उपांशु की कविताएँ
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उपांशु |
हम मनुष्य हैं, इस पृथिवी क्या इस ब्रह्माण्ड के सबसे समझदार और इसीलिए सबसे शक्तिशाली जीव। अपनी सुविधा के अनुसार ही इस दुनिया को देखते समझते ही नहीं, व्याख्यायित भी करते हैं। यह जानते हुए भी कि जीवन के लिए पेड़ पौधे जरूरी हैं, अंधाधुंध उन्हें काटते जा रहे हैं। यानी अपने पांवों पर कुल्हाड़ी चलाने में भी कोई संकोच नहीं करते। कई बार हम खुद को मनुष्य कहते हुए भी निर्ममता की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। इस क्रम में मनुष्यता शर्मसार होती है। ऐसे में मनुष्य को मनुष्य कहने में भी संकोच होता है। युवा कवि उपांशु अपनी कविता में बेबाकी बल्कि तल्ख स्वर में लिखते हैं : 'कुछ लोग हैं जिन्हें किसी भी तरह का पशु कहना उस पशु का अपमान होगा/ कुछ लोग हैं जिन्हें लोग कहना लोक का तिरस्कार होगा/ मानव से बड़ा कुकर्मी शायद ही धरती पर जना गया हो/ और इतने कर्म कुकर्म धर्म अधर्म के पाठ भी शायद ही कोई पढ़ाता हो'। इस कवि की भाषा कुछ अलग तरह की यानी टटकी भाषा है। उपांशु की कविताएं हमें उनके कवि मित्र अंचित ने उपलब्ध कराई हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं उपांशु की कुछ नई कविताएं।
उपांशु की कविताएँ
ससुरे न जीते, न जीने देते हैं
बात ये नहीं कि कोई किसी से बेहतर है,
बात ये है कि बेहतर जीवन और उसकी कामना का हक भी अपने सुपुर्द कर लिया गया है।
ये गलतफहमी यदि किसी एक इंसान को होती,
उसे कब का निकाल एक बेहतर दुनिया गढ़ ली जाती।
बात ये है कि हर इंसान जो हगता है किसी और से साफ करवाने की इच्छा में
एक हीनता का जीवन ज़बरदस्ती किसी के गले बाँधता है।
और बात बस इतनी सी है कि महकते नाले और सड़ते कचरे की सफाई करना नहीं,
उस सामाजिक सड़ांध में खुद को बेहतर वर्ग मान लेना हीन है।
इनकी हीनता की सूई केवल इस बात पर अब नहीं रुकती कि माँ की कोख से निकल जाने के बाद हर तरह से दूसरों को तरसाना ये सीखते हैं।
इस वर्ग की हीनता इस बात पर भी केंद्रित है कि ये सचमुच की पीड़ा को,
उनकी खुद की भी, सामाजिक संरचना नहीं, मानसिक रोग कहते हैं,
जिसका पूजा-पाठ से,
नियमित रोज़े से,
गुरुद्वारे में कीर्तन से,
और चर्चों में मोमबत्तियाँ जला कर निवारण किया जा सकता है
(गोलियां खिला कर, पूँजी के बुत पर अर्पित भी किया जा सकता है) ।
दफ्तर से घर लौटते हुए
(कुमार विकल को समर्पित)
नालों के किनारे दुबके,
बिल बनाने वाले,
कचरे में खाना ढूंढने वाले चूहों से भी भद्दा जीवन जी रहा हूँ ।
कुमार विकल की एक बात लगातार टीस की तरह चुभती है -
इमारतों की गुलामी सुरक्षित जीवन की भेंट है जो नालों के आस पास सड़ रही मिट्टी में दुबके चूहों ने नहीं स्वीकारा है -
इसे मैंने ही सहर्ष अपना भाग माना है।
मैं आज भी वही आलसी और अकर्मण्य बच्चा हूँ
जिसे बचपन में जूते मार कर पिता घर से निकाल देते थे,
आज भी निराशा अपनी माँ की आंखों में देख कर मुझे रत्ती भर आश्चर्य नहीं होता,
दरअसल मैंने बचपन में ही अपना रंग दिखा दिया था,
आप लोगों ने अनदेखा कर दिया,
या शायद देखा न गया,
शायद इसीलिए लातों, डंडों, और घर से निकाल दिए जाने जैसे अनेकों फजीहतों से भी जब मैं बाज नहीं आया,
मुझ पर महत्वाकांक्षाएं लाद दी गईं,
पूंजीवाद के खूंखार सियारों के हवाले कर दिया गया,
शायद वही छाती में कफ से जमे इस बचपने की बीमारी को ठीक कर पाए।
एक-एक कर नोच खाने के बाद इन पशुओं ने मुझमें अपनी भूख भरनी चाही,
एक हवस भरी भूख जो असल किसी सियार में न पाई जाती हो।
ये जब कभी एक टुकड़ा मेरे सामने लटका जाते मैं कुत्तों की तरह दुम हिलाता,
मेरी जीभ बाहर आ जाती,
और मेरी आंखों पर एक परत जम जाती।
जब कभी मेरे अंदर का बच्चा जागता,
सुरक्षा और जरूरतों की दंतनखा इसे काट नोच कर भगा देती।
लेकिन हर रात तकिए पर सर रखते ही वो आलसी और अकर्मण्य बच्चा दिखता है
किसी मैदान में जामुन या नीम के पेड़ तले,
जंगली तूत के अरण्य में,
खुद में खुश और मैं, कविता में भी उस तक पहुंचने की हिम्मत नहीं रखता।
कंक्रीट के जंगलों में रहने वाले पशु
किसी भी प्राकृतिक वन के निवासियों से
कहीं ज़्यादा खूँखार और नरभक्षी होते हैं।
इनके अंदर की हवस इतनी प्रबल है कि स्वच्छंद हर पशु को अलग-अलग तरह के पिंजरों में बंद कर
सुरक्षा का मिथक गढ़ते हैं।
कुलमुलाये बैचैन पशुओं पर अपना सामाजिक दृष्टिकोण लादते हैं
ताकि जो खूँखार न भी हो, वो मजबूर हो जाएं
और लहु की बेमतलब पिपासा से ही अपनी इच्छाओं को आयाम दें पाएं।
बमोहब्बत पा जाना
ज़िंदगी की यह मंशा क़रीब लाती गयी
तुम्हारे, बीच सितारों के अंतरिक्ष को
नापा तो नहीं रेखाओं को देखने की कोशिश में, लेकिन
पा जाना तुम्हें बमोहब्बत
ज़िंदगी भर मंशा यही पलती रही।
वो अलग बात है, मींचने के लिए आँखों को गर्दन नीची की ही थी
कि देखा क्या?
तुमसे दूर बहुत दूर
मंशाओं का कोलाहल चिपक चुका है शीत की नमी सा कपड़ों पर
और फेंफड़ों में जकड़न इस वजह से जो हुई
जानलेवा होती जा रही है;
सर उठाना, साँस लेना,
दूभर; त्वचा गीली, गला रुँधा।
तागों को रगड़ता रहा गरमाहट की चाह में
बदलने दिए रेखाओं के मायने
साँस लेने की ज़रूरत बमोहब्बत क़बूल की
और कह न पाया पुकारों को फिर
कोलाहल, जब अपनी ही मंशा नमी में घुल गयी।
उद्विग्न नज़रें फेर लीं तो भी
घिसते रहें हाथों पर तागे,
आभास कुछ क्षणों के लिए ही
तागों के खुलते जाने का,
किन्हीं के पैरों से बँधे होने का, हुआ;
देखा समय लाँघे जा रहा था ज़िंदगी को, छलाँगे मार।
समेटने की कोशिश क्या गिरहों को सुलझाने की नहीं?
बमोहब्बत मंशाओं की अज़ीज़ ग़ुलामी
मोहब्बत से रंजिश का सबब बनती गई।
सवाल जिस भी तरह दिल दुखाने के लिए ही सही आए
गिरहों को समेटते हुए रूँधी साँसों का जवाब आया - निकल जाओ।
और सालों बाद लौट कर वापस आया मोहब्बत की याद में
मिटाने ग़ुलामी के निशान वो जो बदन पर पड़ते रहे।
पुकार देने वालों के चेहरों पर कोलाहल,
बँधी हथेलियों में कई संसारों का
समग्र समुचित परस्पर प्रेमभाव -
तीखी लकीरें खिंचती रहीं
पसीने से हरे रहे ज़ख़्म
हथेलियाँ तब भी न खुली।
निकल जाना कैसा मर्ज़ हुआ जब लौटना अपरिहार्य हो!
सड़क पर वर्षा के पदचिन्ह निकल जाने तक ग़ायब नहीं हुए थे;
लौटते समय हवा बूँदों के सहारे टहलना सीख रही थी।
नज़रें जहाँ भी गयीं, कंकाल सभी पुराने, दिखे नए जिस्म की सुर्ख़ ताज़गी में,
घुटते हुए, परोसते अपनी सभी मंशाओं को दूसरी ज़रूरी मंशाओं की भूख देख कर।
मंशा यदि पूरी होनी हो फिर क्यों रुँधे गले में ख़राश की खुरचन।
ज़िंदगी भर की ज़िल्लत और चंद घंटों की शोहरत। बराबर हैं क्या?
कितना बेवक़ूफ़ है इंसान कि मान ले?
कितना चालाक है इंसान कि मन को मना ले?
न माने तो गुलाबों का मोह त्याग दे,
काँटें तो उसे फिर भी चुभने ही हैं
सुगंध की चाह न हो तो और भी।
सितारों के बीच या सितारों से बहुत दूर,
ब्रह्माण्ड में या बाहर
यदि कोई रचयिता है भी, उसे भूल जाना ही बेहतर है।
उससे मोहब्बत भी ऐसे ही आशिक़ की तरह की जाए
जो कविताओं में ही अपनी मंशाएँ पूरी करे -
तसल्ली कम से कम एक लिखित हक़ीक़त की।
सितारों से बहुत दूर साँस ले सकने की क्षमता जहाँ भी मिली हो
ऐसी कल्पनाओं के लिए कितने सिर कटे होंगे।
ज़िंदगी ग़ुलाम हक़ीक़त की
हक़ीक़त कइयों की कल्पना की
और कल्पनाओं के बाहर ज़िंदगी हक़ीक़त नहीं।
ये बाहर किसी रचयिता की करतूत नहीं; उसे भूल जाना ही बेहतर है।
हर वक़्त का हर क्षण चाहता है
हर किसी में मंशाओं के लिए घृणा और इस घृणा के लिए अभूतपूर्व प्रेम।
अनदेखा कर देने के लिए
1
छिपकली की कटी पूँछ
काँप रही थी
किसी सड़क पर।
कई आये
एहतियात से कदम रखने वाले
मनुष्यता के मारे
बेचारे।
पाँव न रखने की ख्वाहिश
कुछ ऐसी थी कि जैसे ही आया
दाँतों के बीच
भींच
चबा जाने कोई कुक्कुर
नाक-भौं सिकोड़ने वाले भी थे
और
राहत की साँस लेने वाले भी कई।
2
अंगार हर सीने में सालों धधकती रही।
धुआँ जब भी उठा,
क्षितिज की ओर देखा और कहा - कहीं आग लगी है
- फिर आँखें फेर ली।
जिस दिन पैरों तले ज़मीन जली,
राख होते शरीरों से कई चीत्कारें निकली।
लेकिन आसमान केवल धूएँ से भरा था।
मानो जाड़े की छुट्टियों में अमीरों की फ़ार्महाउस पार्टी हो।
टूट कर बिखर जाने के लिए
फ़र्ज़ कर लेना कि गहरी खाई है कोई चारों ओर से घेर रही तुम्हें और निस्तब्ध देखने के सिवाय कोई चारा नहीं तुम्हारे पास। सिर उठा कर देखने पर दूर कहीं टिमटिमाता सितारा दिखता था कल तक। सितारों की ही मौत मरा होगा कुछ दिनों पहले कि जाते जाते गया है अंधेरों में अकेला छोड़। विद्युत की टूटती शाखाओं में रात के विस्तार को मापता रहा और ढूंढता रहा धुंधलाते स्याह में किनारे लांघ जाने की चाह में।
करियाती आकृति दिखी भी चंद बादलों की तो किसलिए? किसी आस से बांध रखने के लिए या आस के नाम पर दिलासे झूठे देने के लिए जैसे तुम दिया करती रही। जैसे मैं देता रहा तुम्हें। जैसे दोनों देते रहे एक दूसरे को बेपरवाह मोहब्बत की आस में। पास होती तो कहती खींच लो चमकती बिजलियों को नसों में और उंगलियों पर आसरा दो अपने प्रकाश को। किसी गर्त में ही पड़े रहना लिखा है तो ओज का स्रोत बनो कि जीवन भर तुम्हें सूर्य होते देखा है अंधेरे में पड़ा एक कंकड़ हो जाते देख सारा संबल बिखर जाता है। ऐसे समय में चुपचाप खो जाना कहीं समुद्र तल की गहराइयों में क्यों नहीं मुनासिब है।
कहो, किसी पगडंडी पर चलते हुए जब नज़र उठती है और आस-पास दिखती हैं, मकानों से अड़ी हुई, शहरों को कोसती, शाखाओं पर झिलमिलाती, पत्तियाँ, क्या परछाइयों से कम हैं, ऊँचे पेड़ों, मकानों की, समंदर भर का पानी बटोरे बादलों की, इनका करियाता आक्रोश केवल मेरे साँस भरने को ले कर? उजियारे शाम के कोने कुम्हला जाते हैं जलते कागज़ की तरह और बादलों का सागर मेरे फेफड़ों को भरने लगता है, साँस की नली में चुभने लगता है और बहता है मेरे नसों में काला, घना, खारा पानी। मैंने कभी नहीं चखा है समंदर, इन भयावह दिवास्वप्नों में भी नहीं लेकिन काले पानी का भार मेरी हर कोशिका समझती है।
कुछ लोग हैं
कुछ लोग हैं जिन्हें किसी भी तरह का पशु कहना उस पशु का अपमान होगा
कुछ लोग हैं जिन्हें लोग कहना लोक का तिरस्कार होगा
मानव से बड़ा कुकर्मी शायद ही धरती पर जना गया हो
और इतने कर्म कुकर्म धर्म अधर्म के पाठ भी शायद ही कोई पढ़ाता हो
फिर भी कुछ लोग हैं जिन्हें देख कर कहना पड़ता है -
किस पाप की सज़ा भोगता है प्राणी जो मानव बनने की दुर्गति प्राप्त होती है।
चमचई में अपनी ज़िंदगी काटने को ऐसे आदि हुए हैं
कि ईश्वर की भी चाटने की उम्मीद रखते हैं
ऐसी आदत बना ली है कि जिसकी करते हैं, उसकी काटते हैं,
करते इसीलिए है कि काट सके,
और कर्म उन्ही कुकर्मो को कह सके
जिसमें अधिक से अधिक प्राणियों को कष्ट हो।
निहायत हरामी प्राणी हैं,
बिरादरी के चार लोगों का जीना हराम किये बिना अन्न भी देह नहीं लगता।
कवि परिचय
शिक्षा - अंग्रेजी विभाग, पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में पी-एच.डी.।
प्रकाशन – सबलोग, कृति बहुमत, सदानीरा, हिन्दवी, कथादेश, पूर्वग्रह, रचना समय, इन्द्रधनुष एवं अन्य पत्र-पत्रिकाओं में कविता और कथा प्रकाशित। 2020 में “ठहरना-भटकना” के नाम से कविता संग्रह प्रकाशित। इन्द्रधनुष पर पछिया हवा नामक कॉलम के लिए लेखन। 2022 में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के लिए गंगा पर विख्यात अंग्रेजी पत्रकार विक्टर मैलेट की पुस्तक का “जीवन मरण की नदी” नाम से अनुवाद कार्य संपन्न एवं प्रकाशन।
संप्रति - एमिटी विश्वविद्यालय पटना में अंग्रेजी के सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत।
सम्पर्क
मोबाइल - 9852468553
ई-मेल : m.upanshu@gmail.com
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