अनिल अनलहातु की कविताएं
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अनिल अनलहातु |
आज की कविता उन चिंताओं से दो चार है जो समूची मानवता के लिए लगातार खतरा बनी हुई है। स्थानीय लगती हुई यह चिन्ता वैश्विक स्वरूप में दिखाई पड़ती है। यानी कि समूचे विश्व की समस्या अब स्थानीय हो गई है। इन्हीं अर्थों में लगातार बदलते संदर्भों और सवालों से आज की कविता मुखातिब है। कवि को स्थानीय विडंबनाओं के साथ वैश्विक विडंबनाओं से परिचित होना ही होगा तभी उसकी कविता समय के साथ नजर आएगी। अनिल अनलहातु हमारे समय के सजग कवि हैं जो इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि यह समय इतना खौफनाक है कि 'कहीं भी, किसी भी समय/ हो सकती है लिंचिंग'। आदमी जिस क्षण भीड़ में तब्दील हो जाता है अपना विवेक, अपनी संवेदना गिरवी रख देता है। दुखद है कि दुनिया के तमाम लोकतंत्र भी उस वोट के लिए भीड़ में तब्दील होते जा रहे हैं जो उसे सत्ता के शिखर तक पहुंचाने की ताकत रखता है। आज सब गड्ड मड्ड हो गया है। कवि इस बात से भी अवगत है कि 'हत्यारा ‘डोमा जी उस्ताद’/ संसद के गलियारों में,/ विश्व शांति स्थापना/ की बहस में शरीक/' मैत्रेय बुद्ध' बना हुआ है।' अब न्याय की उम्मीद किससे की जाए। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अनिल अनलहातु की कविताएं।
अनिल अनलहातु की कविताएं
कुपवाड़ा के बाद की कविता
पम्पोर के केसर के फूलों की खूबसूरती पर रीझना
इस हत्यारे समय में अश्लीलता है,
एक धत्कर्म है।
लेकिन जैसा उस अमेरिकन कवि ने कहा था
Woods are lovely, dark and deep
But I have promises to keep,
And miles to go before I sleep.
क्या कुपवाड़ा के आदमियों के ये जंगल
भी प्यारे (lovely) होते हैं ??
प्यारे हो सकते हैं??
सोने के पहले करना है यह तय
कि वह जंगली जानवरों का जंगल,
आदमियों के इस जंगल से
कहीं ज्यादा खूबसूरत नहीं है?
जहाँ आर्किड हैं,
जहाँ अनजान प्रस्तरों के पीछे
अधछुपे डैफोडिल्स की तरह,
अब भी गिरिजा टिक्कू की
उदासी में लिपटी अधखिली मुस्कान है ।
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कि यह उदासी एक खून भरी चीख है,
जो शालीमार और निशात बाग के पत्तों-पत्तों,
बूटों-बूटों (जैसा उस शाइर ने कहा है)
से उठ रही है और
श्रीनगर स्थित बुर्जहोम के माता खीरभवानी के
जंगलों तक सुलग रही है,
जहाँ पहलगाम के शिव मंदिर का पुजारी
महमूद भट्ट (बट्ट नहीं),
बड़े धीमे स्वर में कर रहा अनुरोध,
कि किसी को बताईएगा नहीं बाहरी मुलक में
नहीं तो!
उसकी ख़ौफ़ज़दा सुफेद बरौनियाँ
काँपती हैं,
निर्मल वर्मा की कहानी
"लंदन की एक रात" के
नीग्रो जॉर्ज की तरह,
कि कहीं भी, किसी भी समय
हो सकती है लिंचिंग,
कि बहु-बेटियों को बलात्कार के बाद
गिरिजा टिक्कू की मानिंद,
नंगी कर बीच चौराहे पर
चीरा जा सकता है आरे से
लकड़ी की तरह,
बिना किसी गुनाह के।
कि कल्हण, बिल्हण और अभिनवगुप्त की
मृतात्माएं बिलख रही हैं,
तड़प रही हैं,
तड्फड़ा रही हैं,
अवंतीपुरा में।
और मैं जनवरी के इस क्रूरतम मौसम में
हिन्दी के कवियों की तरह
श्रीनगर के ट्यूलिप गार्डेन में
ट्यूलिप के खिलने का
मुन्तज़िर हूँ।
इस अकाल वेला में
हत्यारी संभावनाओं से भरे
इस विकृत और भयानक समय में,
अपने नपुंसक और अपाहिज गुस्से में,
तप्त अंधियारे मन के,
टीन के गर्म छत पर
नाचता हूँ, नचता हूँ
‘भरत-नाट्यम’(१) की विभिन्न मुद्राओं में।
मैं पूछना चाहता हूँ
‘शिवमूर्ति’ से,
लेकिन क्या पूछूं ?
कि खलील दर्जी कहां है?
कहां है वह बाजार
जो मेरे शयन-कक्ष में
'प्रियंवद' की ‘पलंग’(२) तक आ पहुंचा है?
उसी बाजार में खुलेआम
बीच चौराहे पर,
जब 'रामदास'(3) के सीने में
घोंपे हुए चाकू के फाल को निकाल,
जिस समय, मैं उंगलियों से
उसके जख्म की गहराई माप रहा था।
ठीक उसी समय
हत्यारा ‘डोमा जी उस्ताद’(4)
संसद के गलियारों में,
विश्व शांति स्थापना
की बहस में शरीक
'मैत्रेय बुद्ध'(5) बना हुआ था।
बम... मारो ….बम …
नेस्तनाबूद कर दो
बगदाद, बसरा, बोगाज़-कोई(6)
और समरकंद को,
चिल्लाता है तानाशाह -
मिटा डालो मानचित्र से
दजला-फरात और गांधार को।
बमों और मिसाइलों के
गूँजते धमाकों के बीच
‘मोसुल’(7) की सड़कों पर,
सद्य:मृत उस बच्चे की
आँखों पर पड़ते रोशनी
के परावर्तन में
देखता हूँ मैं
एक,
हज़ार वर्ष पुरानी सभ्यता का
भग्नावशेषित होता भविष्य,
और
एक बार फिर उत्तप्त मन के,
टीन के गर्म छत पर
नाच पड़ता हूँ
भरत-नाट्यम की मुद्रा में,
और पूछना चाहता हूँ
बुश से,
पुतिन से,
गोर्ब्याचोव से,
बराक ओबामा से,
नेतन्याहू से,
और ईदी अमीन से ………
..........................
.........................
........................
कि,
मैं कुछ नहीं पूछना चाहता?
नहीं चाहता कुछ भी पूछना!
कि पिस्सुओं और जोंकों की तरह लटके हुए
प्रश्न
चूस रहे हैं मेरा रक्त।
व्रणाहत, लहू-लूहान
इस देह को
घसीटता हुआ ‘अंगुलिमाल’(8) की तरह
ले जाता हूँ,
‘अनाथपिंडक’(9) के ‘जेतवन’(10) तक
और
‘मोग्गलायन’(11) की तरह
इस संसार से
विदा हो जाता हूँ।
नोट :
(1). शिवमूर्ति की इसी शीर्षक की एक कहानी यहाँ संदर्भित है, जिसका नायक कहानी के अंत में अर्ध विक्षिप्त हो कर भरत-नाट्यम की मुद्रा में नाचने लगता है।
(2) प्रियंवद की इसी शीर्षक की कहानी यहाँ संदर्भित है ।
(3) गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज ने संभवत: 1951–52 में एक उपन्यासिका लिखी थी “Crónica de una muerte anunciada” यानी “क्रॉनिकल ऑफ अ डैथ फ़ोरटोल्ड’। इस उपन्यास में सेंटियागो नसर की दिन-दहाड़े, सब लोगों के सामने और सब लोगों के जानते उसके घर के सामने हत्या हो जाती है । क्या रघुवीर सहाय का ‘रामदास’ मार्खेज का ‘सेंटियागो नसर’ तो नहीं ?
(4) मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ में उल्लिखित डोमा जी उस्ताद, शहर का कुख्यात हत्यारा यहाँ संदर्भित है ।
(5) बौद्ध परम्पराओं के अनुसार, मैत्रेय एक बोधिसत्व हैं जो पृथ्वी पर भविष्य में अवतरित होंगे और बुद्धत्व प्राप्त करेंगे तथा विशुद्ध धर्म की शिक्षा देंगे। ग्रन्थों के अनुसार, मैत्रेय वर्तमान बुद्ध, गौतम बुद्ध (जिन्हें शाक्य मुनि भी कहा जाता है) के उत्तराधिकारी होंगे। मैत्रेय के आगमन की भविष्यवाणी एक ऐसे समय में इनके आने की बात कहती है जब धरती के लोग धर्म को विस्मृत कर चुके होंगे।
(6) बोगाज-कोई - एशिया माईनर में अवस्थित एक प्रदेश है जहां 1400 ईसा पूर्व के अभिलेख में हिंदू देवताओं इंद, मित्र, वरुण, नासत्य इत्यादि का नाम पाया जाता है।
(7) मोसुल- मोसुल उत्तरी इराक़ का एक शहर है, नीनवा प्रान्त की राजधानी है, जो पिछले एक दशक से हिंसा, दमन और आगजनी का शिकार है।
(8) गौतम बुद्ध का शिष्य जो पहले एक हिंसक डाकू था।
(9), (10) - श्रावस्ती नागरी का सेठ सुदत्त (जो अपनी दानशीलता की वजह से अनाथपिंडक के नाम से मशहूर था), यहाँ संदर्भित है, जिसने श्रावस्ती के राजकुमार से ‘जेतवनाराम’ को। बुद्ध के देशना हेतु, जेतवन की समस्त भूमि पर स्वर्ण-मुद्राएँ बिछा कर खरीदी थीं।
जो मैंने नहीं कहा
यह शरद पूर्णिमा है
और मैं चीखता हूँ
एक फूल-मून मैनिया में।
खून से सने और
पीव से लिथड़े
अपने शब्दों को
मैं वापस लेता हूँ
निकनार पार्रा की तरह।
जैसा उसने कहा कि
मैं कह नहीं सका
जो मैं कहना चाहता था,
और जो कहा
वह कहना नहीं चाहता था।
मैं भौंकना चाहता था,
किंतु मैं दुम हिलाने लगा
कुत्ते की तरह,
मैं अपने शब्दों में
चीखना चाहता था,
किंतु खुद को मिमियाते देखा
डोमा जी उस्ताद के सामने।
उन शब्दों को जिन्हें
मैंने कभी नहीं जिया,
प्रिय पाठक!
उन्हें अपनी स्मृति से
निकाल बाहर करें।
उन पुस्तकों को
जिनमें मेरे रक्त और आँसू की
लकीरें हैं
उन्हें जला दी जाए।
इस बेशरम, बेहया वक्त में
इस समाज को देने के लिए,
कुछ भी नहीं है मेरे पास
सिवा नपुंसक गुस्से,
मवाद भरे जख्मों
और जीने के लिए
शर्म जैसी शर्त के।
कि उन मेधाओं को
तिल-तिल कर जलते,
और बुझते देखा सदा के लिए
गिन्सबर्ग की मानिंद
न्यूयॉर्क के नीग्रो स्ट्रीट से
बनारस की दालमंडी के सड़ांध तक।
हाथों में लिए अंतड़ियों का एक्स-रे
और मस्तिष्क का सी टी स्कैन
अपने समय की बेहतरीन प्रतिभाओं को
"धूमिल" तक जाते देखा।
कि,
आजादी के अमृत वर्ष तक
कुछ भी नहीं बदला
सिर्फ सालों के बदलने के।
अभी कल ही "निराला" की
पुण्य-तिथि थी
और "मुक्तिबोध" के
गर्म मन के टिन के उत्तप्त छत
पर एक बार फिर नाचता हूँ
नचता हूँ
इस "आशंका के द्वीप"
अंधेरे में।
तलाश
वह दिसंबर की एक सर्द शाम थी,
और तुम्हारी कुर्सी
खाली थी,
वह खालीपन तैर रहा है
अब भी मेरी
सूनी आंखों में ....।
सड़कों पर जलते पीले
बल्ब के लट्टुओं की
पीली मुरझाई रोशनी में
देखता हूं दूर तक
देर तक...
तुम नहीं हो .......।
गायब हो रहे हैं
बड़ी तेजी से
लोग, चेहरे और हमारी स्मृतियां ।
एक दरकन है
एक टूटन है
एक स्मृतिभ्रंश में जीता
मैं भटकता हूं
"मिलान" की संकरी गलियों में,
"कामू" को देखा
उन्हीं सुनसान गलियों में
दीवारों से लग कर रोते।
मैं उठता हूं और
इस बर्फीली तूफानी रात में
"लूसी ग्रे" की अनाम कब्र
तक जाता हूं।
"हरमन हेस्से" के
फादर-फिक्सेशन को
समझना चाहता हूं,
किस दुख से निजात पाने
हेस्से, पिता की कब्र तक
गए हर बार बार-बार।
अमावस की काली स्याह
रातों में
सुबकते देखा "हरमन हेस्से" को
रियूपालु के कब्रिस्तान में,
"कार्ल ऑटो जोहान्स" की
तड़प भरी बेचैनी
दिखी मुझे
"सिल्विया प्लॉथ" के 'डैडी' में।
हज़ार वर्षों की
इस बेचैनी और अनिद्रा को
बांटना चाहता हूं
"जीवनानंद दास" की नाटोर की
"वनलता सेन" से।
मैं भिक्खु होना
चाहता हूं,
बौद्ध भिक्षुणी "पटाचार" और "खेमा" से
प्रव्रज्या लेता,
दुखों से मुक्ति का
रास्ता तलाशता
भटकता रहा,
तक्षशिला से मस्की तक,
भद्रबाहु से कुमारगिरि तक,
और पंपोर से कालाहांडी तक।
गूँगे हरिकिशुना की चीख
देहात के किसी
गर्द-गुबार भरे रास्ते पर,
जेठ की तपती दुपहरिया में
जब दूर-दूर तक कोई दिखे नहीं,
गर्म तप्त खामोशी
पछुआ के हिलकोरों पर
...... दौड़ती फिरे;
मिलता है वह मुझे
यूँ ही अकस्मात्.....
दिख जाता है
उस अँधे कुँए के पास
गाँव के सिवान पर;
अभिशप्त जो है सदियों से
बँधा कोई .....
किसी वासना, किसी इच्छावश।
और उस बड़े घने पकड़ी की छाया में
बैठ
खोलें अपने अतीत के पापों की गठरी,
कुछ खून सने कपड़े
और जंग खाया एक चाकू।
आओ चलें
उदास, वीरान खेत की
टेढ़ी-मेढ़ी मेंड़ों से हो कर
गाँव की ओर
जहाँ सिवान पर
पागल हरिकिशुना
पिछले बीस सालों से
बैठा है
किसी के इंतजार में।
और लो वो....
वो उधर
वो रहा मेरा गाँव,
मै घूमता हूँ तुम्हारी ओर
और पाता हूँ कि तुम नहीं हो
चले गए हो
उसी तरह जैसे मिले थे अकस्मात्।
हरिकिशुना आज नहीं है।
घुसता हूँ गाँव में
और पाता हूँ
कि गांव उजड़ा हुआ है,
घरों की भीत पर दिखते हैं
खून के छीटें
और गलियों में घोड़ों के टाप।
....कि अचानक उठता है
एक भयानक शोर
भागता हूँ बाहर
खलिहान की ओर
.....................
रहट में जुते हुए बैल
उसी खमोशी से
चल रहे चुपचाप,
चौंकता हुआ
नजरें घुमाता हूँ
और पाता हूँ कि
गाँव की सूखी नहर
बड़े वेग
चीख रही है।
बोरिस येल्स्तीन
जब रात गहराने लगती
लैम्प–पोस्टों की पीली –पीली रोशनी
मुरझाई हुई सी
छितरा रही होती है,
जब एक स्तब्धता की जकड़न में
कस गया होता है सन्नाटा।
ऐसे मे किसी कोने अंतरे
गुसलखाने या सिंक के नीचे से
निकलता है
नौ साल का नन्हा ‘सेर्जेई ‘
निक्कर ठीक करता
टटोलता रास्ते पे सोये
लोगों की जेबें।
बना लिया है उसने
यार–दोस्त,
नाइट कफेटेरिया के रसोइयों को,
वह मारिजुयाना और जूठनों
के दम पर
ज़िंदा है,
“दिल तक आसानी से पहुँच सकता है”
वह दिखा अपना चाकू
डींग हाँकता है।
वह जानता नहीं
कि उसी की धरती पर
उगा था लाल तारा,
निज़्नी नोवगोरोद की सड़कों पर
झाड़ू लगता
सेर्जेई अल्मीडा,
क्या गोर्की और दोस्तोएव्स्की द्वारा
भोगे गए नरक के दिन
वापस आने वाले हैं??
और एक भूरा सूअर
बोरिस येल्स्तीन
इन्हीं सेर्जेइयों के ताबूत पर
इक्कीसवीं सदी का
खुशफहमी उगा रहा है।
मिखाईल गोर्ब्याचोव
मेरी ही तरह के कुछ लोग
खड़े, वहां उस ओर
एक जगह जमा
पार्टी कार्यालय में,
चुप चुप से कुछ बात करते
महज इशारों या फिर संकेतों में,
उदास, अनमने, अटपटे चेहरे
निराशा के मकड़जाल में उलझे।
दिन के तीसरे पहर
जब सूरज
फैक्टरी की काली चिमनियों के पीछे
छिपने की तयारी में होता,
उठते वे अपनी अपनी जगहों से
व डगमगाते ..अशक्त कदमों से
और
अपने अपने सलीबों पर लटक जाते।
विचारों का विपर्यय
या
जिंदगी का विपर्यस्त
जब चमका था,
आकाश में तारों के बीच,
उल्का की तरह
राख हो बिखर गया था
साइबेरिया के दक्खिन में।
कहते हैं
विश्व का सबसे बड़ा उल्कापात
साइबेरिया में ही हुआ था।
पृथ्वी के अंत:स्थल में
यह कैसी धुकधुकी,
अक्षय परमाणुओं के भीतर
सतत गतिशील वह आवेशित ‘कण’
देता जो उर्जा, स्थायित्व,
आज वह तरंग है।
प्रकृति का यह द्वैध विचित्र
‘कण’ या कि ‘तरंग’??
(प्रश्न यह नहीं है कि वह कण है या तरंग )
वरन पहचानो उस सीमा को
जहां एक ठोस ‘कण’
तरंग मे रूपायित हो
अपनी ही प्रकृति का
उपहास करने लगता है।
इसीलिए यह कोई आश्चर्य नहीं
कि मार्क्स के पन्नों से निकला हुआ
बुमेरैंग
आ के लगे धड़ाम से
उसी के सीने पर,
और इसके पहले कि
तुम्हारे सिद्धांतो और विचारों की रुढ़ि
फ्रैंक्सटीन में बदल जाए,
चेत जाओ, रुको वहीं पर
और सोचो कि कहाँ भूल
कहाँ चूक हो गई।
ब्रह्माण्ड के मूल में स्थित
द्वैध प्रकृति को समझो
कि मैटर के जन्म से बहुत पहले ही
एंटी मैटर मौजूद था,
कि
आदमी के भीतर का कण
कब तरंग में रूपायित हो जाएगा
कौन जानता है?
और यही कारण है कि
कल तक जो कम्युनिस्ट था
आज एक बुर्जुआ है !!
गांधी जी का चश्मा और बीट करते कबूतर
वे(1) सड़क के बायीं ओर
अंतिम छोर पर
चल रहे थे,
गो उन्हें मालूम था,
कि जैसे चलते हैं
ग्रह सारे
सूर्य, चंद्र और तारे
एक निश्चित गति से
एक निश्चित पथ पर।
चलती है ट्रामें भी
उसी तरह
एक निश्चित गति से
एक निश्चित पथ पर।
न जाने क्यों लगता है उन्हें
कि वह आ सकते हैं
कभी भी, कहीं भी
इसी ट्राम के नीचे।
इसीलिए चलते हैं वे
सड़क के एकदम बायीं ओर
अंतिम छोर पर।
अंदर बैठी हुई
किसी वनलता सेन (2),
किसी चेतना पारीक(3),
के हिलते हुए हाथों को
देखते,
भारी मन और
मन-मन भर के भारी
कदमों को घसीटते हुए
चलते हैं
सड़क के बाई ओर
अंतिम छोर पर।
अन्यमनस्क
गाढ़े, स्याह अवसाद में डूबे,
सर को गोते,
चौरंगी के चौराहे पर
देखते हैं
नेताजी को
‘स्वयं प्रकाश के चश्मे से’(4),
नेताजी के आँखों पर
आज चश्मा नहीं है
हालदार बाबू(5) भावुक आदमी हैं,
उनकी आंखें
गीली हो जाती हैं बेतरह।
क्या वे जानते हैं?
जानते हैं वे?
कि ‘कैप्टन’(6) मरा नहीं था,
उसकी हत्या हुई थी?
वे चलते हैं और
जा पहुंचते हैं सड़क के
मुख्य चौराहे पर
और देखते हैं गांधी जी के
आंखों पर चढ़े पथराये चश्मे को,
क्या उन्हें अब भी
(इस पथराये चश्मे के भीतर से)
दिखता होगा?
वे खुद से पूछते हैं
और गांधी जी के सिर पर
बीट कर रहे कबूतरों को
उड़ा देते हैं।
ये नेहरू जी के हाथों से उड़ते
कबूतर
शांति के प्रतीक हैं,
जो कर रहे बीट हैं
गांधी जी के गंजे सिर पर।
न जाने कब से बैठे हुए हैं
हालदार बाबू
गांधी की प्रतिमा के सामने;
यूं ही बेसबब, बेमतलब,
बीट करते कबूतरों को
उड़ाते हुए।
कब तक बैठे रहेंगे?
यह एक अनुत्तरित प्रश्न है,
जो हवा में लटका है
जिसके इस छोर पर
ट्रम्प है
तो
उस छोर पर मोदी और
पुतिन हैं।
नोट :
(1) वे - यहाँ बांग्ला कवि ‘जीवनानन्द दास’ संदर्भित हैं।
(2) जीवनानन्द दास की वनलता सेन शीर्षक कविता संदर्भित है।
(3) ज्ञानेन्द्रपति की मशहूर कविता ‘ट्राम में एक याद’ संदर्भित है।
(4) स्वयं प्रकाश की कहानी ‘नेताजी का चश्मा‘ संदर्भित है।
(5) स्वयं प्रकाश की कहानी ‘नेताजी का चश्मा’ का एक पात्र।
(6). स्वयं प्रकाश की कहानी ‘नेताजी का चश्मा’ का एक पात्र।
नीली झील
वह नदी जो गाँव के
पश्चिमी सिवान पर
बहती थी,
बची रह गई है सिर्फ
हमारी स्मृतियों में,
जिसके किनारे कभी
संझा-पराती करने जाती थीं
गांव की औरतें,
वह नदी
कहीं खो-सी गई है,
अनुपस्थित होती जा रही है
बड़ी तेजी से,
उस परिदृश्य से
जिसके हम
मूक गवाह हैं,
गुनहगार हैं।
कभी मकर-संक्रांति का मेला
लगता था जहां,
और बच्चों का मुंडन-संस्कार
होता था।
वह नदी
जो हमारी स्मृतियों में,
सतत प्रवहमान है।
कल-कल करती जिसकी
धारा को निहारते
गुजार देते थे हम घंटों,
वह नदी
अब बिसूख चुकी है।
गायब होती जा रही हैं
नदियाँ
भूली हुई स्मृतियों की तरह,
और उनके साथ ही
विलुप्त हो रही हैं
हमारी लोक-परंपराएं
रीति-रिवाज
और हजारों वर्ष
पुरानी संस्कृति।
प्रवासी पक्षी
अब नहीं आते,
व लालसर, सारस और
सरपपच्छी भी अब नहीं दिखते,
वह ‘नीली झील’ भी
अब मर चुकी है,
गो महेश पांडे की तख्ती
अभी लगी हुई है –
“यहां शिकार करना मना है”।
विस्थापन
चिड़ियों की चहचहाहटें
अब ज्यादा सुन पड़ती हैं,
पत्तों का रंग भी
कुछ ज्यादा हरा दिखता है।
कौओं की कांव-कांव और
मैनाओं की तीखी आवाज
बालकनी में सुन पड़ती हैं
पहले से ज्यादा।
तोते भी कुछ ज्यादा ही
दिखते हैं पेड़ों पर।
बस गलियों में बेमतलब
भौंकते कुत्तों का झुंड
अब नहीं दिखता,
आवारा बिसूख गई गायें
और घर से निकाले गए जानवर
भी नहीं दिखते सड़कों पर,
इस कोरोना काल में।
क्या पेट की आग उन्हें भी
सताती होगी इसी तरह
और वह भी
कहीं किसी और जगह
चले गए होंगे
भोजन की खोज में?
मैं उन लोगों के बारे में सोचता हूं,
जो खाने की तलाश में,
अपने गांव-घर को छोड़ कर पहुंचे थे
नगरों, शहरों और महानगरों में।
वे किस आशा में
लौट रहे हैं वापस
अपने गांव, अपने घर,
हजारों-हजार किलोमीटर की
लंबी यात्रा आखिर
किस हौंसले से कर ले रहे हैं!
यह भूख की ताकत है?
क्या भूख में
इतनी ताकत होती है?
क्या देश की आजादी का
यह दूसरा विस्थापन नहीं है??
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 8986878504
बहुत गहन और अर्थपूर्ण कविताए
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