ललन चतुर्वेदी की कविताएं
यह दुनिया एक विश्वास घर है जहां हमें पल प्रतिपल विश्वास की बुनियाद पर एक दूसरे पर यकीन करते हुए मिल जुल कर आजीवन चलायमान रहना है। ललन चतुर्वेदी की कविता विश्वास पढ़ते हुए मुझे प्रख्यात इतिहासकार युवान नोह हरारी की पंक्तियां याद आईं जिसमें वे कहते हैं "समूचे इतिहास में दर्ज़ महान इंसानी उपलब्धियां- चाहे वह पिरामिडों का निर्माण हो या फिर चाँद का सफ़र- किसी की व्यक्तिगत क्षमताओं का नतीlaजा नहीं बल्कि बड़ी संख्या में भरपूर लचीलेपन के साथ मिलजुल कर काम करने की हमारी क्षमता का परिणाम है।... अब इस भाषण को ही लीजिए, जो इस वक्त मैं आपके- लगभग 300 या 400 श्रोताओं- के सामने दे रहा हूँ। आपमें से अधिकतर को मैं बिलकुल नहीं जानता। इसी प्रकार, मैं आज के इस आयोजन की योजना बनाने वाले और उसे अंजाम देने वाले सभी लोगों को नहीं जानता। मैं उस विमान के पायलट और उसके क्रू मेम्बर्स को नहीं जानता जो कल मुझे यहाँ लन्दन लेकर आया। मैं उन लोगों को नहीं जानता जिन्होंने मेरी बातों को रिकॉर्ड करने वाले इस माइक्रोफोन और इन कैमरों को खोजा और बनाया। मैं उन लोगों को नहीं जानता, जिनकी किताबों और लेखों को मैंने इस भाषण की तैयारी के लिए पढ़ा। और निश्चय ही मैं उन तमाम लोगों को भी नहीं जानता जो ब्यूनस आयर्स या नई दिल्ली में कहीं बैठे इंटरनेट पर मेरे इस भाषण को देख रहे हैं। बावजूद इसके कि हम एक-दूसरे को नहीं जानते, हम विचारों के वैश्विक आदान-प्रदान के लिए एक साथ काम कर सकते हैं।" कवि ललन चतुर्वेदी आदान-प्रदान की अपनी चिर परिचित परम्परा से वाकिफ हैं। इस परम्परा में आज भी काफी लोगों द्वारा गूगल की बजाय आम आदमी के बताए पर सहज ही यकीन किया जाता है। हाल ही में ललन चतुर्वेदी का तीसरा कविता संग्रह 'आवाज घर' प्रकाशित हुआ है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ललन चतुर्वेदी के इस बेहतरीन संग्रह की कुछ प्रतिनिधि कविताएं।
ललन चतुर्वेदी की कविताएं
विश्वास
मुझे मालूम है
मेरी तरफ जो गाड़ी आ रही है सौ किलोमीटर की रफ्तार से
वह मुझसे नहीं टकराएगी
जवान बाइकर मुझे बिना छुए तीर की तरह निकल जाएगा
आकाश में उड़ान भरते हुए मैं कॉफी का ले रहा हूँ आनन्द
पायलट के लाइसेंस की वैधता का प्रश्न फिलहाल मेरे दिमाग में नहीं है
मैंने अपना प्रोफाइल खुला रखा है स्पेस में
स्वागत है सबके विचारों का
तुम्हें जिस तरह पढ़ना है, पढ़ो मुझे
और कर लो अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद
मैं खुश हो जाता हूँ,
कहूँ तो बच्चों की तरह भरने लगता हूँ किलकारी
दिल खोल कर रख देता हूँ
अनजान लोगों से बातें करते हुए
नजदीकी रिश्ते कभी खरोंच बर्दाश्त नहीं करते
बेहतर है परिचितों और प्रेमियों से
सतर्कता बरतने की सीख का सख्ती से हो अनुपालन
एक प्यारा सा पागलपन
जीवन को बहुधा खुशगवार बनाता रहता है
हँसते हुए मैंने कभी ठगा महसूस नहीं किया
अनजान लोगों से दूर रहने की चेतावनी पर भला कौन अमल करे
मेरा सबसे मजबूत विश्वास राह चलते हुए लोगों पर होता है।
ईश्वर को अच्छे अनुवादकों की ज़रूरत है
दुनिया की तमाम भाषाओं, बोलियों, ध्वनियों में
यहाँ तक कि चुप्पियों में भी
पहुँच रही हैं उसके पास प्रार्थनाएँ
तत्काल राहत के लिए लगायी जा रही हैं लगातार अनगिनत अर्जियाँ
वह भी जानता है
एक समय के बाद लोग खोने लगते हैं धैर्य
आमादा हो जाते हैं
लेने के लिए अपने हाथ में कानून
कारिंदे भी पसोपेश में हैं
समझ नहीं पा रहे हैं शिकायतों के अर्थ
चीखें बढ़ने लगी हैं निरंतर
शोर में परिणत हो गए हैं
एक साथ मिल कर सारे शब्द
ईश्वर किंकर्तव्यविमूढ़ है कि
कैसे सुने, कैसे समझे, कैसे पढ़े
किसिम-किसिम की व्यथाओं की गूढ़ गाथा
कैसे करे करोड़ों लंबित अर्जियों का निष्पादन
स्रोत भाषा लक्ष्य भाषा में नहीं हो पा रही है रूपांतरित
ईश्वर स्तुतियाँ नहीं सुनना चाहता
वह नाराज़ हो कर उठ गया है इजलास से
वह सारे तथ्यों को समझना चाहता है
देना चाहता है सबको त्वरित न्याय
इस समय उसे गवाहों की नहीं, अच्छे अनुवादकों की जरूरत है
है कोई अनुवादक जो कर सके अव्यक्त पीड़ाओं का निर्विवाद अनुवाद?
हत्यारे
वे वेदनाएँ अबूझ रहीं
जो हमारी भाषा में रुपांतरित नहीं हो सकीं
जैसे कुल्हाड़ी के प्रहार से
विदीर्ण होते वृक्ष की कराह
लकड़हारा खुश हुआ अरड़ा कर गिरते हुए पेड़ को देख कर
मिट्टी ने मजबूती से थाम रखा था जिनकी जड़ों को
आज वह भी आ गई धरातल पर
सन गई उन जड़ों के आँसू में
पलंग पर बैठते हुए हमने सदैव आराम महसूस किया
कभी ध्यान ही नहीं आया कि
हम वृक्ष की छाती पर बैठ कर बरसों से कर रहे हैं शव–साधना
जो आया हमारे पैरों के तले
हमने सबको रौंदा और खुशियाँ मनायी
हम करते रहे उन पर अत्याचार
जिनका कोई प्रवक्ता नहीं था
जिनकी कोई जुबान नहीं थी
अपने को सभ्य घोषित करते हुए
हमें नहीं आयी थोड़ी सी भी शर्म
पेड़ अपनी जगह खड़े थे मेरे लिए छतरी लगाए
हमने पत्तों को रोते हुए नहीं सुना
हमने नहीं सुनी असंख्य जीवों की गुहार
जो माँग रहे थे अपने प्राण की भीख
हमें घिन आने लगी है अपनी ताक़त से
केवल इन्सानों की जान लेने वाले ही हत्यारे नहीं होते
अभी असंख्य हत्यारों की शिनाख्त बाकी है।
आग, पानी और धुआं से लोग
क्यों निराश हुआ जाए
सब जगह ऐसे ही लोग मिलेंगे
कुछ आग से, कुछ पानी से, कुछ धुआँ से भी
इन्हीं में से कोई फूटेगा चिनगारी सा
फैल जाएगा ढेर सारे लोगों की आत्मा में
और प्रकट हो जाएगी क्रान्ति
हाथ में खड्ग और ढाल ले कर
जब हम पराजित देवता की तरह
खड़े होंगे उसके समक्ष नतमस्तक
नींद में मदहोश आसुरी शक्ति की आँखें चौंधिया जायेंगी
देखकर उसका अद्भुत रूप-सौन्दर्य
वह समझ नहीं पाएगा सौन्दर्य का पराक्रम
वह समझ नहीं पाएगा
केवल मोहक ही नहीं,मारक भी होता है सौन्दर्य
देखना यह है कि कहीं हमें निगल न जाए निराशा की अमा
हमें लड़ना होगा यह युद्ध इन्हीं सेनानियों को साथ लेकर
सत्यम्, शिवम्, सुंदरम के परंपरागत जयघोष के साथ
आख़िर कहाँ से गढ़ेंगे हम नया आदमी
किस ओर हम देखेंगे आशा भरी निगाहों से
हमें भरोसा रखना ही होगा
इन्हीं आग,पानी और धुआँ से लोगों पर।
कवि का दुःख
थोड़ा पढ़ा लिखा हूँ
इसका मतलब यह नहीं कि मेरा दुख भी थोड़ा है
दुःखी लोगों को खुश रहने की नसीहत मत दिया करो
क्यों छीनते हो उसके बटुए से जमा की गई रेज़गारी
छोटा आदमी हूँ
छोटी-छोटी बातों पर दुःखी हो जाता हूँ
जैसे बिना चप्पल के स्कूल जाती हुई लड़की को देख कर हो जाता हूँ उदास
बर्तन धोती हुई बाई के टपकते हुए आँसू देख कर चूक जाता है मेरा धैर्य
जो पति से मार खाने के बावजूद
जमा कराती है उसी के खाते में अपनी तनख्वाह
कई बार दोपहर में बिना नाश्ता किए लगाती रहती है पोंछा
भूख की उस अज्ञात लिपि का पाठक कैसे हो सकता है खुश?
खून खौल जाता है जब शोहदे
राह चलते लड़कियों को देख कर बदतमीजी से बजाते हैं सीटी
उन विद्वान आलोचकों का वैदुष्य मेरे मन में घृणा भर देता है
जो अपने पुरखों को रोज नयी-नयी गालियाँ दे कर
हथियाना चाहते हैं साहित्य का सिंहासन
उन प्रवचनकर्ताओं की कुटिल मुस्कान मुझे भेदती है भीतर तक
जो हताश ग्राहकों से चमकाते हैं अपना व्यापार
जब भी किसी मॉल के पास से गुजरता हूँ
सड़कों पर टहलता हुआ दिख जाता है दुःख का संयुक्त परिवार
चैनलों पर पेश किये जाते हैं विकास के रंग-बिरंगे ग्राफ
और शब्दों को चुभलाते वाचक के चकमक चेहरे जब चकमा देते हैं लगातार
तो लगता है पढ़ना लिखना सब अकारथ
सर्वत्र अव्वल दर्जे की चाटुकारिता का फैल चुका है साम्राज्य
वह जबड़े में दबा कर बैठ गयी है जग का दुख
ऐसे में क्यों न दिखे स्याह में भी सफेद
इस समय कविता ही है जो कर सकती है दुख की शिनाख्त
इसीलिए वह हो चुकी है तुम्हारी महफ़िल से निष्कासित
तुम्हें लग चुकी है चुटकुले की चाट
तुम कैसे समझ पाओगे एक कवि का दुःख।
मैं लंबी कविताएँ नहीं लिख सकता
मैं छोटी-छोटी चीजों से घिरा हुआ हूँ
मेरे आसपास छोटे-छोटे लोग रहते हैं
उन लोगों की दुनिया बहुत छोटी है
उनके लिए छोटी-छोटी समस्याएँ भी बहुत बड़ी हैं
वे विज्ञान, अध्यात्म, दर्शन, योग आदि की बात नहीं करते
शेयर बाजार की चर्चा तो वे कर भी नहीं सकते
वे समय पर जगने के लिए घड़ी में अलार्म लगाने वाले लोग नहीं हैं
वे सूरज की गति से समय को मापने वाले लोग हैं
वे पेड़ों की छाया में सुस्ताने वाले लोग हैं
किसी ठेले पर खड़े-खड़े चाय-बिस्किट से हलक को तृप्त करने वाले लोग हैं
हर सुबह एक चौराहे पर टोकरी-कुदाल ले कर वे खड़े हो जाते हैं
धूप के चढ़ते ही उनके चेहरे पर छाने लगती है उदासी
कुछ को काम मिलता है और कुछ भारी कदमों से लौट जाते हैं अपनी झोंपड़ी की ओर
उन्हें दोपहर के पहले घर लौटते हुए देखना
हमारे समय की खौफनाक त्रासदी है
उनमें से कुछ शाम में गीत गाते हुए लौटते हैं
बाजार से आटा-दाल और अपने बच्चों के लिए पकौड़े ले कर
मैं ठिठक कर उनके गीत सुनना चाहता हूँ
मेरे लिए यह सबसे बड़ा म्युजिक कंसर्ट है कि
आज उनके घर में चूल्हा जल सकेगा
रोज ऐसे दृश्यों से दो-चार होते हुए
मेरे सामने ऐसा कोई नायक उपस्थित नहीं है
जिसकी गाथा लिखी जाए
इन छोटे लोगों का दुःख भी कहाँ ठीक से अंकित कर पाता हूँ
बस, संक्षेप में उनका हालचाल आप तक पहुँचाना चाहता हूँ।
गरीब मौसम का हाल नहीं पूछते
हे घन आनंद!
तुम इतना बरसो कि उस घर में भर जाए पानी
जहाँ एक स्त्री जल रही है जेठ की लपटों में
उसका गौर वर्ण गेहुँआ हो गया है
कोई नहीं कर पा रहा है उसकी सहायता
भागता फिर रहा है उसका पुरुष
जो करता है पुरु की तरह अपनी उर्वशी से प्रेम
चुक गया है उसका शौर्य-धैर्य
आँखें नहीं मिला पा रहा अपनी ही स्वामिनी से
एक मौसम से इस तरह हो चुका है पराजित
कि अपनी ही नज़रों में गिर गया है
सप्ताह भर से चल रही है उसकी प्रार्थना
और आज सुनवाई पूरी हो चुकी है इन्द्रलोक में
शीतल पवन के झोंकों के बीच
आषाढ़ के पहले ही दिन
देवेन्द्र ने बादलों को भेजा है
लेने के लिए यक्ष का हालचाल
कुबेर अब भी चल रहे हैं नाराज
यक्ष करना चाहता है वर्षोपरांत अपनी प्रिया को पुष्पों की भेंट
सोंधी महक आ रही है मिट्टी से
उसका मन बौराता जा रहा है
पगले! थोड़ा धीर धरो
याद करो अपने उन बांधवों को
जो रहते हैं वर्षों तक वियुक्त
कहाँ होता है उनके मन के मौसम में बदलाव
कभी उन्हें सुना है मौसम का हाल पूछते हुए?
उसके जाने से कोई क्षति नहीं हुई है
अब वह चले गए हैं
सारी क्रियाएँ बहुवचन हो गईं हैं
शब्दकोश के समस्त सम्मानसूचक शब्द
शोक सन्देशों में सितारे की तरह टॉंक दिये गए हैं
जो तरसते रहे प्रेम के एक गुलाब के लिए
उन्हें पुष्पों से आच्छादित कर दिया गया है
वह कह रहे हैं - "अब तो बख्श दो मेरे भाई!
मत गढ़ो मेरे बारे में तरह-तरह के झूठ
मैं स्वर्ग नहीं जा रहा
मत कहो मुझे महान आदमी
मेरे हिस्से के सच को झूठ बना कर मत बोलो
मैं बहुत सुकून से हूँ, निकल आया हूँ भीड़ से
मुझे सोने दो आराम से चिर निद्रा में
तुम्हारी चीख-पुकार, तुम्हारे मंत्रोच्चार,
तुम्हारे समस्त उपचार
भंग कर रहे हैं मेरी शांति
आहत कर रहे हैं तुम्हारे असंख्य झूठ
तुम लोग कैसे कर लेते हो -
झूठ का इतना शानदार अभिनय!
बहुत साल गया दो मिनट के मौन के पहले
तुम्हारा पॉंच मिनट का भाषण
हृदय विदीर्ण कर गई
सभागार से निकलते हुए लोगों की हॅंसी
आशा थी कि कम से कम आज सच बोला जाएगा
ऑंखें मूँदे मैं बड़े ध्यान से सुन रहा था-
बहुत अच्छे आदमी थे
सचमुच खुश हो जाता यदि छाँट देते
अपने भाषण से सारे अतिरिक्त शब्द
और सिर्फ इतना ही कह देते –
जो चला गया हमारे बीच से
वह भी एक आदमी था
अब हमें उसके बारे में चुप रहना चाहिए
उसके जाने से कोई क्षति नहीं हुई है।"
देह का अध्यात्म
वह सद्यस्नाता स्त्री
जिसके कुंतल से टपक रहे हैं बूँद-बूँद जल
एक झटके से झाड़ कर बाल
खड़ी हो गई है आईने के सामने
उसने विदा कर दिये हैं मन के सारे शोक-संताप
स्थितप्रज्ञ सी निहार रही है
एक-एक कर अपने अंग
अपनी काली आँखों में दे रही है अतिरिक्त काजल
सुर्ख कपोलों पर लगा रही है अंगराग
नखों पर दे रही है जतन से लाल रंग
बालों में बाँध चुकी है सफेद पुष्पों का जूड़ा
पहन चुकी है मनपसंद रेशमी परिधान
एक बार देखती है पीछे मुड़ कर
शायद भूलने को अतीत
साँसों में भरना चाहती है वर्तमान
फैल गई है उसके होंठों पर मुस्कान
नखशिखपर्यन्त प्रकीर्ण हैं विविध रंग
चमक रहा है सिन्दूर तिलकित भाल
ज्यों नीलगगन में उतर आया हो इन्द्रधनुष
कहाँ है कोई क्लेश-कालुष्य
कहाँ है आत्मा, कहाँ है वैराग्य
कहाँ है देह के बिना इनका अस्तित्व
जिस दिन मिलना होगा, मिट्टी में मिल जाएगी देह
देह ही है सत्य, देह ही है प्रेय,
बिल्कुल नहीं है हेय यह कंचन देह
जब तक है देह तब तक है नेह
नहीं सुनना कोई प्रवचन उपदेश
कोई गुरु नहीं, कोई देव नहीं, कोई पोथी नहीं
एक स्त्री ही समझा सकती है देह का अध्यात्म ।
स्त्री का बटुआ
साड़ी में जेब की जगह नहीं है
और कुछ तो रखना है दिन भर की खातिर
करनी है धनरोपनी या ढोना है दिन भर ईंट
तैयार करना है लगातार बालू-सीमेंट से गारा फटाफट
इसलिए लटका लेती है कमर में बटुआ
कभी आँचल से पोंछ कर टपकता हुआ पसीना
धो लेती है हाथ और चुटकी भर खैनी करती है होंठों के हवाले
इसी से अर्जित करती है ऊर्जा
मिटाती है यही क्षण भर के लिए थकान
शाम में मुंशी का दिया दैनिक मजदूरी
वह भी मर्दों की तुलना में कुछ कम
खोंस लेती है ब्लाउज में
उसी को बना लेती है बटुआ कि कहीं खो न जाए दिन भर की गाढ़ी कमाई
मुंशी की नजर मजदूरी के नोटों को गिनने पर नहीं
ब्लाउज के खुले हुए बटन से बनी फाँक पर है
स्त्री तेज कदमों से जा रही है बाजार
वहाँ करेगी सौदा-सुलफ
कल फिर से लौटना है उसी काम पर
होना है कमर कस कर तैयार
सामना करना है कड़कती धूप से
मुंशी और ठेकेदार की टेढ़ी नज़र से
उसके पास है चुप्पी का एकमात्र हथियार
रोती है अकेले में बार-बार
मौन हो कर कोसती है अपने भाग
बगल में सोया बचवा कहीं न जाए जाग
और जाग भी गया तो क्या
पीठ पर बाँध लेगी और चल देगी लड़ने जीवन का युद्ध
वह रोज शाम में लौटती है मुस्कुराते हुए विजयी भाव से
कम हो गया है उसके जीवन में एक दिन का दुःख
उसने जीत ली है एक दिन की भूख
सुबह उसके लिए बेसब्र प्रतीक्षा है और ढलती शाम रौनक
ठेकेदार और मुंशी रोज हो जाते हैं पराजित
नोट गिनते हुए बेशर्म
देखना नहीं छोड़ते उसके ब्लाउज का खुला हुआ पहला बटन
पर स्त्री कभी नजर उठा कर ऊपर नहीं देखती
चलते-चलते थूक देती है खैनी की पीक-पिच्च।
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ललन चतुर्वेदी |
संपर्क:
ई मेल : lalancsb@gmail.com
अच्छी कविताएँ। इनमें संघर्ष का ताप है और जीवन का स्पंदन भी। लफ्फाजी और कलाबाजी से मुक्त, सीधे मन को छू लेती हैं कविताएँ। पहली कविता 'विश्वास' बहुत अच्छी लगी। 'देह का अध्यात्म' और 'स्त्री का बटुआ' भी बहुत अच्छी लगीं। कविताओं को थोड़ा और कसें तो बेहतर।।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी मर्म को करुणा से सराबोर करती कविताएं।
जवाब देंहटाएंललन चतुर्वेदी जी गंभीर कवि हैं। उनका परिवेश आस-पास का परिवेश है। वे उन कवियों में नहीं जो एयरकंडीशन में बैठ कर गर्मी से बेहाल लोगों के लिए लिखे। यह एक बेहतरीन संग्रह है इन दिनों मैं भी उनके इस संग्रह को पढ़ रही हूं। स्त्री का बटुआ शानदार कविता है। बधाई ललन जी
जवाब देंहटाएं"विश्वास" का पूरा दर्शन इन पंक्तियों में समाया हुआ है:
जवाब देंहटाएंहँसते हुए मैंने कभी ठगा महसूस नहीं किया
अनजान लोगों से दूर रहने की चेतावनी पर भला कौन अमल करे
मेरा सबसे मजबूत विश्वास राह चलते हुए लोगों पर होता है।
यह विश्वास ही मनुष्यता को जीवित रखता है।
"स्त्री का बटुआ" बहुत धारदार कविता - पिच्च से थूकने की मार बड़ी गहरी है।
यादवेन्द्र, पटना