा में थीं-निश्चय ही अपनी सुरुचिपूर्ण, संतुलित सामग्री के कारण। मगर ये पत्रिकाएं भी 'लघु पत्रिका' के विशेषण से वंचित रहीं। सरस्वती प्रेस सेन भैरव प्रसाद गुप्त और श्रीपतराय के संपादन में निकलने वाली 'कहानी' तथा राजकमल से शिवदान सिंह चौहान के संपादन में प्रकाशित होने वाली 'आलोचना' की इन्हीं थी, मगर प्रतिष्ठान से तो निकल ही रही थी। मगर उन्हें ही क्यों? उस काल की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं को भी क्या 'लघु पत्रिका' पद के अंतर्गत लाया जा सकता था?


जगदीश गुप्त


इसी अवधि में रमेश बक्षी 'ज्ञानोदय' में छोड़ कर दिल्ली आ गए और उन्होंने वर्ष 1968 के प्रारंभ में 'आवेश' निकाला। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाली पत्रिकाओं के प्रति अपना मुखर विरोध दर्ज करते हुए उन्होंने दो किस्तों में समाप्य व अपनी लंबी स्वीकृत कहानी 'पिता' को 'धर्मयुग' से वापस मँगा लिया। 'आवेश' एक तरह से व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरुद्ध पहला धमाका था। मगर उसमें सुचिंतित विचार-दृष्टि का अभाव था। अपने नाम के अनुकूल वह एक ऐसा युवा 'आवेश' था, जो ज्वालामुखी की तरह फूटकर सब कुछ तहस-नहस कर देना चाहता था। यह अलग बात है कि उस 'आवेश' के ठंडा पड़ने के कुछ समय बाद रमेश बक्षी ने अल्पकाल के लिए व्यवस्थित हो कर नेशनल बुक ट्रस्ट की नौकरी पकड़ ली। उनका 'आवेश' अस्थाई था और कोई ठोस वैचारिक शक्ल न ले सका, किंतु उसने ठंडी बर्फ को पिघलाने का काम अवश्य किया। ऐसा महसूस किया जाने लगा कि प्रतिष्ठानों से निकलने वाली व्यावसायिक पत्रिकाओं से पृथक उस तरह की पत्रिकाओं की आवश्यकता आ गई है, जो वैचारिक संघर्ष को तीव्रतर करें और जिनके पीछे व्यावसायिक दबाव न हों। ऐसी पत्रिकाएं, जाहिर है, लेखक समुदाय ही निकाल सकता था, जो स्वयं आर्थिक मोर्चे पर संघर्षरत था। ऐसी पत्रिकाओं को चाहे उनमें कितनी ही बड़ी रचनाएं छपें- 'बड़ी पत्रिका' नहीं कहा जा सकता था। क्योंकि 'बड़ी' से आशय 'व्यावसायिक' मान लिया जाना संभव था।


सन् '73 के बाँदा के ऐतिहासिक सम्मेलन तक इस तरह की कुछ पत्रिकाएं न केवल निकलनी प्रारंभ हो गई थीं, वरन् उन्हें 'लघु पत्रिका' की संज्ञा से अभिहित किए जाने के लिए एक तरह की मौन स्वीकृति सभी जगह उठने भी लगी थी। इलाहाबाद से मार्कंडेय की 'कथा' के अतिरिक्त मथुरा से सव्यसाची के संपादन में 'उत्तरार्द्ध' और आरा से चंद्रभूषण तिवारी के संपादन में 'वाम' का प्रकाशन प्रारंभ हो गया था। जबलपुर से ज्ञानरंजन 'पहल' की शुरुआत कर दी थी। धूमिल ज्ञानरंजन, अमरकांत, शेखर जोशी, आलोक धन्वा और इन पंक्तियों के लेखक जैसे अनेक कवियों कथाकारों की महत्त्वपूर्ण रचनाएं इनमें छप रही थीं। व्यावसायिक पत्रों की 'बड़ी' दुनिया के विरुद्ध शनैः शनैः इन्हें 'लघु पत्रिका' कहने का सिलसिला शुरू हुआ।


ठीक यही समय था, जब इन पंक्तियों के लेखक के भीतर भी एक लघु पत्रिका निकालने की इच्छा करवट ले रही थी, जिसके चलते उसने कुछ ही समय बाद 'युवा' नाम से प्रस्तावित पत्रिका का परिपत्र वर्ष 1973 के मध्य में देश भर के लेखकों के पास भेजा। अंततः वर्ष 1974 के उत्तरार्द्ध में पत्रिका का प्रवेशांक धमाके के साथ हिंदी जगत के समक्ष आया। मगर यह प्रश्न अपनी जगह है कि ऐसी पत्रिकाओं को 'लघु' का विशेषण या पद देने के पीछे कौन-सी भावना थी? उसके मूल में कहीं साही का 'लघु मानव' का पद ही तो कार्य नहीं कर रहा था? सृष्टि की विराट व्यवस्था के विरुद्ध मानव के 'लघु' होने का विशेषण एक तरह से उचित तो था ही, किंतु उसके भीतर 'वामन' की अर्थ-ध्वनियां भी व्याप्त थीं और सिद्ध करती थीं कि यह मानव 'लघु' भले ही दिखता हो, मगर गुण की दृष्टि से यह विराट भी है। कालांतर में, यानी विगत आधी शताब्दी में हम उस 'लघु मानव' द्वारा चंद्रारोहण के बाद भी शांत बैठने और मंगल, बुध, गुरु व शुक्र की ओर कदम बढ़ाने के सार्थक व अनथक प्रयास करते रहने के साक्षी रहे हैं।


इस पृष्ठभूमि में जरा 'लघु पत्रिका' पद का विश्लेषण करें और विगत 30-35 वर्षों की अवधि में लघु पत्रिकाओं द्वारा राष्ट्र की परिवर्तनशील व चुनौती भरी परिस्थितियों-जिनमें आपातकाल भी शामिल था, में अदा की गई भूमिका का स्मरण करें तो आपको स्पष्ट हो जाएगा कि इन तथाकथित 'लघु पत्रिकाओं' ने, तथाकथित 'बड़ी पत्रिकाओं' के मुकाबले कहीं ज्यादा सार्थक, बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की-राजनीतिक परिस्थितियों के विश्लेषण में, साहित्य की सामाजिक भूमिका निर्धारित करने में और एक सांस्कृतिक प्रहरी के रूप में। उनकी इसी भूमिका ने आठवें दशक में एक व्यापक लघु पत्रिका आंदोलन का रूप ले लिया। देश के विभिन्न भागों से, छोटे-छोटे प्रयासों द्वारा ऐसी सैकड़ों पत्रिकाएं उस समय निकल रही थीं, जो व्यवस्था विरोध को एक धारदार प्रभावी शक्ल देती थीं। इन पत्रिकाओं के स्वरूप व चरित्र में आजादी के पूर्व की ओर छठे व सातवें दशक में निकलने वाली पत्रिकाओं से पर्याप्त भिन्नता थी। इसके मूल में तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का भी हाथ था।


आजादी के बाद से सातवें दशक के मध्य तक नेहरू का प्रभाव बहुत गहरा था। उनकी उदारवादी छवि सोवियत मॉडल के निकट थी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस की सहयोगी भूमिका में नजर आती थी। यत्किंचित् प्रतिरोध लोहिया की समाजवादी विचारधारा की ओर से था और इसीलिए उसने तत्कालीन समय में बुद्धिजीवियों को भी अपनी ओर आकर्षित किया। किंतु यह विचार नेहरू के समाजवादी ग्लेमर के आगे नहीं ठहर सका। साम्यवाद उस समय अखंड था-कम्युनिस्ट पार्टी एक थी। किंतु उसे अपनी भूमिका तय करने में कुछ दुविधा हो रही थी। इसी असमंजस में प्रगतिशील लेखकों के एक-दो सम्मेलन हुए, जिनमें सबने खुल कर हिस्सा लिया।


सातवें दशक की समाप्ति तक मैंने यह लक्षित कर लिया था कि साहित्य में लघु पत्रिकाओं की साहित्य व समाज में व्यापक और महत्त्वपूर्ण भूमिका होने वाली है। वैचारिक संप्रेषण के साथ-साथ विशेष रूप से रचना और आलोचना के क्षेत्र में। साहित्य के विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका अवश्यंभावी लग रही थी। मैं देख चुका था कि ऐसी जो भी पत्रिकाएं निकल रही थीं, उनमें अनेकशः महत्त्वपूर्ण और प्रयोगधर्मी रचनाधर्मिता प्रकट हो रही थी। उनकी उपेक्षा करना या उन्हें हाशिए पर डालना संभव नहीं था। उनका चरित्र व्यवस्था विरोधी था और वे समाज और साहित्य में स्थापित मूल्यों के विरुद्ध संघर्षरत थीं।


भैरव प्रसाद गुप्त


सातवें दशक के अंत में कम्युनिस्ट पार्टी के दोफाड़ होने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई और अनेक प्रखर मार्क्सवादी चिंतक उस पार्टी के तहत प्रतिरोध की संस्कृति को पैदा करने में सक्रिय हो गए। चारु मजुमदार के नेतृत्व में अर्द्ध सामंती-पूँजीवाद के खात्मे के लिए नक्सलबाड़ी से उठे सर्वहारा क्रांति के सशस्त्र आंदोलन ने नए बुद्धिजीवियों को आकर्षित करना प्रारंभ किया-विशेषकर कवियों को। इन पंक्तियों के लेखक के कुछ वर्ष भी उसके प्रभाव में रहे। श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा बांग्लादेश का युद्ध जीतने, बैंकों का राष्ट्रीयकरण और भूतपूर्व राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स की समाप्ति-ये तीन अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाएं थीं, जो विभिन्न वामपंथी विचारों के केंद्र की राजनीति में संबंध बनाने या बनाने की दिशा में कारक सिद्ध हो थीं। किंतु इन सबसे बड़ी, असरदायक और निर्णायक घटना थी वर्ष 1975 में आपातकाल की घोषणा। आपातकाल ने बुद्धिजीवियों को अपना पक्ष चुनने के लिए बड़ा अवसर दिया। अनेक तथाकथित बुद्धिजीवियों के मुखौटे रातों-रात उतर गए।


यहाँ ध्यान देने की बात है कि आपात काल की घोषणा के मात्र दो वर्ष पूर्व ही बाँदा में बाबू केदार नाथ अग्रवाल के संयोजन में वह ऐतिहासिक प्रगतिशील लेखक सम्मेलन हुआ, जिसमें सभी प्रगतिशील धाराओं के लेखकों को मुक्त भाव से आमंत्रित किया गया था। यही कारण है कि उसमें एक ओर यशपाल, अमृत राय, प्रकाश चंद्र गुप्त, शिवदान सिंह चौहान, सज्जाद जहीर थे, तो दूसरी और मार्कण्डेय, भैरव प्रसाद गुप्त, चंद्रभूषण तिवारी, सव्यसाची, कर्णसिंह चौहान, मनमोहन और वेणुगोपाल के साथ इन पंक्तियों का लेखक भी था।


वर्ष 1972 के अंत में युवा चेतना फूट पड़ने के लिए बेताब थी और उसे एक ऐसे मंच की तलाश थी, जो अपने नाम से ही युवा चेतना के ज्वालामुखी के फूटने का उद्घोष करे। इन परिस्थितियों में मैंने 'युवा' के प्रकाशन का संकल्प लिया, जो आसान न था। मैं-येन-केन-प्रकरेण पूरी हुई-अपनी स्नात्तकोत्तर पढ़ाई के बाद रोजगार तलाशने के क्रम में एक-दो अल्पकालीन अस्थाई नौकरियां करने के बाद पुनः उसी जद्दोजहद में था। जबकि पत्रिका निकालने के लिए ठोस आर्थिक आधार की जरूरत थी। मेरे पास दृढ़ इच्छाशक्ति को छोड़, धेले भर की पूँजी भी नहीं थी। कवि सम्मेलनों की सार्थकता को लेकर मोहभंग शुरू हो चुका था। कुछ पैसों की आमद को छोड़ वहाँ से वक्त की बरबादी के सिवा कुछ नहीं मिलता था। इसलिए मंच से किनारा करना शुरू कर दिया। इस तरह कभी-कभार वहाँ से मिलने वाली आय भी बंद हो गई। ले-दे कर एकमात्र तरीका विज्ञापन प्राप्त करने का था, मगर वह कहाँ आसान था! इसलिए वर्ष 1972-73 में जारी किए गए 'युवा' के परिपत्र को लगभग दो वर्ष बाद अगस्त, 1974 में ही पत्रिकारूपी अमली जामा पहनाया जा सका। 


पत्रिका की मेरी परिकल्पना के पीछे एक और पत्रिका निकालना भर नहीं था। - अगर आठवें दशक के प्रारंभिक दौर को आप स्मरण करें, तो-जैसा कि संकेत कर चुका हूँ-पाएंगे कि नक्सलबाड़ी से उपजा आंदोलन साहित्य को अपनी चपेट में ले - चुका था 'सारिका' में कमलेश्वर ने - अनिल बर्वे के मराठी उपन्यास 'थैंक यू - मिस्टर ग्लाड' का एक ही अंक में संपूर्ण अनुवाद छापा था। कलकत्ते से डॉ. माहेश्वर के संपादन में हंसराज रहबर की - "निकट भविष्य में (संभवतः वर्ष 1976-77 तक) 'क्रांति' (हो जाने)" की भविष्यवाणी वाली विवादास्पद भूमिका के साथ 'शुरुआत' जैसा चार (तत्कालीन) युवा कवियों का विस्फोटक संकलन आ चुका था। लंबे समय के बाद - बाँदा में प्रगतिशील लेखन के व्यापक - आधार को ले कर प्रस्तावित सम्मेलन की - तैयारियां चल रही थीं, आलोक धन्वा की 'जनता का आदमी', वेणु गोपाल की 'जंगलगाथा' और स्वयं मेरे द्वारा भी 'नाटकतंत्र' जैसी लंबी कविता लिखी जा - चुकी थीं। इन परिस्थितियों में 'युवा' का प्रारूप तैयार करते समय मुझे लगा कि - वैचारिक स्तर पर जिस संघर्ष की पूर्वपीठिका पत्रिका के द्वारा तैयार की जानी है, उसमें गीत की गुंजाइश नहीं होगी। गीत-नवगीत या ऐसी ही कोई छंद कविता उस संघर्ष को डाइल्यूट करने का काम करेगी। ध्यान रखेंगे कि 'युवा' का परिपत्र वर्ष 1973 में जारी हुआ था और उस समय तक कविता में 'जनगीत' जैसे किसी काव्य रूप ने अपनी दस्तक नहीं दी थी-यद्यपि वह निकट थी।


बाँदा में ही धूमिल अच्छे मित्र हो गए थे। इलाहाबाद के लेखक सम्मेलन के संदर्भ में उनका एक पत्र मुझे मिला, जिस पर मैंने असहमति व्यक्त की। तब उनका एक और पत्र मिला। इन दोनों पत्रों को उनकी कविता 'नींद के बाद' के साथ ही 'युवा' में प्रकाशित किया गया। उसके मात्र साल भर के अंदर ही धूमिल गंभीर रूप से अस्वस्थ हो कर दिवगंत हो गए। मैं उन्हें देखने लखनऊ मेडिकल कॉलेज में-जहाँ उनकी चिकित्सा चल रही थी-गया था।





'युवा' का पहला अंक अक्तूबर, 1974 में निकला था। उन्हीं दिनों आगरा में हुए प्रगतिशील लेखक सम्मेलन के दौरान 'युवा' को ले कर आक्रमण - प्रत्याक्रमण शुरू हो गए। सम्मेलन के अंतिम दिन लंच के समय एक लेखक मित्र के साथ एक कमरे के सामने से गुजरते हुए मैंने अंदर बैठे कमलेश्वर को 'युवा' में प्रकाशित धूमिल के दोनों पत्र- जिनमें बाँदा और इलाहाबाद लेखक सम्मेलनों पर प्रहारक उल्लेख था-पढ़ कर केदार नाथ अग्रवाल को सुनाते हुए देखा। चूँकि बाँदा सम्मेलन के आयोजकों में केदार बाबू भी थे, इसलिए इस बात को ले कर वे मुझसे कुछ नाखुश भी हुए। 'युवा' के प्रवेशांक का देश के बुद्धिजीवियों ने जिस धमाकेदार ढंग से स्वागत किया था, बाद की पीढ़ियों के लिए उसकी कल्पना मुश्किल होगी। देश की छोटी-बड़ी शायद ही कोई ऐसी पत्रिका होगी, जिसमें 'युवा' का उल्लेख या उस पर टिप्पणी न हुई हो। यहाँ तक कि 'पूर्वग्रह' के धूमिल पर केंद्रित सातवें अंक में-सोमदत्त ने 'सही समझ की ओर' शीर्षक से समीक्षात्मक आलेख लिखा, जिसके पहले ही पैरा में अन्य बातों के साक्ष्य में कहा गया था कि 'युवा' का प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण घटना है।"


लघु पत्रिका आंदोलन वस्तुतः तत्कालीन व्यवस्था के विरोध में खड़ा हुआ था और जिस तरह इसे व्यापक समर्थन मिला, उससे व्यवस्था की समर्थक तत्कालीन सेठाश्रयी पत्रिकाओं के प्रबंधक हिल गए। उनके संकेत पर या अपनी जीविका के प्रति आशंका के कारण उन पत्रिकाओं के साहित्यकार-संपादक भी जाने-अनजाने लघु पत्रिका आंदोलन का उपहास करने की मुद्रा में आ गए। उन पत्रिकाओं में यदा-कदा ऐसे लेख दिखने लगे, जिनका स्वर जुझारू लेखन और उसे सामने लाने वाली लघु पत्रिकाओं के विरुद्ध होता था। यहाँ तक कि उनके संघर्षधर्मी विचारवान लेखक-संपादकों का यत्र-तत्र होने वाले सम्मेलनों में सुनियोजित विरोध भी किया जाने लगा। विरोध का एक तरीका यह भी होता है कि आप संबंधित पक्ष का उपहास करें या उसे नजरअंदाज कर दें। लघु पत्रिकाएं इतने जोर-शोर से उठी थीं कि उन्हें नजरअंदाज करना संभव नहीं था। उनका विचार पक्ष तो सशक्त था ही, रचनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो लघु पत्रिकाओं में साहित्य की विविध विधाओं में इतनी महत्त्वपूर्ण रचनाएं प्रकाशित हो रही थीं कि व्यवस्था की पक्षधर पत्रिकाओं को भी उन्हें नोटिस में लेने की मजबूरी थी। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि उस समय व्यवस्था से जुड़ीं 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'दिनमान', 'कादंबिनी' और 'सारिका' जैसी पत्रिकाओं के संपादक साहित्य में भी अपने रचनात्मक अवदान के जरिए पहचान बना चुके थे-अज्ञेय, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, कमलेश्वर, राजेंद्र अवस्थी के नाम इस संदर्भ में लिए जा सकते हैं।


व्यवस्था से जुड़ी पत्रिकाओं की मुद्रित प्रतियों और पाठकों की संख्या लाखों में होती थी। ये पत्रिकाएं कीमती विज्ञापनों से भरी होती थीं, इसलिए रचनाओं के लिए इनके द्वारा अपेक्षाकृत अधिक पारिश्रमिक निर्धारित था-यद्यपि इनके लाभांश की तुलना में वह भी बहुत कम ही कहा जा सकता था। चूँकि सामान्य रूप से लेखक या कवि, गणितज्ञ, व्यवसायी या दुनियादार नहीं होते, दूसरे उन्हें रचना के छपने और बड़े पाठक-वर्ग तक पहुँचने का भी मोह होता है। इसलिए वे इस संबंध में प्रायः मौन ही रहते थे और अन्य साहित्यिक या लघु पत्रिकाओं-जिनसे या तो पारिश्रमिक मिलता नहीं था और मिलता था तो अत्यल्प की तुलना में इन व्यावसायिक पत्रिकाओं में छपने की होड़ में लगे रहते थे। इस कारण उन पत्रिकाओं के संपादकों को भाँति-भाँति के तरीके अपना कर प्रसन्न करने की उनकी कवायद भी जारी रहती थी। इस तरह प्रकारांतर से वे साहित्यकार-संपादक साहित्य में मठवाद के केंद्र-बिंदु हो गए थे। वे अपनी पत्रिकाओं में लिखने वाले नए लेखकों की जमात तैयार करते थे। समय-समय पर ऐसी बहसें छेड़ते थे, जिनमें वाम विचार या साहित्य कम, आम पाठक की दिलचस्पी वाले मुद्दे अधिक हों। साप्ताहिक पत्रिकाओं का रूप स्वरूप भी प्रायः ऐसा ही होता था-अर्थात् संपूर्ण। पत्रिका में साहित्य के नाम पर एक या दो कहानी और एक या दो कविताएं! इस तरह इनकी सीमाएं भी स्पष्ट थीं। चापलूस कवियों-लेखकों को छोड़ दिया जाए तो किसी लेखक-कवि को इन पत्रिकाओं में छपने के लिए बरसों इंतजार करना पड़ता था। इन परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से लघु पत्रिका आंदोलन सशक्त हुआ।





तब व्यावसायिक पत्रिकाओं के संपादकों ने पैंतरा बदला और संतुलन बनाए रखने के लिए उन्होंने यदा-कदा लघु-पत्रिकाओं के समर्थन में भी सिर हिलाना प्रारंभ किया। अशोक वाजपेयी द्वारा प्रतिष्ठान विरोधी कवि की स्मृति में विशेषांक निकालना एक खास रणनीति ही थी। वाजपेयी पर लघु पत्रिका विरोधी होने के आरोप लग रहे थे और उनके लिए अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए कारगर रणनीति अपनाना जरूरी था। यह आकस्मिक नहीं था कि 'धूमिल अंक' में 'युवा' की समीक्षा सोमदत्त ने की।


उधर धर्मवीर भारती 'धर्मयुग' में अपने स्तर से मोर्चा खोले थे। उन्होंने इस संबंध में कई लेख प्रकाशित किए, जिनमें अशोक वाजपेयी का दो अंकों में प्रकाशित एक लेख भी था। स्वयं भारती ने लघु पत्रिकाओं के संबंध में अपना पक्ष स्पष्ट करने के लिए 'कादंबिनी' का सहारा लिया। अप्रैल, 1975 की 'कादंबिनी' में अपने लेख 'छोटी पत्रिकाएं, बड़ी पत्रिकाएं और साहित्यिक संस्कार' - की-रूसी क्रांति के ऐतिहासिक क्षण में - जार के अपदस्थ होने, और प्रवास में रह कर ट्रेन से लौट रहे क्रांति के संचालक लेनिन की-मुक्त रूसी जनता द्वारा स्टेशन पर की जा रही आतुर प्रतीक्षा से शुरुआत करते हुए उन्होंने बड़े नाटकीय ढंग से पाठकों के सामने यह रहस्योद्घाटन किया कि - वह ट्रेन न रूसी जनता की थी, न किसी दूसरे देश की किसान-मजदूर जनता की, वह तो जर्मनी के तानाशाह कैसर की निजी सुरक्षा ट्रेन थी। जो उसने लेनिन को उस ऐतिहासिक यात्रा के लिए प्रदान की थी तथा यह कि "लेनिन का जनवादी मंतव्य उसका बहिष्कार करने की बजाय उसके उपयोग को सही क्रांति-नीति मानता था।"


लेनिनवाद का मखौल उड़ाने की भारती की मंशा का यहाँ खुलासा हो जाता है। ट्रेन के इस रूपक से बड़ी विक्रय संख्या वाली प्रतिष्ठानपरक पत्रिकाओं को जोड़ते हुए भारती, 'परिमल' के परिवेश और विश्वविद्यालय की हिंदी प्रोफेसरी छोड़कर 'धर्मयुग' जैसी बड़े प्रतिष्ठान की पत्रिका के संपादक की नौकरी स्वीकार करने के अपने निर्णय को परोक्षतः ठीक ठहराते हुए उस लेख में लिखते हैं कि "अब यह संपादक पर निर्भर करता है कि वह उसका क्या उपयोग करता है? वह साहित्यिक मानदंड की उपेक्षा कर उसे केवल पैसा बटोरने का उपकरण और अपनी अतृप्त साहित्यिक लालसाओं और कुंठित महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बनाता है या अपने गहनतर दायित्व के प्रति निष्ठावान रह कर साहित्य-चेतना में, लोकरुचि में, युग-बोध में एक नई क्रांति लाने के लिए उसका उपयोग कर सकता है?"


इस वक्तव्य की विडंबना यही है कि भारती, वस्तुतः 'धर्मयुग' जैसी पत्रिका के संपादन और लघु पत्रिकाओं के विरोध द्वारा, क्या कर रहे थे-यह उस समय भी आईने की तरह साफ था। यह अनायास ही नहीं था कि 'ज्ञानोदय' की संपादकी छोड़ने वाले रमेश बक्षी ने अपनी दो अंकों में प्रकाश्य लंबी कहानी को 'धर्मयुग' से वापस लेकर 'आवेश' नामक एक ऐसी 'छोटी पत्रिका' निकालने की शुरुआत की थी, जो उनकी वैचारिक निर्बलता के कारण 'छोटी पत्रिका' के उद्देश्यों को ठीक ढंग से सामने लाने में असमर्थ रही। अपने उसी लेख में भारती ने यह भी कहा, "इसी प्रकार छोटी पत्रिकाओं के नाम से पुकारी जाने वाली अनेक साहित्यलक्षी पत्रिकाएं ऐसी रही हैं, जिन्होंने लेखकों के हितों की उपेक्षा कर केवल संपादक के आर्थिक लाभ की कुंठित महत्त्वाकांक्षा को केंद्र-बिंदु बनाया है, वस्तुनिष्ठता और साहित्यिक मानदंडों की उपेक्षा की है और व्यक्ति नहीं तो किसी दल-विशेष के प्रचार के समक्ष साहित्यिक स्तर की उपेक्षा की है।"





यहाँ उन्होंने किसी पत्रिका का नाम नहीं लिया, किंतु अपने लेख को संतुलित करने की दृष्टि से आगे यह भी जोड़ दिया, "दूसरी ओर ऐसी भी साहित्यलक्षी पत्रिकाएं रही हैं, जिन्होंने वस्तुनिष्ठता से साहित्यिक मानदंड का निर्वाह किया है, नए लेखन को सार्थक मंच दिए हैं और साहित्य-चिंतन की नई जमीनें तलाशने की गहरी कोशिश की है, याद कीजिए साहित्य से संबद्ध पत्रिकाएं।"


'लघु पत्रिका' बनाम 'बड़ी पत्रिका' का मुद्दा उन दिनों विभिन्न शहरों में आयोजित लेखक सम्मेलनों में कभी प्रकट तो कभी प्रच्छन्न रूप से प्रायः उठा करता था। फिर चाहे वह बंबई सम्मेलन हो, आगरा सम्मेलन हो, बाँदा हो या कानपुर, अलीगढ़ और दिल्ली के सम्मेलन। चूँकि मेरी शिरकत उन दिनों सभी लेखक सम्मेलनों में रहती थी, इसलिए इस मुद्दे की प्रेतछाया मुझे अकसर दिख जाती थी। सन् 1977 में उ. प्र. सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा लखनऊ में आयोजित द्वितीय लेखक सम्मेलन का स्मरण आता है। ठाकुर प्रसाद सिंह, जो उस समय सूचना विभाग के उपनिदेशक थे, एक तरह से उसके संयोजक थे।


पहली विचारगोष्ठी व्यावसायिक और लघु पत्रिकाओं के अंर्तसंबंधों पर थी। प्रतिभागियों में 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' के संपादक मनोहर श्याम जोशी और 'कादंबिनी' के संपादक राजेंद्र अवस्थी भी थे। तब के कलकत्ते से चर्चित लघु पत्रिका 'सनीचर' के संपादक ललित कुमार शर्मा, ठाकुर भाई स्वयं, 'उत्तर प्रदेश' पत्रिका के संपादक कवि राजेश शर्मा और गोपाल उपाध्याय तो थे ही। मुद्राराक्षस संचालन कर रहे थे। जोशी जी और राजेंद्र अवस्थी के, बड़ी अर्थात् व्यावसायिक पत्रिकाओं के स्वघोषित पक्ष में दिए गए वक्तव्यों के बाद मुद्रा भाई ने मुझे आमंत्रित कर दिया। मैंने लघु पत्रिका आंदोलन के उद्देश्यों और उसकी सार्थकता की चर्चा के क्रम में व्यावसायिक पत्रिकाओं पर तीखा हमला बोला और आवेग में मेरे मुख से उनके संपादकों के लिए 'व्यवस्था के दलाल' जैसे अशिष्टतापूर्ण शब्द भी निकल गए, जिस पर हंगामा हो गया। राजेंद्र अवस्थी अपनी जगह खड़े हो कर आपत्ति करने लगे।


मनोहर श्याम जोशी उस समय मुखर नहीं हुए, मगर कुछ समय बाद कानपुर के पी. पी. एन. डिग्री कॉलेज में पं. अमृत लाल नागर की अध्यक्षता में हुए परिसंवाद में मेरी अनुपस्थिति में उन्होंने मेरे ऊपर यह कहते हुए हमला किया, "कानपुर में हमारे एक मित्र हैं उद्भान्त जी। इस समय यहाँ दिखाई नहीं दे रहे हैं। बहुत अच्छे कवि हैं और हमारे यहाँ अरसे से छपते भी रहते हैं (एक तीर से दो शिकार!), मगर आजकल एक लघुपत्रिका निकाल रहे हैं और व्यावसायिक पत्रिकाओं से बड़े नाराज हैं। पिछले दिनों लखनऊ में हुए लेखक सम्मेलन में उन्होंने व्यावसायिक पत्रिकाओं पर बड़े जूते चलाए।"


'युवा' के मात्र दो अंक निकले, पर उन्होंने विचार को संप्रेषित करने में अपनी भूमिका अदा की। चंद्रभूषण तिवारी की पत्रिका 'वाम' के भी तीन अंक निकले। लेकिन अल्पजीवी होने के बावजूद इन पत्रिकाओं ने एक इतिहास रचा। फरवरी, 1977 में यशपाल जी की स्मृति को समर्पित 'युवा' का समकालीन कविता अंक निकला, जिसने फिर पूरे देश में तहलका मचाया। उस समय तक समकालीन कविता को ले कर किसी लघु पत्रिका ने ऐसा उपक्रम नहीं किया था। 'युवा' के समकालीन कविता अंक में एक ओर समकालीन कविता के तकरीबन सारे महत्त्वपूर्ण और उदीयमान प्रतिभासंपन्न कवि (जिनमें से अनेक आज महत्त्वपूर्ण- यहाँ तक कि 'अकादमी पुरस्कार विजेता' के रूप में भी जाने-पहचाने जाते हैं!) मौजूद थे तो दूसरी ओर वह वरिष्ठ कवियों की काव्यधर्मिता की भी पड़ताल कर रहा था। आलोचकीय भूमिका के अंतर्गत राजीव सक्सेना, डॉ. माहेश्वर, डॉ. कमला प्रसाद, चंचल चौहान, राम कृपाल पांडेय के विचारोत्तेजक लेख शामिल थे।


अब स्थितियां-परिस्थियां बदल चुकी हैं। पत्रिकाओं के संदर्भ में ही नहीं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो राजनीतिक आकाश में भी घना कोहरा छाया है। नई पीढ़ी उस तरह संघर्ष करने में विश्वास नहीं करती। उसे पठन-पाठन में भी रुचि नहीं। प्रौद्योगिकी बहुत आगे बढ़ गई है। बाजार ने विश्व पर आधिपत्य स्थापित कर लिया है। हर व्यक्ति के हाथ में स्मार्ट फोन है और कृत्रिम बुद्धिमत्ता आपको हर मामले में सलाह देने और निर्देशित करने को तैयार है।


इस प्रकाश में लघु पत्रिकाओं के सामने चुनौती तो बहुत बड़ी है, लेकिन हम आशा करते हैं कि वे इसका सामना करेंगी और विचार को संप्रेषित करने हेतु एक व्यापक मंच का निर्माण करेंगी।



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