यादवेन्द्र का आलेख 'देश का असली हाल हम ही तो कहेंगे'
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सुभाष पंत के साथ यादवेन्द्र |
'देश का असली हाल हम ही तो कहेंगे'
यादवेन्द्र
वरिष्ठ और प्रतिबद्ध कथाकार सुभाष पंत के अद्यतन कहानी संकलन "इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़" (काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश) में चौदह कहानियां हैं जो हमारे समय और समाज को बडे़ सटीक ढंग से परिभाषित करती हैं।
इस किताब की एक कहानी "बूढ़े रिक्शा चालक का चित्र" ने मुझे बहुत बेचैन और क्रुद्ध किया, जिसका विषय मोटे तौर पर देखें तो किसी सभ्य-सुसंस्कृत समाज के लिए फैंटेसी लग सकता है पर जब उसे कुछ हालिया खबरों के साथ जोड़ कर पढ़ें तो समझ आता है कि हम किस एब्सर्ड थियेटर के साए में जी रहे हैं। यह किसी लेखक का कपोल कल्पित डिस्टोपिया नहीं है, प्रमाणित सत्य है।
बात एकदम साधारण थी - कहानी इस वाक्य से शुरू होती है और इसी बात पर खत्म भी होती है : और (माननीय न्यायमूर्ति द्वारा) चित्रकार का कृत्य भड़काने वाला माना गया। इन दो बातों के बीच में होता यह है कि एक ग्रैफिटी {सार्वजनिक दीवारों पर कुछ सन्देश देने वाले बड़े आकार के चित्र) चित्रकार को सूर्योदय की पृष्ठभूमि में राजभवन का चित्र बनाने के लिए शासन द्वारा कमीशन किया गया था। पर कई दिनों से भूखा उसका बूढ़ा रिक्शा चालक उसे गंतव्य तक पहुँचाता उससे पहले ही असहाय निढाल हो कर जमीन पर गिर पड़ता है और दम तोड़ देता है। कलाकार किसी मुश्किल में न पड़ जाए यह सोच कर वहाँ से जान बचा कर भागने को होता है पर उसकी आत्मा उसे धिक्कारती है - उसे समझ आता है कि बावजूद इतनी प्रगति के देश में ऐसे आदमियों की कमी नहीं है जो भूख से अपना दम तोड़ रहे हैं। आखिर दुखियों का दुख-दर्द और संघर्ष साहित्य और कला नहीं कहेंगे तो कौन कहेगा, यह सोच कर उसने सुनहरे राजभवन के बदले भूख से दम तोड़ते बूढ़े का चित्र दीवार पर बना दिया। उसके इसी जन पक्षधर विवेक को पुलिस ने उसका संगीन अपराध माना और उग्रवादी कह कर उसके प्राणदंड की मांग अदालत में की। अदालत ने सरकार की यह दलील मान ली कि देश में भूख पर पूरी तरह से काबू पा लिया गया है और देश में एक भी अब आदमी भूखा नहीं है। जाहिर है चित्रकार का अपराध यह था कि वह (सरकारी) प्रचार की बखिया उधेड़ रहा था और चित्र के रूप में उपलब्ध और प्रमाणित था। सरकारी वकील का तर्क था कि उसकी नापाक हरकत देश में अमन चैन बनाए रखने के खिलाफ एक घिनौना षड्यंत्र थी। सो उसे दंड मिलना ही था। कहानी माननीय न्यायाधीश के निर्णय के शब्दों के साथ भले ही ख़त्म हो जाती है पर दिमाग के अंदर खलबली मचाए रहती है।
हाल फिलहाल की घटनाएं याद करें तो एक नहीं अखबारों में छपी ऐसी अनेक सुर्खियाँ आपको याद आ जाएंगी कि दीवार पर कुछ लिखते या चित्र बनाते हुए किसी को देख कर शासन को इतना भय होता है कि उस पर देशद्रोह के कानून जैसी धाराएँ लगा कर मुकदमा कर दिया जाता है और आनन-फानन में पकड़ कर जेल के अंदर। हालाँकि भारतीय कानून के जानकार कहते हैं कि ग्रैफ़िटी आर्ट के खिलाफ़ कोई कानून नहीं है पर उत्पीड़न और गिरफ्तारियाँ कानून देख कर थोड़े न की जाती हैं। इसके लिए कोई खास तर्क ढूंढने की जरूरत नहीं होती - सबसे आसान तर्क है शांति भंग की आशंका या फिर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना। अब तो कॉपीराइट एक्ट का भी उपयोग किये जाने की कुछ घटनाएँ सामने आई हैं। कैसी विडंबना है कि चुनाव में विरोधियों को अपमानित करने, पेशाब करने, कूड़ा फेंकने या मर्दाना कमजोरी के इलाज का विज्ञापन करते हुए सार्वजनिक संपत्ति के किसी तरह का नुकसान का कानून कोई संज्ञान नहीं लेता।
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सुभाष पंत |
कुछ साल पहले जेल में बंद किसान नेता अखिल गोगोई की मुक्ति की मांग करते कुछ उत्साही नौजवानों ने गौहाटी की दीवारों पर अखिल गोगोई का चित्र बना दिया तो आनन फानन में पुलिस ने उन्हें पकड़ कर बंद कर दिया। अगले दिन शहर की अन्य अनेक दीवारों पर अखिल गोगोई के साथ पकड़े गए और चित्र बनाने वाले उन कलाकारों को छोड़ने के लिए वैसे ही अनेक चित्राें की भरमार शहर में देखने को मिली। अंत में पुलिस को पकड़े गए कलाकारों को छोड़ना पड़ा।
पिछले साल की बात है जब अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर में सचिवालय की दीवार पर राज्य की प्रगति दर्शाने वाले चित्रों में बडे़ बांध के चित्र के ऊपर "नो बिग डैम" लिख कर विरोध प्रदर्शन करने के अपराध में प्रख्यात ग्रैफिटी कलाकार निलिम महंत को गिरफ़्तार कर लिया गया। उनके ऊपर सरकारी दीवार का रूप बिगाड़ने का आरोप लगाया गया।
पिछले साल के अंत में जब नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) के विरुद्ध बड़े पैमाने पर प्रतियोगी परीक्षाओं में गड़बड़ियों और पेपर लीक की शिकायत मिली तो युवाओं ने देशव्यापी विरोध किया। दिल्ली विश्वविद्यालय में सक्रिय एक वामपंथी छात्र संगठन ने एनटीए के खिलाफ़ अभियान चलाया और एक छात्र पर अभियान का नारा लिखने के लिए न सिर्फ़ पुलिस की एफआईआर का सामना करना पड़ा बल्कि छह महीने के लिए क्लास से बाहर भी कर दिया गया।
विडंबना यह है कि एक तरफ़ अपने सामाजिक राजनैतिक सरोकारों को व्यक्त करने वाले कलाकारों से शासन को इतना डर लगता है कि देश टूटने की चिंता सताने लगती है वहीँ काजल सिंह नाम की कलाकार को देश की प्रथम महिला ग्रैफिटी आर्टिस्ट के रूप में सम्मानित किया जाता है। अपनी बातचीत में वे कहती हैं कि लम्बे समय से भारत में ग्रैफिटी कलाकारों को अपनी असल पहचान छुपा कर काम करना पड़ता है क्योंकि कई बार उनके शब्द तत्कालीन सत्ता की नीतियों के विरोधी और गैर कानूनी मान लिए जाते हैं। यहाँ गौर करने की बात यह है कि उन्होंने स्वयं अपना काम असल नाम छुपा कर किया। भारत में इस कला-रूप को अनेक प्रोजेक्ट के माध्यम से लोकप्रिय बनाने वाले ग्रैफिटी आर्टिस्ट हनीफ़ कुरेशी (जिन्हें दिल्ली के लोदी कॉलोनी के ग्राफिटी चित्रों के लिए खूब ख्याति मिली) ने भी अपनी कृतियों में अपना असली नाम नहीं लिखा बल्कि डाकू के तौर पर ख्यात हुए।
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यादवेन्द्र कहानीकार सुभाष पंत के साथ |
सुभाष पंत की कहानियाँ नीरा किस्सागोई कभी नहीं होतीं - दरअसल सिर्फ़ कहानी लिखने के लिए वे कभी नहीं लिखते बल्कि दैनंदिन जीवन के सामाजिक विश्वसनीय बर्ताव के सन्दर्भ में उनको जब कोई बात कहनी होती है तो कहानी का सहज स्वाभाविक ताना बाना बुनते हैं। दिलचस्प बात यह है कि उनकी कहानियों के पीछे अनुभवजनित उद्गम स्रोत होते हैं जिन्हें बात करते हुए वे सरस ढंग से सुनाते भी हैं। एक उदाहरण देता हूँ - उनकी कहानी "घोड़ा" पढ़ने के बाद बहुत देर तक हॉन्ट करती है भले ही उसमें कुछ अतिशयोक्तियाँ भी लगें .... मैं देर तक चेखव की मशहूर कहानी "डेथ ऑफ़ ए क्लर्क" के बारे में सोचता रहा। आदमी को आदमी न बना कर बोझ ढोने वाला घोड़ा बना देने वाली व्यवस्था का अत्यंत क्रूर और दमनकारी चेहरा चमगादड़ों के झुण्ड की मानिंद पाठक के आस-पास चेहरे पर ठोकर मारते महसूस होते हैं। संक्षेप में कहें तो ऑफिस में काम करने वाले एक मामूली मुलाजिम की कहानी है यह जो अफ़सर के बच्चे के लिए और कुछ नहीं महज़ पीठ पर सवारी कराने वाला घोड़ा है - और कोई उसको मनोरंजन समझता है तो कोई उसकी ड्यूटी। सुभाष जी ने बात करते हुए इस कहानी को जन्म देने वाली घटना सुनायी - उनकी नौकरी के शुरूआती दिनों की बात है जब वे रेल के फ़र्स्ट क्लास कूपे में धनबाद से देहरादून की यात्रा पर थे और उनकी नीचे वाली बर्थ थी, ऊपर कोई राजनैतिक नेता धनबाद में सवार हुआ। नेता के साथ एक अटेंडेंट भी था। नेता ने पंत जी को बताया कि वह चुनाव के लिए टिकट लेने आया था और बहुत थका हुआ है। जब ऊपर चढ़ने की बारी आयी तो अटेंडेंट बाकायदा घोड़े जैसा झुका, नेता ने उसकी पीठ पर एक गमछा बिछाया और जूता पहने उस पर चढ़ के ऊपर की बर्थ पर पहुँच गया। अटेंडेंट ने फिर खड़े हो कर फीता खोल कर उसके जूते उतारे, सिर से लगाया और नीचे रखा। जैसे ही नेता के खर्राटे सुनाई देने शुरू हुए वह वही गमछा बिछा कर फ़र्श पर लेट गया - भयंकर सर्दी के दिन थे और पंत जी ने उसको अपनी गर्म चद्दर देनी चाही पर उसने विनम्रता से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि शरीर को गर्मी मिलते ही नींद आ जायेगी - मालिक रात में जब भी जागेगा उसको सोता देखेगा तो आग बबूला हो जायेगा, और उसकी जान भी ले सकता है। इस घटना ने उनके ऊपर गहरा असर डाला।
ऐसी ही एक और घटना उन्होंने एक बार देहरादून की सुनायी जब उनके घर में नई फ़र्श बनाने का काम चल रहा था - वैसे ही सर्दियों के दिन थे और दफ़्तर से लौटने के बाद उन्होंने देखा एक बिहारी मज़दूर सिर्फ़ बनियान पहने हुए ओवरटाइम में फ़र्श की घिसाई का काम कर रहा है। पंत जी ने पत्नी को कहा कि इसको चाय दे दो, बेचारे के बदन में थोड़ी गर्मी आ जायेगी। जब बार आग्रह करने पर उसने चाय नहीं ली तो पत्नी ने बताया दिन में कई बार मैंने उससे चाय के लिए कहा पर हर बार उसने मना कर दिया। जब उस मज़दूर से पंत जी ने कारण पूछा तो उसने बताया कि चाय पीने की तलब उसको थी पर यह सोच कर बार-बार वह इनकार कर रहा था कि कहीं चाय की आदत न पड़ जाए - वह इस तरह की दिहाड़ी मज़दूरी में चाय पीने के बारे में सोच भी नहीं सकता था।
मैंने जब पंत जी से इन दोनों घटनाओं पर कहानियाँ लिखने के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़ी सहजता और दृढ़ता से जवाब दिया कि ये मेरे जीवन का "फिक्स्ड डिपॉज़िट" है जिसको मैंने सोच रखा है काम चलाने के लिए कभी तुड़ाऊँगा नहीं ..... और हमेशा ये घटनाएँ मुझे दिये की तरह रोशनी दिखाती रहेंगी और यह बताती रहेंगी कि मुझे किनके बारे में और किनके लिए लिखना है।
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मोबाइल : 09411100294
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