सुप्रिया पाठक का आलेख 'इंटरसेक्शनालिटी का स्त्रीवादी पक्ष'
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सुप्रिया पाठक |
'इंटरसेक्शनालिटी का स्त्रीवादी पक्ष'
सुप्रिया पाठक
भारत में भेदभाव और असमानता को पहचान की एक धुरी पर ध्यान केन्द्रित कर के नहीं समझा जा सकता है, चाहे वह जाति, लिंग, लिंग पहचान, विकलांगता, धर्म या कोई अन्य श्रेणी हो। इसे एक अंतर-विषयक लेंस के माध्यम से जांचना और तलाशना होगा, जहां लोगों की कई और अलग-अलग पहचानें टकराती हैं।
अँग्रेजी के शब्द ‘इंटरसेक्शनालिटी’ जिसे हिन्दी में अंतरक्षेत्रीयता या अंतर्विभाजकता कहा जाता है, का प्रयोग पहली बार नागरिक अधिकारों के अधिवक्ता एवं विद्वान किम्बर्ले क्रेनशॉ ने 1989 में किया था। आलोचनात्मक नस्लीय सिद्धान्त में रुचि रखने वाले कानून के विशेषज्ञ क्रेनशॉ ने लैंगिक एवं नस्लीय मुद्दों पर केंद्रित मामलों में कानून के रवैये को प्रश्नांकित करना शुरू किया। उनका मानना था कि न्यायालयों की यह वैचारिक सीमा थी कि वे जीवन के इस यथार्थ को नजरअंदाज कर रहे थे कि अश्वेत स्त्रियाँ अश्वेत और स्त्री दोनों हैं इसलिए वे नस्लीय और लैंगिक दोनों आधारों पर भेदभाव की शिकार हैं। इस बिन्दु को स्पष्ट करने के लिए क्रेनशॉ ने 1976 के 'डेग्राफेन रीड बनाम जनरल मोटर्स' के मामले को उदाहरण के रूप में पेश किया। यह मामला जनरल मोटर्स पर मुकदमा करने वाली पांच अश्वेत स्त्रियों के इर्द-गिर्द केंद्रित था। उनकी नीति के अनुसार, अश्वेत स्त्रियों को भेदभावपूर्ण तरीके से प्रताड़ित किया जा रहा था। स्त्रियों ने यह तर्क दिया कि उन्हें अश्वेत और स्त्री दोनों होने के कारण दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ रहा था, लेकिन कानूनी व्यवस्था इस तर्क को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं थी। क्रेनशॉ का यह मानना था कि इंटरसेक्शनालिटी की समझ से न्यायालयों को समानतापूर्ण एवं पारदर्शी ढंग से कार्य करने की संभावना पैदा हो रही थी परंतु उनके इस मत की अदालतों द्वारा लगातार अनदेखी की जा रही थी।
1980 और 1990 के दशक की शुरुआत में संयुक्त राज्य अमेरिका में अश्वेत स्त्रीवादी कार्यकर्ताओं द्वारा अश्वेत स्त्रीवाद की सैद्धान्तिक शुरुआत की गई जिसकी जनक एलिस वाकर को माना जाता है। अश्वेत स्त्रीवाद राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य देशों में अश्वेत महिलाओं के उत्पीड़न के बहुआयामी पहलुओं पर केंद्रित था। यह मुख्य धारा के स्त्रीवाद से इस मायने में भिन्न था कि इसने अश्वेत स्त्रियों के दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले अन्याय को भिन्न दृष्टि समझने का प्रयास किया। यह इंटरसेक्शनालिटी यानी, संस्थागत नस्लवाद, वर्गवाद और लिंगवाद सहित भेदभाव के कई रूपों पर एक साथ विचार कर रहा था। संयुक्त राज्य अमेरिका के बाहर, अश्वेत स्त्रीवाद को अक्सर अफ़्रो-स्त्रीवाद कहा जाता है। हालाँकि, संयुक्त राज्य अमेरिका में अश्वेत स्त्रीवाद की जड़ें 19वीं सदी के मध्य में खोजी जा सकती हैं, लेकिन अश्वेत स्त्रीवादी आंदोलन को 1970 के दशक तक प्रमुखता नहीं मिली। 1960 और 70 के दशक के दौरान, मुख्य धारा के स्त्रीवाद की दूसरी लहर की अवधि के दौरान, अश्वेत महिलाओं को महिला अधिकार संगठनों के भीतर नेतृत्व के पदों से बड़े पैमाने पर बाहर रखा गया था परंतु उनकी चिंताएं हाशिए पर थीं। वैश्विक स्तर पर उभरे तृतीय लहर के स्त्रीवाद ने इंटरसेक्शनालिटी के मुद्दे को स्थानीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में प्रमुखता से उभारा। तृतीय लहर के स्त्रीवाद की विभिन्न परिभाषाएं एवं व्याख्याएं हैं। संभवतः इसकी उपयुक्त व्याख्या यह की जा सकती है कि यह तीसरी पीढ़ी की स्त्रियों के दौर का स्त्रीवाद है जिसने द्वितीय लहर के स्त्रीवाद की वैचारिक विरासत को स्वीकार करने के साथ-साथ इसकी सीमाओं को भी चिन्हित किया। उनकी इस तर्क के साथ गहरी सहमति थी कि द्वितीय लहर का स्त्रीवाद श्वेत, मध्यवर्गीय, सवर्ण स्त्रियों तक केन्द्रित होने का कारण अपने चरित्र में ही निर्देशात्मक आंदोलन था जिसने साधारण स्त्री और उसके मुद्दों को नजरअंदाज किया। तृतीय लहर की स्त्रीवादियों के अनुसार, जिस ऐतिहासिक तथा राजनीतिक संदर्भ में द्वितीय लहर के स्त्रीवाद का उदय हुआ था, वे समस्त परिस्थितियां अब बदल चुकी थीं इसलिए वर्तमान स्त्री के जीवनानुभवों में उसकी झंकार सुनाई नहीं देती। इस लहर की स्त्रीवादियों में अधिकांश वे स्त्रियाँ है जिनकी माँए द्वितीय लहर का हिस्सा थीं या जो विभिन्न उच्च शिक्षा संस्थानों में ‘स्त्री अध्ययन’ जैसे विषयो में अध्ययन-अध्यापन कर रही हैं। इन नारीवादियों ने उत्तर संरचनावादी तथा उत्तर-आधुनिकतावादी सिद्धांतों को भी चुनौती दी है। साथ ही, इंटरसेक्शनालिटी को स्त्री शोषण के संदर्भ में, एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में चिन्हित करने का प्रयास भी किया है।
सामान्यतः तीसरी लहर के बारे में यह धारणा है कि इसका उदय आकादमिक हल्कों में हुआ। वैश्विक हल्कों में अस्सी और नब्बे के दशक में महत्वपूर्ण परिघटना के रुप में उभरे दलित एवं अश्वेत स्त्रीवाद के वैचारिक हस्तक्षेप स्त्रीवाद की तीसरी लहर के दायरे में रख कर देखा जाता है जिसने तीसरी दुनिया में स्त्री विषयक मुद्दों को ‘सार्वभौमिक भगिनीवाद’ (Universal sisterhood) के दावे से अलग हट कर उसे नस्लीय एवं जातीय सन्दर्भों में देखे जाने की पैरवी की। इसके साथ कई तरह के स्त्रीवादी और सबल्टर्न सिद्धांतों-अवधारणाओं एवं आंदोलनकारी गतिविधियों का जुड़ाव रहा है। 2006 में प्रकाशित अपनी कृति 'राइटिंग कास्ट/ राइटिंग जेंडर : नैरेटिंग दलित वुमेन टेस्टीमोनियल' में प्रसिद्ध समाजशास्त्री एवं दलित स्त्रीवाद की प्रथम सिद्धांतकार मानी जाने वाली शर्मिला रेगे ने इस पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है। परंपरावादी आलोचक रेने डेनफील्ड के अनुसार, तृतीय लहर की संकल्पना एलिस वाकर की पुत्री रेबेका वाकर तथा सेनॉन लीज़ ने 1990 के शुरूआती दशकों में की।
अधिकांश तृतीय लहर की स्त्रीवादियों ने अपने दृष्टिकोण को ‘उत्तर-स्त्रीवाद’ से अलग कर के रखा। जैसा कि लेसली हेवुड तथा जेनिफर ड्रेक ने यह कहा कि ‘उत्तर-स्त्रीवाद’ दरअसल कुछ खास नवजवान परंपरावादी स्त्रीवादियों का समूह है जिन्होंने स्पष्ट रूप से स्वयं को परिभाषित करते हुए द्वितीय लहर की स्त्रीवादियों की कटु आलोचना की। इसके विपरीत तृतीय लहर के स्त्रीवादियों ने सचेत रूप से द्वितीय लहर के इतिहास को संजोते हुए अपने कार्यों तथा सिद्धांतों को इसी शृंखला की कड़ी के रूप में वर्णित किया। इस लहर ने केटी रोफे द्वारा लिखित पुस्तक ‘द मॉर्निग आफ्टर’ की उन प्रस्थापनों को परंपरावादी कह कर अस्वीकार कर दिया जिसमें उन्होंने उन स्त्रीवादी बुद्धिजीवियों की आलोचना की थी जो संयुक्त राज्य अमेरिका में यौन हिंसा तथा बलात्कार के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रही थीं जिसके कारण इस देश में स्त्री-पुरुष संबंध प्रभावित हो रहे थे। नाउमी वुल्फ को उनकी कृति ‘फायर विथ फायर' (1993) के लिए लोगों की मिश्रित प्रतिक्रिया मिली। हालांकि उन्हें तृतीय लहर की विदुषियों में प्रतिष्ठा मिली। विशेष तौर पर उन्होंने उस ‘पीड़ित-स्त्रीवाद’ को खारिज किया जहाँ स्त्रियों को द्वितीय दौर के सिद्धांतों में हिंसा की निष्क्रिय भुक्तभोगी के रूप में प्रस्तुत किया गया। वुल्फ का संपूर्ण सैद्धांतिकीकरण इस तथ्य पर आधारित था कि अब पुराने फ्रेम को तोड़ कर प्रतिरोध की नई संस्कृति को गढ़ने की आवश्यकता है। इसलिए अब पुत्री के लिए यह आवश्यक है कि अपनी स्त्रीवादी माँ की शोषण की संकल्पनाओं से इतर जा कर अपने एजेण्डे को वह स्वयं परिभाषित करे तथा समाज की अन्य शोषणकारी संरचनाओं के साथ उसके सम्बन्धों की तलाश करे। तीसरे लहर के प्रेरणा तत्त्व बहुभाषिक संस्कृतियों में प्रतिबिम्बित होते है। इन सांस्कृतिक हस्तक्षेपों के अतिरिक्त तीसरे लहर के समर्थकों को अपने वैश्विक दृष्टिकोण तथा उसके प्रति प्रतिबद्धता पर गर्व है जिसमें उन्होंने द्वितीय लहर के कुछ अति महत्त्वपूर्ण तत्त्वों को अपनाते हुए सामान्य लोगों के जीवन तथा उनकी वास्तविक परिस्थितियों को समझने का प्रयास किया। पुरुष तथा विषम लैंगिकता की आलोचना तीसरे लहर के स्त्रीवाद में उतने महत्त्वपूर्ण मुद्दे नहीं थे। निश्चित रूप से तीसरे लहर का स्त्रीवाद अपनी भ्रूणावस्था में था जिसे अकादमिक सैद्धांतिकीकरण के जरिए धीरे-धीरे अपना दर्शन गढ़ना था। इस लहर के हृदय में पीढ़ीगत संघर्ष का भाव था जिसमें एक पीढ़ी अपने स्थान (space) का दावा कर रही थी और आंदोलन को अपनी नजर से व्याख्यायित करते हुए उसे अपना वैचारिक जामा पहना रही थी। तृतीय लहर में ‘अस्मिता का विमर्श’ केन्द्र में था।
वैश्विक स्तर पर उभरे अश्वेत स्त्रीवाद का केन्द्रीय तर्क था कि वर्गीय, नस्लीय तथा लैंगिक शोषण अन्तरसंबंधित है। नारीवाद की प्रचलित धाराएं लैंगिक शोषण पर बात करते हुए नस्लीय वर्गीय शोषण को लगातार नजरअंदाज करती हैं। 1974 में कॉमबाही रिवर कलेक्टिव ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि अश्वेत स्त्री की मुक्ति के पश्चात ही संपूर्ण मानव समाज की मुक्ति संभव है। लिंग, वर्ग तथा नस्ल आधारित शोषण को सम्यक रूप से समझे बिना तथा उनके विरूद्ध एकजुट हुए बिना स्त्री मुक्ति संभव नहीं। अश्वेत आंदोलन की आधारभूमि को तैयार करने में एलिस वॉकर के वुमेनिस्म के सिद्धान्त का महत्वपूर्ण योगदान है। एलिस वाकर तथा अन्य वुमेनिस्ट विदुषियों ने इस बात पर ज़ोर दिया किया कि अश्वेत स्त्री के जीवनानुभव श्वेत, मध्यवर्गीय स्त्रियों की अपेक्षा न सिर्फ भिन्न हैं बल्कि उसके शोषण की परिस्थितियां भी अधिक जटिल हैं। अश्वेत स्त्री आंदोलन के उदय का कारण भी इसी तार्किक पहलू पर आधारित है कि श्वेत मध्यमवर्गीय, पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने नारीवाद की जिस धारा का नेतृत्व किया, उसने वर्ग तथा नस्ल पर आधारित शोषण को तवज्जो नहीं दिया। पेट्रिशिय हिल कॉलिन्स ने अपनी महत्त्वपूर्ण कृति ‘फेमिनिस्ट थॉट‘ (1991) में अश्वेत नारीवाद को परिभाषित करते हुए कहा कि इस नारीवाद को सैद्धान्तिकी देती हुई विदुषियों ने साधारण अश्वेत स्त्री के अनुभवों तथा उसके विचारों को शामिल करते हुए एक अलग किस्म को दृष्टि अपने, समुदाय तथा समाज के प्रति प्रदान की। अश्वेत नारीवाद का महत्त्वपूर्ण वैचारिक संबंध उत्तर औपनिवेशिक स्त्रीवादियों के साथ तथा तीसरी दुनिया के नारीवाद (दलित नारीवाद) के साथ भी बन रहा था। दोनों ही स्त्रीवादी धाराएं अपनी स्वीकार्यता के लिए न सिर्फ इस पुरुष प्रधान संस्कृति में बल्कि पाश्चात्य स्त्रीवादी खेमों में भी संघर्षरत थी। अश्वेत स्त्रीवादी संगठनों का उदय 1970 के दशक में हुआ। नेशनल ब्लैक फेमिनिस्ट ऑर्गनाइजेशन की स्थापना 1973 में हुई जिसमें नारीवादियों ने सत्ता संबंधों को प्रश्नांकित करते हुए अफ्रीकी तथा अमेरिकी अश्वेत स्त्रियों द्वारा झेली जा रही हिंसा की परिस्थितियों के विरुद्ध प्रतिबद्धता जाहिर की। परंतु अंततः 1977 में इस सक्रिय संगठन ने काम करना बन्द कर दिया। 'द कॉमबाहो रिवर कलेक्टिव' हमेशा अश्वेत समाजवादी नारीवादियों का एक महत्त्वपूर्ण संगठन बना रहा। बारबरा स्मिथ जो एक अश्वेत समलैंगिक समर्थक थीं, ने इस संगठन का नाम प्रस्तावित किया था। वर्तमान अश्वेत नारीवाद एक राजनीतिक/सामाजिक आंदोलन के रूप में 1960 तथा 1970 के दशक के उन समस्त नागरिक अधिकार आंदोलनों तथा स्त्रीवादी आंदोलन के प्रति विसम्मति से उपजा जिन्होंने उसके मुद्दों को मुख्य एजेंडे में शामिल नहीं किया था। मेरी एन वेदर जो अश्वेत नारीवाद की प्रबल समर्थक थी, 1969 में एक रेडिकल नारीवादियों की पत्रिका ‘नो मोर फन एण्ड गेम्स : ए जॉर्नल ऑफ फीमेल लिबरेशन' में लिखती हैं : दुनिया की सभी स्त्रियां शोषण की शिकार हैं, यहाँ तक को श्वेत स्त्री भी। विशेष तौर पर गरीब श्वेत स्त्री तथा भारतीय, मैक्सिकन प्यूरिटोरिको की अश्वेत अमेरिका तथा अफ्रीकी स्त्रियां तिहरे किस्म के शोषण की शिकार है। परन्तु हम सभी स्त्री शोषण को सामान्य रूप से समझते हैं। इसका अर्थ है हमें सभी के साथ संवाद की स्थिति पैदा करनी होगी ताकि विभिन्न के बावजूद भी एक मंच पर खड़े होने की स्थितियां पैदा की जा सकें।'
अश्वेत स्त्रीवादियों द्वारा दर्ज किया गया प्रतिरोध वस्तुतः दो दृष्टिकोणों का परिणाम है। पहला दृष्टिकोण यह मानता है कि दरअसल शोषित समूह स्वयं को शक्तिशाली समूहों के साथ जोड़ कर देखता है जिसके कारण उनके स्वयं के शोषण की कोई वैध व्याख्या उनके पास नहीं होती। दूसरा दृष्टिकोण यह मानता है कि शोषित समूह अपने शोषकों की अपेक्षा इंसानों की श्रेणी में नहीं आते इसलिए उनमें अपना दृष्टिकोण रखने की भी क्षमता नहीं होती है। दोनों ही दृष्टिकोण यह मानते हैं कि शोषित समूह द्वारा अपनी चेतना की अभिव्यक्ति को वर्चस्वशाली समूहों द्वारा स्वीकार्यता न मिलना उभरते हुए विचारों की प्रतिबद्धता को और सुदृढ़ करता है। खासतौर पर दोनों ही दृष्टिकोण यह मानते हैं कि शोषित समूहों में राजनीतिक कार्यक्षमता इसलिए मजबूती से नहीं उभर पाती क्योंकि उनमें अपनी शोषित स्थिति के प्रति चेतना का घोर अभाव होता है। हालांकि अफ्रीकी महिलाएं न ही निष्क्रिय रुप से पीड़ा को झेलती हैं और ना ही अपनी सत्ता के लिए सक्रिय होती हैं। परिणामस्वरूप अश्वेत स्त्री अध्ययनों को होने वाले बौद्धिक कार्यों में यह स्पष्ट झलक मिलती है कि अश्वेत स्त्रियों का अपने द्वारा अपने शोषण के प्रति परिभाषित दृष्टिकोण है। दो अन्तरसंबंधित घटक इस दृष्टिकोण को परिभाषित करते हैं। पहला अश्वेत स्त्रियों की राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियां उन्हें एक भिन्न प्रकार का जीवन अनुभव प्रदान करती हैं जो उनमें भौतिक यथार्थ को अन्य समूहों की अपेक्षा दुनिया को समझने की अलग दृष्टि प्रदान करता है। वे सभी सवैतनिक और अवैतनिक कार्य जो अश्वेत स्त्रियां करती है, वे समुदाय जिसका वे हिस्सा है तो वे सभी संबंध जो उनके जीवन में है, अफ्रीकी महिलाओं को एक समूह के रूप में श्वेत मध्यमवर्गीय स्त्रियों की अपेक्षा अलग किस्म की दुनिया का अनुभव कराती है। दूसरा इस प्रकार के अनुभव अश्वेत स्त्रियों को भौतिक यथार्थ के प्रति भिन्न चेतना पैदा करते है। अर्थात् संक्षिप्त शब्दों में, अधीनस्थ समूह न सिर्फ एक भिन्न यथार्थ का अनुभव अपने शोषक समूह की अपेक्षा करता है बल्कि वह समूह उस भिन्न यथार्थ को वर्चस्वशाली समूहों की अपेक्षा अलग ढंग से व्याख्यायित भी करता है। परंतु यह भी सत्य है कि एक अश्वेत स्त्री के दृष्टिकोण के अलग होने का यह अर्थ नहीं कि इसे पर्याप्त रूप से अश्वेत स्त्रीवादी सिद्धान्त में व्याख्यायित किया गया हो। पीटर बर्जर तथा थॉमस लॉकमॅन ने अश्वेत स्त्री के दृष्टिकोण तथा अश्वेत स्त्रीवादी सिद्धान्त में मध्य संबंध बताने का प्रयास किया है। अश्वेत स्त्रीवादी सिद्धान्त एक विस्तार के रूप में दूसरे स्तर के ज्ञान की बात करता है जबकि अश्वेत स्त्री का दृष्टिकोण प्रत्येक दिन के जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति है जो उस सैद्धान्तिकीकरण की आधारभूमि तैयार करता है। लेकिन, ये दोनों ही स्तर अन्तरसंबंधित हैं।
अपनी ज्ञान परंपरा को वैधता दिलाने तथा उसे स्थापित करने के क्रम में अश्वेत स्त्रीवादी सिद्धान्त को तीन स्तर पर चुनौतियों का सामना करना है। पहला साधारण अश्वेत स्त्रियों के बीच अपने सिद्धान्तों के प्रति विश्वास पैदा करना। दूसरा अश्वेत विदुषी स्त्रियां जो सामान्यतः स्त्रीवादी नहीं है, उनके बीच अपनी स्वीकार्यता हासिल करना तथा तीसरा अकादमिक जगत में यूरोकेन्द्रित पुरुषवादी राजनीतिक तथा ज्ञान मीमांसात्मक मुठभेड़ का सामना करना। अश्वेत स्त्रीवादी सिद्धान्त इस महत्त्वपूर्ण संभावना को पैदा करता है कि अश्वेत स्त्रियां अपने विशेष ज्ञान का उत्पादन कर सकती हैं। इस प्रकार का भिन्न दृष्टिकोण अफ्रीकी, अमेरिकी अश्वेत स्त्रियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि वे अपने ज्ञान को महत्त्व देते हुए प्रचलित स्त्रीवादी धाराओं में स्थान एवं स्वीकार्यता के लिए आवाज बुलंद करें। अश्वेत स्त्री के सांस्कृतिक तथा पारंपरिक विचारों को उठाते हुए अश्वेत स्त्रीवादी सिद्धान्त उनमें नये अर्थ भरता है तथा उसके प्रति चेतना जागृति का कार्य करता है। खासतौर पर इस प्रकार की व्याख्याएं अश्वेत अफ्रीकी तथा अमेरिकी स्त्रियों को प्रतिरोध का एक नया तरीका सिखाती है जिसके सहारे वे सभी प्रकार के वर्चस्वों के विरूद्ध संघर्ष कर सकें। अश्वेत नारीवाद को "असहमति के विमर्श" तथा "भिन्न स्वर" के रुप में तरजीह दिए जाने के साथ-साथ स्त्रीवादी विमर्श में आलोचना का सामना भी करना पड़ रहा है। आलोचकों का कहना है कि अश्वेत स्त्री द्वारा स्वयं को सिर्फ अश्वेत समूह के रुप में देखने की प्रवृति के कारण यह नस्लीय पूर्वाग्रहों में फंस गया है जिसके कारण इसके तार्किक आयाम कमजोर हुए हैं। नस्लीय भेदभाव के विरोधियों का मानना है कि अश्वेत स्त्री सिर्फ अश्वेत होने के कारण शोषित नहीं है बल्कि स्त्री होने के साथ-साथ वह अश्वेत भी है, यह उसके दोहरे उत्पीड़न का प्रमुख कारण है। अश्वेत नारीवाद खुद को एकमात्र अश्वेत स्त्रियों का हितचिंतक करार देता है, उसका यह दावा महिला आंदोलन के साथ उसके अटूट रिश्ते को कमजोर करता है। अश्वेत स्त्री द्वारा अपना सारा ध्यान नस्ल के सवालों पर केन्द्रित करने के कारण यह अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक पहलुओं की अनदेखी करता है।
भारत में 1980-90 के दशक में नारीवादी सैद्धांतिक विमर्श में नवीन चिंतन के रुप में उभरा दलित एवं अश्वेत नारीवाद प्रचलित प्रतिमानों/विचारधाराओं में महत्त्वपूर्ण शिफ्ट था, जिसने तीसरी दुनिया में स्त्री विषयक मुद्दों को अलग नज़रीये से देखने की पृष्ठभूमि तैयार की। हालांकि, यह श्वेत एवं सवर्ण नारीवादियों के लिए पीड़ाजनक अनुभव था कि वे तीसरी दुनिया में उभरे विभिन्नता के स्वरों की बौद्धिक चुनौतियों का सामना का रहीं थी। भारतीय परिदृश्य में 1980 के दशक में जातीय अस्मिताओं के उभार के फलस्वरुप सैद्धांतिक तथा राजनीतिक स्तर पर जातिगत चेतना ने आकार लेना शुरु किया। 1990 के दशक में इसी चेतना के इर्द गिर्द स्वायत्त दलित महिला संगठनों ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित नारीवादी आंदोलनों के ब्राह्मणवादी चरित्र तथा दलित राजनीति के पितृसत्तात्मक मनोवृति को कठघरे में खड़ा किया। दलित नारीवाद के मुद्दों को सर्वप्रथम औपचारिक रुप से उठाने वाली संस्था राष्ट्रीय दलित महिला फेडरेशन (NDWF) ने इसे वैश्विक पटल पर पब्लिक एजेंडा के रुप में प्रस्तुत किया। दलित चिंतक गोपाल गुरु ने इसे दलित राजनीति के बाह्य (अतिव्यापी गैरदलित पितृसत्ता) तथा आंतरिक (विचारशील दलित पितृसत्ता) दबावों के मद्देनज़र अनिवार्य बताया जिसके कारण दलित महिलाऑ को ऐतिहासिक रुप से सदियों से झेली जा रही उपेक्षा एवं अपमान के विरुद्ध कलम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ा। जहाँ एक तरफ नारीवादी दलित लेखिका वामा ने अपने लेखन में दलित स्त्री की अस्मिता की राजनीति को अनिवार्यता के रुप में व्याख्यायित किया, वहीं रजनी कोठारी ने इसी विचार को अलग अंदाज़ में सहमति देते हुए दलित नारीवादी विमर्श को इस आधार पर न्यायसंगत बताया कि अलग नजरिए से अपनी बात रखना दरअसल "विसम्मति/असहमति का विमर्श है (Discourse of descent)" और एक लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य में रहने वाले हर धर्म, जाति, लिंग को असहमति का अधिकार है। गेल आमवेट जो दलित, किसान एवं महिला आंदोलनों के साथ से लम्बे समय से जुड़ी रही हैं, इस विचारधारा की ऐतिहासिकता को वामपंथी पार्टियों द्वारा दलित एवं स्त्री समुदाय को किए गए वायदों के सन्दर्भ में व्याख्यायित करती हैं जिसे कभी पूरा नहीं किया जा सका।
भारत में दलित नारीवाद की पैरोकार शर्मिला रेगे ने दलित नारीवाद को सैद्धांतिक तौर पर तर्कसंगत बताते हुए समकालीन नारीवादी विश्लेषण में महत्वपूर्ण श्रेणी के रुप में "भिन्नता के स्वर (Different Voices)" को केन्द्रीय विमर्श के रुप में स्थापित किया। साथ ही, उन्होंने भिन्नता के इस स्वर एवं दलित स्त्रियों के संघर्षों को हाशिए पर कर दिए जाने की पितृसत्तात्मक प्रवृति की ऐतिहासिक जड़ों को 18वीं-19वीं सदी में उभरे समाज सुधार आंदोलनों, सत्यशोधक तथा अंबेडकरी आंदोलनों तथा पार्थ चटर्जी के विभिन्न राष्ट्रवादी धाराओं द्वारा स्त्री प्रश्नों को हल किए जाने के सन्दर्भ में लिखे गए लेख इत्यादि में भी तलाशा। शर्मिला ने 1970 के दशक में उभरे नव सामाजिक आंदोलनों के दौरान भी दलित एवं महिला आंदोलनों में दलित महिलाओं के मुद्दों को नज़रंदाज किये जाने की तथ्यात्मक पुष्टि की है। दलित नारीवादी स्टैंड प्वाइंट सिद्धांत का मानना है कि दलित महिलाओं के सवाल सिर्फ विसम्मति का विमर्श नहीं है। यह प्रपंच उनकी व्यापक राजनीति को संकीर्ण करने का छदम रचता है, जबकि जाति तथा जेंडर के प्रश्न अनिवार्यतः अंतरसंबंधित एवं व्यापक हैं जिसके ताने-बाने को समझे बिना भारत में नारीवादी विमर्श पितृसता की जटिलताओं को समझ पाने अंततः विफल होगा।
भारत में 1970 के दशक के उपरांत नारीवाद ने वामपंथ से असहमति जाहिर करनी शुरु की। आंदोलनों में हुए अनुभवों एवं व्यक्तिगत राजनीति के कारण भारतीय नारीवाद का सैद्धांतिकीकरण प्रारंभ हुआ। हालांकि माना जाता है कि 70 के दशक में अधिकतर सवर्ण, मध्यमवर्गीय, विश्वविद्यालयों मे शोधरत स्त्रियां नारीवादी सिद्धांत को गढ रही थीं। उनके व्यक्तिगत अनुभव ही स्त्री शोषण को प्रतिबिम्बित कर रहे थे। अर्थात वे अपने अनुभवों को ही दुनिया के सभी स्त्रियों द्वारा झेले जा रहे शोषण के रुप में देख रही थीं। यहीं से सार्वभौमिक भगिनीवाद की भावना का जन्म होना शुरु होता है। इन नारीवादियों ने पुरुष वर्चस्व को सत्ता संबंधों के सन्दर्भों में, व्यक्तिगत मुद्दों के राजनीतिकरण (personal is political), राज्य तथा पूंजीवाद के चरित्र की आलोचना प्रारंभ की, मगर कहीं ना कहीं इन सभी मुद्दों में दलित तथा अश्वेत महिलाओं के मुद्दे गायब हो रहे थे। सारा विमर्श पितृसत्ता के भौतिक आधारों तथा उत्पादन के साधनों पर केन्द्रित था। ये वो दौर था जब समाजवादी तथा रेडिकल नारीवाद की बहसें केन्द्र में थी और कहीं ना कहीं इनके बीच एक स्तर पर सहमति भी थी। 1980 के दशक में यह सहमति जाति के सवालों के उभरने के उपरांत टुटी और नारीवादी विश्लेषण ने दिशा बदली। दलित नारीवाद के उभार ने उन सभी भाषाओं, संस्कृतियों तथा विमर्शों का स्वागत करना शुरु किया जो उसे भिन्नता के स्वर के रुप में तरज़ीह दे रहे थे। साथ ही, उन्होंने प्रचलित नारीवादी आंदोलनों के ब्राह्मणवादी चरित्र को अस्वीकार करना भी शुरु किया। ये सभी आवाजें अश्वेत, एफ्रो-अमेरिकन, चिनाना, एशियाई स्त्रियों की तरफ से निकल कर आ रहे थे। भिन्नता की राजनीति को ऐतिहासिक रुप से व्याख्यायित करते हुए शर्मिला रेगे ने उत्तर औपनिवेशिक भारत के इतिहास लेखन में राष्ट्रवाद, उपनिवेशवाद तथा सांप्रदायिकता को प्रस्थान बिन्दु के रुप में देखे जाने की समस्या की तरफ ध्यान आकर्षित कराते हुए बताया कि रेडिकल इतिहास लेखन ने इससे अलग हट कर किसानों, कामगारों तथा अन्य सबल्टर्न समूहों के अनुभवों को औपनिवेशिक भारत में भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में शामिल किया। आधुनिक भारत में इतिहास के पुनर्लेखन के दौरान कई इतिहासकारों जैसे गेल ओमवेट, उमा चक्रवर्ती, शाहिद अमीन, रणजीत गुहा, इत्यादि ने इतिहास को जनतांत्रिक एवं पारदर्शी बनाते हुए इसमें समाज के सभी निचली जातियों, किसानों तथा कामगार वर्ग को शामिल किया। यह बात पहले के उपनिवेश विरोधी इतिहास लेखन में नहीं थी। इसमें भी नारीवादी इतिहास लेखन ने जेंडर तथा पितृसत्ता के मुद्दों को जोड कर इतिहास में नये आयाम को शामिल किया।
कुमकुम संगारी तथा सुदेश वैद्य ने समाज सुधार आंदोलनों की सुनहरी कालीन के नीचे दबे अभिवंचितों के इतिहास को बाहर ला कर उसे पाठक वर्ग के सामने दृश्यमान बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इन्होंने समाज सुधार आंदोलन तथा पितृसत्ता के संबंधों को समझाने का प्रयास किया कि किस प्रकार ये जाति, वर्ग तथा जेंडर के मूलभूत प्रश्नों से अलग रहे। गैर ब्राह्मणवादी आंदोलनों ने इस बात पर जोर दिया कि कैसे राष्ट्रवाद की बहस में जाति तथा जेंडर के सवाल अधूरे रह गये। पार्थ चटर्जी ने अपने लेखों में राष्ट्रवादी धाराओं के घर एवं बाहर, भौतिक एवं आध्यात्मिक, अच्छा एवं बुरा, प्राचीन एवं नवीन संबंधी धारणाओं को उनके वैचारिक धरातल के आलोक में देखने की कोशिश की है। राष्ट्रवाद ने 20वीं सदी के प्रांरभ में ही पब्लिक एजेंडे से स्त्री प्रश्नों को कम अहमियत देनी शुरु कर दी थी। यही वह दौर था जब अंबेडकर आंदोलन में स्त्रियों की सहभागिता अपने चरम पर थी। ज्योतिबा फुले के ब्राहमणवादी सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध तथा विधवाओं के लिए किए गये उनके बेहतरीन कार्य ने दलित समुदाय की तकलीफों को अलग प्रकार से सामाजिक धरातल पर रखा था। उनके ही दलित बालिका विद्यालय में पढ़ रही एक दलित छात्रा मुक्ता बाई ने महाराष्ट्र की मांग और महार जाति की बालिकाओं को संबोधित करते हुए एक लेख लिखा जिसमें उसने दलित समाज को शोषित करने वाले विभिन्न कारकों जैसे ज्ञान पर प्रतिबंध, जटिल सामाजिक पदानुक्रम, निचली जातियों की स्त्रियों के दोहरे शोषण का सर्वप्रमुख कारण उन समुदायों में ज्ञान की पहुंच ना होना बताया और सत्ता में भागीदारी का भी एकमात्र रास्ता उनकी दृष्टि में ज्ञान संपन्न होना था। 1930 तक आते-आते अंबेडकर आंदोलन में सक्रिय महिलाओं ने स्त्रियों के संबंध में अलग से बैठकें करनी शुरु कर दी। इन्ही परिषदों के माध्यम से उन्होंने बाल विवाह, जबरन वैधव्य तथा दहेज के विरुद्ध आवाज उठाते हुए इसे ब्राह्मणवादी करार दिया। अंबेडकर ने भी इसी बात का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तक 'जाति का विच्छेदन' में कहा कि दरअसल महिलाएं जाति व्यवस्था की प्रवेशद्वार हैं। उन्होंने जाति तथा महिला के शोषण को अंतरसंबंधित बताया।
हांलाकि जाति व्यवस्था पर अन्य विद्वानों जैसे नेसफील्ड, रिस्ले तथा केटकर इत्यादि ने भी कार्य किया है परंतु इन सबसे इतर हट कर अंबेडकर ने जाति व्यवस्था को प्रदूषण के एक विचार के रुप में देखा। उनका मानना था कि बाल विवाह, जबरन वैधव्य इत्यादि ब्राहमणवादी व्यवस्था की उपज है ताकि इसके जरिए जाति व्यवस्था की परिधि को बनाए रखा जा सके। इन सभी के लिए स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण आवश्यक है। गोपाल गुरु यह मानते है कि "भिन्नता के स्वर" दलित महिलाओं की अस्मिता की राजनीति का ही सवाल नहीं है बल्कि यह कई लम्बे समय तक चले आंदोलनों का भी इतिहास है जिसमें दलित महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भागीदारी की। फिर, प्रश्न यह पैदा होता है कि क्यों दलित महिलाओं की आवाज को दोनो दलित एवं महिला आंदोलन जो 1970 के दशक में हुए, उनकी अनुगूंज सुनाई नहीं देती है।
इसके अतिरिक 1970 के दशक में उभरे श्रमिक मुक्ति संगठन, सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी, श्रमिक मुक्ति दल तथा युवक क्रान्ति दल में दलित स्त्रियों के सवाल नहीं हैं। इसके अतिरिक्त दलित पैंथर, वामपंथी महिला आंदोलन जो बाद में स्वायत समूहों में तब्दील हुए इनकी राजनीति में भी स्त्रियां माँ या यौन हिंसा से पीड़ित स्त्री के रुप में ही दिखीं। वामपंथी पार्टियों से संबंध रखने वाले महिला संगठनों ने काम की स्थितियों तथा आर्थिक पहलू पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित किया। उन्होंने वर्ग बनाम पितृसत्ता को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया। 1980 के दशक में महिला आंदोलन ने कार्य, विकास तथा कानूनी प्रक्रियाओं को महत्त्वपूर्ण मुद्दे मानते हुए केन्द्रीय विमर्श में वर्ग संरचना को महत्व दिया। अब धीरे-धीरे अंबेडकर तथा फुले के सिद्धांत गायब हो रहे थे। महिला आंदोलनों ने दहेज विरोधी, बलात्कार विरोधी, हिंसा विरोधी मुद्दों पर अधिक ध्यान दिया परंतु इन सबके अतिरिक्त जो शोषण दलित स्त्रियां सर्वाधिक झेलती हैं, जाति तथा पितृसत्त्ता के संतसंबंधों के कारण, उसे मुख्य एजेंडे में शामिल नहीं किया गया। वामपंथ तथा महिला आंदोलन दहेज़ को पूंजीवाद तथा ब्राह्मणवादी विचारधारा का परिचायक मान रहा था। नारीवादी विमर्श में जाति को शोषण की एक भिन्न कोटि के रुप में चिन्हित नहीं किया गया। उनका मानना था कि वर्ग में ही जाति के सवाल समाहित है। नारीवाद की दूसरी लहर ने भी यौनिकता तथा यौनिकता से जुडे विभिन्न पहलूओ को संबोधित किया। हालांकि यह मुद्दा भी जाति से जुडा हुआ मुद्दा है। हाल में भंवरी देवी जैसी दलित महिलाओं के सत्ता संरचना में आने के बाद उनके प्रति हिंसा बढी है। बावजूद इसके दलित महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा को अलग तरीके से देखने की प्रविधि महिला आंदोलनों के पास नहीं है। इसलिए यह आवश्यक है कि प्रचलित नारीवाद तथा दलित नारीवाद को संवेदनशील तरीके से जाति तथा जेंडर के जटिल सम्बन्धों की व्याख्या करनी होगी। साथ ही, दलित नारीवादी स्टैंड प्वांइंट सिद्धांत तथा उसके पैरोकारों को भी स्वीकार करने की जरुरत है।
जाति-आधारित पितृसत्तात्मक समाज में फँसी होने के कारण, इन स्त्रियों के हाशिए पर होने का कारण न केवल लिंग है, बल्कि दलितों के खिलाफ़ सामाजिक भेदभाव भी है। भेदभाव की ये कई परतें मिल कर दलित स्त्रियों की स्थिति को कमज़ोर बनाती हैं। उनके जीवन अनुभव अलग-अलग स्तरों पर कभी न खत्म होने वाली हिंसा की एक शृंखला बनाते हैं। ये उन पर होने वाली मौखिक, शारीरिक या यौन हिंसा की पहली घटना के रूप में शुरू होती है। अंतरराष्ट्रीय दलित सॉलिडेरिटी नेटवर्क द्वारा भारत भर से हिंसा का अनुभव करने वाली 500 दलित स्त्रियों पर किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि उनमें से बासठ प्रतिशत ने मौखिक दुर्व्यवहार की एक या अधिक घटनाओं का सामना किया है। दलित स्त्रियों के साथ होने वाली हिंसा के प्रकार भयानक और क्रूर हैं। उन्हें अत्यधिक गंदी गालियां, नग्न परेड, अंग-भंग, मूत्र पीने और मल खाने के लिए मजबूर किया जाना, दागना, डायन घोषित करना और इसके लिए उनकी हत्या तक कर देना शामिल है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक रूप से हमें देवदासी प्रथा एवं उच्च जातियों तथा अपने समुदायों के पुरुषों द्वारा बलात्कार और यौन हिंसा के असंख्य उदाहरण मिलते हैं।
शर्मीला रेगे का तर्क है कि भारत में मुख्यधारा के स्त्रीवादी आंदोलन अक्सर इस बात को नज़रअंदाज़ करते हैं कि जाति और लिंग दोनों किस तरह से 'स्त्री' को 'श्रेणीबद्ध पितृसत्ता' में एक श्रेणी के रूप में संचालित करते हैं। इस बात की अनदेखी करना कि जाति संरचनात्मक रूप से दलित स्त्रियों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने के लिए कैसे काम करती है, दलित-स्त्रीवादियों को स्त्रीवाद या सामुदायिक संबंधों के बीच चयन करने की स्थिति में छोड़ देती है। उल्लेखनीय रूप से, उनका तर्क है कि या तो पितृसत्ता सभी स्त्रियों को कैसे प्रभावित करती है, इसकी 'समानता' या जाति के 'अंतर' पर ज़ोर देना अक्सर उस तरीके को अस्पष्ट कर देता है जिससे समाज में जाति-आधारित यौन हिंसा को सामान्य माना जाता है। रेगे ने सही तर्क दिया है कि समय की मांग है कि जाति और लिंग आधारित भेदभाव के बीच मिलीभगत से निपटा जाए। एक अंतरसंबंधी चर्चा के अभाव में, खैरलांजी हिंसा जैसी घटनाओं को या तो यौन उत्पीड़न या जातिगत अत्याचार के रूप में पेश किया जाता है, जबकि इस वास्तविकता को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि लिंग और जाति के आधार पर बलात्कार का अनुभव अविभाज्य और जटिल दोनों है। ट्रांसजेंडर पहचान के संदर्भ में, ट्रांस और इंटरसेक्स समुदाय के सामने आने वाली भेद्यता और भेदभाव बहुत अलग है। दलित ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उनकी जाति और लिंग पहचान के आधार पर जटिल भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सेमलार इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि दलित और ट्रांसजेंडर समुदायों के बीच एकजुटता की कमी है। ट्रांसजेंडर व्यक्ति अक्सर सार्वजनिक हिंसा से बचने के लिए संघर्ष करते पाए जाते हैं। दलित ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उच्च जाति के ट्रांसजेंडर व्यक्तियों से उनकी जाति-स्थिति के कारण और दलित समुदाय से उनकी लिंग पहचान के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इस्माइल विद्या का तर्क है कि ट्रांसफोबिया संरचनात्मक रूप से जाति पदानुक्रम के काम करने के तरीके के समान है। वे उनके साथ ठीक उसी तरह भेदभाव करते हैं, जैसे उच्च जाति के हिंदू दलितों पर अत्याचार करते हैं। विडंबना यह है कि मुख्यधारा के जेंडर स्त्रीवादी उन्हें इसलिए बहिष्कृत करते हैं क्योंकि वह जैविक रूप से स्त्री नहीं हैं। उनका तर्क है कि दलित ट्रांसजेंडर स्त्रियों को उन तरीकों से लड़ने की ज़रूरत है जिनसे ट्रांसफ़ोबिया, पितृसत्ता और जातिवाद उनके जीवन विकल्पों और अवसरों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं।
भारत की प्रमुख दलित ट्रांस एक्टिविस्टों में से एक ग्रेस बानू बताती हैं कि लेखक पितृसत्ता के ट्रांसजेंडर व्यक्तियों पर पड़ने वाले प्रतिकूल और भेदभावपूर्ण प्रभाव की उपेक्षा करते हैं। ट्रांसजेंडर व्यक्ति पितृसत्तात्मक और जातिगत द्विआधारी संगठित समाज में अपने अधिकारों और अस्तित्व के लिए लड़ते हैं। बानू ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को पीड़ित करने वाले भेदभाव को ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से जोड़ती हैं। वह तर्क देती हैं कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता हमारे समाज में नैतिकता के विचार के इर्द-गिर्द ‘पवित्रता’ और ‘अप्राकृतिक’ की धारणाओं की मनमानी व्याख्या कर दलित ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को सामाजिक-आर्थिक शक्ति संरचनाओं में कमजोर करती हैं।
इसी प्रकार विकलांगता के स्त्रीवादी सिद्धांतकारों ने यह तर्क दिया है कि नारीत्व और विकलांगता एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं क्योंकि दोनों सामाजिक रूप से निर्मित हैं। उन विद्वानों द्वारा किए गए हस्तक्षेपों से पता चलता है कि मुख्यधारा की विकलांगता के बौद्धिक विमर्श ने विकलांग स्त्रियों की लिंग आधारित अपेक्षाओं और अनुभवों की उपेक्षा की है। भारतीय संदर्भ में रेणु अदलखा का मानना है कि विकलांग व्यक्तियों द्वारा रोजमर्रे की जिंदगी में सामना की जाने वाली बाधाओं का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है, जब बात विकलांग स्त्रियों की होती है। विकलांग स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा की घटनाएँ अधिक होती हैं। उनमें प्रजनन अधिकारों तक पहुँचने में बाधाओं का सामना करने की संभावना अधिक होती है और वे लगातार शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं तक पहुँच की कमी का सामना करती हैं। विकलांग स्त्रियों को परिवार में भी हाशिए पर रखा जाता है, जहाँ देखभाल करने वाली स्त्री की भूमिका और देखभाल प्राप्त करने वाली विकलांग स्त्री की स्थिति में बहुत अंतर पाया जाता है। हमारे समाज में विकलांग बेटों के विवाह की संभावना अधिक रहती है क्योंकि वे उपहार देने वाले नहीं, बल्कि उपहार प्राप्त करने वाली श्रेणी में होते हैं। कई इलाकों में यह भी देखने में आया कि पारिवारिक एवं सामाजिक बन्दिशों के कारण स्त्रियाँ मानसिक बीमारियों का शिकार हुईं परंतु लोक-लाज एवं परंपरा के नाम पर उनका विवाह धोखे से या जबरन कराया गया जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वर पक्ष द्वारा या तो वे पूरी जिंदगी मायके में छोड़ दी गईं या उन स्त्रियों के साथ जानवरों की तरह व्यवहार किया गया। कई बार इन स्त्रियों ने अपनी जीवन परिस्थितियों से तंग आ कर आत्महत्या तक कर ली । बाद में, वर एवं वधू पक्ष द्वारा पुलिस के साथ मिल कर कोर्ट के बाहर ही समझौता कर इस प्रकरण को रफा दफा कर दिया गया। ऐसी स्थिति में यह अत्यंत विचारणीय पहलू है कि क्या वास्तव में इन स्त्रियों ने ‘आत्महत्या' की थी या पितृसत्तात्मक समाज उनकी ‘हत्या’ के लिए जिम्मेदार था?
यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि विकलांग और गैर-विकलांग पुरुष दोनों ही सामान्य स्त्रियों को पत्नी के रूप में चाहते हैं। किसी विकलांग स्त्री से विवाह करना उन्हें स्वीकार नहीं क्योंकि आमतौर पर उन्हें यौनिक रूप से अक्षम और बच्चों को जन्म न दे पाने वाली व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। भारत में गरीबी, साक्षरता की कम दर, रोजगार तक पहुँच की कमी और अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले भेदभाव विकलांग स्त्रियों के लिए और भी गंभीर हैं। विकलांग स्त्रियों को सामाजिक उपेक्षा और वंचना का सामना करना पड़ता है क्योंकि यह माना जाता है कि वे सामाजिक विकास में योगदान देने में सक्षम नहीं हैं। विशेष रूप से, विकलांग दलित स्त्रियों के लिए उचित आवास की कमी, गरीबी और व्यावसायिक अस्थिरता के स्थायी समस्या है। इस संबंध में, निलिका मेहरोत्रा का शोध यह दर्शाता है कि दलित समुदायों की विकलांग स्त्रियाँ न केवल अपनी जाति बल्कि लिंग और विकलांगता की स्थिति के कारण भी कई तरह से हाशिए पर हैं । अधिकांश विकलांग दलित स्त्रियाँ असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं। मानसिक विकलांगता वाली स्त्रियों को स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में कठिनाई होती है जिसके कारण उनके अलग-थलग रहने की संभावना अधिक रहती है और वे यौन हिंसा की भी शिकार होती हैं। हाशिए के लोगों के अधिकारों के लिए जाति, विकलांगता और लिंग के प्रश्न को एक साथ जोड़ कर देखने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त भारत में इंटरसेक्शनालिटी को स्त्रियों के संदर्भ में समझने के लिए उसका रिश्ता सांप्रदायिकता, साम्राज्यवाद एवं लगातार अपना स्वरूप विस्तार करती आर्थिक संरचनाओं में भी तलाशने की आवश्यकता है जिसने स्त्रियों की पहचान को शुरू से ही राष्ट्र और अन्य प्रकार के समुदायों के भीतर रखा। भारतीय स्त्री को जाति, धर्म और यौनिकता की राजनीति द्वारा विशेष रूप से प्रभावित किया गया है। उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद की घटनाओं के कारण भारत में स्त्रीवाद का एक अनूठा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है। जाति और सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे भारतीय स्त्री आंदोलन की शुरुआत में उभरे, इसका अर्थ यह नहीं है कि उन पर पर्याप्त रूप से ध्यान भी दिया गया। भारत में मुख्यधारा की स्त्रीवादी राजनीति अपने इतिहास के अधिकांश समय में अभिजात हिंदू वर्ग और उच्च जाति की रही है। इसके अलावा, पश्चिमी अवधारणाओं के प्रभुत्व में आधिपत्य की भूमिका को स्वीकार करते हुए हमारे औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास ने हमें केवल झूठे सार्वभौमिकतावाद के दावों में फंसाया है। साथ ही, हमें साम्राज्यवाद के साथ-साथ उन बहुस्तरीय धारणाओं के तलाश की भी आवश्यकता होगी। हम उन प्रविधियों को समझ पाने में सफल हो सकें जिनसे अधीनस्थ समुदाय न केवल अपनी दुनिया को समझने में सक्षम हुए हैं, बल्कि अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ने में भी सक्षम हुए हैं। दलित स्त्रीवादियों ने अश्वेत स्त्रियों के इतिहास में प्रेरणा पाई है जो यह सुझाव देता है कि क्रेनशॉ के सिद्धांत के कुछ आयाम भारतीय संदर्भ में हूबहू लागू किए जा सकते हैं। जैसे उमा चक्रवर्ती ने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की अपनी चर्चा में ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में जाति और लिंग पदानुक्रम के बीच संबंधों को स्पष्ट रूप से उजागर किया है। शर्मिला रेगे का वैचारिक पक्ष एक और महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है जो दलितत्व के पुरुषीकरण और नारीत्व के सवर्णीकरण का वर्णन करता है। जिसके परिणामस्वरूप ऐतिहासिक रूप से भारत के स्त्रीवादी और जाति-विरोधी आंदोलनों से दलित स्त्रियों को बाहर रखा गया जिसके कारण एक अलग दलित स्त्रीवादी दृष्टिकोण की मांग की आवश्यकता पड़ी।
(पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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