मदन कश्यप की कविताएँ

 

मदन कश्यप 



इस बात में कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है। यह बुद्धि इसे और जीवधारियों से अलग खड़ा करती है। लेकिन मनुष्य के इस बुद्धि की खूबी यह है कि वह दूसरे मनुष्य से चालाकी दिखाने की कोशिश करता है यानी कि दूसरों को मूर्ख बनाने का काम करता है। चालाक लोग दूसरों को मूर्ख बना कर खुद को आत्मतुष्ट महसूस करते हैं। लेकिन वे यह नहीं समझ पाते कि ऐसा कर वे मनुष्यता की भावना को चोट पहुंचाते हैं। अपनी कविता चालाक लोग में मदन कश्यप लिखते हैं 'वे पाँव गंवा कर जूते बचा लेते हैं/ और शान से दुनिया को दिखाते हैं!' मदन कश्यप समकालीन हिंदी कविता के चर्चित कवि हैं। उन्होंने कविता के माध्यम से आम जन के दुखों और  परेशानियों को संजीदगी से रेखांकित करने का महत्त्वपूर्ण  काम किया है। मदन कश्यप के महत्वपूर्ण कविता-संग्रह हैं, 'अपना ही देश', 'गूलर के फूल नहीं खिलते', 'लेकिन उदास है पृथ्वी', 'नीम रोशनी में', 'कुरुज', 'दूर तक चुप्पी', 'पनसोखा है समुद्र'। हाल ही में उनका नया कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है 'बस चांद रोएगा'। कवि को जन्मदिन की बधाई देते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएँ।



मदन कश्यप की कविताएँ 



चालाक लोग 


चालाक लोग इसका पूरा हिसाब रखते हैं 

कि क्या क्या बचाया 

लेकिन यह कभी नहीं जान पाते हैं 

क्या क्या गँवाया


वे पाँव गंवा कर जूते बचा लेते हैं 

और शान से दुनिया को दिखाते हैं ! 



थोड़ा-सा ईश्वर


थोड़ा-सा ईश्वर चाहिए

बस, इतना कि कमर में तेज दर्द हो

तो उसे पुकार सकूँ

बीमार बेटी का इलाज हो रहा हो बेअसर

तो उससे पूछ सकूँ

किसी बेबस बेसहारे के लिए

कुछ न कर पाऊँ

तो उसके हवाले कर सकूँ

जब सूझ न रही हो बेहतरी की कोई राह

तो उसकी मुँहतकी कर सकूँ 


थोड़ा सा चाहिए लेकिन

इतना ज्यादा ईश्वर तो बिल्कुल नहीं चाहिए

कि 'जय श्रीराम! जय श्रीराम!!' कहते हुए

किसी की हत्या कर दूँ!



उद्धारक


हम तुम्हारा उद्धार करेंगे

ज़िन्दा रखा तो जूठन खिला कर

पाँव धुलवा कर तुम्हारा उद्धार करेंगे

मार दिया तो बैंकुण्ठ भिजवा कर

तुम्हारे वंशजों को अपना भक्त बना कर तुम्हारा उद्धार करेंगे 


और किसी आफ़त-बिपत बेला-कुबेला ठौर-कुठौर में

तुम्हारे जूठे बेर खा कर भी तुम्हारा उद्धार करेंगे!






नयी राजतरंगिणी

                                          

दावा तो यह था

कि यहाँ परिंदे भी पर नहीं मार सकते 

फिर भी

कितना समय था हत्यारों के पास

धर्म पूछा 

कलमा पढ़ने को कहा

फिर इत्मीनान से चुन-चुन कर गोली मारी

और निश्चिंत होकर लौट गये 


सिपाहियों को नहीं पता था 

कि  आतंकी यहाँ आएंगे

लेकिन आतंकियों को पता था

 कि यहाँ सिपाही नहीं आएंगे 


वे कुछ लोगों को मार कर 

पूरे देश को  डाराना चाहते थे 

लेकिन नहीं डरा वह नौजवान 

जो एक सैलानी को पीठ पर लाद कर

 दुर्गम रास्ते से भाग चला 

और वह तो और भी नहीं

 जिसने मेहमानों को बचाने के लिए 

अपना सीना सामने कर दिया 


आतंकियों ने पूछा था नाम

 पूछा था धर्म 

लेकिन घायलों को अस्पताल ले जानेवालों ने 

कुछ नहीं पूछा 

इलाज करने वाले डॉक्टरों ने 

कुछ नहीं पूछा


 देखते-देखते सड़कों पर आ गये घाटी के लोग

 जिंदा हो गयी कश्मीरियत

 डरा कोई भी नहीं 

वह ख़ूबसूरत लड़की भी नहीं डरी 

जिसकी आत्मा का सौंदर्य  इतना विस्तृत है 

कि उसमें पूरी घाटी समा जाती है 

और वह बूढ़ा चिनार भी नहीं डरा

 जिसे सब कुछ पता है 

लेकिन उसकी भाषा केवल एक लड़की समझती है

 वह लड़की के कान में  बताता रहता है 

कश्मीरियत का इतिहास

उसी को कंठस्थ है 'राजतरंगिणी' 

वही सुनाता है आखिरी आजीवकों की गाथाएँ

ललद्यद उसी की छाँव में तो रचती थी 'वाख'


बूढ़ा चिनार ढूँढ रहा है लड़की को

और वह लड़की जो  लिखती है कविता 

ढूँढ रही है एक ऐसा मेटाफर 

व्यक्त कर सके जो हमारे समय की करुणा को! 


(युवा कश्मीरी कवि आसिया ज़हूर की कविता 'चिनार और लड़की की प्रेमकथा' से प्रेरित)



चुप्पा आदमी


आदमी के चुप रहने का मतलब यह तो नहीं

कि उसके भीतर कोई हलचल नहीं है

फिर भी उन्हें पसन्द है चुप्पा आदमी 


चुप रहने से बाहर सब कुछ शान्त रहता है

व्यवस्था उसके चुप रहने का इतना अभ्यस्त होती है

कि उसे बोलने मात्र के लिए सज़ा दी जा सकती है 


मगर 'चुप रहने में ही भलाई' बिल्कुल नहीं है 


चुप्पे आदमी की ज़मीन सबसे पहले छीनी जाती है

और मुआवज़ा भी नहीं या नहीं के बराबर दिया जाता है 


किसी भी आपदा में सबसे पहले

और सबसे ज़्यादा मारे जाते हैं चुप्पे लोग!






रीढ़ की हड्डियाँ 


रीढ़ की हड्डियाँ

मनकों की तरह होती हैं

टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी फिर भी जुड़ी हुई

ताकि हम तन और झुक सकें 


यह तो दिमाग को तय करना होता है

कि कहाँ तनना है कहाँ झुकना है 


मैं एक बच्चे के सामने झुकना चाहता हूँ

कि प्यार की ऊँचाई नाप सकूँ

और तानाशाह के आगे तनना चाहता हूँ

ताकि ऊँचाई के बौनेपन को महसूस कर सकूँ!



भूख का कोरस 


जानवर होता

तो भूख को महसूस करते ही निकल पड़ता

पेट भरने की जुगत में

और किसी एक पल पहुँच जाता वहाँ

प्रकृति ने जहाँ रख छोड़ा होता मेरे लिए खाना 


लेकिन आदमी हूँ भूखा

और पता नहीं कहाँ है मेरे हिस्से का खाना

आदमी हूँ बीमार

कहाँ है मेरे हिस्से की सेहत

आदमी हूँ लाचार

कहाँ है मेरे हिस्से का जीवन 


कुछ भी तो तय नहीं है

बिना किसी नियम के चल रहा है जीवन का युद्ध 


चालाकी करूँ

तो दूसरों के हिस्से का खाना भी खा सकता हूँ

पर बिना होशियारी के तो

अपना खाना पाना और बचाना भी सम्भव नहीं 


पेट भरने के संघर्ष से जो शुरू हुई थी सभ्यता की यात्रा

कुछ लोगों के लिए वह बदल चुकी है घर भरने की क्रूर हवस में

बढ़ रहा है बदहजमी की दवाओं का बाज़ार

और वंचितों की थालियों में कम होती जा रही हैं रोटियाँ 


ऐसे में कहाँ जाए भूखा ‘रामदास’

जो माँगना नहीं जानता और हार चुका है जीवन के सारे दाँव

ठण्डे और कठोर दरवाज़ों वाले बर्बर इमारतों के इस शहर में

भूख बढ़ती जा रही है सैलाब की तरह

और उसमें डूबते चले जा रहे हैं

भोजन पाने के लिए ज्ञात-अज्ञात रास्ते!






एक दिन स्त्रियाँ


बैंक होगा 

वहाँ स्त्रियाँ नहीं होंगी

 विश्वविद्यालय होगा 

टेलीविजन भी होगा 

हस्पताल भी होंगे 

 पर स्त्रियाँ कहीं नहीं होंगी 

उन्हें न तो पैसे की ज़रूरत होगी

 न ही शिक्षा या इलाज की 

आवश्यकता बस होगी तो केवल हिजाब की 


काले बुर्कों में कैद कर

उन्हें डाल दिया जाएगा काली कोठरियों में 

जहां कभी-कभी कुछ ख़ौफनाक आवाज़ें आएंगी 

बंदूकों की या अजानों की

औरतों के चीख़ने की या बच्चों के रोने की

धीरे-धीरे मिटती चली जाएंगी उजाले की स्मृतियाँ

 

सबसे जहीन स्त्रियाँ बस जुगत लगाती रहेंगी

 कि पतियों की पिटाई से कैसे बचे

सबसे सुंदर स्त्रियाँ ख़ैर मनाती रहेंगी

 धर्मधुरंधरों की निगाहों से बचे रहने की

फुसफुसाहटों और सिसकियों तक 

सीमित हो जाएंगी सबसे ख़ूबसूरत आवाज़ें 

कला केवल भोजन पकाने की रह जाएगी

वैसे करने को होगा बहुत कुछ 

 लेकिन रसोई और बिस्तर से बाहर कुछ भी नहीं


ज्ञान बस थोपे गये कर्तव्यों के पालन के लिए होगा

दहशत इतनी गहरी होगी

कि कई बार उसके होने का एहसास भी नहीं होगा

फिर एक दिन ब्लैक होल में तब्दील हो जाएंगी

काली कोठरियाँ

और संगीनों के साये में मुर्दा हो रहीं स्त्रियाँ

हमेशा के लिए उनमें दफ़्न हो जाएंगी

बच्चा जनने वाली कुछ मशीनों को छोड़कर! 



घायल बच्चा

                                         

  यह ख़ूँ से लथपथ बच्चा है

  अटके बोल हलक के नीचे

  इतना भी दम नहीं बचा है

  ढब से अपनी मुट्ठी भींचे


  अंदर डर है बाहर डर है

  ख़ूँ-आलूदा  पस मंज़र  है

  भीतर जाने से भय लगता

  अपना घर यह कैसा घर है


  ज़िन्दा है या मुर्दा है

  यह ज़िन्दे में मुर्दा है

  या मुर्दे में ज़िन्दा है

  ख़ून से लथपथ बच्चा है!

                         



सम्पर्क


मोबाइल : 9999154822




टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा चयन, शुक्रिया संतोष जी!

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  2. बेहतरीन और प्रेरक। कविता जीवन से उत्पन्न किन्तु जीवन की विशद व्याख्यान।अप्रतिम।

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