बलभद्र का आलेख 'मार्कण्डेय की अचर्चित कहानियां : जीवन में जो होता है उसकी खोज'
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मार्कण्डेय |
जिन लेखकों की प्रतिबद्धता लेखन के प्रति होती है वे बिना किसी लाभ लोभ के ताउम्र रचनारत रहते हैं। यह अलग बात है कि किसी लेखक की कुछ रचनाएँ ही चर्चा के केन्द्र में आ पाती हैं जबकि बाकी किसी न किसी वजह से उपेक्षित रह जाती हैं। कथाकार मार्कण्डेय भी इसके अपवाद नहीं थे। उनके कुछ कहानियों की पर्याप्त चर्चा हुई जबकि अधिकांश पर कोई खास चर्चा ही नहीं हुई। बलभद्र का मानना है कि शिल्प और कथ्य की दृष्टि से मार्कण्डेय अपनी पीढ़ी में सबसे अलग खड़े दिखाई पड़ते हैं। बलभद्र ने अपने एक आलेख में मार्कण्डेय की उन कहानियों की चर्चा की है जो अचर्चित रह गईं। यह आलेख कथा के हालिया प्रकाशित अंक से साभार लिया गया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं बलभद्र का आलेख 'मार्कण्डेय की अचर्चित कहानियां : जीवन में जो होता है उसकी खोज'।
'मार्कण्डेय की अचर्चित कहानियां : जीवन में जो होता है उसकी खोज'
बलभद्र
मार्कण्डेय कथाकार के साथ कथालोचक भी थे और 'कथा' पत्रिका के संपादक भी। इसे महज संयोग नहीं समझना चाहिए। उनके कथाकार में कथालोचक मिलेगा और कथालोचक में कथाकार। दोनों को एक दूसरे में देखना बड़ा रोचक, दिलचस्प और विस्मयकारी है। उनका एक और नाम था जिसे छद्मनाम कहना ठीक रहेगा। वह नाम था 'चक्रधर'। इसी नाम से उन्होंने 'कल्पना' पत्रिका में प्रकाशित होने वाले महत्वपूर्ण साहित्यिक स्तंभ 'साहित्य धारा' का लंबे समय तक लेखन किया था। यह नाम उनका खुद का रखा हुआ नहीं, बद्री विशाल पित्ती का दिया हुआ था और यह नाम लंबी कालावधि तक रहस्यमय बना रहा। इस नामकरण, इसकी गोपनीयता और रहस्योद्घाटन की भी एक कथा बनती है जो कम रोचक नहीं है। 'चक्रधर' नाम से मार्कण्डेय तत्कालीन पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं पर अपनी पाठकीय प्रतिक्रियाएं लिख रहे थे। वे प्रतिक्रियाएं बहुत पढ़ी जाती थीं। बतौर प्रमाण कोई देखना चाहे तो 'कल्पना' के अनेक अंकों में प्रकाशित पाठकों की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल जाएंगी। इतना कुछ पढ़ना, उस पर प्रतिक्रियाएं देना और वह भी 1954 से 1960 तक, एक ऐतिहासिक काम था। वे स्तंभ 'चक्रधर की साहित्य धारा : मार्कण्डेय का साहित्य संवाद' (लोकभारती प्रकाशन) पुस्तक रूप में उपलब्ध हैं। उल्लेखनीय है कि एक ही समय में मार्कण्डेय कहानियां लिख रहे थे और वे कहानियां निरंतर प्रकाशित हो रही थीं और दूसरी तरफ उस समय प्रकाशित होने वाली अनेक पत्रिकाओं की रचनाओं को पढ़ कर प्रतिक्रियाएं लिख रहे थे और वे प्रतिक्रियाएं भी निरंतर प्रकाशित हो रही थीं। कहानी केंद्रित आलेख भी लिख रहे थे। यह एक तरह की जुगलबंदी थी, लेखक और पाठक की, जो दो नहीं, एक थे। यह मार्कण्डेय और चक्रधर की जुगलबंदी थी। मार्कण्डेय की कथा-दृष्टि और आलोचना-दृष्टि की निर्मिति और विकास में उनके इस पाठक (चक्रधर) की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।
मार्कण्डेय को ग्रामीण जीवन के कथाकार के रूप में पढ़ा गया है। उनको इसी रूप में स्वीकार भी किया गया है। ग्रामीण जीवन का कथाकार होना कोई सामान्य बात नहीं है। कोई समर्थ कथाकार चाहे वह किसी भी जीवन का क्यों न हो, देश-दुनिया की गतिविधियों से कटा हुआ नही हो सकता। मार्कण्डेय एक ऐसे कथाकार थे जिन्होंने आजादी के बाद के बदलते यथार्थ की गति, दिशा और प्रभाव को समझा और उसे कहानियों में पिरो कर कहा है। इस लिहाज से देखें तो वे एक अद्भुत व अनूठे कथा शिल्पी थे। लेकिन, कठिनाई यह है कि उनके इस अनूठेपन को समझने की अपेक्षित मशक्कत नहीं की गई। कुछेक कहानियों के आधार पर एक राय कायम हुई और वह चल पड़ी तो चल पड़ी। फिर तो उसी पैटर्न पर उनको पढ़ा जाता रहा। बहस उसी के आस पास चलती रही। लेकिन, हकीकत कुछ और है। उनकी कहानियां अलग-अलग विषयों और चिंताओं पर हैं। विषयगत अथवा भावगत दुहराव के आरोप भी हैं, जो वाजिब भी लगते हैं। पर, देखने और विचार करने की बात है कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? क्या इससे वे नावाकिफ थे? मार्कण्डेय की जिन कहानियों को ले कर ये आरोप बने, वे ज्यादातर ग्रामीण परिवेश की कहानियां हैं। लेकिन, यह आरोप इस वजह से कमजोर आरोप है कि मार्कण्डेय ग्रामीण परिवेश की प्रायः प्रत्येक कहानी में कोई न कोई नई बात कहते हैं। आजादी के बाद के भारत के गांवों की सत्ता संरचना, भूमि संबंध और किसानों और कामगारों की बदहाल स्थिति को कथा संरचना का विषय बनाते हैं। 'महुए का पेड़' और 'कल्यानमन' को ही कोई ठीक से पढ़े इस बात को समझ सकता है। 'महुए का पेड़' का कथानक सपाट लग सकता है, लेकिन ठाकुर की भूमि लोलुपता और उसके लिए किसी हद तक चले जाना, क्या जरूरी विषय नहीं है। यह लोलुपता तो 'कल्यानमन' में भी है, लेकिन इसका कथानक बहुत सघन, बहुत संश्लिष्ट है। सामंती संस्कृति की अनेक गुत्थियां हैं, बड़ी बखरी ( ठाकुर की हवेली) के अनेक षड्यंत्र हैं। यह एक तरह से दो सुराजियों की भी कथा है, एक सुराजी जमींदार है और दूसरा भूमिहीन और पिछड़ा। यह केवल मंगी (भूमिहीन सुराजी की पत्नी) और उसके बेटे पनारू की कथा नहीं है, पनारू, जिसे ठाकुर परिवार ने सोझबक, बुद्धिहीन बना कर उसकी मां के ही खिलाफ खड़ा कर दिया है। पर, इसे समझे बगैर बस एक राय स्थिर कर दी गई। नहीं विचार किया गया कि आजादी के संघर्ष के दिनों के उन स्वप्नों और आदर्शों की जो भयावह परिणति हुई, वह जो एक नया त्रासद यथार्थ उभर कर सामने आ रहा था, उसको वे अपनी कहानियों का विषय बनाते हैं तो किस तरह बनाते हैं। आजादी के संघर्ष की झीनी स्मृति की पृष्ठभूमि में आजादी के तत्काल बाद के यथार्थ को पकड़ने, समझने और कहानी के बाने में प्रस्तुत करने की मार्कण्डेयी टेकनीक को समझना बहुत जरूरी है। इसी तरह 'हंसा जाई अकेला', 'भूदान', 'मधुपुर के सिवान का एक कोना', 'बीच के लोग', 'हलयोग' आदि कहानियां एक ही स्थिति, एक ही समस्या, एक ही विषय की नहीं हैं। इनकी भाषा, शिल्प, बुनावट भी एक जैसे नहीं हैं। इनको एक ही लय में, एक ही स्थिति में पढ़ा भी नहीं जाना चाहिए। खेतों, खलिहानों, प्राकृतिक दृश्यों के वर्णनों, ग्रामीण लतों , मुहावरों, देशज शब्दों के बहुतायत प्रयोग आदि के चलते किसी सामान्यीकृत निष्कर्ष के बजाए प्रत्येक कहानी की विषयगत और शिल्पगत बारीकियों पर विचार जरूरी है।
ग्रामीण कथानकों की ही दो कहानियों की यहां चर्चा करना चाहूंगा जिनकी बहुत कम चर्चा हुई है। एक कहानी है 'सोहगइला' और दूसरी है 'सहज और शुभ'। इसमें भी दूसरी कहानी की चर्चा बिल्कुल नहीं हुई है, जबकि यह अपने ढंग की एक खास कहानी है। उल्लेखनीय है कि 'सहज और शुभ' मार्कण्डेय का एक कहानी संग्रह भी है। इस संग्रह का तो उल्लेख मिलता है पर इस कहानी पर कोई बात नहीं दिखाई देती है।
मार्कण्डेय के पांचवे संग्रह 'माही' की कहानियां नगरीय जीवन के बदलते यथार्थ और स्त्री-पुरुष संबंधों की बहुस्तरीय गुत्थियों की थीं। आलोचकों ने कहानी की उस जमीन को मार्कण्डेय की कथा की अपनी सहज और अनुभवसंपन्न जमीन न होने का आरोप लगा सीधे खारिज कर दिया था। उसके बाद के 'सहज और शुभ' संग्रह का स्वागत इस अर्थ में किया गया कि इस संग्रह में मार्कण्डेय फिर से गांव की 'सहज और शुभ' भूमि को, अपनी परिचित भूमि को कहानियों में ले आते हैं। लेकिन, विडंबना यह कि संग्रह की शीर्ष कहानी 'सहज और शुभ' पर किसी का ध्यान नहीं जाता है और इस तरह मार्कण्डेय की एक क्लासिकल रचना चर्चा में आने से छूट जाती है। यह बिल्कुल भिन्न आस्वाद की कहानी है और यह केवल मार्कण्डेय की ही नहीं, सन पचास के बाद की हिंदी कहानियों में खास ढंग की कहानी है। विषय, चिंतन और प्रस्तुति हर तरह से इसका महत्व समझ में आएगा। कहानी के पारंपरिक शिल्प से अलग शिल्प की कहानी है।
यूं तो शिल्प के लिहाज से मार्कण्डेय अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक प्रयोगशील कहानीकार सिद्ध होते हैं। उनकी कई कहानियां शिल्प के पारंपरिक ढांचे को तोड़ती हैं। ऐसा नहीं कि यह उनकी बाद की कहानियों मे हुआ है। देखें तो यह प्रवृत्ति शुरू से ही है। पहले ही संग्रह 'पान फूल' की कहानी 'कहानी के लिए नारी पात्र चाहिए' से ही शिल्प के नयेपन का आग्रह मिलता है जो बाद में खूब सधा भी है। 'सहज और शुभ' उसका एक बेहतरीन उदाहरण है। कहानी के पारंपरिक शिल्प को कितना तोड़ा गया है, उसमें कितना कुछ नया जोड़ा गया है, इसको समझने के लिए 'दूध और दवा', 'हरामी के बच्चे,' 'उत्तराधिकार', 'अगली कहानी', 'सहज और शुभ', 'सतह की बातें', 'लंगड़ा दरवाजा' जैसी लगभग अचर्चित कहानियों को धैर्यपूर्वक देखना होगा। विचार और चिंतन के उद्वेलन को बिना किसी एक सुनियोजित या सुगठित कथानक के सहारे भी कहानी का शक्ल दिया जा सकता है। ऐसी कहानियों को पढ़ते हुए लगता है शायद अब कोई कहानी मिले और इसी तरह कहानी पूरी हो जाती है। 'सतह की बातें' और 'दूध और दवा' तो इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। 'अगली कहानी' में तो आखिरकार एक कहानी मिल भी जाती है। मार्कण्डेय इसको लेकर काफी सचेत दिखाई देते हैं। यह जानते हुए भी कि इस नयेपन को कहानी के पुराने पाठक और आलोचक शायद ही स्वीकार कर पाएं, वे इस प्रयोग को अंजाम देते हैं। वे वस्तु और शिल्प को लेकर एक नई अभिरुचि की बात करते हैं। नए पाठकीय आस्वाद की। इसे वे नए लेखन का दायित्व मानते हैं। मौजूदा हिंदी कहानियों में भाषा और शिल्प का जो नयापन दिखता है, कई-कई विधाएं एक-दूसरे में घुली-मिली, जिसे विधागत संक्रमण भी कहा जाता है, लगता है कि अपने समय में इसको ले कर मार्कण्डेय काफी सचेत थे। ये वे कहानियां हैं जो कम पढ़ी गई हैं, नहीं पढ़ी गई हैं, अल्प चर्चित रही हैं, अचर्चित रही हैं। लेकिन, ये वे कहानियां हैं जिनमें ज्यादा सचेत, तर्कशील, विचारशील और प्रयोगशील मार्कण्डेय दिखाई देते हैं। कहानी गढ़ने या पाने की बेचैनी को भी कहानी की शक्ल देना मार्कण्डेय की खासियत रही है। इस नयेपन को तब नहीं समझा जा सका।
'सहज और शुभ' को ही लेते हैं। विचार करते हैं कि इसमें क्या है। क्या कहना चाहते हैं मार्कण्डेय। कहन की प्रविधि कैसी है। इसमें वे फ्लैश बैक टेकनीक के सहारे कोई भावुक चित्रण न कर एक जरूरी व बेहद संवेदनशील मुद्दे को ले आते हैं जिस तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। इस कहानी में वे बालमन, उसके मनोविज्ञान, उसके खुश होने के स्पेस और इसके लिए नैतिक सहारे की बात करते हैं। हमारे समाज में जिसका घोर अभाव है। ग्रामीण गरीब परिवारों में तो इसके लिए कोई स्पेस ही नहीं हुआ करता था। वह स्पेस आज भी नहीं है। एक विचारशील वयस्क युवा की स्मृति में बीस वर्ष पूर्व बचपन की एक घटना याद आती है। वह घटना बहुत मामूली सी थी, पर वह स्मृति में बनी ही नहीं, बार-बार कौंध जा रही थी। उसका मामूलीपन ही खास बन जाता है। उसके साथ अनेक प्रसंग जुड़ते चले जाते हैं। इसमें रमीला नामक चिड़िया पालने वाली एक बुढिया के पिंजड़े से निकली हुई एक नन्हीं सी चिड़िया के नन्हे पैरों में रस्सी बांध कर खुश होने और खेलने की स्मृति है। वाचक के मन में तब एक डर का साया भी था। वह डर रस्सी बांधने से चिड़िया के मर जाने और बात मां तक पहुंच जाने का था। साथ ही उस बुढ़िया का भी डर था जिसकी वह चिड़िया थी। इस पूरी घटना में सविता नामक एक लड़की भी थी जो वाचक के दूर के रिश्ते के चाचा की बेटी थी। अब यह मामूली सी बात कैसे विस्तार पाती है, बगैर किसी कथानक के, देखने लायक है।
वाचक अपने और सविता के परिवार के बीच के रिश्ते का उल्लेख तो करता ही है, दोनों के बीच की समानता और अंतर को भी स्पष्ट करता है। परिवार में जो स्थिति सविता की थी, लगभग वैसी ही कथावाचक की भी थी। लेकिन, जो थोड़ा अंतर था वह दोनों ही परिवारों के बीच अर्थ का अंतर था और मान-सम्मान का। सविता के पिता खेतिहर कम, बैलों की खरीद-बिक्री के कारोबारी थे। मेला-बाजार से बैल खरीदना और खिला-पिला कर खरीद से अधिक दाम पर बेंचना उनका काम था। घर के लिए उसके पास कोई अवकाश नहीं था जिसके चलते उसकी मां का जीवन एकरस और उबाऊ हो गया था। इसके चलते सविता उपेक्षित हो चली थी। वाचक के परिवार के लोग 'किन्हीं पूर्व कारणों से अपने को बहुत सम्मानित और इज्जतदार समझते थे।' परिवार के लोगों के इस विशिष्टता बोध के चलते वाचक को बचपन में अनेक नैतिक वर्जनाओं का सामना करना पड़ा था। कहानी में बहुत कम स्पेस में यह प्रसंग है। लेकिन, इसकी व्याख्या कहिए या अर्थ संकेत वह व्यापक है। खेतिहर परिवार का बैलों का व्यापारी हो जाना एक प्रसंग है। इस व्यापार की अपनी कुछ शर्तें भी होती हैं। घर से बाहर रहना इसकी एक अपनी शर्त है। वाचक के परिवार के इज्जत और सम्मान के संदर्भ की भाषा का बांकपन देखा जाना चाहिए। कथाकार यह नहीं लिखता कि वह सम्मानित परिवार है। लिखता है कि किन्हीं पूर्व कारणों से खुद को इज्जतदार समझता है। इज्जतदार होना और खुद को इज्जतदार समझना दोनों में फर्क होता है।
समाज और परिवारों में बच्चों के ऊपर जो इस तरह के अस्वाभाविक दबाव होते हैं, जिनके चलते बचपन गुम हो जाता है, मार्कण्डेय उसकी तह तक जाने की कोशिश करते हैं। एक चिड़िया के मर जाने पर पाप का डर वाला समाज बकरे की बलि को शुभ मानता है। लेखक इस अंतर्विरोध को लिखता है। लेखक विचार करता है कि गरीबी के दबाव में केवल अपनी जरूरतों को ही लोग समझ पाते हैं, शौक और रुचि को फालतू की चीज समझते हैं। जीने का एक ढर्रा बना लेते हैं। नैतिकता अनैतिकता की बाड़ेबंदी तय कर लेते हैं। 'उपयोगिता और संसारी संस्कार' हावी रहता है जिसके चलते बच्चों को 'खुश होने का कोई नैतिक सहारा' नहीं मिल पाता है। उनके कोमल और भावुक पलों को भरपूर स्पेस नहीं मिल पाता है। जिस नैतिक सहारे की बात मार्कण्डेय करते हैं, वह बहुत सार्थक है और कहानी में इस तरह की कई जरूरी बातें कहानी के पारंपरिक शिल्प को तोड़ते हुए आती हैं। कोई कह दे कि यह रेखाचित्र है, निबंध है, सुगठित कथानक नहीं है तो कहना है कि यही इस कहानी की खासियत है। इसको पढ़ते हुए सियाराम शरण गुप्त की 'काकी', प्रेमचंद की 'ईदगाह', जैनेंद्र की 'पाजेब' की याद आने लगती है। इनमें भी कहां किसी बच्चे को खुश होने का नैतिक सहारा हासिल है?
इस कहानी में रमीला की भूमिका भी गौर करने लायक है। वह बूढ़ी औरत अपने को पाली हुई चिड़ियों में ही व्यस्त रखती थी। उसके पिंजड़े की ही एक चिड़िया इन बच्चों के पास थी। रमीला उसको खोजने में परेशान थी। उसकी इस परेशानी का ख्याल कोई नहीं करता। सब उसको पागल समझते थे। यह खोज भी एक जरूरी काम हो सकता है, किसी को इसकी समझ तक नहीं है। एक संवेदनशील व्यक्ति की स्मृतियों में रमीला की वह बेचैन तस्वीर उभरती है, साथ ही साथ अतीत का वह पूरा प्रसंग उभरता है, वह परिवेश उभरता है और उसकी सुसंगत आलोचना में कहानी सार्थकता हासिल करती है।
इसी क्रम में 'सोहगइला' पर भी बात हो जाए। यह तीसरे संग्रह 'हंसा जाई अकेला' में है। 'हंसा जाई अकेला' खूब चर्चित कहानी है। इसी संग्रह की यह कहानी अच्छी होने के बावजूद चर्चा में नहीं आ सकी। इसी संग्रह में 'प्रलय और मनुष्य' भी है जो अपने ढंग की अनूठी कहानी है। आजादी के बाद आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की बाढ़ का यह रूपक है। पर, किसी का ध्यान इस पर नहीं गया। इसके व्यंग्य और संकेतों को नहीं समझा गया। 'हंसा जाई अकेला' बेशक अच्छी कहानी है। यहां उसकी चर्चा न कर 'सोहगइला' पर बात इसलिए जरूरी है कि इस कहानी में भी मार्कण्डेय वर्ग विभाजित समाज की वास्तविकता को दाई (घरेलू नौकरानी) और उसकी नन्हीं बेटी की जीवन स्थितियों, उपेक्षाओं और परिवेशजन्य नवांकुरित लालसाओं की धूप-छांही में सिरजते हैं। इस कहानी और इसके मर्म को समझने-बूझने के लिए उस परिवेश, संस्कृति, लोक-रीति आदि की समझ आवश्यक है, जिसकी यह कहानी है। अन्यथा केंद्र तक पहुंचने के बजाए परिधि के चक्कर लगाने जैसी ही स्थिति होगी। मार्कण्डेय की कई कहानियों में बड़े घरों में काम करने वाली महिलाएं और उनके बच्चे मिलते हैं। 'जूते' कहानी में बालक मनोहर मिलता है। 'कल्यानमन' में मंगी और उसका बेटा पनारू मिलता है। 'सोहगइला' में नन्ही रनिया और उसकी मां मिलती है। बड़े घरों के भीतर के स्त्री चरित्रों को इन दाइयों और उनके बच्चों की प्रतिक्रियाओं में समझा जा सकता है। कितनी अनुदारता है, समझा जा सकता है।
'सोहगइला' की रनिया की स्मृतियों में सब कुछ दर्ज है। अपनी मां के साथ ठकुरानी बहू के घर जाना, उपेक्षित पड़े रहना, बरतन बासन करती मां की हीन स्थिति, थोड़ी बड़ी होने पर ठकुरानी बहू की सेवा में लग जाना और जरा सी चूक पर जोरदार तमाचा। रनिया की स्मृतियों में यह सब तब उभरता है जब वह ब्याह के बाद मायके से विदा हो कर डोली में ससुराल जा रही है, नन्हे हाथों में सोहगइला और मन में मां की चेताई हुई बातें लिए। उसे कई बातें याद आती हैं। यादों का कोई एक निश्चित क्रम नहीं है। उसका शिल्प छितराया हुआ है, बिखरे क्रम में है। मार्कण्डेय अपनी कई कहानियों में जरूरी बातें संकेतों में भी कह जाते हैं। बिना अतिरिक्त स्पेस लिए। इस कहानी में भी वह बात है। रनिया के पिता के बारे में जरूरी बात कहनी है तो इसके लिए वे खास तरीके को अपनाते हैं। उसकी मां के मुंह से ही एक झटके में कहवा देते हैं। उसकी यह बदहाली पति की पियक्कड़ी और अकर्मण्यता के चलते है। इतना पियक्कड़ और अकर्मण्य कि तन का गहना-गीठों सब बेंच डाला है।
रनिया स्मृतियों में झूलती हुई खटोली में जा रही है। तंगहाली और उपेक्षाओं में पली रनिया पहली बार अच्छे कपड़े में है। वह खुद को देखना चाहती है। पर, नहीं देख पाती। स्मृतियों से पीछा नहीं छूट पा रहा। उसे प्यास लगी है। लोटे में पानी और गुड़ रास्ते में उसका ससुर खटोली में रख जाता है। लेकिन, मां की सीख और हिदायतें भी साथ हैं। सोहगइला हाथ से न छूटे। इसी द्वंद्व में वह चल रही है। गर्म हवा के झोंके से प्यास और बढ़ जाती है। असहनीय। तब वह मां की सीख को दरकिनार कर लोटे का पानी दोनों हाथों से उठाकर पीने लगती है और सोहगइला हाथ से छूट कर गिर जाता है। उस हालत में उसे अपनी मां के कालिख में डूबे, रूखड़े हाथ याद आते हैं। वह भी तो सोहगइला संभाले कभी बहू बन कर आई होगी, उसका भी तो कोई पति है। मां की सीख और यथार्थ का द्वंद्व कहानी को मार्मिक बना देता है। मार्कण्डेय लिखते हैं -"वह अब बच्ची नहीं रह गई थी और सामने खड़े भविष्य को पहचान रही थी।" मार्कण्डेय यहां वस्तुगत यथार्थ की बात करते हैं। झूठ-मूठ का कोई स्वप्न या आदर्श नहीं रचते हैं।
'उत्तराधिकार' और 'हरामी के बच्चे' जैसी कहानियों को भी उलटने-पलटने की जरूरत है। 'उत्तराधिकार' 'भूदान' संग्रह में है और 'हरामी के बच्चे' 'महुआ का पेड़' में संकलित है। 'हरामी के बच्चे' एक अन्य संग्रह मार्कण्डेय की कहानियां, भाग- एक ( लोकभारती प्रकाशन ) में 'आदमी के बच्चे' शीर्षक से प्रकाशित है। लेकिन, जो मूल शीर्षक है वह 'हरामी के बच्चे' ही है। यहां भी तर्कशील, विचारशील और प्रयोगशील मार्कण्डेय मिलते हैं। यहां भी स्त्रियां हैं, घरेलू कामकाजी स्त्रियां। पुराने धनाढ्य परिवारों व सामंती परिवेश में हर तरह की महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय हुआ करती थी। आज भी दफ्तरों की और घरेलू कामकाजी महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। बर्तन-बासन करने वाली लड़कियां और महिलाएं अनेक तरह से शोषित और प्रताड़ित हैं। संपत्तिशाली परिवारों की विलासिता और यौन कुंठा के अनेक रूप और स्तर मार्कण्डेय की कहानियों में चित्रित हैं। 'उत्तराधिकार' और 'हरामी के बच्चे' में स्त्री और संपत्ति के सवाल हैं। 'उत्तराधिकार' एक खास तरह की कहानी है। यह पुराने जमींदारी पृष्ठभूमि के दो परिवारों की कथा है जो आजादी के बाद अपनी जमीन जायदाद को नए भूमि कानूनों को देखते हुए नए तरीके से व्यवस्थित कर लेते हैं और समाज में अपनी धाक बनाए हुए रहते है। पुराने जमीदारों और रईसों के नए संस्करण हैं जिनकी हवेलियों में अनेक स्त्रियां हैं जो इनकी हवस की शिकार हैं। मार्कण्डेय ने इनमें स्त्रियों की विवशताओं के साथ पुरुष कामुकता के भोंडेपन को तार-तार किया है। पुरुष कामुकता के भोंडेपन को उजागर करते हुए मार्कण्डेय की भाषा की व्यंग्यात्मकता देखते बनती है। इसमें उन्होंने बंदिशों के भीतर मुक्ति की खास सुगबुगाहट को भी परखा है। 'उत्तराधिकार' में भी, 'हरामी के बच्चे' में भी। हरामी के बच्चे में तो मुक्ति चेतना का एक संगठित रूप है। उत्पीड़ित नारी के साथ सभी घरेलू नौकर, कामकाजी महिलाएं, दूध बेंचने वाला तक सहानुभूति रखते हैं और संगठित प्रतिरोध तक पहुंचते हैं। यह कल्पित यथार्थ लग सकता है। पर, यह एक संभावित यथार्थ है जो कहानी में आरोपित नहीं है। मार्कण्डेय यथार्थ की अनेक तहों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। खासकर महिला प्रश्नों को लेकर वे ज्यादा तर्कशील, अधिक चिंतनशील और सक्रिय दिखते हैं। इस संदर्भ में कोई चाहे तो उनको यथार्थ का अन्वेषक भी कह सकता है।
'वासवी की मां' , 'मिस शांता', 'प्रिया सैनी' जैसी कहानियां भी हैं। उनकी एक कहानी 'कहानी के लिए नारी पात्र चाहिए' को भी देखना जरूरी है। मार्कण्डेय के स्त्री संबंधी दृष्टिकोण को समझने के लिए यह एक जरूरी कहानी है। यह उनके पहले संग्रह 'पान फूल' में है जिसका पहला संस्करण जुलाई 1954 में प्रकाशित हुआ था। मार्कण्डेय के इस संग्रह का जोरदार स्वागत हुआ था। इस संग्रह की कहानी 'गुलरा के बाबा' की खास चर्चा हुई थी। संग्रह को स्थानीय रंगत की कहानियों के लिए विशेष रूप से पढ़ा गया। इसी संग्रह में 'वासवी की मां' और 'कहानी के लिए नारी पात्र चाहिए' भी है। स्थानीय रंगत से जरा भिन्न रंगत की कहानियां हैं ये दोनों। स्त्री केंद्रित कहानियां हैं और इस विषय की कहानियों की निरंतरता मिलती है मार्कण्डेय के यहां। एक सतत विकास मिलता है। इस विषय पर अपने समय के किसी भी कहानीकार से कम नहीं लिखा है मार्कण्डेय ने। बल्कि, कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बहुत सार्थक लिखा है। नारी पात्र किस तरह के हों, जैसे प्रश्न को ले कर मार्कण्डेय एक ही कहानी में कहानीकार और आलोचक दोनों की भूमिका में हैं। नारी को उसकी स्वाभाविक स्थिति और गति में देखना उनको पसंद है। उनकी नजर व्यापक सामाजिक व सांस्कृतिक संदर्भों में बदलती हुई नारी चेतना पर है। एक तरीके से वे नारी को बंधी बधायी धारणाओं से बाहर निकल कर देखने की बात कई चरित्रों के जरिए करते हैं। यह एक व्यंग्य कथा भी है। हिंदी में शायद ही इस शैली और मिजाज की कोई कहानी मिले। सुधीश पचौरी ने 'वर्तमान साहित्य' के जुलाई 1987 अंक में 'महिला लेखन का सवाल' आलेख में इस कहानी का उल्लेख किया है। उन्होंने इस कहानी को "एक विक्टिम की प्रतिहिंसा की अद्भुत कहानी" कहा है। सुधीश पचौरी ने लिखा है -"जिसकी नायिका एक गरीब प्रतिहिंसक औरत है जो मध्यवर्गीय औरत से भिन्न अपना निर्णय खुद लेने वाली है। उसने अपने अत्याचारी पतियों में से एक को त्यागा है, एक के यहां से भागी है, एक की हत्या कर दी है। ऐसी कहानी को पढ़ कर एक प्रोफेसर, एक समीक्षक, एक औरत लगभग एक सी शिकायत लेखक से करते हैं कि यह औरत का सच्चा रूप नहीं है। औरत तो दया, माया, ममता, करुणा की मूर्ति होती है, लेखक ने वैसा क्यों न दिखाया। लेखक असमंजस में होता हुआ विज्ञापन देता है अखबारों में कि 'एक स्त्री पात्र चाहिए', किंतु, तभी उसकी नायिका आ कर कहती है कि लेखक, तू ने मुझे जैसा दिखाया है, वही सच है, मुझे झूठा चेहरा मत देना। और अगर मैंने असाधारण आचरण किया है तो इसलिए कि मैं वैसा ही कर सकती थी। मैं प्रतिहिंसात्मक ही होती, तूने उसे पहचाना उसके लिए धन्यवाद।" (महिला लेखन का सवाल, सुधीश पचौरी, वर्तमान साहित्य, जुलाई, 1987, पृष्ठ 54) प्रकाश चंद्र गुप्त ने इसे कहानी के रूप में निबंध कहा है। (पान फूल, (समालोचना) प्रकाश चंद्र गुप्त, कल्पना, दिसंबर 1954, पृष्ठ 80).
मार्कण्डेय की कहानियों में यथार्थ पात्र, परिवेश, घटना आदि के समग्र चित्रण में उभरता है। गहन गंभीर चिंतन और विचार समग्र कहानी में घुल- मिलकर आते हैं, कहानी के जरूरी हिस्से बन कर। पात्रों के कथन या चिंतन प्रक्रिया में ऐसे विचार आते हैं और पाठक अनेक बार रुक कर सोचने को विवश हो जाता है। लगता है ऐसे जरूरी विचार अथवा चिंतन के लिए ही वह कहानी लिखी गई है। अपनी कहानियों में अलग से निष्कर्ष जैसी कोई चीज ये पाठक के लिए नहीं छोड़ते, बल्कि, पाठक को सोचने, विचार करने के लिए पूरा स्पेस रचते हैं। उनके यथार्थ संबंधी दृष्टिकोण को समझने के लिए 'हंसा जाई अकेला' के प्रथम संस्करण की भूमिका का यह अंश देखना जरूरी है-" 'कहानीपन' कहने में, कल्पना की ध्वनि ज्यादा मिलती है, यथार्थ की कम। हो सकता है इस कथन से कई लोगों की सहमति न हो सके, पर मुझे लगता है, आधुनिक युग में सभी जागरूक कथाकारों के लिए, कहानी कल्पना की बुनावट न हो कर, जीवन के यथार्थ का अंग बन गई है। उसके कथानक जीवन की भौतिकताओं की तरह ही कठोर एवं सत्य होने लगे हैं, और उसका शिल्प भी समस्त मानवीय व्यवहार की परंपराओं का निर्वाह करने लगा है। एक तरह से देखें तो जीवन में जो होता है और अत्यंत सामान्य रूप में होता है - उसकी खोज हम कहानी में करने लगे हैं।"
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बलभद्र |
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