प्रियदर्शन का आलेख 'नहीं होने को टकटकी बांध कर देखती कविता'।

 

विनोद कुमार शुक्ल 



इस वर्ष का ज्ञानपीठ सम्मान जो विनोद कुमार शुक्ल को दिए जाने की घोषणा की गई है। पिछली बार का ज्ञानपीठ पुरस्कार जिस तरह दिया गया उसने बहुत निराश किया था। मुझे लगा कि अब यहां भी भविष्य के लिए संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल को सम्मानित कर ज्ञानपीठ ने अपनी पिछली गलती सुधारने की कोशिश की है। विनोद जी ऐसे रचनाकार हैं जिनके नाम पर न कोई खेमेबंदी है, न ही कोई अन्य विवाद। विनोद जी अपने लेखन, वह चाहें गद्य हो या पद्य, में ऐसी भाषा अपनाते हैं जो सहज लगते हुए भी सहज नहीं है और जो कठिन होते हुए भी कठिन नहीं है।

विनोद जी के उपन्यास 'नौकर की कमीज', 'खिलेगा तो देखेंगे' और 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' ऐसी रचनाएं हैं, जिन्हें दुनिया भर में सराहा गया। इन उपन्यासों के कई भाषाओं में इनके अनुवाद हुए। उनके कहानी संग्रह 'पेड़ पर कमरा', 'आदमी की औरत' और 'महाविद्यालय' भी बहुचर्चित रहे हैं। वे पिछले 50 सालों से भी अधिक समय से लिख रहे हैं। उनका पहला कविता-संग्रह ‘लगभग जयहिंद’ 1971 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद प्रकाशित 'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह', 'सब कुछ होना बचा रहेगा', 'कविता से लंबी कविता', 'केवल जड़ें हैं', 'एक पूर्व में बहुत से पूर्व', 'अतिरिक्त नहीं' जैसे उनके कविता संग्रह भी चर्चित रहे हैं। उन्होंने बच्चों के लिए भी कई कहानियां लिखी हैं। 'हरे पत्ते के रंग की पतरंगी' और 'कहीं खो गया नाम का लड़का' बाल रचनाओं में शुमार हैं।

इस बात में कोई संशय नहीं कि वे हिन्दी के बड़े लेखक हैं। उनकी एक अंतरराष्ट्रीय कीर्ति भी है। कुछ अरसा पहले उन्हें अमेरिका का प्रतिष्ठित 'पेन नाबोकोव सम्मान' मिल चुका है। प्रियदर्शन लिखते हैं कि "विनोद जी पर यह आरोप लगता रहा है कि छत्तीसगढ़ में माओवाद के खात्मे के नाम पर सरकारी तंत्र जिस तरह ग़रीब गांव वालों का दमन करता रहा है, उस पर वे चुप क्यों रहते हैं। लेकिन हर लेखक के प्रतिरोध का अपना ढंग होता है, उसकी चुप्पी अपनी तरह से टूटती है। विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में कई जगह यह चुप्पी टूटती भी है।" विनोद जी को ज्ञानपीठ सम्मान की बधाई एवम शुभकामनाएं। इस अवसर पर हम प्रियदर्शन का आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने कभी  उनके कविता संग्रह 'अतिरिक्त नहीं' के बहाने लिखी थी। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रियदर्शन का आलेख 'नहीं होने को टकटकी बांध कर देखती कविता'।





'नहीं होने को टकटकी बांध कर देखती कविता'


प्रियदर्शन


विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं का एक नितांत अपना मुहावरा है। उनको पढ़ते हुए मार्मिकता और मनुष्यता के नए अर्थ खुलते हैं, उन छूटे हुए अर्थों की ओर ध्यान जाता है जिसमें बहुत सारी करुणा बसती है। उनको पढ़ते हुए शब्दों को उनकी सही छायाओं के बीच पहचानना संभव होता है और भाषा के नए रूप सामने आते हैं जो दरअसल नए नहीं, बहुत पुराने और आदिम होते हैं, नए बस इस अर्थ में होते हैं कि हम अरसे बाद उन्हें इस तरह पहचान रहे होते हैं। 


यह चीज़ विनोद कुमार शुक्ल को कई अर्थों में हिंदी का अकेला और अप्रतिम कवि बनाती है। वे कविता करते नहीं, खोज लाते हैं। उन्हें जैसे ठीक-ठीक पता होता है कि अर्थ कहां छुपे बैठे हैं, वास्तविक संवेदना कहां बसी हुई है। बाकी कवि दृश्य में अदृश्य खोजते हैं, विनोद कुमार शुक्ल, अदृश्य में दृश्य खोज लेते हैं। उनके संग्रह अतिरिक्त नहीं की पहली ही कविता कहती है, 


‘हताशा में एक व्यक्ति बैठ गया था 

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था 

हताशा को जानता था। 

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया 

मैंने हाथ बढ़ाया 

मेरा हाथ पकड़ कर वह उठ खड़ा हुआ। 

मुझे वह नहीं जानता था, 

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था। 

हम दोनों साथ चले 

दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे 

साथ चलने को जानते थे।'


यह दो अनजान लोगों के मिलने का दृश्य नहीं है, यह दो अनजान लोगों के साथ चल सकने की संभावना का अदृश्य है जिसे विनोद कुमार शुक्ल इतनी सहजता से संभव करते हैं कि वह दृश्य वास्तविक हो उठता है। हम लोगों को देखते हैं, उनके बीच की पहचान को खोजते हैं, विनोद कुमार शुक्ल की कविता मनुष्यता का हाथ थामने के लिए ऐसी किसी पहचान की मुहताज नहीं है। अदृश्य के इस संधान को विनोद कुमार शुक्ल अन्यत्र बहुत ठोस ढंग से कह भी डालते हैं, 


‘कि नहीं होने को 

टकटकी बांध कर देखता हूं 

आकाश में 

चंद्रमा देखने के लिए

चंद्रमा के नहीं होने को। 


(कि नहीं होने को)


अदृश्य के भीतर दृश्य खोजने की यह मानवीय अंतर्दृष्टि कहां से आती है? शायद उस सूक्ष्मदर्शी से, जिसमें क्षण में निबद्ध शाश्वत दिख जाता है, निजी से बंधा सार्वजनिक स्पष्ट हो जाता है। विनोद कुमार शुक्ल जैसे एक क्षण पर नज़र टिकाते हैं और उसके आईने में पूरा काल झिलमिला उठता है। उनकी कविता में एक विशाल चट्टान के ऊपर एक दूसरी चट्टान इस तरह रखी हुई है जैसे वह कभी भी गिर सकती है। कभी भी का वह लम्हा न जाने कब से स्थगित है और जो चट्टान ‘अभी-अभी गिरने को है’, वह न जाने कब से टिकी हुई है। गिरने की क्षणिकता और न गिरने की कालातीतता के बीच बनी कविता अचानक एक मानवीय उपस्थिति से नई और बड़ी हो उठती है। एक चरवाहा उस चट्टान की छाया में आ कर खड़ा हो जाता है जो इस पूरे दृश्य को नया कर जाता है- ‘यह कितना नवीन है।'





कविता की गांठें बहुत खोलनी नहीं चाहिए, नहीं तो उसकी ख़ुशबू ग़ायब होने का खतरा रहता है- ख़ासकर विनोद कुमार शुक्ल की कविता की, जिसमें चट्टानों की गांठें लगी भी दिखाई पड़ती हैं। विनोद कुमार शुक्ल दरअसल लिखते-लिखते बहुत सारी चीज़ों को एक साथ पिरो देते हैं। वह समय को देख कर जैसे रोक लेते हैं, या फिर किसी ठहरे हुए लम्हे समय के विराट अंतरालों को पहचान लेते हैं, वे कविता में जैसे सब कुछ का पुनर्वास कर डालते हैं। वे थिर हुई पहचानों को, जड़ता में बदलते अनुभव को, इस तरह उलटते-पलटते हैं कि हमें उनकी वास्तविक अवस्थिति के अर्थ भी स्पष्ट होते हैं और उनके भीतर के नए स्पंदन का एहसास भी होता है। लेकिन यह काम वे क्यों करते हैं? क्या सिर्फ कवि होने के विलास से? या जीवन की इस विडंबना की समझ के साथ भी कि चीज़ें जहां हैं, जैसी है, उन्हें वहां और वैसी नहीं होना चाहिए, कि यह भूगोल को उलटने-पलटने से ज़्यादा भाव-अभाव, बसाहट और विस्थापन की मजबूरी को उलटने-पलटने का भी मामला है? जवाब उनकी कविता के भीतर ही मिलता है- 


‘भोपाल हो अबकी साल 

बांकल, पनियाजोब के पास, 

गंगा के किनारे से हट कर 

काशी महानदी के पास। 

गरियाबंद गंगा से, 

चंडीगढ़ सांची से, 

नांदगांव से फ़रीदकोट, 

और मद्रास से जुड़ा हो मुरादाबाद।  

सब जगह इस तरह विस्थापित हो 

सब जगह के पास 

कि सब जगह हो सब जगह के पास 

और अकाल, आतंक, दुकाल में 

अबकी साल गांव से एक भी विस्थापित न हो।‘ 


(इस मैदानी इलाक़े में)


साफ तौर पर विनोद कुमार शुक्ल निर्द्वन्द्व भावुक मनुष्यता के महामेल के सपाट कवि नहीं हैं, सबको जोड़ती उनकी आंख यह ताड़ती भी रहती है कि समानता के इस सपने में विषमता के कैसे यथार्थ हैं, भाव की इस दुनिया में अभाव की उपस्थिति कितनी प्रबल और गहरी है। उनकी एक कविता अपने हिस्से का आकाश देखने से शुरू होती है और बताती है कि लोग सबके हिस्से का आकाश देख लेते हैं- अपने हिस्से का चंद्रमा सबके हिस्से का चंद्रमा भी है। लेकिन 


‘सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है। 

अपने हिस्से की भूख के साथ 

सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात। 

बाज़ार में जो दिख रही है 

तंदूर में बनती हुई रोटी 

सबके हिस्से की बनती रोटी नहीं है 

जो सबकी घड़ी में बज रहा है 

वह सबके हिस्से का समय नहीं है 

इस समय।'


(अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं)


निस्संदेह, विनोद कुमार के इस शिल्प के पीछे एक युक्ति है। लेकिन वह युक्ति कविता गढ़ने की नहीं, जीवन की साधारणता में छुपी कविता को खोज निकालने की है। इस काम में शब्द उनके सबसे बड़े औजार हैं। उनकी कविता शब्दों को छू कर जैसे जीवित कर देती है, वे जैसे हाड़-मांस के पुतले हो उठते है, हमसे बात करने लगते हैं, हमारी आंखों में झांकने लगते हैं। उनकी कविता में शब्द अर्थ के पर्याय या सूचक नहीं रहते, वे ख़ुद अर्थ हो जाते हैं, वे अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रहते, खुद अभिव्यक्ति हो जाते हैं। यह बहुत बारीक फर्क है। उनकी कविता पढ़ते हुए ही यह बात याद आती है कि हम भाषा जैसी भाषा लिख रहे हैं, जीवन जैसा जीवन जी रहे हैं। यह अंततः मूल की छाया प्रति ही है- बिल्कुल सच्ची लगती हुई, लेकिन उस गहराई, तरलता या ऊष्मा से वंचित जो वास्तविक अनुभव में होती है। 


सिर्फ अभ्यास की तरह बरते जाते अनुभव को, एक यांत्रिकता मे जिए जा रहे जीवन को विनोद कुमार शुक्ल जैसे अपनी कविता में जस का तस रख देते हैं:  


‘जीने की आदत पड़ गई है, 

जीवन को जीने की ऐसी आदत में 

बरसात के दिन हैं यदि 

तो जीने की आदत में बरसात होती है 

छाता भूल गया तो 

जीवन जीने की आदत में 

छाता भूल जाता हूं 

और भीग जाता हूं।'


(जीने की आदत)





लेकिन जीवन की यांत्रिकता का ख़याल भी उस सरलीकृत दृष्टि का ही नतीजा है जिससे यह यांत्रिकता उपजी है- यह बात विनोद कुमार शुक्ल ठीक से समझते हैं। वे सरलता के कवि हैं, सरलीकरण के नहीं, इसलिए यह जानते हैं कि इस यांत्रिकता के बीच भी सरलता अपने जीने के सूत्र खोजती रहती है- 


‘थोड़े-थोड़े भविष्य से 

ढेर सारे अतीत इकट्ठा करता हूं 

बचा हुआ तब भी ढेर सारा भविष्य होता है 

ऐसे में ईश्वर है कि नहीं की शंका में 

कहता हूं- मुझे अच्छा मनुष्य बना दो 

सबको सुखी कर दो। 

पता नहीं कहां से 

आदत से अधिक दुख की बाढ़ आती है 

जैसे पड़ोस में ही दुख का बांध टूट गया 

और सुख का जो एक तिनका नहीं डूबता 

दुख से भरे चेहरे के भाव में 

मुस्कुराहट सा तैर जाता है 

न मुझे डूबने देता है 

न पड़ोस को।'


(जीने की आदत)


दरअसल यह लंबा काव्यांश बहुत दूर तक उस चीज़ पर उंगली रखता है जो विनोद कुमार शुक्ल की कविता में हमें संभव होती दिखती है। वे समय के इकहरेपन से आक्रांत नहीं होते, वे किसी वैश्विक दृष्टि के प्रलोभन में नहीं पड़ते। वे सहजता से बस वह कहते हैं जिसे हम अनायास और अनजाने जुटाते और जीते हैं। वे सरल और साधारण के सुख-दुख और सौंदर्य का, विशिष्टता के समांतर मामूलीपन का, लगातार बढ़ती यांत्रिकता के बीच मनुष्यता का वृत्तांत रचते हैं - कुछ इस तरह कि देखने, सुनने और समझने का फलक एक साथ सूक्ष्म और विराट दोनों को समेटने लगता है। वे बाक़ायदा अपनी कविता में पूछते हैं, 


‘कटक को कैसे देखूं कि वह मुझे हज़ार वर्ष से 

बसा हुआ दिखे’ 


और कहते हैं  


‘हज़ार वर्ष से बह रहा है इन नदियों का जल 

हज़ार वर्ष के इस आकाश को इस समय का आकाश 

हज़ार वर्षों की आज की रात्रि में एक स्वप्न 

कि कटक बसने की पहली रात्रि में 

एक निवासी स्वप्न देख रहा है 

उसके स्वप्न में मैं हूं 

और मेरे स्वप्न में वह। 


(हज़ार वर्ष पुराना है कटक)


फिर हमारे सामने एक ऐसी कविता है जो आलोचना के लिए चुनौती मालूम होती है। यह किसका स्वप्न है और कौन देख रहा है?  कवि आज भी है, कवि कटक के प्रथम नागरिक के स्वप्न में भी है। बीच में हजार वर्ष की यात्रा है जिसे अविराम देखना हो तो उस प्रथम नागरिक का स्वप्न देखे बिना और उसके स्वप्न मे दाखिल हुए बिना काम नहीं चलेगा। विनोद कुमार शुक्ल चुपचाप यह काम कर जाते हैं। 


यहां यह याद करना अनुचित न होगा कि विनोद कुमार शुक्ल सिर्फ कवि नहीं उपन्यासकार भी हैं। फिर जैसे हम उनके उपन्यासों ‘नौकर की कमीज’ या ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को याद करते हैं तो इन कविताओं को पढ़ने का एक और परिपार्श्व सुलभ हो जाता है। एक मध्यवर्गीय साधारणता विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों की तरह उनकी कविता का भी पर्यावरण बनाती है। वे इस साधारणता को आभामंडित नहीं करते, बस जस का तस रख देते हैं- उसकी निरीहता को भी और नृशंसता से उसकी कातर मुठभेड़ों को भी। ‘साधारण’ नाम की उनकी कविता इस लिहाज से पठनीय है। हालांकि उनके उपन्यासों में रूपवाद की- और कई बार रोमानियत की- जो पदचापें सुनाई पड़ती हैं, वे यदा-कदा कविताओं में भी मिल जाती हैं। शब्दों से खेलते हुए, उनके कई अर्थ खोलते हुए कवि अनायास अपनी युक्ति के जाल में फंसता और कविता की जगह कविता जैसी कविता रचता दिखाई पड़ता है।






लेकिन ये जगहें बहुत कम हैं। ज़्यादातर जगहों पर विनोद कुमार शुक्ल विरल अनुभवों के वाहक कवि की तरह सामने आते हैं। ‘सुबह है’ नाम की कविता में एक बूढ़ी कोचनिन उन्हें रुपये के दस जुड़ी पालक के दाम बताती है लेकिन बारह जुड़ी देती है। मना करने पर नाराज़ हो जाती है। कवि लिखता है, 


‘हार कर ठगा हुआ 

मैं दस के बदले बारह जुड़ी लेता हूं 

दो दिन के दो सुबह उपराहा पाता हूं 

इसी उम्र में दो उम्र जीवन पाता हूं।' 


बहुत ही मामूली लगती इस कविता में एक जगमग करती साधारणता है जो देर तक ध्यान खींचती है।


इस कविता को या ऐसी और भी कविताएं पढते हुए दो बातें घ्यान में आती हैं। विनोद कुमार शुक्ल का कवि एक स्तर पर उस आदिवासी प्रांतर का भी कवि है जिसकी आवाज़ हिंदी कविता में कम सुनाई पड़ती है। उनके शब्द, उनके कहने का लहजा, उनकी सहजता-सरलता जैसे सब उसी समाज से संस्कार और पोषण पाते हैं। दूसरी बात यह कि विनोद कुमार शुक्ल एक स्तर पर साधारणता के कवि हैं तो दूसरे स्तर पर सौंदर्य के। उनमें जैसे एक नागार्जुन बसता है और एक शमशेर भी। शायद और भी बसते होंगे- लेकिन सबसे मुखर, प्रगट और कई जगहों पर उपस्थित यही दोनों हैं। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल को इन दोनों का मेल समझना उस बड़ी कविता को खो देना है जो उन्हें पढ़ते हुए हमें हासिल होती है। ज़्यादा सही यह कहना होगा कि साधारण के श्रम और उसकी सुंदरता को रचती विनोद कुमार शुक्ल की कविता अपने फैलाव में एक छोर नागार्जुन का छूती है तो दूसरा छोर शमशेर का। 


कई तहों में बंटी, कई हदों को छूती इस कविता पर लिखते हुए बार-बार यह ख़याल आता है कि वह जितनी पकड़  में आती है उतनी ही छूट जाती है। शायद सारी बड़ी कविताओं के साथ यह होता है। निस्संदेह विनोद कुमार शुक्ल हमारे समय के बड़े कवि हैं।


प्रियदर्शन 



सम्पर्क 


मोबाइल :09811901398

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