राकेश मिश्र की कुम्भ पर कुछ कविताएं

  

राकेश मिश्र 


इलाहाबाद में संगम तट पर प्रत्येक वर्ष एक महीने तक कल्पवास किए जाने की धार्मिक परंपरा रही है। इसी क्रम में हर छठवें वर्ष अर्द्धकुंभ और हर बारहवें वर्ष महाकुम्भ का यहां पर आयोजन किया जाता है। हरेक कल्पवासी से उस सात्विकता की अपेक्षा की जाती है, जिसे हम मनुष्यता कहते हैं। सुने को तो अनसुना किया जा सकता है लेकिन देखे की अनदेखी कर पाना या उसे झुठला पाना मुश्किल होता है। महादेवी वर्मा ने कल्पवास करते हुए इस प्रक्रिया को महसूस किया और उस पर अद्भुत संस्मरण लिखा। कवि त्रिलोचन ने 1954 के महाकुम्भ को देखा और जिया ही नहीं बल्कि उसको आधार बना कर छब्बीस कालजई सोनेट्स लिखे। इसी परम्परा में कवि राकेश मिश्र ने कल्पवास करते हुए 2025 के महाकुम्भ पर कुछ कविताएं लिखीं हैं। ये कविताएं इस महाकुम्भ को देखने समझने के लिए आईना हो सकती हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राकेश मिश्र की महाकुम्भ पर कुछ कविताएं।



राकेश मिश्र की महाकुम्भ पर कुछ कविताएं 



भगदड़


कुम्भ की भीड़ में था मैं 

हर कोई था वहाँ 

भीड़ में 

कसता जाता था 

देहों का घनत्व 

आसपास 

इतनी अधिक भीड़ 

कि रह न सके प्राण 

अपनी  रिहाइश में 

देह से निकल कर 

देखा मैंने 

लोग आगे बढ़ रहे हैं 

मुर्दा शरीरों से हो कर 

चौड़ी सड़कों पर बड़े शामियाने 

महन्त-कथावाचक-आचार्यों के 

सभी ने बन्द कर रखे थे 

शिविरों-कथा पंडालों के द्वार 

मज़बूत बल्लियों के सहारे

जिन्हें हिलाने की कोशिश में 

निर्जीव हुए जा रहे थे 

बुरी तरह से क्लान्त शरीर 

अट्टहास कर रही थी मृत्यु 

चमचमाती रोशनी और 

एआई कैमरों वाले 

कुम्भ नगरी के चौड़े मार्गों पर 

यह आत्महुति थी 

संगम पहुँचने की जद्दोजहद में 

स्नान से पहले का मोक्ष था 

अवांछित अवहेलना थी 

जीवन की 

संगम की ओर  जाते थे 

कुम्भ नगरी के सारे रास्ते 

दर्ज सभी भाषाओं में 

लौटने का कोई रास्ता 

किसी भाषा में नहीं था 

मैं देख रहा था 

बिजली के खंभों पर 

उछाले गए  बच्चे 

निःश्वास होती माताएँ 

भीड़ में 

खोने के डर से 

मुर्दा हथेलियाँ पकड़े 

सगे संबंधी 

कितना काम था 

कूड़ा गाड़ियों को 

अमावस की उस रात 

कुम्भ के प्रहरियों को 

आने शुरू ही हुए थे

सुन्दर स्वप्न अभी 

निद्रा गहराती जा रही थी 

अमावस की उस रात में 

भगदड़ 

असंगठित मृत्यु देती है 

कोई सरकारी सूची नहीं होती 

ऐसी मृत्यु की ।

 


गुमशुदा 


आसान है 

कुंभ में खोना 

किसी का हाथ छूट जाता है 

कोई हाथ छोड़ देता है 

कभी सामने ही खोते जाते हैं लोग 

आवाज देते चिल्लाते 

पकड़ने की कोशिश करते 

अपनों को 

पानी के भंवर सा 

भीड़ का रेला 

समेट लेता है 

अपने अन्दर 

फिर लोग नहीं मिलते 

खोया पाया शिविरों 

थाना अस्पताल मुर्दाघरों में 

ढूँढते रहते हैं 

पीठ-पेट पर पोस्टर टांगे 

धूल आँसू अकेलेपन के साथ 

गुमशुदा की तलाश में 

उनके अपने।

 


कुम्भ 


गंगा ने किसी को 

निमंत्रण नहीं दिया

न ही आवाज दी 

माघ-मकर की युति ने 

लोग आ रहे हैं 

सहस्रों साल से 

डूबते-मरते-बिलाते

जब तीर्थ यात्राएँ भरी हुई थीं 

न लौट पाने की आशंकाओं से 

तब से आ रहे हैं लोग 

रंग-भाषा-जाति-गोत्र से परे 

अन्तर-मध्य-बहिर्वेदी के बीच 

पाँच योजन के विस्तीर्ण भावक्षेत्र वाला 

यहाँ महसूस की जा सकती है 

भूसे की आग में तिल-तिल जलते 

गुरुद्रोह का प्रायश्चित करते 

कुमारिल की उखड़ती साँसें 

शास्त्रार्थ को उत्सुक 

आचार्य शंकर के खड़ाऊँ की पदचाप 

अक्षय वट से प्रतिध्वनित होती है 

भारद्वाज ऋषि को सुनायी गई 

यागवल्क्य की राम कथा 

प्राणोत्सर्ग के दान को 

संभव करते 

चौड़िहारों की कथाएँ 

कहीं नहीं गयीं 

क़िले की प्राचीर से 

कमाने-ठगने वाले भी आते है 

दुनियाँ के प्राचीनतम बाज़ार में 

जहाँ बढ़ती जाती है मंहगाई

स्नान दर स्नान

और खुशी से ठगे जाते हैं 

भावुक लोग।

 


गंगा 


नाग वासुकी और फाफामऊ के 

मध्य के चौड़े पाट के 

एक ओर तीव्र धार से बहती गंगा 

नये पुराने पुलों को पार करती हुई 

नीलवर्णा हुई जाती है 

यमुना से मिलने की उत्कंठा में 


पूरे वर्षों तक तैयार करती है 

मेले की ज़मीन 

झूँसी के किनारे से हो कर बहता है 

सांद्र मैला कृषकाय नाला

छतनाग के व्यस्त घाट से पहले 

गंगा में मिल कर गंगा होता हुआ 

पौष माघ के बीतते महीनों की 

लगातार घटती गंगा में 

अहर्निश छपकती हैं 

असंख्य कामनाएँ-मनौतियाँ 

वसुधा का पाप धोने-ढोने की 

परंपरा का निर्वहन कर रही है 

गंगा सहस्रों वर्षों से 

संगम में कालिन्दी को सौंप कर 

अपना तीव्र वेग 

उसकी रूप-राशि के साथ 

आगे बढ़ती मैली मंथर गंगा के 

तटों पर प्रतीक्षा कर रहे हैं 

कितने सारे लोग

अपने कर्मों की प्रतिच्छाया निहारते 

मुक्ति की चाह में।


 




नाविक 


सहकार में चप्पू मारते 

दोनों नाविकों में से 

उम्रदराज़ नाविक बोला 

वीआईपी घाट से दो किलोमीटर है 

संगम इस बार कुम्भ में 

तीन हज़ार दलाल ले लेगा 

तीन हज़ार नाव का मालिक 

शाम को रोज़ की 

दो हज़ार रंगदारी तय है 

श्रद्धालुओं से ज़्यादा पैसे वसूलने के 

अपराध बोध से परेशान हो जैसे 

छोटी नाव से समीप आया नाविक 

नमकीन लच्छे और आटे की गोली बेचता है 

संगम के पक्षियों-मछलियों को खिला कर 

अतिरिक्त पुण्य कमाने की याद दिलाता है 

तभी समीप से तेज़ फ़र्राटा भरती 

मोटर बोट की ऊँची लहरों से  

डावाँडोल हो जाती है 

दस सवारियों वाली मझोली नाव 

अक्षयवट को दूर से प्रणाम करते 

मैं सोचता हूँ 

इतने चप्पुओं और मशीनी नावों के 

तेज़ी से घूमते जल पंखों के 

आंतरिक शोर के बीच 

कहाँ रहती होंगी मछलियाँ 

संगम में!

कहीं इलाहाबाद के लोगों जैसे 

तीर्थ यात्रियों के रेले से परेशान हैरान 

अपना संगम में होने का 

रोना तो नहीं रो रही होंगी 

कुम्भ में।

 


अखाड़े


कुम्भ के होटल-प्रवास पैकेज में है 

अखाड़ा - नागा भ्रमण 

कॉलेज के नवयुवक युवतियों को 

नागा देखना है 

उनके स्वप्न में एक सेल्फ़ी है 

जिसमें पास में खड़ा है

कोई नागा साधू भभूत रमाये 

जिसे संजोना चाहते हैं युवा 

कुम्भ की स्मृतिका के तौर पर 

व्यस्त हैं अखाड़ों के आचार्य महामण्डलेश्वर 

मीडिया से सजीव साक्षात्कार में 

देशी विदेशी शिष्यों के साथ 

बढ़िया भोजन-सत्कार-भेंट 

सभी कुछ समर्पित है 

सक्षम यजमानों को 

अविस्मरणीय - अद्वितीय कुम्भ में 

धनकुबेरों - शासकों के साथ जलक्रीड़ा 

स्नान का नया तरीक़ा है 

अखाड़ा अधिपतियों का।



दान 


मैंने एक रुपया दिया 

मुक्ति पथ पर बैठे भिखारी को 

मेरे पीछे भागता आया वह 

उसने पूछा 

क्या मिलता है?

एक रुपये में 

मैंने कहा रख लो 

कभी तुम्हारे पास भी होंगे 

शेष निन्यानवे 

जिसके फेर में इतनी भीड़ है 

कुम्भ में।

 


लाउडस्पीकर 


कहीं मन्त्रोच्चार हैं 

कहीं भागवत कथा 

अधिकांश चौराहों पर 

कइयों के खो जाने की व्यथा 

गूँज रही हैं पूरे कुम्भ क्षेत्र में 

एक पंडाल की कथा में 

सुनाई पड़ती हैं 

कइयों कथाएँ आस पास की 

शोर को विश्राम नहीं कुंभ में 

संतों-शंकराचार्यों की चर्चा से नदारद है 

शोर का वृत्तान्त 

धर्मग्रंथों में शोर का अध्याय नहीं 

समाचारों से गायब है 

कुंभ का शोर ना जाने कैसे 


मेले से वापसी में 

चकर प्लेटों के 

ऊबड़ -खाबड़-कीच से बच कर 

शोर लौटता साथ में।

 




पंडा  


कुम्भ में 

संगम की बालुका बेदी पर 

बल्लियों के सहारे स्थिर की गई 

एक बड़ी नाव पर बैठा है 

किशोरवय झिझक-संकोच के साथ 

नवयुवक पंडा 

धोती कुर्ता सदरी गमछा पहने 

बताता है 

रात ढाई बजे गया है 

सारी तैयारी कर के 

सुबह पाँच बजे वापस आ गया

नाव वाले दो मल्लाहों की निगहबानी  में 

नारियल-क़ुशा-चन्दन पात्र रख कर

जन्म-जन्मान्तर के संकल्प कराता हैं 

पाप मुक्ति-शाप मुक्ति 

प्राप्त-अप्राप्त स्थिर लक्ष्मी 

जन्म जरा व्याधि मुक्ति हेतु 

संस्कृत मिश्रित हिन्दी में 

दक्षिणा पा कर पूछता है 

ख़ुशी से दिया यजमान? 

पास में रखा है 

प्लास्टिक की पुरानी बोतल में पानी 

जिसे घूँट घूँट से पीता है 

शाम सूर्यास्त के बाद ही 

लौट सकेगा किनारे।

 


झपटमार


छोटे बालों को साफे से ढके 

तिलक त्रिपुण्ड धारी 

फल की दुकान पर फल 

चप्पल की दुकान पर चप्पल 

कम्बल की दुकान पर कम्बल 

परचून की  दुकान पर 

चाय चीनी का दान माँगते हैं 

सहसा कूद पड़ते हैं 

श्रद्धालु की स्नानादि की चर्या में 

निगाह रखते हैं 

पर्स  की बड़ी नोट पर 

पीछे पीछे दौड़ते हैं 

हाथ उठाये आशीर्वाद देने 

डराते हैं 

असंतुष्ट भावभंगिमाओं से

धार्मिक जादूगर हों जैसे 

कुम्भ का  हिस्सा हैं 

साधु भेषधारी झपटमार।

 


विदेशी


हॉफ पैण्ट धूपी चश्मा हैट लगाये 

उसने कुम्भ स्नान घाट पर 

फूल और दिये बेचते 

गरीब बच्चों की तस्वीरें खींची 

अलग अलग मुद्राओं में 

फिर नागा साधुओं की ओर बढ़ गया 

बेचैन खोजता घूमता है

ग़रीबी-अंधविश्वास के 

दुर्निवार साक्ष्य 

साधु और साँपों के देश की छवि 

बसी है उसके मन में 

स्नान करते स्त्री पुरुषों 

परस्पर हाथ थाम कर डुबकी लगाते 

भीगी देह जल से बाहर निकलते 

युगलों की छवियाँ उतारना 

उसकी संस्कृति का हिस्सा है 

कोई निजता का क़ानून 

लागू नहीं इस पर।

 


कुम्भ में लोग 


खूब मिले लोग कुम्भ  में 

संगम का नाव वाला जगदीश 

बजाज ऑटो वाले कल्लू और वीरेन्द्र 

बैट्री रिक्शे वाला गौरवर्ण किशोर 

 बुलेट वाला बाइकर दुबे 

स्कूटी वाला वाला अतुल 

टेण्ट सिटी चौराहे पर 

दूध बेचता दीपक 

यज्ञशाला के करुणेश पण्डित जी 

रिसेप्शन का योगेश 

भोजनालय में जूठी थालियाँ 

उठाने वाला लड़का 

जिसका नाम याद नहीं 

पर जो मुस्कुराना नहीं भूलता 

मुझे देख कर 

गंगा किनारे टहलते समय 

कुछ दूर तक साथ चलते 

कत्थई-भूरी तरल आँखों वाले  

दो श्वान 

गंगा के आजानु जल में खड़ी 

फूल-दीपक बेचने वाली किशोरियाँ 

जिनका नाम नम्बर लेने की 

ज़रूरत नहीं लगी 

याद तो वो पुलिस वाले भी हैं 

जो चलते चलते 

कहीं भी घुमा-धकिया देते थे 

चढ़ जाते थे 

किसी भी बाइक-टेम्पो पर 

जबरिया

और कितने अनिक्षुक थे 

रास्ता बताने में 

कुछ को फ़ोन किया लौट कर 

कई याद आये

देह की टूटती थकन में

मुश्किल से पहचाने जाते हैं 

उनके धूसर चेहरे 

धूल-कीचड़ और भीड़ के बीच 

काले भूरे सपनों में 

अब मिटा रहा हूँ 

उनके नम्बर फोन से 

अनमना रहने लगा हूँ 

उनकी यादों से 

कहीं और देखने लगता हूँ 

स्मृतियों में 

उनके चेहरों से दूर 

अब ग़ैर ज़रूरी हो गये हैं 

कुम्भ में मिले लोग।

 




बाइकर 


एक स्कूटी है उसके पास 

२५ साल का मझोले क़द का नौजवान है 

पौष की ठंड और कुहरे में 

अरैल-झूँसी के बीच 

संगम के सुदीर्घ जलविस्तार पर 

नागेश्वर - टेण्टसिटी- सोमेश्वर - वीआईपी 

पीपे के हिलते लहराते पुलों से गुजरते 

कान और मुँह बांध लेता है 

चेकदार गमछे से 

एक पुराने जैकेट के सहारे 

धूल से अटी दाढ़ी वाला लड़का 

जल्दी जल्दी पहुँचाता है सवारी 

संगम से वेणीमाधव से नागवासुकी 

झूँसी - फाफामऊ-रेलवे स्टेशन - एयरपोर्ट 

सारे कमजोर पुलिस नाके जानता है 

जानता है किस ओर निकलती है 

कौन सी गली 

कहता हैं बाइकरों ने ही निकाला है 

थके बूढ़ों बुजुर्गों को मेले की भीड़ से 

नाराज़ होता हैं 

दान की ज़बरदस्ती करते 

नौजवान याचकों पर 

ढकर-ढकर गीली कीचड़दार 

चकर प्लेटों पर 

लहराती स्कूटी को  

मुश्किल से संतुलित करता हुआ 

आश्वस्त करता है 

गिरेंगे नहीं अंकल 

पकड़े रहें उसे और पैर नीचे न रखें

इस बार उसे उम्मीद है 

करा लेगा घर मरम्मत 

या बहन का ब्याह 

दिखा लेगा 

वृद्ध माँ पिता को अच्छे डॉक्टर से 

गंगा मईया सबकी झोली भर रहीं हैं 

कुंभ में।



वीआईपी 


नौ दिन स्नान पर्वों के 

बारह दिन वी आई पी भ्रमण के 

शेष दस दिन ही मेला भ्रमण के हैं 

करोड़ों श्रद्धालु स्नानार्थियों के लिये

एक श्रद्धालु कहता है 

मेला केवल प्रशासन के लिये है 

सामान्य जन को मीलों पैदल चलना है 

वृद्ध-विकलांग की कोई चर्चा-व्यवस्था नहीं 

आवागमन रोकने के आसान साधन है 

पीपों के तीस पुल 

सुविधाजनक रास्तों पर 

पुलिस-पैरा मिलिट्री खड़ी है 

राह रोके 

वृद्धों को ढोते परिवार लौट रहे हैं 

बिना स्नान किए 

विकलांगों-वृद्धों को 

कोई सहायक उपकरण नहीं 

कोई सड़क कोई साधन नहीं

घाट तक पहुँचने का 

केवल बुलावा हैं 

यत्र तत्र सर्वत्र 

अमृत कुंभ के लिए 

स्वागत के लिए बैरियर हैं 

राह दर राह 

कुचल जाने का ख़तरा है 

अहंकारी-झंडेदार पहियों के नीचे 

लंबे जाम में 

लगातार चीखतीं वीआईपी गाड़ियाँ हैं 

पुलिस दौड़ हाँफ रहीं जिनके लिए

सबको धकेलते दायें-बायें 

आगे-पीछे-नीचे 

कहीं भी किसी ओर 

बड़ी बड़ी गाड़ियाँ दौड़ाते 

आधुनिक बाबा भी 

छोटा समझते हैं पैदल श्रद्धालु को 

पुलिसिया व्यवहार नियंत्रित करता है 

आस्था का प्रबल आवेग 

अपने तरीक़े से।



इनफ़्ल्यूएंसर 


रील वाले बाबा 

भाव-भंगिमा-भाषा से 

दिन-रात आमंत्रित करते है 

लाइक्स की दुनिया को 

दान-तप-मुक्ति के क्षेत्र में 

ग़रीब आदिवासी महिलाओं की 

नीली आँखों के रील दीवानों ने 

चौपट कर दिया 

उनका माला-मोती का व्यापार 

पढ़े लिखे जल्दबाज़ साधुओं ने 

नाश कर दिया यथा शक्ति 

जन्म जन्म की साधना के लक्ष्य को 

उनका वायरल रुदन भी 

हिस्सा है 

रातों रात लोकप्रियता का 

हठ योग की परंपरा से अनजान 

इंफ्ल्यूएंसर 

चिमटों से पिट कर भी 

खुश हैं कुम्भ में।

 


अन्नक्षेत्र 


बैरागी-वैष्णव-उदासीन 

अलग भंडारे हैं 

महन्त को भी अनुमति नहीं 

वैष्णव रसोई घरों में 

दिन में कई बार नहाते हैं 

भितरिया रसोइये 

भंडारे की पंक्ति में जगह बनाते 

स्थान स्थिर करते अतिथि 

एक पूड़ी बग़ल की पत्तल में

रखते हुए मन्द मुस्कुराते हैं 

अभी कई अन्न क्षेत्रों में जाना है 

कदाचित 

धनकुबेरों के जनता के पैसे से 

जनता के लिए अन्नक्षेत्र भी हैं 

सुस्वादु थालियों वाले 

गंगा तट पर अन्न की तलाश में 

कुत्ते लगातार पलट रहे हैं 

प्लास्टिक बोतलों से भरी डस्टबिनें 

सामग्रियों के भेद से भ्रम में हैं 

उनकी घ्राण क्षमता 

एक परित्यक्त नर गो वंश को 

डस्टबिन पलटने से पहले 

झोले में पड़ी ब्रेड खिलाता हूँ 

पीछे कुछ दूर तक आता है 

थोड़ी और ब्रेड के लिए 

नहीं पता क्या खाते होंगे 

प्रवासी साइबेरियन पक्षी 

अपने मूल बसेरों में 

यहाँ संगम पर तो 

चें चें करते उतर आते हैं 

यमुना की तरंगित लहरों पर

नमकीन लच्छों के लिए 

मेले के हज़ारों सफ़ाई मज़दूर 

ड्यूटी चाहते हैं 

अन्नक्षेत्रों के आसपास 

कुम्भ में।



टेण्ट सिटी 


अरैल की ओर थी 

कुम्भ की टेण्ट सिटी 

बालू पर शहर था 

बिना नींव के 

रस्सिओं से तना 

लोहे की शहतीरों पर टंगा 

हवा के हर झोंके से हिलता-डोलता 

हर स्वर लहरी को बुलाता 

अपनी परिधि में 

गंगा पार के भजन-दक्षिणा का शोर 

पड़ोसी टेंटों में हंसी ठट्ठों की 

सारी आवाज़ें सुनाई पड़ती हैं 

साफ़ साफ़ 

जिपर के सहारे खुलते बंद होते द्वार 

सरसराते चीखते  हैं 

सारी रात 

शुकवा के समय बोलते बतियाते 

गंगा स्नान को जाते लोग 

ढीले परदे की चौखट को 

सावधानी से लांघते हैं 

डंठलदार नाशपाती के आकार में 

खुले रह जाते हैं 

अधिकांश टेण्टों के प्रवेश द्वार 

दिन में 

सद्य लाए गए 

हरे चारे पर टूटती 

गो-आश्रय की गौओं सी 

गतिविधियों से युक्त 

भोजनालय हैं 

तीर्थयात्रियों से लबालब 

संगम-नाव किराए और 

थकाऊ पैदल मार्गों की कथाओं के 

भरभराते शोर से ठस्समठस 

सुबह से देर रात तक बजते हैं 

पाप शैली के भजन-चालीसा

कंधे पर झंडा डंडा लहराते 

विदेशी मेहमानों को 

कुम्भ का बखान सुनाते 

नौजवान गाइड 

देर रात तक जमें रहते है 

कैफेटेरिया की मेजों पर 

यज्ञशाला के मंत्रों से तीक्ष्ण है 

सीवर मशीनों का शोर यहाँ।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त चित्र कवि राकेश मिश्र के सौजन्य से हमें प्राप्त हुए हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 9205559229

टिप्पणियाँ

  1. संगम पर इतने विविध पक्षों पर एक साथ कविताओं को पढ़कर बहुत अच्छा लगा।कविता के पाठक होने के नाते मेरे लिए यह किसी उपहार से कम नहीं है। प्रिय कवि आदरणीय राकेश मिश्र जी को हार्दिक बधाई।नीरज कुमार मिश्र

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  2. राहुल राजेश24 मई 2025 को 8:52 pm बजे

    कुंभ का आँखों देखा हाल बयां करतीं सरल-सहज-सुग्राह्य कविताएँ। कुंभ के वे दृश्य कैद हो गए हैं इन कविताओं में, जो प्रायः अदिख रहे कुंभ की चर्चा-कुचर्चा में।।

    जवाब देंहटाएं
  3. कुंभ की अंतर्रबाह्य परिक्रमा करती ये कविताएं धर्म,आस्था और अध्यात्म की परिधि में सिमटी हुई नहीं है बल्कि इस परिधि को तोड़ती हुई आधुनिक मनुष्य के अंतर्विरोध को भी दिखाती है । एक जागरूक कवि के पर्यवेक्षण से उपजा आधुनिक कुंभ का वृहत्तर वृत्त जिसमें भगदड़ और गुमशुदा जैसी करुणा संवलित कविताएं हैं तो वीआईपी,टेंट सिटी,विदेशी,इन्फ्लूएंसर,बाइकर्स जैसी व्यंग्य गर्भित कविताएं भी । कल्पना की जगह अपनी निगाह से देखे और अनुभव किए का रकबा यहां बहुत बड़ा है ।

    जवाब देंहटाएं
  4. राकेश मिश्र भाषा पर सजावटी बोझ नहीं लादते । न सजावट का बोझ और न सजावटी काव्य बोध । वह संप्रेषित हो सकने वाली सहज भाषा में जीवन के उस साधारण यथार्थ को संभव करते हैं जो अपनी साधारणता के चलते बार बार अलक्षित होता आया है । इस कुंभ की चकाचौंध में कल्पवास की सादगी हाशिए पर धकेल दी गई लेकिन कवि ने उसकी अर्थवत्ता को बड़े मारक अंदाज में उकेरने की कोशिश की है। इस कवित्व शैली में बिंब निर्माण की विशिष्ट क्षमता उल्लेखनीय है।

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