ऋष्यशृङ्ग की कुछ और ख़राब कविताएँ
कविता दुनिया में सबसे ज्यादा लिखी जाने वाली विधा है। निश्चित रूप से कविता में गुणवत्ता की बात हमेशा और हर जगह उठती है या कह लें, उठाई जाती है। आज की हिन्दी कविता को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा और समझा जा सकता है। कवि केशव से क्षमा याचना करते हुए हिन्दी कविता के बारे में यही कहा जा सकता है 'कहि न जाय क्या कहिए'। इसी क्रम में विगत दिनों ऋष्यशृङ्ग की खराब कविताएं प्रकाशित हुई थी। ऋष्यशृङ्ग की नजर आज की कविता पर लगातार बनी हुई है। और उन्होंने कुछ और खराब कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं आज की कविता पर एक तीखा व्यंग्य है। अपने वक्तव्य में एक जगह वे खुद लिखते हैं : कवि ऋष्यशृङ्ग एक खिन्नमना कवि हैं। वे कविता में आई गिरावट से खिन्न हैं। पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका से खिन्न हैं। वे चाहते हैं कि अर्थशास्त्र के सिद्धांत‘ खराब पैसा अच्छे पैसे को बाहर निकाल देता है’ की तर्ज पर, थोड़े फेरबदल के साथ खराब कविताएँ खराब कविताओं को कविता के परिदृश्य से बाहर धकेल दें। वे कवि हैं, कुछ भी सोच सकते हैं!' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ऋष्यशृङ्ग की कुछ और ख़राब कविताएँ।
ऋष्यशृङ्ग की कुछ और ख़राब कविताएँ
उपोद्घात
तुम जो
मिल गयी हो
तो ये
लगता है
कि
ज्ञानपीठ मिल गया है!
दोहा
ख़राब कवि करे ख़राबी, दुनिया पर खूब छाए।
फेसबुक उसको नचावे, भेजा मैं ये घुस न पाए॥
दोहा मात्रिक छंद है अर्थात इसमें मात्राओं की गणना की जाती है। दोहे के पहले एवं तीसरे चरण में 13 मात्राएँ जबकि दूसरे और चौथे चरण में 11 मात्राएँ होती हैं। चरणान्त में यति होती है। विषम चरणों के अंत में 'जगण' नहीं आना चाहिए। सम चरणों में तुक होती है, तथा सम चरणों के अंत में लघु वर्ण होना चाहिए।
जगण - जगण संज्ञा पुं॰ [सं॰] पिंगल शास्त्र के अनुसार तीन अक्षरों का एक गण जिसमें मध्य का अक्षर गुरु और आदि और अंत के अक्षर लघु होते हैं। जैसे, महेश, रमेश, गणेश, हसंत।
सोरठा
बोले ख़राबी कैसी, मनमानी चले जो नित दिन।
होवे ऋष्यशृङ्ग जैसी, तो कविता ले सब सुख छीन ॥
सोरठा रोला जैसा ही होता है, बस अंतर इतना है कि सोरठे में विषम चरणों में तुक होती है सम चरणों में तुक होना जरुरी नहीं है। दूसरा अंतर ये है कि सोरठे में सम चरणों के अंत में लघु वर्ण आता है। बाकी संरचना समान ही है; विषम चरणों में 11 मात्राएँ तथा सम चरणों 13.
चौपाई
चौपाई में चार चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में गुरु होता है।
ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविता की प्रशंसा
ये यमाताराजभानसलगा। जिस किसी को निज सगा न लगा।
अब वे छन्दरहित रचना करै। यश धन कामना से निशदिन मरै॥
जय जय जय खराब कविताई। तुम लोलुप कवि सखा कहलाई॥
जिन सुधिजन करीब तुम आई। कुटिया कभी गरीब न हो पाई॥
प्रेम सनेह महब्बत खूब मिलै। जो रिखिसिरिंग खराब कविता रचै॥
कवित काल कराल कुल घालक। श्रोता सहाय सदा प्रतिपालक ॥
आलोचना रकीब बन जाती। लोकप्रियता हबीब कहलाती॥
पर बात समझ में सबके आती। इसी कारण तू पढी जाती॥
रिखिसिरिंग कहै सच्ची बतवा। ज्यों दे केहू खैरात का फतवा॥
उनको कविता की तमीज नहीं। परमानन्द उनके नसीब नहीं।
कवि का प्रलाप!
जाने वो कैसे
लोग थे जिनकी
किताब को
पाठक मिला?
हमने तो जब
किताबें भेजीं
पड़ोसी ने
मार लिया!
नाक कटे कुछ लोग
नाक कटे कुछ लोग
नकली नाक लगा कर
नागिन नाच नाच रहे थे
लचकते सर्पिल, लहराते थे
कुटिल चाल, बल खाते थे
नहीं-नहीं करते वे दम साध
कि नयी-नयी नकली नाक
उनकी कटी नाक से
छिटकी निकल ना जाय!
यही करते थे वे जतन
ढूँढते फिरते थे उपाय।
पड़ताल की हमने
खामोशी से चुपचाप
कि कैसे कटी श्रीमान्
हुआ था कोई हादसा कि
किया आपने गिरेबाँ चाक?
किवाँ किसी ने काट डाली
ये आपकी सुन्दर नाक!
आप तो रखा करते थे
बघनखा
नहीं लगते थे आप उज्जड
शूर्पनखा!
लज्जित होके
वो यूँ बोले
शान में अपनी
कुछ कसीदे खोले
किस की क्या मजाल
जो हम पर धावा बोले
हम तो थे असल में
बारूद और शोले
किसी मरदूद की बातों में आ गए
फैशन की नई राहों में छा गए
स्वयं ही हमने अपने कपड़े खोले
ज्यों-ज्यों उनने फैशन के ढब बोले!
स्टुडियो जिबली से सीखा कि नाक
तुच्छ है, अनुपयोगी है
समझा कि वैश्विक समानता का
धुर विरोधी है
दिखाई हमने अपनी सञ्चित
शूरता की धाक
अपने ही हाथों से काट डाली
अपनी ही नाक!
बाद में अमरीका से
नई फैशन की इबारत आई
उन्होंने सुन्दरता की
लिखी नई लिखाई!
चौड़ी हो या नथुनी मोटी
नाक बिन है सूरतिया खोटी
बिन नाक के जीना है व्यर्थ
यही है सुन्दरता का सही अर्थ!
तब से हम नकली नाक लिए
फिरते हैं दिन रात!
है नकली पर ठहरी
विदेशी चलेगी सालों, नहीं ली देशी
देखो तुम इसे छीन कर
न बनो ऐसे गुस्ताख!
हमने कहा कि बरतते क्यों,
काहे का एहतियात?
था कहाँ ये दोष जन्मजात
सो इसमें कौन सी है
बड़ी शर्म की बात!
हिन्दुस्तान में यही तो
चल रहा है दिन रात!
अन्तर केवल इतना ही है जनाब!
नकटा कहना हमने माना है खराब!
अबकी भीम को परास्त कर ही देगा जरासन्ध
पर्ण सङ्केत आलोचना पर लगा दिया प्रतिबन्ध।
आपकी तारीफ कर रहा हूँ और आप नाराज़ हो रही हैं?
आपकी तारीफ कर रहा हूँ और आप नाराज़ हो रही हैं?
ऐसा क्यों?
क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि
आपकी गालों की लालिमा
बन्दर के नितम्ब की तरह है।
यह छान्दोग्य उपनिषद में प्रयुक्त उपमा है।
क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि
आपकी हर्षध्वनि
मेढ़कों के टर्राने जैसी है!
यह दार्शनिक औ' वैदिक उपमा है।
क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि
आपका रङ्ग
कोयल की तरह आकर्षक है!
यह रङ्गभेद विरोधी मौलिक उपमा है।
क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि
आपकी उलझी जुल्फें
एक राजनैतिक पार्टी के चुनाव चिह्न** जैसी हैं!
यह ईमानदारी के ठप्पे वाली उपमा है।
क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि
आपकी कविता
ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविता जैसी है!
यह समकालीन कविताओं की प्रतिनिधि कविता है।
मैं हर चीज को नवीन दृष्टि से देखने लगा हूँ
और उसी पढ़ी-लिखी दृष्टि से आपको भी दिखाना चाहता हूँ
वही नए आयाम, झुंझलाए हुए लड़ाके समीक्षक
जिसे आधुनिक सौन्दर्यबोध कहते हैं
आपकी तारीफ कर रहा हूँ और आप नाराज़ हो रही हैं?
ऐसा क्यों?
(*छान्दोग्य उपनिषद् के श्लोक १.६.७ में ब्रह्म की उपमा के लिए प्रयुक्त पद 'कप्यासं पुण्डरीक' की व्याख्या आदि शङ्कराचार्य ने पुण्डरीक (सफेद कमल) की उपमा 'बन्दर के नितम्ब' की तरह लाल से की है। सदियों बाद रामानुजाचार्य इस पारम्परिक व्याख्या को स्वीकार न कर सके और उन्होंने अलग व्याख्या की। कई अन्य वेदान्त सम्प्रदाय उक्त उपमा का अर्थ रामानुज के अनुसार 'सूर्य द्वारा खिलाया हुआ कमल' से लेते हैं। ध्यातव्य है कि रामानुज 'कपि' का अर्थ बन्दर की बजाय सूर्य से लेते हैं।)
** यहाँ चुनाव चिह्न की व्यञ्जना 'झाडू' से है।
(सितम्बर 8, 2024)
आपको कुत्ता काट लेगा
पुरानी बात है
सुनी सुनाई है
कहते हैं
इसमें कुछ सचाई है
लोहे को लोहा काटता है
हीरे को हीरा काटता है
आप बच के चलिए
आपको कुत्ता काट लेगा
आपमें वफादारी है
गजब की होशियारी है
सूँघ लेते हैं आप
अब किसकी बारी है
जिधर हो रहा हो
प्रसाद वितरण
उधर ही दौड़ता है
आपका चञ्चल मन
कहाँ सो पाते हैं आप
रात भर या दिन में चुपचाप?
टकटकी सी लगी रहती है
कुछ कमी बनी रहती है
पहले जूतों को
आप चाट जाते हैं
फिर वहीं बैठ कर
पॉलिश लगाते हैं
हमने नहीं कहा है
बिरादरी ने बताया है
यही सच है कि
आप दुम हिलाते हैं
कोई जब घूमता है सुबह-सवेरे
कुत्ते के साथ-साथ
कौन किसको घुमाता है
नहीं समझ आती है बात
यह झपटना यह भौंकना
आपने सीखा कहाँ से है
क्योंकि लगता नहीं यह
मर्ज आपका खानदानी है
निश्चय ही यह कुछ
आप ही की कारस्तानी है
न जाने कहाँ और कब
गिर कर किसी दिन
आपकी रीढ़ टूटी या कमर मुड़ गयी
तभी कुछ खूबियाँ खुदबखुद जुड़ गयीं
आप ही की कारस्तानी है
न जाने कहाँ और कब
गिर कर किसी दिन
आपकी रीढ़ टूटी या कमर मुड़ गयी
तभी कुछ खूबियाँ खुदबखुद जुड़ गयीं
भौंकना, गुर्राना
हाँफना, जूठा खाना
गले में पट्टा लगाना
और संभव है आपने भी
अब समझ लिया है सहर्ष
पशु प्रेम का अनमोल रहस्य
कि वे तभी तक
मन बहलाते हैं
जब तक कि
काट नहीं खाते हैं
इसलिए दोहराता हूँ
आपको कुत्ता काट लेगा
आपका लहू चाट लेगा
और आप भी एक दिन
अपने प्यारे आका को
नोच लेंगे, चीर देंगे
जब वे आपको मलाई
लगी रोटी नहीं देंगे
(सितम्बर 11, 2024)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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