अवन्तिका राय की लघु कथाएं
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अवन्तिका राय |
दुनिया के किसी भी व्यक्ति को जीवन निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना ही पड़ता है। यानी रोजी रोजगार हर किसी की जरूरत होती है। जिसके पास यह नहीं होता वह बेरोजगार होता है। बेरोजगारी अपने आप में एक दंश होती है। रोजगार के लिए एक बेरोजगार कुछ भी करने के लिए तैयार होता है। वैसे सरकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने यहां के बेरोजगारों के लिए रोजगार का सृजन करते हुए उसे जीवन को संवारने का अवसर प्रदान करे। लेकिन सरकारें रोजगार देने से भरसक बचना चाहती हैं। यह काम वे उस निजी क्षेत्र के लिए छोड़ देती हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य लाभ कमाना होता है। इस परिदृश्य को अपनी लघु कथा में उकेरने का प्रयास किया है अवन्तिका राय ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवन्तिका राय की लघु कथाएं।
अवन्तिका राय की लघु कथाएं
बेरोजगार
उसका नाम जानना चाहेंगे आप? क्या करेंगे उसका नाम जान कर, बस उसे कुछ इन नामों से पुकार सकते हैं जैसे असहाय, निरुपाय, कातर, दीन, बेचारा या ऐसा ही कुछ, जैसा भी वह आपको लगा हो। वह इक्कीसवीं शताब्दी में दुनिया के मानचित्र पर पाया जाने वाला सबसे बड़ा पापी हो सकता है यदि आपको कर्म सिद्धांत में आस्था हो तो। मैं तो उसे उसके मूल नाम अर्थात बेरोजगार से ही पुकारूंगा।
वह मुझे कल ही बाज़ार में दिख गया। चेहरे पर गहरी हताशा का भाव लिए हुए। हाथ में कुछ पैम्फ्लेट्स लिए वह एक बड़ी कम्पनी का विज्ञापन कर रहा था। मैंने बेरोजगार से पूछा कि उसे कितनी दिहाड़ी मिल जाती है? जाने क्यूँ वह तनिक खिसियाया पर जल्दी ही अपना संतुलन साध कम्पनी के बारे में रटी रटायी भाषा में कुछ बोलने लगा। मैं तुरत आभारी हुआ उस कम्पनी का जिसने बेरोजगार को तोहफ़े में कम से कम अपनी भाषा तो दे दिया जिससे वह दिमाग लगाने से बच सके।
स्कूटी को चौराहे से पार करा मैं अब बीच बाज़ार आ गया था। सचमुच मुझे प्यास लग गई थी। सार्वजनिक नल तलाशते तलाशते मैंने मज़बूरी में दस रूपये का पानी ख़रीदा, जबकि उतने कम पानी से जून की इस तपती दुपहरी में मेरी प्यास तो बुझने से ही रही। बेरोजगार कई ब्रांड का पानी ले बैठा हुआ था। पूछा, 'क्या पगार है?' अब की थोड़ा मुलायम हुआ। बोला, 'पगार न कहिए चच्चा!, 'कमीशन!' 'हम कमीशन पाते हैं।' मैंने पूछा, 'एक बोतल पर कितना मिल जाता है? दो रुपए या ज़्यादा?' बेरोजगार हँसा। बोला, 'किस दुनिया में रहते हैं चचा?' 'एक पेटी पर दो रुपए मिलते हैं। बाकी बीच वाला भी तो है।' अब की उसके सूखे चेहरे पर कातरता भी दिखी।
अब मैंने अपने उस जरूरी काम से कैन्ट का रास्ता पकड़ा। यहाँ का दृश्य तो बहुत डरावना था ज़नाब। बेरोजगार के साथ उस जैसों की अनगिन भीड़ सड़क के दोनों तरफ दिखी। रगड़ रगड़ कर बेरोजगार ने जैसे अपना शरीर लोहे का बना लिया हो। चेहरा निहायत सख़्त और शरीर पर एक सस्ता टी शर्ट डाले वह अपनी जगह पर लगातार जम्प किए जा रहा था। मैंने उससे पूछा कि आख़िर क्या माज़रा है। वही खिसियाहट का स्थायी भाव चेहरे पर लिए वह फट पड़ा, 'देखते नहीं, अग्निवीर की भर्तियां चल रही हैं। 'मैंने भी तनिक साहस दिखाया और पूछा, 'कितनी वैकेंसी है?' 'आप से कोई मतलब? खामख्वाह चले आते हैं मुँह उठाए। देख कर तो भले मालूम पड़ते हैं तब इस भर्ती में क्यों रस ढूँढ रहे? चलिए, आगे बढ़िए।' तभी उस जैसा एक दूसरा जो हमारी बातें सुन रहा था बोला, 'ढाई सौ।' और बात आगे बढ़ती उससे पहले ही जाने क्या सोच कर मैंने तत्काल स्कूटी स्टार्ट की और कैंट के रास्ते आवास विकास दफ़्तर की राह ली।
तभी मेरी स्कूटी ख़राब हो गई। घिसटते घिसटते मैं बेरोजगार के पास पहुँचा। उसने एक दफा ऊपर से नीचे तक मेरा जायज़ा लिया फिर कुछ देर में स्कूटी ठीक कर मुझे सौंप दिया। मैंने उससे पूछा की कितना दूँ। उसने सामने दुकान की तरफ इशारा किया। जिज्ञासावश मैंने पूछा कि वह कितना पा जाता है। पहले तो वह झुंझलाया फिर जाने क्या सोच कर बुदबुदाया, 'मादर.. दस घण्टे का डेढ़ सौ रुपया थमा देता है।....'
मैंने जल्दी-जल्दी स्कूटी स्टार्ट की और घर पहुंचा। अब क्या बताऊँ आपको, घर के अंदर बेरोजगार बारह-बारह घण्टे तक कमरतोड़ मेहनत करते मिला। रात-रात तक पढ़ता और फिर भी हताश, निराश। कभी मुल्क से बाहर भाग जाने के बारे में सोचता हुआ तो कभी मुल्क के अंदर किसी भी जॉब के लिए चुन लिए जाने की प्रतीक्षा में पतला होता हुआ। जॉब की पसन्दगी या नापसन्दगी तो गयी चूल्हे में। दुनिया भर की अनिश्चितताओं और असुरक्षा की भावना से घिरा वह एक क्षण के लिए मुझे संसार का सबसे असहाय जीव मालूम पड़ा। वह अपनी असहायता में अपना विवेक क्या खा कर बचाए रहे? मैं सोच-सोच कर जब इतना सिहर जा रहा हूँ तो वह तो इक्कीसवीं शताब्दी की इस सबसे वीभत्स महामारी का सबसे बड़ा शिकार ठहरा। मैंने अपनी आदत के अनुसार कुछ आदर्श बघारते हुए उससे विवेक की बात की और वह तनिक टेढ़ा हुआ, फिर वह सत्या फ़िल्म के गाने मुझे सुनाने लगा........'गोली मार भेजे में...' '...गंदा है पर धंधा है ये..'
और मैं बुरी तरह सिहरने लगा।
प्रेम
जाने क्यूँ उस औघड़ की कही हुई बात पर उसे बरबस ही बचपन की ऊषा चाची याद हो आईं। दरअसल कॉलेज की पढ़ाई के बाद वह कमाने के लिए दिल्ली चला आया और यहीं आ कर बस गया। पर जब भी लंबी छुट्टी मिलती वह अपने गृहनगर मिर्जापुर चला आता। दिल्ली जा कर वह भी दिल्ली वाला हो गया था और धीरे-धीरे कब उसकी संवेदना सूख गई, उसे पता ही नहीं चल पाया। व्यवसाय ने उसे किंचित रूखा भी बना दिया था और उसका मूल स्वभाव परिवर्तित हो टेढ़ा हो गया था। किसी भी बात में वह बाल की खाल निकालने लगता और उसकी करीबी दोस्त उस पर ओवरथींकिंग करने का आरोप भी मढ़ देती। वह दोस्त की बात पर कभी भी ध्यान नहीं देता।
इस बार होली की छुट्टी में वह ट्रेन से मिर्जापुर जा रहा था। साथ में उसके दो बड़े बच्चे और बीबी भी थी। एक स्टेशन पर वह औघड़ उनकी बोगी में तेजी से घुसा और ठीक उसके सामने खड़ा हो अपना भिक्षापात्र फैला दिया। उसका चेहरा किंचित सख़्त हो आया और वह उस औघड़ से कुछ कहता इससे पहले ही औघड़ बोल पड़ा, 'गुस्से में हो? प्रेम दोगे तो प्रेम पाओगे!' और तेजी से बोगी से बाहर निकल गया। औघड़ का यह कथन उसके दिमाग को मानो रह रह कर हांट करने लगा और उसे अपने कस्बे में रहने वाली ऊषा चाची याद आने लगीं।
ऊषा चाची करीब तीस बत्तीस की रही होंगी जब वह छठवीं में पढ़ता था। उनके पति एक इन्टर कालेज के प्राचार्य थे और उन लोगों के चार बच्चे थे। वह उन बच्चों के साथ ही पढ़ता, खेलता और काफी समय बिताता। चाची अक्सर उसे अपने घर पर ही खिला पिला देतीं और सिर्फ सोने वह अपने घर जाता। मां से चाची की बेतरह पटरी बैठती और मां काम से वापस आने पर उसे अपने साथ ले घर लौटतीं।
ऊषा चाची प्रेम से भरी हुई महिला थीं और अपने चार बच्चों को सम्भालने के बाद भी हर समय दूसरों की हर सम्भव मदद के लिए तैयार रहतीं। किसी को भी दर्द में पड़ा देख लेतीं तो मानो खुद छटपटाने लगतीं। उसकी हर सम्भव मदद करतीं और उस व्यक्ति के दुःख से उबर जाने पर उनके चेहरे पर आए संतोष और असीम शांति के भाव को साफ पढ़ा जा सकता था।
एक बार की बात है कि ऊषा चाची के यहां की काम वाली को मुहल्ले वालों ने भड़का कर छुड़ा दिया और वह उन भड़काने वाली महिलाओं के घर काम करने लगी। एक दिन काम के दौरान ही गिर कर उसका पैर टूट गया और तब उन भड़काने वाली महिलाओं ने उससे किनारा कर लिया। काम वाली बहुत परेशान हुई और कोई चारा न देख उसने चाची को खबर कराई। चाची तुरत उसके पास चली गयीं और इलाज तो इलाज उसकी सेवा टहल में तब तक लगी रहीं जब तक वह पूरी तरह ठीक न हो गई। मैं कहता, 'चाची आप उस स्वार्थी बुढ़िया काम वाली को आखिर क्यूँ इतना महत्व दे रहीं जबकि उसने आपको छोड़ रखा था।' चाची का सबको एक जवाब रहता, ' यदि उसकी बुद्धि ख़राब हो गई तो मैं भी अपनी बुद्धि ख़राब कर लूं।'
ऊषा चाची के घर पर सभी रिश्तेदारों का कार्यवश आना जाना रहता और वह सबके लिए हर समय प्रस्तुत रहतीं। वह भागदौड़ कर सिर्फ़ काम ही नहीं करातीं वरन उनके घर रूकने पर खाने पीने का प्रबंध भी करतीं। ऊषा चाची को लोग दिल से प्यार करते क्योंकि वह भी सबको अपने बड़े परिवार का सदस्य समझतीं।
औघड़ चला गया और ऊषा चाची के ख़यालों में डूबे कब मिर्जापुर आ गया उसे पता भी नहीं चला। वह तत्काल चाची से मिल लेना चाहता था जो अब अस्सी पार उम्र की हो आयी थीं।
अब भी उतनी ही ख़ुशदिल, उतना ही सेवाभाव और दर्द में पड़े हुए के लिए उतनी ही सहानुभूति लिए हुए। उसे किसी की कही हुई बात याद हो आई कि 'जीवन आशीर्वादों का जोड़ है' और फिर वह औघड़ याद आया, यह कहता हुआ, 'प्रेम दोगे तो प्रेम पाओगे।'
मक्षिकाहम
वह पूरा घर मिठाई से चुपड़ा हुआ था। मक्खी इसी इन्तजार में पिछले कई दिनों से उस मुहल्ले का चक्कर काट रही थी। दूर से ही उसे खूशबू मिल गयी। वह पोर्टिको में चक्कर काटती हुई ड्राईंग रूम में दाखिल हुई। चित्रगुप्त ने आज कई लोगों को हड़काने के बाद अपनी पत्नी को आदेश दिया कि उसे नाश्ते में गाजर का हलवा परोसा जाए। पत्नी ने खोए और चीनी की चासनी में पकाए हलवे का कटोरा उसे पेश किया। उसने कमरे का ब्लोवर ऑन किया और सारे दरवाजे-खिड़कियों को चिपकाने का आदेश अपनी पुत्री को दिया। अब वह इत्मीनान से गाजर का हलवा खा सकता था।
मक्खी शरारती थी। वह छुप कर माल उड़ाने में यकीन नहीं रखती थी। वह मालिक को सामने से चुनौती देती थी और अब तक का उसका इतिहास था कि उसने मालिक को पराजित करके ही माल उड़ाया था। पहले कई बार उसकी भेंट ऐसे मालिकों से भी हुई थी जो हंस कर उसके लिए माल छोड़ देते थे। उसे इस तरह के माल उड़ाने में भी कोई आपत्ति नहीं थी। इसे वह अपने दुलार की श्रेणी में रखती थी। पर अगर उसे कोई चुनौती देता तो वह उसका मुकाबला बड़े जुझारू तरीके से करती थी।
चित्रगुप्त ने जैसे ही प्लेट में चम्मच डुबाया, मक्खी ने सामने से उड़ान लिया और उसके प्लेट पर जा बैठी। चित्रगुप्त बौखलाया। उसने वह हिस्सा बाहर निकाल कर फेंक दिया और अपने बेटे को आदेशित किया कि मक्खी को कमरे से बाहर का रास्ता दिखाए। फिर क्या था, एक-एक कर बेटी, पत्नी और वह खुद उस मक्खी को बाहर करने में जुट गए। पर मक्खी हर बार जीत जाती। चित्रगुप्त का गुस्सा सातवें आसमान पर था. उसने अबकी अपनी रायफल निकाली और दाग दिया। पर यह क्या? मक्खी उसके सर पर बैठ गयी। चित्रगुप्त के एक इशारे पर पूरा मुल्क नाचता था। और यह तुच्छ मक्खी!! उसने अपना सिर दीवाल पर दे मारा। मक्खी फिर भी उड़ गयी। उसका सिर लहुलुहान हो गया। वह कमरे में बदहवास चक्कर काटने लगा और अपना बाल नोचने लगा। उसकी इस हरकत पर घर के सारे लोग बेहद चिन्तित हो गये। मक्खी ने प्लेट पर बैठ कर माल उड़ाया और चित्रगुप्त पस्त हो उसे देखता रहा।
चित्रगुप्त और मक्खी लगभग एक साल तक टकराते रहे। चित्रगुप्त के पास उसे पकड़ने की कोई कला न थी। वह दांत पीसता और अपना बल लगाता पर इन एक सालों में वह ऐसी कोई युक्ति नहीं ढूंढ पाया जिससे मक्खी को अपने शिकंजे में ले सके। और सच पूछिए तो उल्टा मक्खी ही उसे अपने गिरफ्त में लेती जा रही थी। क्रोध ने उसका विवेक जो हर रखा था। उसका अहम बार-बार उस मक्खी से टकराता और चूर-चूर हो जाता। धीरे-धीरे चित्रगुप्त को सोते-जागते, उठते-बैठते मक्खी दिखाई देने लगी। फिर उसे ऐसी प्रतीति होती मानो वह मक्खी उसके दिमाग के अंदर ही उड़ने लगी हो।
एक दिन चित्रगुप्त को एक बड़े बाजार में देखा गया। वह भयभीत था। उसने बाजार में एक बुक-स्टाल पर बैठ कर सारे समाचार-पत्रों को पलटा। कहीं भी मक्खी के जीत जाने की खबर नहीं थी। पर उसे इतने पर भी चैन न मिला। उसने सम्पादकों का फोन नं. लिया। सबको फोन किया और मक्खी के जीतने की खबर को गलत बताया। काफी दिनों तक वह घर नहीं आया। घर वालों ने उसके फोटो सहित इसकी सूचना पुलिस को दी। एक दिन पुलिस स्टेशन से उसके घर फोन आया। दरअसल चित्रगुप्त शहर के किनारे एक मलिन-बस्ती में पाया गया था और उसके शरीर पर मक्खियों ने अपना डेरा बना रखा था।
औपचारिकता
उनसे मेरा कोई दिली लगाव नहीं था। कारण कि वह बहुत छोटे मन की और बंद दिमाग की महिला थीं और यह उनके बात-व्यवहार से पूरी तरह से प्रकट हो चुका था। फिर भी उनकी उम्र का ध्यान रखते हुए मैं उनसे हरदम सम्मान से पेश आता।
वह उम्र के तक़रीबन अस्सी वसंत देख चुकी थीं और अपने तीन पुत्रों में से दूसरे नम्बर वाले पुत्र के साथ रहती थीं। उनका पुत्र सरकारी नौकरी से रिटायर हो मेरे पड़ोस में ही घर बनवा रहने लगा था। पुत्र का नाम पन्नू था। पन्नू से भी मेरी कोई ज्यादा बातचीत कभी नही हुई और मामला देखा-देखी तक ही रह गया था। वह भी साठ के आस-पास का था और मुझे निहायत दुनियादार और भोंथरी संवेदना का इंसान लगा जिसे जीवन की बस सतही समझ हो। अलबत्ता मेरे घर वालों का पन्नू के घर से काफी आना जाना था। मोहल्ले के दूसरे लोगों की तरह पन्नू भी मुझे देख कर चिहाया रहता था। चिहाए रहने की मुख्य वज़ह यह हो सकती थी कि मैं दिन भर कैनवास पर रेखाओं और रंगों से खेला करता था और मोहल्ले के घरों में मेरा आमोदरफ्त बिल्कुल नहीं था। इस तरह मोहल्ले वालों के लिए मैं ख़ासा कौतूहल का विषय बना रहता। लोगों की मेरे विषय में बालसुलभ जिज्ञासाएं भी रहतीं जो इस मोहल्ले के घरों में इस घर से जाने वाली एक मात्र सदस्या मेरी मां से मुझे पता चलतीं।
बहरहाल उन लोगों के पड़ोस में रहते रहते दस साल बीत गए और पन्नू की माँ नब्बे के आस-पास की हो आयीं। इसमें कोई शक नहीं कि पन्नू ने उनकी सेवा टहल में कोई कोर कसर छोड़ रखी हो बल्कि वह हाल के दिनों में, जब मां बीमार रहने लगी थीं, अपने हाथों से ही उनका गू मूत भी करने लगा था। पूरा मोहल्ला उसके इस सेवा-भाव की तारीफ़ करता और वह दूने जोश के साथ इस टहल में लग जाता।
शुरू-शुरू में पन्नू मुझे देख, तरह-तरह से छेड़ कर, बतियाने का यत्न करता पर मैं उसकी बातों में ज्यादा देर तक खुद को शामिल नहीं कर पाता, कारण कि वह उन्हीं घिसी-पिटी दुनियावी मसलों पर होतीं जिनमें मेरी कोई दिलचस्पी पैदा नहीं हो पाती और मुझे ऊब होने लगती। पर पन्नू हार मानने वाला नहीं था और सालों तक मुझे उस जैसी ही बातों को लेकर लखेदता रहा। पर मैं चुप ही रह गया और अब उसने मुझे इसी रूप में स्वीकार कर लिया और शेष घर वालों से ही पड़ोसी धर्म निभाते रहने में अपनी अक्लमंदी समझी।
वह इसी पूस के महीने का एक दिन था जब गुनगुनी धूप खिली हुई थी और मैं बाहर अपनी बेंत की कुर्सी पर बैठ चाय की चुस्कियों के साथ एक स्पेनिश उपन्यास का रसास्वादन कर रहा था। मैंने देखा कि पन्नू अपनी मां को अपने बेटे की चारपहिया में बैठा रहा है। मेरी मां उससे कुछ बातचीत कर रही थी और एक दो और पड़ोसी भी उसको घेर कर खड़े थे। गाड़ी के चलते ही मेरी बुजुर्गवार मां मेरे पास आयीं और मुझे बताया कि पन्नू की मां अपने पहले नम्बर वाले बेटे के पास गांव चली गयीं। दरअसल वह मेरी मां से उम्र में दस साल बड़ी थीं और उन्हें देख मेरी मां को यह ढाढस बंधा रहता कि उससे वरिष्ठ लोग भी दुनिया में ठीक से रह सकते हैं।
पूस के बीतते बीतते माघ के शुरुआती दिन ही पन्नू की मां के इस दुनिया से विदा हो जाने की खबर आयी। पूरा मोहल्ला पन्नू से सहानुभूति प्रकट करने उसके घर जमा था। मेरी मां भी वहां हो आई। वह चाह रही थी कि मैं भी दो मिनट के लिए ही सही पन्नू के घर हो आऊँ। पर मुझे लगता कि यदि पन्नू के मां की मिट्टी यहीं रहती तो उन्हें कंधा देने में मेरी उपयोगिता रहती। जहां तक उनके जाने से दुःख की बात है, वह उनसे कोई लगाव न होने की वजह से, मुझे नहीं हुआ तो महज़ औपचारिकता वश वहां जाने का तुक भी मुझे समझ में नहीं आया और इस तरह मैं वहां नहीं गया। मुझे अचानक यह भी लगने लगा कि पन्नू के यहां इकट्ठी भीड़ में मेरी माँ जैसे एक दो बुजुर्गों को छोड़ कर उनके चले जाने का किसी को कोई अफ़सोस नहीं है और यह कि पन्नू मुग़ालते में है कि दुनिया उससे सच्ची सहानुभूति प्रकट कर रही है। इस प्रकार मैंने पूरी ढिठाई से इस दुनियावी औपचारिकता से दूर रहने का निश्चय किया। अब मुझे इस बात की तसल्ली भी थी कि मैंने और लोगों की तरह पन्नू को सहानुभूति के झांसे में नहीं रखा और देर तक इस बात पर भी विचार करता रहा कि यदि इस तरह के औपचारिकता भरे झांसे न हों तो आज के युग में आदमी को शायद इस सच्चाई का तल्ख़ एहसास हो कि वह कितना अकेला पड़ चुका है।
दीपक और रात
एक दीपक था और एक थी रात। दीपक को रात अपना शत्रु समझती। जैसे-जैसे रात अपना विकराल रूप धारण करती, दीपक हँस-हँस अपना काम करने लगता। रात को उसकी हँसी बहुत नागवार लगती। वह अपनी सखी हवा को बुला लाती। हवा अपना काम करने लग जाती और दीपक अपने गुरू सूर्य और गुरुमाता शक्ति का ध्यान कर जलता रहता।
रात अत्यन्त चतुर चालक थी। जब उसने देखा की दीपक यूं काबू में नहीं आने वाला तो वह छल के पास गयी। छल उसकी पुरानी सहयोगिनी ठहरी। छल ने उसे आश्वस्त किया कि वह दीपक से निपटने में उसका सहयोग करेगी। दोनों खुशी-खुशी दीपक के पास गयीं। दीपक ने उन्हें खुश देख सोचा कि चलो अच्छा हुआ यह दोनों अब आपस में व्यस्त रहेंगी और वह अपना काम करता रहेगा। पर उनका इरादा तो कुछ और था। छल ने दीपक से कहा कि वह कितना बेवकूफ है जो जलते-जलते ही जीता है और जिसका जलते जलते ही अंत सुनिश्चित है। और इधर वह दोनों हैं जो मस्त हो, बिना जले न जाने कब से अस्तित्वमान हैं। यदि वह चाहे तो रात और छल उसे अपनी तरह सुखी बना सकती हैं।
दीपक के मन में द्वंद पैदा हो गया। उसने सोचा कि ठीक ही तो कह रही ये दोनों। इनको कितनी मौज है। न कभी जलना पड़ता न कभी हवा की विकरालता सहनी पड़ती। पर दीपक अपनी माँ और ऊर्जा की अधिष्ठात्री शक्ति और गुरु सूर्य से अगाध प्रेम करता। वह दोनों के पास गया और अपने मन का द्वंद्व कह सुनाया। शक्ति बिहँसीं। उन्होंने कहा, तुम भी कैसी-कैसी उलझनों में पड़ गए। अच्छा चलो, तुम रात और छल के पास जाओ और कहो कि वह दोनों अपना काम करना छोड़ दें फिर हम और तुम्हारे गुरुवर तुम्हारे विषय में विचार करेंगे। दीपक बहुत भोला था पर रात और हवा से बहुत कुछ सीख, समझ गया था। उसे लगा कि मां ठीक कह रही, जब वे दोनों कभी अपना काम नहीं छोड़ते तो मैं क्यूँ भला अपना काम छोड़ूँ। मेरा काम तो जलना ही ठहरा सो मैं भी जलता रहूँगा। मेरे जलने से इस संसार में कितना विश्वास भरा रहता है! यदि मैंने अपना काम छोड़ दिया तो इस संसार का भला क्या होगा? और इस तरह रात की एक न चली और छल भी अपना सा मुँह बना चलती बनी।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
मोबाइल - 7985325004
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