भरत प्रसाद का आलेख 'कविता के प्राण पर भाषा की प्रभुसत्ता'
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विनोद कुमार शुक्ल |
'कविता के प्राण पर भाषा की प्रभुसत्ता'
(विनोद कुमार शुक्ल पर केंद्रित)
भरत प्रसाद
बड़ी रचना में जितनी अहम् भूमिका प्रतिभा की होती है, उससे कुछ कम महत्वपूर्ण भूमिका दृष्टि-साधना या व्यक्तित्व-साधना की नहीं होती। जब तक दोनों का संयोग एक साथ घटित नहीं होता, तब तक जीवन को दिशा देने वाली मशालधर्मी कविता का सृजन संभव नहीं होता। स्थायित्व प्राप्त करते और लोकप्रियता के सिंहासन की ओर बढ़ते अधिकांश प्रसिद्ध कवि आँखों वाले अंधे हो जाते हैं और खुद को देखने की अन्तर्दृष्टि सदा-सदा के लिए खो बैठते हैं। वे न तो बाह्य-संसार को ठीक से देख-समझ पाते हैं और न ही अपने मन के संसार को। उनके लिए सबसे असह्य और कष्टकर कार्य होता है- अपना विश्लेषण करना, अपनी कमियों के खिलाफ खड़े होना। खुद को बर्दाश्त न कर पाने की प्रखरता आज वस्तुतः किसी स्थापित कवि में नहीं है।
पूरी तरह पलट चुकी है- व्यक्तित्व विश्लेषण की दृष्टि। कवि दूसरे को परखता है- खुद को नहीं, दूसरे की तौल करता है- खुद की नहीं, दूसरे पर पैनी और तिरछी निगाह रखता है- खुद पर नहीं। इस आत्मविमुख निगाह का घातक परिणाम यह है कि कवि खुद की हकीकत, यथार्थ और दरसत्य से बहुत दूर जा चुका है- इतना दूर कि खुद को एक प्राकृतिक, भौतिक अस्तित्व समझना और जानना ही भूल चुका है। चित्त, हृदय, मस्तिष्क, चेतना और आँखों पर परतें ही परतें - वो भी चट्टान से भी सख्त। कभी सिर में फैली विशिष्ट प्रतिभा की मोटी परतें, कभी अपनी नायाब कलाधर्मिता की बासी परतें, कभी नित नये विचारों के गुरूर की परतें- तो कभी प्रसिद्धि, प्रशंसा, जय-जयकार से उपजे ईश्वरत्व की परतें। था कभी भक्तिकालीन कवियों का वह दौर जहाँ खुद को नाचीज घोषित किए बगैर संतमना भावेश्वरों को चैन न पड़ता था और कहाँ आज का दौर? जब तक खुद का रोज डंका न पिटवा ले- कवि को लगता है- जीवन बर्बाद हो गया।
आत्म-मूल्यांकन आत्मकेंद्रित आकांक्षा, स्वप्न, प्रवृत्ति और प्रयत्न के खिलाफ बगावत है। लगभग प्रत्येक रचनाशील व्यक्ति के लिए यह आत्म-शोधन जिंदा रहने की अनिवार्य शर्त है। खुद की हदबंदी को तोड़ना, स्वयं से बाहर आ कर स्वयं का साक्षात्कार करना और अपने को कठिन सवालों के घेरे में खड़ा कर के तौलना सच्ची सर्जनशीलता के लिए ध्रुव शर्त की तरह है। यह आत्मपरीक्षण सार्थकता के तराजू पर खुद को तौल देने जैसा है।
विनोद कुमार शुक्ल हमारे सामने एक ऐसे सर्जक के रूप में उपस्थित हैं, जिनके बारे में यह कह पाना बहुत कठिन है कि वे उपन्यासकार के रूप में श्रेष्ठ हैं या कवि के रूप में। साहित्य जगत में उनकी उपस्थिति दोनों विधाओं में उन्हें लोक से हट कर चलने वाला रचनाकार सिद्ध करती है। उन्होंने कविता की शैली से अपने उपन्यासों की गद्यशैली को अलग रख पाने में सफलता प्राप्त की है। उदय प्रकाश कहानी के क्षेत्र में सफल हैं, परन्तु कवि के रूप में आज तक उनकी पहचान सुदृढ़ नहीं हो पायी है, परन्तु विनोद कुमार शुक्ल की सफलता दोनों क्षेत्रों में असंदिग्ध है। अपनी घुमावदार गद्य शैली के चलते लम्बे समय तक विनोद जी को कवि के रूप में मान्यता नहीं मिल पायी, लेकिन जब मिली तो उनकी इसी शैली के कारण ही।
‘कविता से लम्बी कविता’ काव्य-संग्रह यद्यपि अपनी गप्प-प्रधान और ढीली-ढाली, उबाऊ कविताओं के कारण आत्यन्तिक रूप से निराश करती है, परन्तु नया ढर्रा दे कर एक खास उम्मीद तो जगा ही जाती है। संग्रह की प्रायः सभी कविताएं खूब लम्बी हैं। लगता है जैसे विनोद कुमार जी को जल्द से जल्द संग्रह भर के लायक कविताएं लिख मारने को कह दिया गया हो और वे आँखें मूंद कर विषय, कथ्य, भाव, विचार इत्यादि किसी भी चीज की परवाह किए बगैर सरपट लिखते चले जा रहे हों। कोई कवि खालीपन की ऊब में ऊँघते हुए कविता का रफ जैसे तैयार करता है - वही हैं इस संग्रह की अधिकांश कविताएं।
विनोद कुमार शुक्ल का कवि उस समय की उपज है - जब धूमिल का काव्यात्मक भूचाल थम चुका था, नागार्जुन का युगीन प्रतिनिधित्व सर्वमान्य हो चुका था और अब समकालीन कविता अपना पुनरुत्थान पाने के लिए प्रतिभा के नये झोकों की प्रतीक्षा कर रही थी। नागार्जुन यद्यपि लगातार अपनी निडर और संहारक कविताओं के बल पर लम्बे समय से काव्यधाराओं की तयशुदा सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे थे, परन्तु अन्य सीमाहीन बड़े कवियों की तरह उन्हें भी प्रगतिवाद के घेरे में बंद कर दिया गया। वे निराला के समय साहित्य के विद्यार्थी रहे, मुक्तिबोध के समय कलम की नौकरी की और विनोद कुमार शुक्ल इत्यादि युवा कवियों के समय कविता का गुरुमंत्र सिखाया और समकालीन कविता को जनवादी संस्कार दिया। जिस तरह निराला आधुनिक कविता के अग्रधावक हैं, वैसे ही नागार्जुन समकालीन कविता के।
विनोद कुमार शुक्ल के समवयस्क भगवत रावत, नरेश सक्सेना, राजेश जोशी इत्यादि नागार्जुन, धूमिल, मुक्तिबोध से प्रेरित-प्रभावित होते हुए भी सृजन के नये पथ को खोज निकालने का प्रयास कर रहे थे। आज जिन्हें हम समकालीन कविता के प्रतिनिधि कवि के रूप में स्थापित देखते हैं, उनमें से लगभग सभी की भाषा-शैली एक सहज खुलेपन की भंगिमा धारण किए हुए है। यहाँ समास बहुल संस्कृतनिष्ठ और अप्रचलित शब्द आत्यन्तिक रूप से लुप्त हो गए, शैली कथात्मक होती चली गयी और विष्णु खरे, मंगलेश डबराल जैसे कवियों तक आते-आते कविता की इस कथात्मकता ने अपना चरम रूप हासिल कर लिया। इससे आगे यदि कविता में कहानीपन और बढ़ा तो शायद उसका ढांचा ही चरमरा जाएगा, जिसे कविता के बजाय, कविताभास लिए हुए कहानी कहना ज्यादा सटीक होगा। बतकही के अंदाज में कविता लिखने की यह प्रवृत्ति विनोद कुमार शुक्ल में भी दिखाई पड़ती है- हाँ, अपने समानान्तर अन्य कवियों की तुलना में यह प्रवृत्ति थोड़ी कम है, या प्रयासपूर्वक नियंत्रित है। सुधीश पचौरी ने ‘कविता का अन्त’ नामक पुस्तक में विनोद कुमार शुक्ल पर टिप्पणी करते हुए लिखा है - ‘‘उनकी कविता एक काव्य-हठ की तरह है। यह हठ सहज सहनीय व्यर्थता से उपजता है। व्यर्थ ब्यौरों को व्यर्थ मान कर, उन्हें वैसा बांध कर, व्यर्थता को एक नयी उर्जा दी जाती है यहाँ, ताकि हम पुरानी चालू सार्थकता की व्यर्थता देख सकें।’’
पीछे लौट नहीं सकती- हिन्दी कविता की यह नियति कि उसका मूल स्वभाव गद्यमय है। बावजूद इसके हिन्दी गद्य कविता अभी अपना कबीर-तुलसी और मीरा कहाँ हासिल कर पाई? कारण बड़ा साफ है- गद्य कविता ने अभी अपनी उत्कृष्टता का पैमाना नहीं रचा है- अभी नायाब अर्थों की सम्भावनाओं को निचोड़ने की क्षमता उसमें नहीं आई है- अभी परम भाव के शिखर पर थिरकने की मस्ती उसमें नहीं पैदा हुई है, अभी उसमें असीम चेतना की उद्दाम चमक बाकी है। निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन जैसे आत्मदीप्त कवियों ने जरूर गद्य कविता के शिखरत्व का अध्याय रचा- मगर गद्य कविता अपने स्वर्णिमकाल से वंचित है- वह खुद की अमर पूर्णता हासिल करने की यात्रा में है।
दरअसल विनोद जी अपने कहने के अंदाज में इतने अधिक नये हैं कि कविता की किसी भी परिचित शैली में नहीं समा पाते। वे कथन के इस बेहद अनोखेपन में क्या कहना चाहते हैं, कई बार स्पष्ट नहीं हो पाता। जैसे वे कोई बेशकीमती और बारीक बात कह डालने के लिए प्रबल उत्सुक हों, मगर उसको ठीक ढंग से न कह पा रहे हों। अर्थ को व्यक्त करने के इस आत्म-संघर्ष में उन्हें बीच-बीच में सफलता भी मिली है और लाजवाब सफलता मिली है - लेकिन इसकी मात्रा इतनी कम है कि वह कवि की दूरदर्शी और सधी हुई दृष्टि का स्वाभाविक परिणाम नहीं, बल्कि संयोग मात्र लगती है। जैसे ‘अतिरिक्त नहीं’ संग्रह की कुछ पंक्तियां ध्यान देने योग्य हैं -
सबके हिस्से की हवा, वही हवा नहीं है
अपने हिस्से की भूख के साथ
सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात
बाजार में जो दिख रही है
तंदूर में बनती हुई रोटी
सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है......
भाव, भाषा, शिल्प, सोच, संकेत, ध्वनि, लय और लक्ष्य का नयापन सदियों से सृजन की बेमिसाल, सर्वमान्य कसौटी रहा है और रहेगा। परन्तु खांटी नयापन तराशते रहने को लक्ष्य बना लेना एक विकट समस्या रहा साहित्य में। नयापन चित्ताकर्षक है- यदि उसमें सघन संवेदनाओं की अप्रत्याशित लहर हो, यदि उसमें सृष्टि की सत्ता का मर्म छिपा हो- यदि उसमें जीवन-जगत के दृश्य-अदृश्य सत्य की सच्ची लहक हो- यदि वह नयापन अनुभूतियों की मौलिक खुशबू से लबरेज हो। प्रायः हमारे भीतर नित नये एहसासों का पोखर सूखने लगता है- हमारा हृदय दृश्य-अदृश्य सृष्टि के अनन्त दिशात्मक सागर में गोते लगाना, डुबकी मारना, तैरना बन्द कर देता है- तो प्राणशून्य, खोखली और दृष्टिहीन भाषाई खिलंदड़ापन जन्म ले लेता है। सृजन में नयेपन की कसौटी भाषा-शैली और संरचना उतनी नहीं- जितना की संवेदना, विचार और निहितार्थ हैं। इसीलिए जो कवि भाषा और शिल्प की भूलभुलैया में घुमा कर पाठक को छोड़ दे- वह न तो साहित्य के लिए अनिवार्य कवि सिद्ध होता है और न ही वर्तमान और भविष्य के लिए।
यह अधिकांश बुद्धिजीवियों को पता है कि भरपेट भोजन नियमित रूप से उसे ही नसीब है, जो वस्तुतः भूख का सताया हुआ नहीं है। इसके विपरीत जो दिन-रात भूख के मारे व्याकुल हैं, हैरान-परेशान हैं- उन्हें भरपेट भोजन कभी मिलता ही नहीं, यदि उसका पेट कभी भरता भी है तो भोजन से नहीं, भोजन के नाम पर कुछ भी कड़वा, कठोर, अपच खा-पी कर पचा जाने से। इस व्यापक सत्य को रचनात्मक रूप देने की शैली कवि के पास खास तरह से मौजूद है। यह ढंग देखने में वैसे साधारण लगता है, मगर उसमें कुछ विशेष बात छिपी हुई है, जिसका एहसास पढ़ने के दौरान ही हो जाता है। यदि कवि के पास सचमुच वस्तुओं, घटनाओं एवं चरित्रों के बीच से मार्मिक सत्य खेाज निकालने की अचूक दृष्टि हो, तो इस अंदाज में कमाल की महारत हासिल की जा सकती थी, परन्तु विनोद जी के साथ ऐसा होते-होते रह गया। वैसे आज भी उन्हें समकालीन कविता का बेलीक कवि सिद्ध किया जाता है। प्रतिष्ठित हिन्दी कवि देवी प्रसाद मिश्र ने ओम निश्चल को दिए गये साक्षात्कार में कहा है - ‘‘भारतीय राज्य को विभीषणता में होने में उनके मन में जो अकबकाहट है, हिन्दी कविता में उसका सानी नहीं। जैसे किसी की जबान को लकवा मार गया हो, लेकिन जिसने अपनी बात कहने की जिद न छोड़ी हो। विनोद कुमार शुक्ल की कविता में यह कृतिकार-हकलाहट है।’’
उपरोक्त वक्तव्य से स्पष्ट है कि विनोद कुमार शुक्ल के भीतर कहीं कोई रचनात्मक आग है, चिंगारी है, विद्युत है- जो विषय में छिपे अर्थ को विशिष्ट कलात्मक चमक प्रदान करती है। समस्या यह है कि यह चमक कभी-कभार ही उभर पाती है। कविता में अमर पंक्तियों की लकीर खीचने के लिए जिस गुरु-गंभीर और सान्द्र भावुकता की आवश्यकता होती है, उसकी थोड़ी सी मात्रा भी यहाँ देखने को मिल जाती है, परन्तु इतने से वजनी कविता का निर्माण नहीं होने वाला। इसके लिए कवि में चाहिए यथास्थिति में तोड़-फोड़ मचाने का दुस्साहस, लीक छोड़ कर दौड़ने की ऊर्जा, हजारों के सामने अकेले खड़ा होने का अजेय-आत्मविश्वास और अनिवार बौद्धिकता। प्राकृतिक रूप से वे सारी विशेषताएं अपने वक्त के सर्वाधिक विकल्पहीन कवि में घटित होती है। हमें यह कहने में तनिक संकोच नहीं कि जटिल, रहस्यमय और उलझाऊ भाषा न होने के बावजूद उसमें असंगत अर्थों का उबाऊ एहसास बना रहता है।
अपने अंदाज की बेलीकी और अलगपन के कारण जहाँ विनोद कुमार शुक्ल विशिष्ट माने गये, वहीं इसी अतिशय बेलीकियत ने उनकी सर्वस्वीकार्य श्रेष्ठता पर प्रश्न भी लगा दिया। इसमें क्या संदेह कि विनोद जी ने अपनी अलहदेपन की प्रदीर्घ यात्रा को एक ऐसे मुकाम तक पहुंचा दिया, जहाँ उनकी मजबूत और गहरी जड़ें जमा चुकी सार्थकता को इंकार नहीं किया जा सकता, नष्ट नहीं किया जा सकता। किन्तु यह विशिष्टता अज्ञेय, केदार नाथ सिंह, शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय किस्म की ही विशिष्टता है- जिसमें भाषिक कलात्मक का अंदाज उसमें धड़कते अर्थ के प्राण पर, साँस और आँच पर भारी नजर आता है। पाठक के चित्त पर निहित अर्थ का प्रचंड, प्रखर मर्म उतना नहीं, जितना कि शैली का अनोखापन असर करता है- आकर्षित कर लेता है। इसीलिए वे बेलीक कवि होते हुए बड़े कवि बनने से रह गये। बड़ा कवि फर्श से अर्श तक फैले हुए पाठकों को समान रूप से वर्षों, दशकों बल्कि युगों तक आन्दोलित, प्रज्ञापूर्ण और आप्लावित किए रहता है। उसकी फालनुमा कलम वर्तमान, भूत, भविष्य के ऊसर, बंजर, चटियल और कठोर यथार्थ को गहरे तक जोतती है, तोड़ती और जीवन के लिए उर्वर बनाती है। बड़ा कवि भाव में, दृष्टि में, नायाब मर्म और जादुई असर में बड़ा होता है- साथ ही उसकी कविताई में बेमिसालियत का ग्राफ निरंतर ऊर्ध्वगामिता की ओर अग्रसर रहता है- न कि जलती-बुझती चिंगारी की तरह। विनोद कुमार शुक्ल ने अपने ढंग की निराली और बड़ी कविताएं लिखीं- जैसे कि 'रायपुर बिलासपुर संभाग', 'कितना बहुत है' इत्यादि। वे पंक्ति-दर-पंक्ति में अपने नये से नये फूटते विचारों को गूंथने, पिरोने, सजाने की हुनर में माहिर हैं। हाँ, इस शिल्पकारी की तल्लीनता में उपेक्षित होती है - ओज, कसावट और संगीतात्मकता- जो कि आज भी लम्बी उम्र तक कविता को जीवित रखने वाली प्राणतत्व है। भाषा और चिंतन का अतिशय नयापन ही उनकी उपलब्धि है, बावजूद इसके कुछ तो ऐसी खटक है, ऐसा पेंच है, जटिलता और उलझाव है जो उन्हें अपने समय का आइना सिद्ध नहीं होने देता। ‘पाखी’ पत्रिका के विनोद कुमार शुक्ल विशेषांक में सम्पादक राकेश श्रीमाल को दिए गये साक्षात्कार में उनकी आत्म-स्वीकृति के निहितार्थ गहरे हैं - देखिए - ’‘मैं शुरू से ले कर अब तक एक ही कविता लिख रहा हूँ। मैं हमेशा यही कहता हूँ कि एक जैसी जिन्दगी जीते हुए मैं एक ही जिन्दगी को लिख सकता हूँ।’’ (विनोद कुमार शुक्ल पर एकाग्र, पृ. सं. 11)
विनोद कुमार के बारे में यह कहना तर्कसंगत तो न होगा कि उन पर वक्रोक्तिप्रेमी कलाकार मन हावी है। प्रतिष्ठित आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव, जो समकालीन कविता पर अपनी व्यापक समझ के लिए जाने जाते हैं, ने विनोद कुमार शुक्ल पर निष्कर्ष देते हुए लिखा है - ‘‘विनोद कुमार शुक्ल ने अपने अनुभव-समृद्ध काव्य संसार को सर्वथा नया संगठन देने की कोशिश की है, जो बहुत कुछ अप्रत्याशित और अभ्यस्त रूचि को विचलित करने वाला जान पड़ता है।’’
इस वक्तव्य के आधार पर विनोद कुमार शुक्ल विशिष्ट कवि प्रमाणित तो होते हैं, परन्तु इससे उनकी व्यापक स्वीकार्यता सिद्ध नहीं होती। पाठक और कवि के बीच कहीं कोई पेंच अवश्य है, जिसे सुलझा पाना कठिन हो गया है। स्वयं विनोद कुमार को ही तय करना है कि वे अपने पाठकों को जीवित रखना चाहते हैं या अनूठे ढंग में लिखने की अपनी सुदृढ़ जिद को। निश्चित रूप से उनके सामने आम पाठक की अवधारणा गायब है। वे ऐसा मान कर चलते हैं कि उनकी कविताओं का अध्ययन-मनन साहित्य के अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी ही करेंगे, न कि साहित्येतर आम पाठक वर्ग। रचनाकार प्रायः अपने पाठकों के ‘प्रकार’ को ध्यान में रखते हुए कविता का सृजन करता है। उसकी रचना की प्रकृति, विशेष तौर पर भाषा, शैली, संरचना वैसे ही होगी, जैसा वह पाठक चुनेगा। कबीर और तुलसी की साधारणता में असाधारण व्यापकता सिर्फ इसीलिए है, कि उनकी रचनाओं में साधारण मनुष्य का हृदय धड़कता है, उसकी स्वाभाविक बोली पूरी गरिमा के साथ इन अमर कवियों की रचनाओं में प्रतिष्ठित है।
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भरत प्रसाद |
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
भरत प्रसाद
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग - 793022 (मेघालय)
मो. 9077646022
भरत प्रसाद का आलेख 'कविता के प्राण पर भाषा की प्रभुसत्ता' विनोद कुमार शुक्ल की काव्य-दृष्टि और उनकी शैलीगत विशिष्टताओं की पड़ताल करता है। आलेख का केंद्रीय तर्क यह है कि बड़े कवि आत्मविश्लेषण से बचते हैं और उनकी दृष्टि बाह्य संसार तक सीमित रह जाती है। लेख में यह चिंतन गहरे आत्ममंथन और समकालीन कविता की जटिल संरचनाओं की ओर संकेत करता है। विनोद कुमार शुक्ल की फैंटेसी शैली को भाषा के प्रभुत्व के संदर्भ में देखना एक नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिससे आलोचना अधिक तर्कसंगत और गंभीर बनती है।
जवाब देंहटाएंएक नीयत ढर्रे पर बराबर लिखते जाना, पाठक कहां कहां उलझ रहा है,इस तत्व का आत्मविश्लेषण न कर पाना ,बेलीक होकर भी सार्वभौमिक न हो पाने की सही पड़ताल करता लेख पढ़कर अच्छा लगा! बधाई स्वीकारें!
जवाब देंहटाएंविनोद कुमार शुक्ल को केंद्र में रखकर भरत प्रसाद ने न केवल विनोद जी के कवि का सटीक मूल्यांकन करने की कोशिश की है, समकालीन गद्य कविता में भाषागत सीमाओं,उसकी जनरुचि तक न पहुंच पाने की उलझनों और आ गई शैलीगत असंप्रेषणीयता के संकट की ओर भी तार्किक बातें की हैं। जाहिर है, कविता के आम ही नहीं ख़ास पाठक भी इस सच्चाई से मुकर नहीं सकते कि आज लिखित फार्म में कविता की अर्थ भंगिमाओं तक पहुंच में कविता की भाषा और शिल्प दोनों ही स्तरों पर यह एक जबरदस्त सीमा खिंच गई है।इस मायने में विनोद जी कवि के रुप में बेलीक और इसलिए विशिष्ट भले हों,उस तरह सहज स्वीकार्य नहीं।भरत जी की इस संतुलित और बेबाक टिप्पणी का स्वागत!
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