प्रोफेसर रामदेव शुक्ल का आलेख 'भोजपुरी में भारत का देश-राग'

 




भोजपुरी का साहित्य समृद्ध साहित्य है। इसकी चिंताएं स्थानीय तो हैं ही, विस्तृत अर्थों में देखें तो ये अपने देस काल की चिंताएं भी हैं। इसकी अपनी खासियत है बिना लाग लपेट के सहज तरीके से अपनी बात को कह डालना। ग्रामीण जीवन की समस्याओं और विषमताओं से कवि चन्द्रदेव यादव भलीभांति वाकिफ हैं और इसीलिए इन पर अपने भोजपुरिया अंदाज में प्रहार भी करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि चन्द्रदेव यादव भोजपुरी के समर्थ कवि हैं। दिल्ली में रहते हुए भी वे स्वाभाविक रूप से अपनी मूल भाषा भोजपुरी में ही रमते हैं। भोजपुरी में उनका पहला कविता संग्रह है 'देस राग'। इस संग्रह की एक विस्तृत पड़ताल की है रामदेव शुक्ल ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चन्द्रदेव यादव के कविता संग्रह देस राग पर प्रोफेसर रामदेव शुक्ल का आलेख 'भोजपुरी में भारत का देश-राग'। यह आलेख हमें रामदेव शुक्ल के प्रिय और चंद्रदेव यादव के साथी बलभद्र के सौजन्य से प्राप्त हुआ है। इसके लिए हम उनके आभारी हैं।



'भोजपुरी में भारत का देश-राग'


रामदेव शुक्ल


चन्द्रदेव यादव की भोजपुरी क‌विताओं का पहला संग्रह ‘देस-राग’ अपने देश के लोक-तंत्र की खोज खबर लेने वाला है। राजतंत्र की समाप्ति के बाद दुनिया में लोकतंत्र आया, जहाँ कोई राजा-रानी-राजकुमार नहीं होता। हमारे देश का लोकतंत्र कैसा है? उसमें जनता की क्या स्थिति है? इस संग्रह की एक कविता कहती है— ‘लोक राज में जनता नाहीं’। इस कविता में व्यक्त संवाद का एक अंश देखिए—


“कवन देस ह?

कवन गाँव ह?

नाँव बतावऽ

कहाँ ठाँव ह?

के राजा ह?

केवन रानी?

रखें गोसइ‌याँ केकर पानी?

केकर बाजा रोज बजेला?

केकर जिनगी दाँव लगेले?

मंतरी, संतरी, चोर सिपाही

एनकर आपुस में का रिस्ता?

सरह में केकर पगरी उछरै?

केकर इहवाँ बात न बिगरै?

केकरे कपारे मूसर बाजे?

के दुसरे क भरेला पानी?

कहऽ सुनावऽ हे परदेसी

अपने मुलुक क राम कहानी।”


चन्द्रदेव यादव कविता में कहानी कहने में माहिर हैं। इस कविता में कवि अपने देस से आए एक परदेसी से अपने मुलुक का हाल पूछ रहा है। वह जो हिदायतें दे रहा है, उन्हीं से संकेत मिल जाता है कि मुलुक में कुछ ‌भी ठीक नहीं है।–


“सुस्ता ल, निह‌चिंत होइके

हमके ई कुल बात बतावऽ

पानी पी ल्या, तनी जुड़ा लऽ

अहथिर होइके तब समुझावऽ

घबड़ा जिन, हेन्ने चलि आवऽ 

रहस भरल जे बात होय त

मुँह जिन खोला, ओठ सीइ ला

रस बनवाईं? तनी स पी लऽ।” 


इस कविता में कहानी के साथ नाटकीयता का रस भी भरा है। परदेसी जबाब दे रहा है—


“रामसनेही हमार नाँव हऽ

मुलुक उहे ह जे तोहार ह

ओइसे तोहरे देस क मनई

हमरे देस के कहें पछाँह।” 


यह संकेत है कि वह पूर्वी उत्तर प्रदेश का आदमी है, जो दिल्ली की ओर बस गया है।–


“हमरे-तोहरे फरक न कउनो

खाली अलग-अलग ह गाँव

रहन-सहन ह एक्कै जइसन

भासा-बोली एक्कै हउवे

तईं-स बदलल हवे जबान

तोहरे देस के नाईं हमरेव

देस में होला साँझ-बिहान।” 


यहाँ ‘कोस कोस पर पानी बदले, दस कोस पर बानी’ वाला फर्क बता दिया गया है। अब असल बात—


“एक्कै राजा, एक्कै रानी

जे राजा के तेल लगावे

रखैं गोसइयाँ ओकर पानी

जे कंगला ह ऊ रोवेला

ओकर बाजा रोज बजेला

नटई ओकर रोज कटेले

गड़ही के पानी की नाईं

नान्ह उमिरिया रोज घटेले

मंतरी, संतरी, चोर, सिपाही

ई कुल हवें मौसियाउर भाई।” 


अपनी दुर्दशा बता कर परदेसी कहता है—


“कउनो अजगुत बात न अइसन

देस क हमरे जवन छिपाईं

आपन का हम कथा सुनाईं

हमरे इहाँ क अजब हाल ह

आउर बदलल चाल-ढाल ह

झुठ्ठा के सब कहेला सच्चा

ऊ भलमानुस ऊहे अच्छा

दुसरे क जे सोर उपारे (जो दूसरे की जड़ खोदता है, वही भलामानस कहा जाता है।)

ऊ रहीस ह, ऊ खनदानी

ऊ दुसरे क छीन के रोटी

नामू नामू रोज खात ह

अजब जमाना अजब हँ मनई

आपुस क नाता बिलात ह।” 


भारत देश में साधु-संन्यासी का बड़ा सम्मान होता था। आज उनकी अस‌लियत क्या है?—


“साधू कुल फवरेब करेलँ

लगा के टीका पहिर के माला

दिन दुपहरिया करें घोटाला

भगती भोग क जोग निराला

पहिर लंगोटी ओढ़ दुसाला

राजा जी के राह बतावें

मंतरी ओनकैं में हाल बुरा है

मँहगाई ह सुरसा डाइन

खड़े खड़े सबके घोंटेले

हमरे जइ‌सन केतना मनई

कइसों कइसों दिन काटेलँ

...साँझी बेरा चूल्हा रोवे

कठवत रोवे, थरिया सून

हाँड़ी पतुकी, ठिल्ली छूँछ

लइका रोवें  छच्छोधार

मेहर अधोगल, बाप बेमार

ओकर जिनगी रेह बन गइल

सुकठी नाईं देह हो गइल

जे कुछ तन में खून रहल ऊ

बनियाँ बन्ने बन्ने चुसलैं

पुरखन क जे खेत निसानी

ओके अपने जेब में ठूँसलैं।”


नेता की पहचान बताते हुए वह कहता है—


“हम का जानीं के भलमानुस

हम का जानीं के बनमानुस

हम जानीला बस एतना कि

जे किलनी की नाईं चफने

खून चूस के अँठइल होला

अइसन अदमी राछस होलें

ई होलें पँड़ोह के ढोला

मधुरी बानी, माहुर जीव

बात करेलँ पोत के घीव

साँझ-सबेरे तेल लगावें

गाय-बरद के एक बतावें

किसिम-किसिम क भेस बनावें

जेकर तेकर टहल बजावें

जेकर पहुँचा पकड़ लेत हँ

ओकरे सङे घात करेलँ

बच सकिहा त एनसे बचिहा

ई अदमी ना हवें सँपोला

का बखान एनके करनी क

एनकर मुँह करिखहिया हाँड़ी

एनके देख छछुन्नर भागे

देख चरित्तर एनकर भइया

हमके ख़ुद ही लाज लगेले

जनता एनके कहेले नेता।”


नेता समाज को आगे ले जाने वाले को कहा जाता था। आजकल अपने घर-परिवार और हीत-मीत की कई पीढ़ी खातिर जर-जायदाद बनाने वालों को नेता कहा जाने लगा है। नेता शब्द गाली का अर्थ देने लगा है। चन्द्रदेव यादव ने अपने उपमानों के माध्यम से जनता के मन में बनी नेताओं की छछूंदर और करिखही हाँड़ी वाली तस्वीर को उभार कर उनसे बचे रहने की सलाह दी है। स्व. कैलाश गौतम की कविता ‘कचहरी’ का एक दृश्य है—


कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे

वही जिन्दगी उनको देती है बेटे

खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं

सिपाही दरोगा चरण चूमते हैं। 

ऐसा किसके बल पर हो पाता है? 


इसका उत्तर है नेता नाम के जानवर के बल पर। कवि इतने पतन की अकथ कथा कहने के बाद कविता में प्रत्यक्ष हुंकार भरते हुए कहते हैं—


“अइसन बुरा जमाना आइल

जे जागी ना ऊ पछताई

पूँजीखोरवा कटुई बनके

घर घर के नेईं में लगलैं

एनकर केहू सगा न होला

ई त खाली द‌गा देत हँ

सबसे पहिला काम इहै ह

ई कटुइन के मार के भइया

अपने घर क नेंव बचा लऽ

नाहीं घर भहरा जाई त

दब के असमै मारल जइबऽ

हाथ कटे, एसे पहिले सब

मिल के आपन हाथ बचा लऽ

बिना हाथ के मारल जइबऽ

निङ्आ घुमबा पहिन लंगोटी

काटल जइवा बोटी बोटी।”


संग्रह की पह‌ली कविता में गाँव से शहर आए एक आद‌मी से शहर में रह रहा एक व्यक्ति गाँव जवार के समाचार पूछ रहा है। इसे गीत के रूप में गढ़ा गया है, बिल्कुल नवगीत शैली में। 


“का हो रमई,

आवा आवा

कब अइला ह

अउर बतावा

कुसल-छेम सब अच्छा?

...गाँव-जवार  क मनई कइसे?

छोटका-बड़का, ठाकुर-बाभन

नाऊ, धोबी, बरई कइसे?

दादी, आजी, माई कइसे?

कइसे बाटें लड़िका-बच्चा?”


यहाँ तक तो गीत की टेक ‘अच्छा’ का निर्वाह चला है। आगे एक-एक घटना का जीवंत चित्रण है—


“बिटिया क सादी कइला ह?

दस हजार करजा कइला ह?

बर अबहीं बेरोजगार ह?

का कहला ह—ससुरा त एकदम गँवार ह?

दूगो भाई कलरक हउवें

आपन आपन देखत हउवें

ई त बहुत बुरा कइला ह

सच्चों तू खा गइला गच्चा।” 


लगभग पैंतीस वर्ष पहले के दस ह‌जार की कीमत पर एक ऐसा दूल्हा खरीदा गया, जो एकदम गँवार, निरक्षर और बेकार है। इससे बड़ा धोखा (गच्चा) खाना और क्या हो सकता है?


उन्हीं दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में चकबंदी चल रही थी। छोटे से छोटे कर्मचारी से ले।कर बड़े से बड़ा अधिकारी और जनप्रतिनिधि तक गरीब किसान को लूट रहे थे। देखिए—


“चकबंदी क हाल बतावा

परधनवाँ क चाल बतावा

गाँव समाज के हड़पे खातिर

कहाँ बिछवले जाल? बतावा

के-के मालामाल का भइल?

केकर घर पैमाल भइल?” 


चकबंदी कर्मचारियों को घूस देने के लिए घर की औरतों के गहने तक बिक गए—


“नथुनी-झुलनी वियहुतिन के

चौपाले के भेंट चढ़ि गइल?

बटुर गइल भोला क खेती?

जोखू पउलैं ढेर-स रेती?

सामू पाँड़े क चानी ह

बित्ता भर ऊँचा पानी ह?

लड़िका दसवीं फेल हो गइल

बाकी ढेर-स मिलल बरच्छा?” 


चकबंदी से मालामाल होने वाले पाँड़े का बेटा दसवें दर्जे में फेल हो गया, लेकिन उसकी शादी मालदार घर में पक्की हुई, बहुत धन बरच्छा में पा गया।


लूटपाट के साथ गाँव में बढ़ते अपराध और यौनाचार की कथा अगले चरण में—


“पिछले महिन्ना गजब हो गइल

फउदरवा क कतल हो गइल।

हुईं-टुईं  में बात बढ़ गइल

पुसपी-परकसवा के लेके

फउदरवा कइ दिहल ठिठोली

बस एतना मा चल गइल गोली।

अब त पुसपी के परकसवा

सरेआम रखले ह

परकसवा बन गइल चौधरी

ओही क सब लेत ह पच्छा।” 


जब गाँव का सबसे बड़ा हरामी पंचाइत करने लगे तो यही होगा कि उसी तरह का अपराधी अपने दुर्बल पड़ोसी का घर-द्वार बरबाद कर देगा—


“झुरिया क देख मनमानी

जमुना के दुआर क पानी

रोकलै सीना ठोंक हरामी।

ओकर घर त ताल हो गइल

एक ओर क पाख गिर गइल।” 


फिर पंचायत हुई। 


“पंचइती में गुंडा अइलैं

मुरगा-मुरगी रुपया खइलैं

परधनवाँ कहि के आइल ना

पंचइ‌ती में फरियाइल ना

तोहईं बूझा गल्ती केकर

के झूठा ह के ह सच्चा?” 


सरकारी योजना, उनके बनाने वाले और जनता को लूटने वालों के खुले खेल का हाल यह है कि—


“बेफालतू नद्दी-नद्दी

मेड़ा बन्हल

कि बाढ़ क पानी, फइले ना

अब का हम बोलीं

पहिले बारिस में भहराइल

एके तनिको अक्किल नाहीं

पानी के धारा से कइसे मेड़ा मेड़ी करिहैं रच्छा?”





लगभग तीन दशक पहले सरयू के किनारे एक गाँव के मास्टर ने अपनी विधवा बहू से कोर्ट मैरिज इसलिए कर लिया कि उसके मरने के बाद हुए‌ बेटे को वारिस के रूप में बहुत दिन तक धन मिलता रहे। गाँव की पंचायत ने मास्टर को जाति-बाहर कर दिया। उसने कोई परवाह नहीं की। चन्द्रदेव जी ने वैसी ही एक घटना का वर्णन किया है—


“पलटनिहाँ लड़िका मुसया क

मर गइल, मुसया क

कर्हियाँव टूटि गइल

मुसया रोवे—‘हाय गोसइयाँ

अब के देई पिंडा-पानी

कइसे पार करब बैतरनी?” 


यहाँ तक मरने के बाद, बेटे के हाथ से पिंडा-पानी न पाने की चिन्ता चलती है, लेकिन उस पर भारी पड़ती है जवान बहू की देह और बेटे के मरने के बाद मिलने वाली पेंशन। 


‘फिर पिंसिन क चिंता लागल

सूतल पाप मने क जागल।’ 


समस्या थी कि उसकी अपनी पत्नी का क्या होगा या वह कैसी प्रतिक्रिया करेगी? उसका समाधान वह कामान्ध और लोभान्ध बूढ़ा अपने आप खोज लेता है। 


“ओकर मेहर आन्हर-भेभर

ऊ का जाने दुनियादारी

सुने मरद क बदलल बोली

हँसी-ठिठोली अउर चिकारी

मुसया पतोहिया से लस लगा के

आपन सूतल भाग जगउले

ओकरे तन से लड़िका जनमल

सुन्नर-मुन्नर, चान-स उज्जर

बात विरदरी में जब फइलल

मुसया लीपापोती कइलै

पंच कहैं, ई घोर अनेत ह

ई कुल बात कयास से बहरे

केहू के ना आज घरी तक

जनमल डेढ़ बरिस पर लइका।...

कइलैं ओके पंच कुजतिहा

मुसया पंचन के गोड़े पर

पगरी ध के  रोउलै-धोउलै

तब जाके ई ममिला सलटल।”


इस घटना पर कवि की ओर से समाज की टिप्पणी है—


“हँसा नाहिं, ई एकदम सच ह

ससुर भतार, पतोहिया मेहर

ससुर भरोसे ऊ लड़िकोहर,

नया जमाना बात नई ह 

केके केके गंगा झोंकबा

केकर केकर लेबा परिच्छा?” 


इस तरह के घोर अनर्थ का कारण है—


“जनता पल्टीबाज हो गइल

मेल-मोहब्बत कहाँ खो गइल?

केहु कंगरेसी, केहु भजपाई

बाप-पूत में भइल बुराई

जेके देख उहै उधाइल।”


...हम पूछली नेताजी से

ई जवन हवा चल पड़ल गाँव में

एकरे बिख से सब मर जाई।

ऊ कहलैं तपाक से—

‘जे कुछ होत ह, ऊ कुल ह अच्छा!” 


नेताओं के लिए सब कुछ अच्छा इसलिए है कि समाज जितना बिगड़े‌गा, राजनीति का व्यापार उतना ही मुनाफा देगा।


अगला चरण गाँव के उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोजगार युवकों की समस्या से जुड़ा है—


“जेतना पढ़वइया लड़िका हँ

छोड़ पढ़ाई भइलैं अवारा

ओनकर कइसे होई गुजारा?

देखा, बिकरमा के नाती के

एम्मे-बी.ए. कइके बइठल

खेती में ना दीदा लागे

नेता-परेता के पीछे भागे।” 


खूब कमाई करने वाले निरक्षरों का हाल यह है—


“ओसे अच्छा लोकया हउवे

लिख-लोढ़ा पढ़ पत्थर साला

ओकर बाप दलिद्दर रहलैं

बाकी अब ना कउनो कसाला

जाके बम्मईं कमा-धमा के

पइसा से मजगूत हो गइल

गाँव पूर में जब आवेला

सीना तान उतान चलेला

पढ़वइयन के ताना मारे

सबके सम्हने सेखी बघारे।” 


परदेस में जा कर चोर उचक्का बन जाने वालों को स्मरण करने के बाद गाँव में दुकानदारी करने वालों की पोल खोलता हुआ कवि कहता है—


“सच्चों ऊ ह बहुत हरामी

सरसों में भड़‌भाड़ मिलावे

डलडा के ऊ घीव बतावे

डंडी मारे बइठ दुकानी।”


गाँव में इस तरह धतकरम करके धन कमाने वालों और धन लूटने वालों की कमी नहीं है। लेकिन गाँव-समाज में ऐसे लोगों को भी सबक सिखाने वाले मौजूद हैं। देखिए—


“कतवरुआ अब जज्ञ कराई

जज्ञ में सुमिरन पाँड़े ओके

अइसन मुड़िहैं, ऊहै जानी

आई-बाई गुम हो जाई।”


गाँव की राजनीति-उपचुनाव में क्या हो रहा, इसे भी देखिए—


“छोटके ओट में जगया अबकी

निरदल हो के खड़ा हो गइल

ओकर कद कुछ बड़ा हो गइल।

बड़का-छोटका सब समझवलै

बाकी ऊ ना कदम हटवलै

अब केहू के कुछ ना बूझे

बड़‌की गोल के कुछ ना सूझे

ऊहो पट्ठा हिम्मत वाला...(बोला) 

अब जगया से पड़ल ह पाला

सबकर करनी करब उजागर

खोलब सबकर चिट्ठा कच्चा।” 


‘कुसल-छेम सब अच्छा?’ में एक ओर नई कविता की रवानी है और दूसरी ओर मुक्तछंद की लयात्मकता और गंभीर व्यंग्य की चोट के साथ ग्रामीण जीवन का नंगा यथार्थ। इस पूरी प्रक्रिया में भोजपुरी भाषा की बहुत सी विशेषताएँ देखी जा सकती हैं।  


‘बदलाव’ कविता में आजादी आने पर गाँव कितनी तेजी से बदले, इसको अत्यंत सहज और सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है—


“अजादी के बाद

मुआरी हो गइल गाँव

हरित क्रांती के फुहार से

सुगबुगाइल

पौ फाटल

सबकर चेहरा हरियाइल।” 


जो हानि हुई, उसकी ओर कवि का ध्यान जाता है—


“बाकी येह विकास के चकचोन्ही में

बिला गइल समाज-भाव

रमी खेलत क भूल जालें लोग

कि पड़ोस में गमी ह।” 


पहले जीवन पद्धति ऐसी थी कि सबको साथ-साथ रहना और काम करना होता था। अब कितनी तेजी से बदल रहा है समाज—


“एक पीढ़ी के सङ्ए चल गइल रहट-ढेंकुली

दुसरी के सङ्ए दोन-दउरी

आ तिसरी के सङ्ए जाँत-जँतसार

हुक्का-चीलम—कहनी-खिस्सा।” 


अब नये युग में हुक्का-चीलम कौन पिये, वह खूँटी पर टाँग दिया गया। कवि कारण की तलाश करते हैं—


“हुक्का खूँटी पर टँगा गइल

येह बदे ना

कि तमाखू महँग हो गइल

येह बदे कि नइकी पीढ़ी के नजर में

चरस-सिगरेट

सस्ता हो गइल तमाखू से...

जेब में पइसा होवे के चाही

पइसा हलाली क हो चाहे दलाली क

जेकरी जेब में पइसा ह

ऊ बजार क सरदार ह

फिर दूध बेच के ताड़ी-सराब पियले में

हर्जा का ह?...अ सराब-कबाब बदे

चारों लंग बजार ह

सच में निठल्लन बदे बजार जरूरत ना

सउख ह

जउने देस में निकम्मापन रहीसी के निसानी होय

वोह देस में

हुक्का क सराध काहें ना होई

प्रेम-मोहब्बत काहें न जरी चूल्ही-भाड़ में

काहें न बढ़ी

इरखा-बयर-तकरार

माना न माना

नइकी पीढ़ी

अपने सुविधा खातिर

दुविधा में ना पड़त।”


गाँव में पढ़ने वाले युवक शहर चले जाते हैं। खेत रेहन रखवा कर या माँ-बाप से जबर्दस्ती खेत बिकवा कर या चोरी-छिनैती करके वे अपने अनैतिक शौक पूरा करते हैं। कवि बताना चाहते हैं कि किसी काम को करने से पहले दुविधा में वह पड़ता है जो उचित-अनुचित पर विचार करता है, जो बुद्धि-विचार, विवेक से शून्य हो गया है, वह दुबिधा में नहीं पड़ता।





आजाद भारत के पहिले चुनाव के बाद युवा पीढ़ी का मोहभंग हुआ तो कविता में उसकी पीड़ा अनेक रूपों में व्यक्त होने लगी। शहर के नौकरीपेशा लोग मँहगाई और क्रयशक्ति के निरंतर कमजोर होते जाने से हाँफने लगे—


“हर सुबह

काम क बारह घंटा

सवार हो जाला कान्ही पर

रोज संझा के

समय बदरंग कइ देला मजूरन क चेहरा

धीरे-धीरे बीत जाला

एही तरे पूरा एक महिन्ना

तीसवें दिन तक

झर झर के ओरा जाले तनखाह 

महिन्ना के चलनी से

मेहरारू पीटेले छाती—

नून-तेल ओरा गइल ह

भरे के ह लइकन क फीस

देवे के ह मकान क किराया।” 


जो पीड़ा गाँव से शहर आए लोग जिन बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से कविता में व्यक्त कर रहे थे, यह कवि भोजपुरी कविता में उन्हीं बिम्बों और प्रतीकों में अपनी व्यथा-कथा रच रहा है—


“आँस पी के कहीला

ई घर गिरस्ती क हिसाब ना ह

बिसवास ना हो त देख ले

ई हमरे जिनगी क बही ह

एम्में सब दर्ज ह— 

मालिक क साजिस, कफन खसोटी

हमहन के भरोसे माथे पर लगल अठन्नी भर क टीका

बित्ता भर क चोटी

आँख में बेसरमी, जबान क नरमी...

देख धियान से देख

इहाँ खून क कीमत कम

रुपया क कीमत बेसी ह।” 


चन्द्रदेव यादव पैनी निगाह से देख पा रहे हैं कि 


“ई हमरे-तोहरे समझ से बहरे ह

काहे से कि ई हिसाब खाँटी बिदेसी ह।” 


इस देसी लगने वाले विदेशी गणित का खुलासा प्रेमचंद के ‘महाजनी सभ्यता’ वाले लेख में देखा जा सकता है। योरोप से आया बिम्ब महानगर की हिन्दी कविता में प्रयुक्त हुआ, चन्द्रदेव यादव उसे भोजपुरी कविता में ले आए—


“सच त ई कि

अदमी अपने जाँगर के बदले

दाल-रोटी ना खाला

अपने खून के निथार के हथेली पर

अदमी रोज रोज चाटेला।”


‘दुसुवारी’ कविता में कवि का अपने मन से सीधा संवाद एक गहन विषय का मंथन करता है। पहले प्रेम कविता की झलक मिलती है—


“अँखियन में रात कटल, जाने

केकर सुध आइल, रात गइल

मन भइल बेकहल अनरस में

धीरे-धीरे भिनसार भइल।” 


रोमैंटिक माहौल में कवि का मन से संवाद चलने लगा—


“पत्तिन पर ओस उतर के जब

खुसबू से मिताई करै लगल

जब चान तलइयन में आके

कुइयन से सगाई करै लगल

मन केकरे मन से मिल के तब

चुपके से हिताई करै लगल।” 


मन की अप्रत्याशित हरकतों का नतीजा क्या?—


“अनबोलता के अब पाँख उगल

उड़ कहाँ नताई करै लगल

खटपाटी ले कबहूँ उतान

देहियाँ बिन बादर क्वार भइल

मन बिना चैन आवै ना अब

जीअब केतना दुसुवार भइल।” 


जिसका मन खो गया हो, उसे पता नहीं कि कहाँ गया मेरा मन, उसकी देह बिना बादल के क्वार जैसी छूँछी, नि:सत्व तो हो ही जाएगी।


यहाँ तक तो मन के द्वारा मन की खोज चली। आगे पश्चिम की नकल-सामाजिकता से दूरी दिखाई पड़ी—


“पछुआ बयार जब से चललीं

सबकर मन रंगल सियार भइल

पुरना तेवहार बिला गइलैं

सबकर नवका तेवहार भइल

दू अच्छर पढ़ के गिटिर-पिटिर

नवका बुढ़वन के डोटेलँ

रस भरल थार सम्हने क छोड़

ऊ जूठा दोना चाटेलँ।” 


एक कारण को ‘पछुवा बयार’ के रूप में पहचाना गया है, जिसका व्यंग्यार्य है—जब से पश्चिमी प्रभाव भारतीय युवा मानस पर पड़ा है, अंगरेजी बोल कर बड़ों का अपमान किया जाने लगा है। यह वैसा ही है जैसे रस से भरा हुआ थाल छोड़ कर कोई जूठा दोना चाटने को आधुनिकता मानने लगे।


गाँव कैसे बाजार बनते जा रहे हैं—


“देखतै देखत दुनिया बदलल

देखत हई गाँव बजार भइल

मन लुबधल ओहि बजारे में

अपने मन क सरदार भइल

का करीं, जतन से कवने अब

मन के परबोधीं, आ मरदे!

इन्नर के परी क आस छोड़

अपने माटी में रस भर दे।” 


गाँव बाजार बन गया तो उसका विस्तार होता गया—


“अपने हर गली मुहल्लन क

बाकी दुनिया से तार जुड़ल

अपने इहवाँ के मनइन क

दुसरे देसन में नार गड़ल” 


नार गड़ने का मतलब है वहीं जन्म लेने वाला। यहाँ संकेत यह है कि पश्चिम की हवा लग जाने पर अपनी जन्मभूमि को छोड़ कर योरोप अमेरिका में सदा के लिए बस जाना। ऐसे राष्ट्रद्रोहियों का आँकड़ा है कि हर साल पन्द्रह से बीस हजार धनाढ्य लोग भारत में अपना सब कुछ बेच कर उधर ही बसते जा रहे हैं।


मन से कवि कहता है—


“मन, तोंहके हम समझाईला

हमसे लामे चलि जाला जब

हम बेर बेर गोहराईला

पच्छूं के भरोसे रहले से

जिनगी आपन निरधार भइल

कब तक उधार पर केहु जीई

ई सारी उमिर उधार भइल।” 


ऐसे उद्यमियों, अफसरों और गलित पलित नेताओं को ध्यान में रख कर कवि कहते हैं—


“तूं देस क पेंड़ी खन देबा

आगी में जनता के जरबा।” 


पेंड़ी पिंडी को कहा जाता है। कवि की चेतावनी है, मन के बहाने ऐसे लोगों को, कि जब तुम देश की बुनियाद ही खोद डालोगे तो जनता के क्रोध की आग में जलना ही पड़ेगा।


राजनीति की कुटिलता के कुछ और चित्र दिखाने के बाद मन का जवाब आता है—


“मन बोलल हमें दबावा ना

अपने के तनी समझावा ना

चढ़‌के तूं पुरनकी नइया पर

पानी में हमें डुबावा ना...

देखा दुनिया कहवाँ पहुँचल

चुपचाप तुहूँ चलि आवा ना

ई नया जमाना ह प्यारे

अब नयी रिकित क बात करा।” 


नई रीति क्या है?—


“दुसरे के झोंका चूल्ही में

जिन पाप-पुन्न से तनिक डरा

तूं आँख खोल देखा, नइकी

दुनिया केतना रसदार भइल।”


सबके सुख-दुख में शामिल हो कर रहने वाला पुराने विचार का आदमी सोचने लगा—


“हे राम, भइल मनवाँ मुँहफट

अब समुझ में कुछ ना आवेला

ई सपना ह कि हकीकत ह

ई बेर बेर  भरमावेला

जब लगल आग सगरो जग में

आगी से आग बुतावेला

बिखबँवर कमिनियाँ के पीछे

दिन-रात ई ससुरा धावेला।” 


कामिनी उस सुंदर युवती को कहा जाता है जिसे देखते ही पुरुष में वीर्य क्षोभ उत्पन्न होता है। उस‌की सारी काम‌नाओं को पछाड़ कर यही कामना उसे अपना गुलाम बना कर उससे पाप करा लेती है। ऐसी कामिनी को विष की लता कहा जाता है। इस मर्यादावादी  को लगता है कि—


“जोबनवारिन के कारन अब

सबकर ईमान नसा जइहैं।” 


अपने उच्छृंखल मन के लिए वह कहता है—


“मन लुच्चन क, बेइमानन क, अपराधिन क सरदार भइल।” 


विदेशी रंग में पूरी तरह रंगा हु‌आ मन इस पर प्रतिक्रिया करता है—


“मन डपट के बोलल गिटिर पिटिर

यू ब्लडी फूल, सुन लो मिस्टर

दूधे के धोवल के इहवाँ

छोट मनई मिनिस्टर आफीसर

...येह रूप के मंडी में प्यारे

बिटिया, फूआ ना केहु सिस्टर...

पछुआँ बयार में उड़-बुड़ के

फुरदी से चोला चेंज करा

अपने मउगी के दुसरे से

तूँ जिनिस नाईं एक्सचेंज करा

ओ डार्लिंग हेलो, हाय हाय

कहि के बैतरनी पार करा

‘ॐ नमो सेक्स गॉडेस प्रसीद’

मंतर क निसदिन जाप करा।” 


पछुआ बयार का संकेत वही है, जो पश्चिमी चाल-चलन से प्रभावित है।–


“तूँ सिटपिटात काहें हउवा

जग क ईहै बेवहार भइल

जे कूदल आग के दरिया में

ओकर देहियाँ कचनार भइल।”


यहाँ एक बात स्पष्ट हो जाती है कि हिन्दी कविता में यह सेक्स-समर्पण इस रूप में नहीं आया। कहानियों में आया है। कमलेश्वर की कहानी ‘मांस का दरिया’ और उर्दू के कहानीकारों सआदत हसन मंटो और इस्मत चुगताई की कहानियों में भले मिल जाए—यह डाँट-डपट सुनने के बाद पुरबिया मन नवका मन को समझा रहा है—


“मन रे तूं बहुत ढीठ भइले

चुपचाप इहाँ चलि आऊ रे

ई नयका राग बंद कइले

अलगे खिचड़ी न पकाऊ रे

कुछ देस-पूर क कर लिहाज

उल्टी गंगा न बहाऊ रे

हम जानत हई बात ई कुल

हमके ना पाठ पढ़ाऊ रे।” 


पश्चिम की हवा में उड़ने वाले को वह ‘आचरण की सभ्यता’ का पालन करने की राय देता है—


“पहिचान आचरन से होला

एकरे बिन सब बेमेल रहे

बस देस के माफिक भेस रहे

आचरन क लगल नकेल रहे

केहू लंगोट पर कोट पहिन

ना आपन हँसी उड़ावेला

ना बान्ह के टाई कुरता पर

अपने के भाँड़ बनावेला।”  


फैशन पर विवेक का अंकुश न रहने पर व्यक्ति दुनिया की नजर में अपने फूहड़पन की हँसी कराता है। फिर वह मधुरता से मन को समझाता है—


“मन प्यारे छाती फार सुरुज

अन्हियारा क उग आइल ह

देखा पच्छूँ में चान दुखी

ओकर चेहरा पियराइल ह।”


यहाँ सांगरूपक पूरा होता है—अन्धेरे की छाती फाड़कर सूरज निकल आया है और उधर पश्चिम में चाँद दुखी हो कर पीला पड़ गया है। सूरज पूरब से निकलता है, तब पश्चिम का, योरोप- अमेरिका का चाँद पीला तो पड़े‌गा ही। भोजपुरी छौंक के साथ प्रकृति का पूरब, सभ्यता का पूरब बन जाता है जिसके प्रभाव में—


“अउरू पत्तिन के अँचरा में

कोंढ़िन क मुँह रतनार भइल

अब पुरुब दिसा महके लागल

घर-अंगनाई गुलजार भइल।”


चन्द्रदेव यादव के जेहन में बाजार जनविरोधी रौनक का केन्द्र बन गया है—


“बजार के रवन्नक (रौनक) में 

हजारों किसानन मजूरन के सङ्ए

हमरो खून पसिन्ना सामिल ह

येह रवन्नक बदे उजर गइल केतनन क खेत

केतनन क जिनगी क बाती हो गइल गुल।” 


कवि बताते हैं कि आदमी बाजार में पूर्णमासी बन कर आता है और अमावस बन जाता है। 


बाजार के सर्वग्रासी रूप का चित्र है—


“बजार सर्वग्रासी ह—

हाड़‌-मांस, अदमी, जनावर, खेत-खरिहान

जीयत-मरल

सब भकोस जाला।

एही से बजार जेतनै मोटाला

गाँव-जवार ओतनै दुबराला

...बजार दिन-रात

बालू से तेल निकालेला

हर गाहक बजार बदे कोल्हू क घानी ह

जहाँ पेरल जाला

गाहक क हँसी-खुसी

अ ओकर सपना।

जइसे चूँटा के पता होला

गुड़ क ठेकाना

ओइसे बजार वालन के मालूम होला

केकरे फेंटा में रखल ह

मोहर-गिन्नी, धेला-पाई आना

गहकिन क पाई-धेला

नद्दी क धार ह

छोट-छोट पूँजी क प्रवाह

समुंदर में जा के गिरेला

समुंदर बजार ह ।... 

रूप के धाँस, अ पूँजी के फाँस से

सबकर गला भर जाला

बोतल में रंगीन पानी ना

कउनो सुंदरी क मादक रूप बिकाला

पूँजी अ रूप के जुगलबंदी से

गाहक ठगल जाला।”


शेयर बाजार और जूआ-सट्टा का एक दृश्य—


“बजार मदारी के तमासा ह

एकर अजगुत अजगुत भासा ह

इहाँ हर चीज किनाला

इहॉ हर चीज बिकाला

इहाँ पलक झपकते करम फूटेला-सँवरेला

लाख क खाक

अ खाक से लाख होला पल भर में।” 


बाजार मानवीय भावनाओं और व्यक्तिगत संबंधों में भी घुसा हुआ है।–


“इहाँ पियार में बजार ह

उधार में बजार ह

उकसावे भड़कावे में बजार ह

सरकार बिगाड़े बनावे में बजार ह

सच में दुनिया एक बजार ह

बजार सत्ता से

बेवस्था से

सब केहू से बड़ा ह

एसे केहु केतना बची

बजार सबके घरे में

लालच क फंदा लेके खड़ा ह।”   


बाजार का फैलाव इतना बढ़ ‌गया है कि एशिया की सरकारों के बनने-बिगड़ने में अमेरिका की करतूत होती है। वे तय करते हैं कि फलां देश की सरकार में प्रधानमंत्री कौन बनेगा या गृहमंत्री कौन बनेगा और रक्षा मंत्री कौन बनेगा। ‘आपन लोग’ कविता में वैश्विकता के नारे का खोखलापन, शहर और गाँव की दूरी, घर से घर की भावनात्मक दूरी का हाल यह है—


“घरे घरे में खड़ी कइके देवाल

लोग करै चाहेलं

आत्म-विस्तार

बैश्विवकता के लंगोटी में

बान्ह के खुद के

स्थानीयता के तिरस्कार करैलं लोग।” 


भारतीय समाज के बिखराव को ठेठ देशी अप्रस्तुत से प्रभावशाली बनाते हुए कवि कहते हैं—


“बिश्वग्राम के छोड़ीं

तनी एह बारे में सोचीं

खुद के एक बनावे में

कहाँ भइल ह चूक?

लगत ह

जोरन के बदले

दूध में डाल दीहल गइल ह छेना क पानी।” 


अपनी सर्जनात्मकता की ओर से बयान देते हुए कवि की चिट्ठी है—


“हे हमरे इलाके के परम आदर‌णीय सर‌कार!

इहाँ अतवारू, सोमारू

घुरहू-कतवारू—सब केहू क

स्वीकार करीं नमस्कार

इहाँ सब केहू जोहत ह

तोहार राह

निरहू क सिकाइत ह कि

दिल्ली जातै भुला देहलीं

अपने गाँव जवार के लोगन के

तनी याद करीं

पिछले इलेक्सन में

रउवां अपने हाथ से बँटले रहलीं

मेहरारुन बदे लुग्गा

आउर सौ सौ ठे रुपया

जुठना त तोहार बचल खुचल चिखना

आ पाउच वाला परसाद पा के

अघा गइल

अबहीं ले गुन गावेला...”


एम.पी. हो कर नेता जी कितने व्यस्त हो गए हैं, इसे  गाँव के लोग खूब समझ रहे हैं—


“राज काज से फुरसतै ना मिली

त दरसन कइसे दीहैं

जब रउवाँ अपने लइका के पेट्रोल पम्प 

अ मेहरारू के मॉल के उद्घाटन में ना अइलीं

त हमहन त परजा हईं

तबो रउवाँ से निहोरा बा कि

छठे छमासे जब कबों आईं

हमहन के एक झलक जरूर देखाईं।


...हे परम सक्तिमान एम.पी. महराज!

रउरी दया से

इहाँ सब कुसल ह

खम्हा त गड़ि गइल

बाकी बिजली बिना इहाँ

हर दिन अमावस ह

घबड़ाईं जिन

सँझवट जरावे खातिर मिल जाला

थोर-बहुत किरासिन तेल

सहर में मुर्गा-मुर्गी वाली बेमारी फइलल रहे त

कुछ लोग ब्लॉक से अइलैं, अ

चेथरू के डेरवाय-धमकाय के

ओकर कुल मुर्गा-मुर्गी ले गइलैं

अ तेल-मसाला के साथ चाट गइलैं

मंगरू क कहनाम बा कि

बहुत परसानी होला कातिक में

डाई-यूरिया बदे खूब होला घमासान

कोआपरेटिव में खाद हो जाला सपना


...रउवाँ त भेजतै होखब दिल्ली से

हमरी समझ में ई नइ‌खे आवत

ई बिचवे में कहाँ गुपुत हो जाले


...रउवाँ के सायद मालूम ना होई

पिछले साल बाढ़ में उखड़ल पुखड़ल 

बंधा क मरम्मत अजुओ ले ना भइल

मीटिंग में परधान कहलैं

श्रमदान क के मरम्मत कइ डाला

अनुदान आई त मेहनताना मिल जाई

जबकि झुम्मन क गनेसवा कहत रहे

एकरी बदे रुपया आ चुकल ह रजधानी से।” 


इसे पढ़‌कर प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बात याद की जा सकती है कि दिल्ली से गाँवों के विकास के लिए जो रुपया भेजा जाता है, उसमें से पन्द्रह पैसा गाँव तक पहुंचता है, बाकी पचासी पैसे बीच के लोग हजम कर जाते हैं।


चन्द्र देव यादव



एम. पी. बन कर अरबों की कमाई करने वाले नेता जी मंत्री नहीं बन पाए, इससे उनके संसदीय क्षेत्र की जनता मायूस है। कवि उपाय बता रहे हैं—‘कउनो संत-महंत से असिरबाद लेईं न।’ व्यंग्य है कि राजधानी में मंत्री बनाने का दावा करने वाले ज्योतिषी, तांत्रिक, दलाल, वेश्याओं की भीड़ लगी ही रहती है। मीठी चुटकी लेते हुए कवि कहते हैं—


“अब्बों से सम्हारीं आपन गाँव-जवार

ना त अगला इलेक्सन आवत ह

अपने इलाके के लोगन से

अइसहीं मुँह फेरिहैं

त हो जाई बंटाधार।”


स्त्री शिक्षा, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे कानफाड़ू नारों के बावजूद गाँव की बच्ची तेतरी सब कुछ नइहर में ही सीख लेगी।–


“तेतरी आज स्कूल ना जाई

काल्हो ना

जब ले ओकर भाय

बड़हर ना हो जाई

ना जाई ऊ इस्कूले

सायद ओकरे बादो ना

का पता एक भाय के बड़ा होतै

पैदा हो जायं दूसर भाय-बहिन

ओन्हैं खेलवही में

बीत जाय ओकर बचपन

तेतरी अब कब्बों ना जा पाई इस्कूल।” 


चन्द्रदेव जी ऐसी बच्चियों की नियति की रेखा खींचते हुए कहते हैं—


“कापी-किताब से दूर

दुसवारी में पलल बचपन

देह, आँख आउर मन

क भाषा पढ़ेला

अपने निहाई पर पीट के

काल खुद‌हीं ओके गढ़ेला।” 


काल के हाथों गढ़ी गई बेटियाँ। लेकिन काल की मंशा को भी झुठला देती है गरीबी और अशिक्षा। इसलिए कविता का अंत इस तरह होता है—


“कवनो अजगुत ना कि

समय से पहिलहीं

हो जाए ओके औरत होए क एहसास

आज के बाद तेतरी 

अपनी माई की नाईं सोची जिनगी के बारे में।” 


दिल्ली पर अरबी-फारसी और उर्दू के कवियों से लेकर मध्य काल और आधुनिक कवियों ने बहुत सी कविताएँ लिखी हैं। एक किताब तो हाल में ही आई है—‘कविता में दिल्ली’। लेकिन भोजपुरी में दिल्ली पर बहुत कम कविताएँ हैं। चन्द्रदेव यादव की ‘दिल्ली’ अपने रंग ढंग में चमकती है— 


“ई दिल्ली ह

रजधानी ह

सबके सपने क रानी ह।” 


सबसे पहले आज की राजनीति पर कवि का ध्यान जाता है—


“ई जोड़-तोड़ क अड्डा ह

ई पाप-पुन्न क गड्ढा ह

इहवाँ क धरम सुआरथ ह

नाता-रिस्ता बेमानी ह।” 


कवि किसी बात या वस्तु का वर्णन कर रहे हों, मजूर-किसान उनकी निगाह में हमेशा रहता है। 


“ई छोट मनइन क खून चूस के

जिन्दा रहल आ जिन्दा ह

ई बड़‌की मछरी ह आउर

छोट मनई इहवाँ डिंडा 

(मछली का छोटा बच्चा) ह

ई कबुरगाह मजदूरन क

इहवाँ साँसत ह हकीरन क

इहवाँ फुटपाथ बिछौना ह

हर निरधङ इहवाँ बौना ह


...ई उप्पर उप्पर से सुन्नर

भीतर भीतर से खाली ह।” 


यहाँ क्यों है निर्धन का यह हाल? यह इसलिए कि 


“ई राजनेत क अड्डा ह

जह‌वाँ जनता के कीमत पर

इक राजपतुरिया नाचेले

ई रोज उघर के सॅबरेले

ई गाल फुला के गावेले।”


तुलसीदास लिख गए हैं कि 


‘हँसब ठठाइ, फुलाउब गालू

दुहुँ न होय एक संग भुआलू।’ 


लेकिन यह पतुरिया दोनों करती है। राजा के मरने पर रानी और राजधानी दोनों विधवा होती हैं। और दिल्ली? 


“छह-सात बेर ई राँड़ भइल

फिनहूँ ई सदा सुहागिन ह

एकरे एक हाथे संख आउर

दुसरे हाथे में खंजर ह

टिसुना (तृष्णा) क इहाँ समुंदर ह।” 


पहले कहावत थी ‘दिल्ली है, दिलवालों की’। आज हालत यह है कि 


“दिल्ली दिलवालन क नाहीं

इहवाँ क मिताई झूठी ह।” 


दिल्ली राजधानी होने के कारण अलग-अलग रंगों में दिखती रही है—


“ई रंगल फकीरी में कब्बों

उन्माद के रंग में लाल भइल

कौरो-पांडो के लाग-डाँट में

ई दिल्ली पैमाल भइल

कबों प्रानपियारी मुगलन क

पृथिराज बदे ई काल भइल

सन सत्तावन के क्रांती में

दिल्ली क का का हाल भइल

केहु उजरल, केहूँ आय बसल

केहु राजा केहू फकीर बनल।” 


दिल्ली में भाषाओं का भी जमघट है—


“ई दिल्ली देस क आसा ह 

इहाँ भाँत भाँत क भासा ह

ई अड़बी-तड़बी बोलेले

जिनगी में माहुर घोरेले।” 


देश का सारा विकास दिल्ली से ही हो सकता है 


“इहवाँ पर देस क संसद ह

अक्सरहाँ जहाँ कनून बने

सबके नियाव क बात इहाँ

जेसे भारत खुसहाल रहे

एकर त ईहै मकसद ह

इहवाँ से हजारन पगडंडी

चारो लंग (ओर) सरपट भागेलीं

हर गांव-नगर बस्ती खातिर

ले के बिकास क फुटल ढोल

ई ढप ढप ढप ढप पीटेलीं।” 


विकास की ढोल को पीटते-पीटते नेताओं ने फोड़ दिया है। आजकल की दिल्ली की दहशत पूरे देश को कँपा रही है। 


एक बहुत प्यारी कविता इस संग्रह में ‘माँ’ है—


“माई क झुर्री भरल चेहरा

फबे जे पर

मोटे काँच क ऐनक सुनहरा।” 


एक अद्‌भुत अप्रस्तुत लाते हुए चन्द्रदेव जी कहते हैं—


“माई क चेहरा लगे

उमिर क अल्पना ह।” 


माँ के चेहरे पर उम्र ने अल्पना बना दी है। वृद्ध मुख की रेखाओं के लिए पहले किसी कवि ने शायद ही ऐसा सोचा हो। 


संदेह अलंकार वहाँ होता है जहाँ कवि (आश्रय) आलंबन (दृश्य) के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर निश्चय नहीं कर पाता कि वह है क्या? यादव जी का अगला अप्रस्तुत है—


“कि बाढ़ के उतार से

गंगा की रेती पर बनल

चीन्हल न जानल चित्र।” 


अगला विकल्प और भी प्रभावशाली है—


“कि ई मेघ-मारुत-कल्पना ह।” 


आकाश में बादल अगणित चित्र बनाते रहते हैं। श्वेतकेशी चेहरे से झरते आलोक का चित्र अपने प्रभाव में भव्यतर है—


“सेतकेसी चेहरे पर

साँझ के

गंभीर सित आलोक जइसन दीप्ति

जेम्में भाव कुछ गहरा

जइसे स्वच्छ निस्चल ताल

ओढ़े साल सुबिसाल

तरइयन से जड़ल

भव्य भोलापन कि जेसे

झरै आठो जाम

कोमल-चाँदनी-स प्यार।”


सौन्दर्य का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है, जब वह प्रत्यक्ष न हो कर स्मृति-पट पर उभरता है। कवि की स्मृति में आकार लेती है–


“एक बूढ़ी देह—जेके एक लाठी क सहारा

कली ममता क जवन

भोरे खिलल कचनार

साँझ भइले पर न मुरझाइल

भइल रतनार—याद आइल”। 


अंतिम दो शब्द चित्र को अधिक प्रगाढ़ बना देते हैं। स्वर्गवासी पिता के पास गई माँ के लिए कवि सोचता है—


“ब्योमवासी पिता के संग

बन के तरई

कि कुईं होके...

सदा हम सबके देखाई

जगत के रूप   माई

याद आई।”


इस संग्रह की सब‌से सुंदर कविता है ‘तू निविया हम पतई’। यह प्रबल पुरुषार्थ और अकल्पनीय नारी-सौन्दर्य के परस्पर आकर्षण की कथा है। सुंदरी को देखकर पुरुष बताता है कि यह बनाई किन उपकरणों से गई है—


“फूल क सत, माटी, महुआ-रस

मस्का आउर मलाई, कचरस

एकरस कइके खूब जतन से

गोरी तोंहके बिधना रचलैं।” 


विधाता ने फूल का सत, महुआ का रस, मस्का, मलाई और कचरस (गन्ने का पेरा हुआ ताजा रस) से मिट्टी को एकरस कर के (सान करके) खूब जतन से तुमको रच कर गढ़ा है। रचना की प्रशंसा में वह कह रहा है—


“ई रचना में खोट न कउनो

एप्पर केहु क उठै न अँगुरी

असमाने के रंग, सुरुज क जोती

अउर जोन्हइया जेम्में

कइसे ना ऊ सुन्नर होअइसन सुग्घर रूप, गढ़न पे

अद‌मी जान परान लुटावें

सबके तूं ठेंगा पर चिरई

राखेलू, तोंहके के भावे?” 


(विधाता की) इस रचना में किसी तरह की कोई खोट (कमी) नहीं है। इस पर किसी की उंगली नहीं उठ सकती। इस रचना के उपकरण हैं—आसमान का रंग (नीला) सूर्य की ज्योति (तेजस्विता) और अमृत बरसाने वाली चाँदनी। ऐसी रचना सुंदर कैसे न होगी? ऐसे सुंदर रूप की गढ़न पर पुरुष लोग अपनी जान निछावर करने को तैयार रहते हैं। लेकिन हे चिरई! तुम तो सबको ठेंगे पर रखती हो, भला तुम्हें कौन पसंद आए? 


अगले चरण में प्रकृति के घरेलू उपकरण लाए गए हैं—


“तोहार लिलार पात पुरइन क

कि ह पान कि सॉझ-बिहान

कि मिसिरी ह जेकरे खातिन

चिंउटी चलैं कतार-कतार

आम के फारी अँखिया कि रे

दुइ गो सुतुही खोलले ओठ

जेसे झाँके मानिक-मोती

ई सुतुही से झरेला इमरित।” 


तुम्हारा ललाट पुरइन का पत्ता है, कि पान का पत्ता है, या मिसरी है जिसको पाने के लिए कतार-कतार चींटियाँ चली आ रही हैं। ये चीटियाँ रसिकों की पाँत बता रही हैं। चीटियाँ की यह पाँत दोनों भौंहें हैं। आम को दो फॉक में बीच से चीर दिया जाय तो बड़ी आँखों का उपमान बनता है। तुम्हारे पतले अधर ऐसे हैं जैसे दो सीपियाँ खुल पड़ी हैं और खुली हुई सीपियों के बीच से मानिक-मोती झलक रहे हों। ऐसे चमकते दाँत हैं। और जब तुम बोलती हो तो लगता है कि खुली हुई सीपी से अमृत बरस रहा है।


अगला उपमान प्रसिद्ध रीतिकालीन कवि ‘रसलीन’ के दोहे का स्मरण कराता है—

‘अमिय, हलाहल, मद भरे स्वेत स्याम रतनार। 

जियत मरत झुकि झुकि परत, जेहिं चितवत इक बार।।’  


‘कि माहुर क पड़े फुहार

जे पर पड़े ऊ गिरै उतान।’ 


जिस पुरुष पर तुम्हारी निगाह पड़ जाय वह  चित्त (उतान) हो कर धरती पर गिर जाता है। 


अगली उपमा दूसरा रंग दिखाती है—


“नैना तोहर अजब लसकाह

जे देखे ऊ सपनल जाय।” 


कहता है—तुम्हारी आँखें चिपका लेने वाली हैं, जो इनकी ओर देखता है उसके मन में (तुम्हें पा लेने के) सपने पलने लगते हैं। ‘सपनल’ सपने से क्रिया बनाने की विशेषता। यहाँ तक तो सुन्दरी सिर्फ देखी और सराही जा रही है। जब वह सक्रिय होती है, तब क्या होता है। 


“मारेलू जे आँख त गोरी

दिन‌वों में हो जाय अन्हार

मर मर जालैं चतुर-गँवार।” 


जब तुम किसी की ओर आँख मार देती हो, तो चतुर या गँवार सब (तुम पर) मर मिटते हैं।

अगली उपमा और धारदार है—


“तोहार बरौनी साही क काँटा

जे पर मनवाँ टँग-टँग जाला

भइल बरौनी जइसे भाला।” 


साही एक ऐसा पशु है जिसकी पीठ पर बड़े बड़े काँटे होते हैं। देखने वाले का मन (उन काँटों पर टँग जाता है। यानी तुम्हारी बरौनियाँ भाला हो गईं।


अगला वर्णन नासिका का है—‘तिल्ली फूल नियर ह नाक।‘’ तुम्हारी नाक तिल के फूल की तरह है। 


“जे भँवरा रस लेवे आवे

ऊ नकुरा में नथ-नथ जाय

नाक हो गइल जइसे काल

सगरो जग में मचल धमाल।” 


रसिक कर रहा है कि तुम्हारी नाक तिल के फूल की तरह है। जो भ्रमर-रसिक पुरुष उ‌सका रस-पान करना चाहता है, वह उसी सुंदर नाक में नथ जाता है। एक व्यंजना यह है कि पशुओं की नाक के बीच की नरम हड्डी में छेदकर के नाथ पहना दिया जाता है जिससे वे गाड़ी हाँकने वाले के वश में रहें। यहाँ विषम स्थिति है कि जो पास आता है, वही नाथ दिया जाता है। नाक काल बन जाती है। जगत में धमाल हो गया है।


सुंदरी को चिरई कह‌ कर संबोधित कर के रसिक ओठों को गन्ने का सरस टुकड़ा कहता है। इसकी व्यंजना यह भी है कि सुंदरी के ओठों की गहरी लाली अंगारी (जलते अंगोरे) जैसी है। उसकी मांसलता को सघन करता हुआ वह कहता है—


“ओठ अंगारी ऊख क चिरई

औंटल दूध के साढ़ी जे पर

बून-बून रस-चूअत जाय।” 


जैसे खूब खौलाए गए दूध की मोटी साढ़ी (मलाई की मोटी परत) पर बूँद-बूँद करके रस चू रहा है। मलाईदार लस्सी के ऊपर जैसे दुकानदार गुलाब जल छिड़क देता है।


अलग से रस-बूँद—‘जइसे अमवाँ के मोजरा से रस-चूवेला’। सुर्ख लाल मिर्च और सुग्गे के संबंध से कबीर की उलटबाँसी शुरू होती है। सुग्गा लाल मिर्च को गौर से देख रहा है। सोचता है कि इसको खा कर मर जाऊँ या बिना खाए रह कर मरूँ (भूखा)। आगे दूसरा रूपक आता है—रस से भरे हुए अंगारों के भीतर कुआँ और कुआँ में कमल है, सिर के बल खड़ा है। कबीर के उल्टा कुआँ से पनिहारी (कुंडलिनी) पानी भरती है।


अगला रूपक सुंदरी की हँसी और बात (बोली) का है। रसिक कहता है—‘हँसी जोन्हइया, बात फुहार’। तुम्हारी हँसी चाँदनी है और बोलती हो तब रस की फुहार (मेरे प्राणों को सींचती हुई मुझ पर) पड़ती है। इसके बाद धुर देहात में धान के पौधों के साथ जंगली वृक्ष आछी, पारिजात, आम, मेहंदी और कनइल (कनेर) के फूलों की मिली-जुली गंध को चुरा कर जो बयार बहती है उससे पूरा दिन संवाद (पूछ-पुछार) होता रहता है–


“कि आछी, परजात, आम क

कनइल, मेंहदी आउर धान क

गंध चोरा के उड़े बयार

दिन भर होला पूछ-पुछार।”


यौवन का तद्‌भव है ‘जवानी’। किसी अंग विशेष से उसका संबंध नहीं है। भोजपुरी में यह शब्द नारी के उस अंग का वाचक बन गया है, जिस पर पुरुष की निगाह मुख के साथ ही पड़ती है—‘उरोजों का जोड़ा’। महाकवि विद्यापति उनका वर्णन करते हैं—


‘पहिले बदरि सम, पुन नवरंग। 

दिन दिन अनंग अगोरल अंग’। 


पहले वे बेर के समान दिखे, फिर नारंगी के समान (ललचाते हुए) क्योंकि उन्हें अनंग (कामदेव) ने अपनी निगरानी में विकसित किया है। यादव जी एक मर्यादा पर ध्यान देते हैं। विद्यापति की पहली उपमा (बेर) बच्ची के संदर्भ में है, सुंदरी नायिका के नहीं। कवि का दोष नहीं, शास्त्रांध विप्र लोग आठ वर्ष की उम्र से पहले कन्या का दान करना पिता-धर्म मानते थे। इसलिए यादव जी बड़का नेबुला से आरंभ करते हैं। (कागजी नहीं, जँभीरी) और अगले ही क्षण उसके उपांग पर मुग्ध होते हुए कहते हैं—


‘रक्खल बेल के उप्पर जामुन।’ 


पके बेल जैसे पीताभ गौरवर्णी उरोजों के ऊपर खूब पकी जामुन रख दी गई है। वह श्याम वर्ण स्तनाग्र जिसे सद्य:जात शिशु अपने अधरों के बीच ले कर माँ का दूध पीता है। आगे बढ़‌ कर वह ऐसे चुंबकीय सौन्द‌र्य के अचूक प्रभाव का वर्णन करता है—ऐसा देख कर कोई रसग्राहक पुरुष जात-कुजात नहीं देखता, अपने आवेग में गुण-अवगुण पर विचार नहीं करता, सब तरह की मर्यादा भूल जाता है। 


आगे आकृष्ट पुरुषों की स्थिति बताई गई है—किसी की छाती (लोहार की) भाथी की तरह  फूलने-पचकने लगती है, किसी की (छाती) फटने लगती है, किसी की धीरे-धीरे फटती है, किसी की तुरंत फट जाती है। कितनों की भगई सरक जाती है (लंगोट ढीली हो जाती है।) जो पुरुष रूप के उस घातक आक्रमण से डरकर भागना चाहते हैं. उनकी नजर फिसल कर (गहरी) नाभि (ढोंढ़ी) में गिर कर डूब जाती है। 


आगे दूसरे तरह का उपमान आता है—जिनका सन सुंदरी के नाभि-कुंड में गिर गया है, उसमें से निकल पाने का कोई उपाय दिखाई नहीं पड़ता है, फिर जैसे मक्खी मकड़ी के बुने हुए‌ जाले में फँस कर छटपटाती है और अंततः मकड़ी का शिकार बन जाती है, उसी तरह रसिक का मन रूप-जाल में फँस गया है। लुब्ध रसिक आगे रूपसी के कटि-प्रदेश (कर्हियाँव) की क्षीणता की उपमा देना चाहता है, तो कहता है कि मेरे पास तुम्हारी पतली कमर की उपमा के लिए कोई अक्षर नहीं है, इसलिए मुँह से कुछ भी कह नहीं पा रहा हूँ—


“चिरई तोहरे कम्मर खातिन हमरे पल्ले अच्छर नाहीं

मुँह से कुछहू कहल न जाला

के बिद‌मान रार भल लेई

माथा पटक जान के देई?

बहुत कहब त इहै कहब कि

कदुआ के डाँठी की नाईं

तोहार पातर ह कर्हियाँव।”


कद्दू के डंठल की तरह कमर कहने की व्यंजना यह है कि भारी नितंबों को सम्हालने वाली कमर इतनी पतली है कि दीखती नहीं, पर भारी भार सम्हाले रहती है। बिहारी लाल की नायिका की कमर तो इतनी पतली है कि ‘सूछम कटि पर ब्रह्म की अलख लखी नहिं जाइ।’



इसके आगे रसिक कहता है—


“कवन मरद जे आँख से बचके

जोबना तरे पिसाये आई

ढोंढ़ी बीच बुड़ुकिया खाई

कमर भँवर में हम ना बूड़ब

कमर बवंडर हम ना ऊड़ब

हम माटी क धूसर लोना

नार बिना हम खाली दोना।” 


कौन ऐसा मर्द है,जो तुम्हारी आँखों के प्रभाव से बच सके? अगर बच भी जाय तो तुम्हारे उरोजों के भार से पिस जाने से बचे? वहाँ से बच जाय तो गहरी नाभि में डूब न जाय। तुम्हारी कमर भँवर है, मैं उसमें डूबना न चाहूँगा। तुम्हारी कमर बवंडर (चक्रवात) है, मैं उसमें उड़ना नहीं चाहता। कुल मिला कर अपनी प्यारी चिरई के रूप में मगन रसिक अपने को उसके बिना अधूरा मान रहा है।–


“हम माटी क धूसर लोना

नार बिना हम खाली दोना

तूं हमार संगी बन जा त

जिनगी होइ जाय रूपा-सोना।” 


तुम्हारे बिना मैं मिट्टी का धूसर (बेरंग) लौंदा हूँ। नारी के बिना खाली दोना (पत्तों का बना पात्र) हूँ। तुम अगर मेरी संगिनी बन जाओ तो जिन्दगी सोना-रूपा हो जाएगी। चाँदी की धवलता और सोने का सुनहरापन—दोनों के मिल जाने से हमारी जिन्दगी चमकेगी।


इतना आग्रह, इतना प्रलोभन पा कर सुंदरी कहती है—


“मरद जात बस बात बनावै

बड़वरगी कइके भरमावै

साँच बात त ई हउवै कि

मरद नार के समुझै नाहीं

बस नैना-बैना पर रीझै

औगुन के अनदेखा कइके

बकर बकर बस किरिया खाला

अइसन मरद बाद में जाके

रोवे, कलपै आ पछताला।” 


मर्द की जात ही ऐसी है कि सिर्फ बात बनाते हैं। मर्द वस्तुतः स्त्री को समझ नहीं पाते, उसकी आँखों और मधुर वाणी पर रीझते हैं। उसके अवगुणों को अनदेखा कर के बस जल्दी-जल्दी उसका विश्वासपात्र बनने के लिए कसमें खाने लगते हैं। ऐसे मर्द बाद में रोते हैं, कलपते हैं और पछताते हैं। इतना समझाने के बाद सुंदरी अपना ही उदाहरण सामने रखकर कहती है कि देखो, मेरी सुघरई (बाहरी सुंदरता) को देख कर न जाने कितने मर्द पटखनी खा गए। 


“देख सुघरई मोर न जाने

केतना मरद पटकनी खइलैं

चोरी लुक्का देख के केतना

अड़वैं आड़े खूब अघइलैं


—मेरे पास क्या, सामने आ कर देखने की हिम्मत भी नहीं कर सके, आड़ में छिप कर अघाते रहे। मेरे रूप का रस-पान करते रहे। 


“कवन धान क तूं हउवा होरहा

केथुआ पर तू करेला गुमान? 


हिंदी में ‘तुम किस खेत की मूली हो’ मुहावरा जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है, उसी अर्थ में भोजपुरी का मुहावरा ‘कवन धान के होरहा हउवा’। तुम्हारे पास है क्या, जिसका गुमान करते हो? सीधे उसको न कह कर वह अन्य पुरुष में कहती है—


“अइसन तइसन मउगन के हम

ठेंगा पर राखीलऽ सुन ल्या

आपन मुँह अइना में पहिले

देखा आउर रस्ता नापा

बड़ा बनल हउवा छैला बाँका।


–-ऐसे तैसे मउगों (कायरों) को मैं ठेंगे पर रखती हूँ। पहले अपना मुँह आईने में देखो (अपनी औकात समझो) और रास्ता नापो। बड़ा बाँका छैला बनने चले हो!


अपने पौरुष और साहस को चुनौती मिलती देखकर रसिक कहता है—


“चिरई हम ऊ मउगा नाहीं

तोहरे बदे जे ओरी-ओरी

फिरकी नाईं नाचत डोलै

चोरी-चोरी घात लगावै

सम्ह‌ने पड़ले बात न निकले

घिग्घी बन्है, बोल ना फूटे।” 


हे चिरई! ध्यान से सुन-समझ लो, मैं वह मउगा नहीं हूँ, जो तुम्हारे घर की ओरी में छिपकर, फिरकी की तरह तुम्हारे आगे-पीछे नाचता रहे और सामने पड़ने पर घिग्घी बँध जाए, मुँह से बोल न मिकले। ‘मैं ऐसा नहीं हूँ’ बताने के बाद वह ठसक के साथ कहता है—


‘हम त सरह बीच में तोंहके

धरबै, कान्ही लेब बिठाय’। 


मैं तो सरह के बीच (सबके सामने) तुमको पकड़ लूँगा और कन्धे पर बिठा कर घर ले जाऊँगा। ऐसा इसलिए होगा कि 


“राम के दीहल जाँगर पल्ले

सौ-सौ लोग बइठ के खाँय।” 


मेरे पास भगवान का दिया हुआ ऐसा बल (जाँगर) है, जिसकी कमाई से सैकड़ों लोग बैठ कर खाते हैं। वह अपने बल और साहस का कारण बताता है—


“हम माटी क बेटवा चिरई

बोईं जौ, गोहूँ औ धान/ 

जेसे महके खेत सिवान।” 


मैं माटी का बेटा हूँ। जौ, गेहूँ और धान बोता हूँ, जिससे मेरे खेत तो महकते ही हैं, पूरा सिवान भी महकता है। 


‘मोर पसिन्ना सगरो झलकै

एही से त भरै बखार

जाँगर करे हमार गोहार’


—मेरा पसीना (मेरे बलवान शरीर पर) झलकता है। (उसी से) अन्न से बखार भर जाता है। एक विलक्षण बात वीर किसान कहता है—(लोग बल पाने के लिए प्रार्थना करते हैं) बल (जाँगर) हमारी गोहार करता है। प्रिया को भावी सुख-सोहाग का चित्र दिखाता हुआ वह कहता है


—“हे चिरई बइठा तूँ   हमरे

अंगना के निबिया के डार

आउर गावा फाग-मल्हार

हम पुरवइया के लहरा में

तोहार अँचरा ओढ़ के सुत्तीं

तूं दुलरावा, हम दुलराईं

जुग-जग भर लेईं अँकवार।” 


प्यारी चिरई मेरे आँगन में झूमते नीम की डाल पर बैठकर फाग और मल्हार गाओ। (फागुन में फाग और सावन में मल्हार) सावन में लहरा कर पुरवैया बयार चलेगी तब मैं तुम्हारे आँचल को ओढ़ कर सोऊँगा। तुम मुझे दुलराओगी, मैं तुझे दुलराऊँगा और वह आलिंगन करूँगा, जो युगों युगों तक नहीं छूटेगा।


अभी यह स्वप्न जैसा प्रस्ताव है। आगे ठोस प्रस्ताव—


“हे चिरई जे मोरे हाथ में

दे दा आपन नरम कलाई

तोंहके चूमब, चाटब आउर

पुतरिन बीच बिठा के राखब।” 


हे चिरई, अपनी नरम कलाई मेरे हाथ में दे दो, तो मैं तुम्हें चूमूँगा, चाटूँगा और आँखों की पुतलियों में बिठाकर रखूँगा। विवाह के बाद हनीमून के लिए शहरी लोग होटल में जाकर रहते हैं। यह किसान का बेटा श्रम पर आधारित सुख का आश्वासन देता है—‘दूनों जून तूं पोइहा रोटी’—तुम दोनों समय—सुबह- शाम रोटी पकाना। हम लोग सुख का आस्वादन करेंगे।


श्रम के सौरभ से महकते सुख के दिनों में वह अपनी पुरुषोचित त्याग-भावना का परिचय  देता है—


‘हम पहिरब भलहीं मरकीना

तोहें लियाइब लाल पटोरी

पहिर के डोलिहा झलमल

चाहे केहु क फटे करेजा

चाहे देह भसम हो जाय।” 


यह पूरी कविता आल्हा छंद और भाव में रची गई है—मैं भले ही मारकीन (मोटा कपड़ा) पहनूँ, तुम्हारे लिए लाल पटोरी (चुनरी) ले आऊँगा। उसे पहन कर तुम झलमल झलमल (झनकारती हुई) धीरे-धीरे चलोगी (तो मुझे आनंद होगा) भले ही (हमारे-तुम्हारे सुख-सोहाग से) ईर्ष्या करने वालों का कलेजा फट जाय, चाहे देह जल कर भस्म हो जाय। किसान का बेटा श्रृंगार को शयनगृह तक सीमित नहीं रहने देता, खेत तक ले जाता है—


“टिकुली, बेंदुली, लगा के टीका

काढ़ के सुन्नर मुन्नर चोटी

हमरे सङ्ए चल्या खेत में।” 


पी, बिन्दी और टीका लगा कर हमारे साथ खेत में चलना। तुम्हारे हाथ में छोटी-सी खुरपी दूँगा। (तुम उससे निराई करना) मैं कुदाल से धरती की गुड़ाई करूँगा। 


“तूं धाने क घास निरइहा दूनों जने 

करल जाई जब

ठाठ से मिल के खेती-बारी

तब्बै जिनगी गमकी गोरी।” 


हम दोनों मिलकर जब खेती करेंगे तभी जिन्दगी गमकेगी। किस तरह? 


“तोहार सुघरई होई दून

तोंहके देख के तन में हमरेव

रत्ती-रत्ती बढ़िहैं खून।” 


रहीम की ग्रामीण नायिका भी सोचती है—


‘लैके सुघर खुरुपिया पिय के साथ। 

छइबै एक छतरिया, बरसत पाथ।’


इतना सब कह-सुन लेने के बाद किसान-पुत्र सोचता ही नहीं, सीधे कह पड़ता है—


“मरद हई न, देख सुघरई

अइसन रिझली कि जिन पूछा

हमरो मतिया मारल गइलीं

तोहार मरम न जनली-बुझली

तोंहके अनरुच लगल होय त

मन में गरिया के चलि जइहा

हमरे सम्हने जिन कुछ कहिहा।” 


किसान युवक लम्पट नहीं है। वीर है, विनीत भी है, इसलिए कहता है—मर्द हूँ न, तुम्हारी सुघराई देखकर ऐसा रीझा कि पूछो मत। तुम्हारा मर्म (तुम्हारे हृदय का मर्म, अभिलाषा) न जान सका, न पूछ सका। अगर मेरा प्रस्ताव तुम्हें अरुचिकर लगा हो, तो मन ही मन में (मुझे) गाली देकर चली जाना। मेरे सामने अस्वीकार की बात मत कहना।


अब तक स्पष्ट हो गया है कि सामने वाला जितना वीर है, साहसी है, परिश्रमी है, उतना ही विनीत और भोला भी है। सच्चे प्रेमी के प्रस्ताव को सच्चे मन से स्वीकार करती हुई वह कहती है—


“माटी क देवता, मोर संगी

माटी क मूरत हम दूनों

सिरीपंचमी तूं, हम पूनों

बात खरी चाहे लागे करुई

तूं मटगरा त हम हई बलुई

तोंहके काहें गरियाइब हम? 

ना हमके तूं मेहना मरला

नाहीं माई-बाप के चोरी

हमरे घर से हमें उढ़रला

सेन्हुर देख लिलार न फोरला

तोहार बात नीक मोंहे लागल

हमरेव मन में जगल पिरितिया

तूँ मोर धड़कन, हम हई सुरतिया

तोंहके दुलहा भेस में चाहब

केहु पूछी त ईहै भाखब—

तोहरे बिना न मोर निबाह

तूं निबिया क पेंड़ी बन जा

हम ओकर पतई आउर छाँह

हमरे गरे क तुहीं गराँव

जियल मरल जाई एक्कै ठाँव।”


— हे  मेंरे माटी के देवता! तुम्हीं मेरे संगी (सहचर) हो। हम दोनों माटी की मूरतें हैं। यादव जी (एक सुंदर अप्र‌स्तुत ले आते हैं) युवती कहती है तुम श्रीपंचमी हो, मैं पूर्णिमा हूँ। फागुन की मस्ती और चैत (नये संवत्सर) का उल्लास हम दोनों से पूरा होता है। मैं बात सीधी और खरी कहती हूँ, भले ही वह कड़‌वी लगे। हम दोनों मिट्टी हैं, पर एक जैसे नहीं। तुम मटियार (मटगरा, जिसमें मिट्टी का अंश अधिक होता है) हो तो मैं बलुई (बालू मिश्रित भुरभुरी मिट्टी) हूँ। दोनों के मिलने से फसल अच्छी तर जमती और बढ़ती है।


फिर वह कहती है—मैं तुम्हें गाली क्यों दूंगी? न तो तुमने मुझे ताना मारा, न मेरे माँ-बाप की चोरी से (छिप करके) मुझे भगाकर ले गए। यह भी नहीं कि अलभ्य चीज देख कर आत्मघात कर लिया। ‘सेन्हुर देखकर लिलार फोड़ना’ भोजपुरी का मुहावरा है। और मेरी गरिमा के विपरीत तुमने कोई आचरण नहीं किया (इसलिए) तुम्हारी बात (विवाह-प्रस्ताव) मुझे अच्छी लगी और मेरे मन में भी तुम्हारे लिए प्रीति जागी। अब मैं समझ रही हूँ कि मैं सुंदर स्त्री हूँ, लेकिन तुम मेरी धड़‌कन हो। व्यंजना यह है कि मुझमें जीवन तुम्हारे कारण संचारित होता है। कालिदास की उक्ति है—प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता—प्रिय की स्वीकृति ही सौन्दर्य का फल है—सौभाग्य है। मैं तुम्हें दूल्हे की वेशभूषा में अपने द्वार पर देखना चाहूँगी और कोई पूछेगा तो यही बोलूँगी—‘तुम्हारे बिना मेरा निर्वाह है ही नहीं।’ इसके बाद प्रिय के रूपक को ही दुहराती हुई वह कहती है—‘तुम (अपने आँगन के) नीम की पेड़ी (तने को सम्हालती पीठ) बन जाओ। मैं उस वृक्ष की पत्तियाँ और उनकी शीतल छाया।’ अगली उपमा ठेठ किसानी जीवन की है—गराँव यानी गाय-भैंस के गले में लिपटी मोटी रस्सी। वह बंधन भी है और गले का श्रृंगार भी। हम दोनों एक-दूसरे को सहारा देते एक ही जगह पर जिएंगे भी और मरेंगे भी।


यह लम्बी प्रेम कविता चन्द्रदेव यादव की श्रेष्ठ प्रेम कविता है। इसमें प्रयुक्त अप्रस्तुत विधान एक शोध-पत्र का विषय है। भारत का ‘देस-राग’ है यह काव्य संग्रह। 


प्रोफेसर रामदेव शुक्ल 



संपर्क :


प्रो. रामदेव शुक्ल 

शीतल सुयश 

प्रो. रामदेव शुक्ल मार्ग 

राप्ती चौक, आरोग्य मंदिर 

गोरखपुर-273003


मो. नं. 9956585193

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