सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य: स्थिति और गति'
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सेवाराम त्रिपाठी |
'व्यंग्य: स्थिति और गति'
सेवाराम त्रिपाठी
हम एक लोकतांत्रिक समाज में हैं। उसके यथार्थ भी हैं और कल्पना संसार भी। घालमेल, अतिरंजनाएं भी, और पेचीदगियाँ भी। लेखन कोई धार्मिकता के अनुष्ठानों का मामला नहीं है और व्यंग्य लेखन की दुनिया में किन्हीं लचर-पचर चीज़ों का जमावड़ा भी नहीं होता। वैसे लेखन बेहद जिम्मेदारी का काम है। उसी प्रकार व्यंग्य की हैसियत और पक्षधरता भी होती है और धार के साथ धारा भी। व्यंग्य हमारी ज़िंदादिली, जीवंतता, जिजीविषा और संवेदना का गंभीर और अनिवार्य पहलू है। व्यंग्य रचनात्मक संकल्पना के साथ यथार्थ के बहुविध रूपों का एक अद्भुत संसार भी है। और विसंगतियों, विडम्बनाओं और अंतरविरोधों से संघर्ष करने वाली दुनिया भी। व्यंग्य लेखन की चुनौतियों, वास्तविकताओं के प्रति लेखक का ध्यान होना चाहिए।
परसाई जी के एक कथन को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है - “साहित्य हमारे यहाँ व्यापार कभी नहीं रहा, वह धर्म रहा है। अभी भी वह धर्म है, एक मिशन है। इसमें मिटना पड़ता है। जो इसमें बनना चाहते हैं, वे बेहतर है कि आढ़त की दुकान खोलें। इसमें तो कबीर की तरह घर फूंक कर बाहर निकलना पड़ता है ; यह ' खाला का घर' नहीं हैं।”(साहित्यकार का साहस)
जो परसाई जी ने जिन मुद्दों की ओर इशारा किया है वो सहज सरल नहीं बल्कि काफ़ी जटिल और चुनौतीपूर्ण भी हैं। हो यह रहा कि व्यंग्य लेखन के बारे में, व्यंग्य लेखन की लोकप्रियता की वजह से जो आकर्षण बढ़ा है, इस वजह से हमारी चिंताएं तक नक़ली होती जा रही हैं और एक विशेष प्रकार की रोमांटिकता के भी हम शिकार हुए हैं। खानापूर्ति ही वहाँ अड्डा जमाए हुए है या किसी भी प्रकार ज़्यादातर ठस चीज़ें ही व्यक्त हो पा रही हैं। व्यंग्य की ज़मीन, संवेदना संसार, व्यापकता और गहराई का अनवरत क्षरण जारी है। व्यंग्य भर के लिए नहीं बल्कि समूचे लेखन, कलाओं और अन्य अनुशासनों के लिए व्यक्तिगत ईमानदारी और निष्ठा होनी चाहिए। सोचिए क्या ऐसा संभव हो पा रहा है? व्यंग्य लेखन के लोगों ने खाता- खतौनी बना लिए हैं और वे वहीं डूब-उतरा रहे हैं। मैं सोचता हूँ कि व्यंग्य लेखन 'जेनुअन' क्यों नहीं हो पा रहा है? कुछ मित्रों से अक़्सर इस संदर्भ में चर्चा होती रहती है। तो आख़िर ऐसा क्यों नहीं है? मात्र मुँह पटकने से यह संभव भी नहीं हो सकता? हमारे पास इसकी माप का कोई जरिया भी नहीं है। यही वजह व्यंग्य लेखन की संचेतना के बारे में भी कही जा सकती है। सबके अपने-अपने व्यंग्य हैं। सबकी अपनी-अपनी करतूतें हैं। और वे अपनी तरह के व्यंग्यों में घुस कर काम करते जा रहे हैं? वे उन फॉर्मूलों में बंदी भी हैं। ज़ाहिर हैं कि प्रतिरोध की संस्कृति खात्मे की ओर है और जो थोड़ा सा प्रतिरोध बचा भी है वो उसको भी 'कंडीशनल' बनाने पर तुले हैं। और जो भी इस से बचा रह जाएगा उसको भी कंडीशंड बनाने की मुहिम चल रही है। उसकी ज़मीन, संवेदना और धरातल का 'स्पेस' भी क्षण-क्षण सिकुड़ रहा है।
व्यंग्य लेखन के बारे में यह बात कही जा सकती है कि वहाँ ज़्यादातर न विचार से कोई लेना देना है और न जीवन के विभिन्न तापों से। एक विशेष उद्घोषणा से मेरा सामना हुआ। उन शब्दों पर गौर से ध्यान दें- 'व्यंग्य और प्रदूषण रहित विमर्श का स्वागत है।.. व्यंग्य यात्रा के लिए कोई विचारधारा अछूत नहीं है। अपनी बात कहें और दूसरी की सुनें और तीसरे को तय करने दें वह कितना प्रभावित हुआ। इस विचार सरणि में लिपटी हुई मनः स्थिति के खोखलेपन को हँसी-ठठ्ठे में नहीं उड़ाया जा सकता। व्यंग्य का एक बहुत बड़ा संकट उसकी समझ और बर्ताव का भी संकट है। कुछ तो उसमें हास्य-विनोद, मसखरी और स्वांग फिट करने के चक्कर में हैं और अनुपात के सिलसिलों में मुब्तिला हैं। इसी में वो व्यंग्य को सिद्ध करने के पक्षधर के रूप में दिखाई पड़ते हैं। यानी साधक-सिद्ध-सुजान बनने के दरवाजों में उठक-बैठक लगा रहे हैं।
व्यंग्य के बारे में कई तरह के संकट सिर उठा रहे हैं। एक तो व्यंग्य को बहुत सहज मान लिया गया है जबकि है ऐसा बिल्कुल नहीं? व्यंग्य लेखन में बेचैनी, तड़प और जद्दोजहद के न जाने कितने क्षितिज हैं। वहाँ समर्पणशीलता की कमी भी अनुभव की जा रही है। व्यंग्य लेखन की प्रतिज्ञाएं और संधान की स्थिति और परिधि बहुत कठिन है, इसलिए व्यंग्य का रास्ता भी कठिन है। वह बिना साहस और संकल्प के किसी तरह संभव भी नहीं हो सकता? इसी के बाद सरोकारों का भी ज़रूरी संदर्भ है। मुझे समझ नहीं आता कि कोई चीज़ लिखी जाती है तो उसका प्रकाशन हो वह किसी तरह पाठक तक पहुंचे ,यह तो एक सरल सहज मुद्दा है लेकिन इसके लिए दिन-रात रोना- धोना हो। फलाना - ढिकाना होता रहे? क्या इसे हर हाल में ठीक माना जा सकता है?उसके लिए इतनी मारामारी ही क्यों? विकल्पों की खोज भी होनी चाहिए।मुझे यह भी लगता है कि पाठक को लुंज पुंज रचनाएँ पढ़वाने से व्यंग्य की साख क्या नहीं गिरती है? व्यंग्य लेखन कोई ता-ता-थैया का नाच तो है नहीं और न हो ही सकता है।और उसकी विशिष्टता, संभावना और भूमिका पर सवाल खड़े होते हैं? पहले तो व्यंग्य को अपनी साख का सही इंतज़ाम करना चाहिए। जब साख ही नहीं रहेगी तो व्यंग्य लेखन हमेशा लहूलुहान होता रहेगा,बाक़ी बातें बाद में।व्यंग्य लेखन के लिए जोश बहुत अच्छी चीज़ है लेकिन होश भी तो होना चाहिए और गहरी संवेदनशीलता, संपृक्ति और दृढ़ता भी। इसे किसी भी सूरत में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। और यह किसी कमिटमेंट के बिना शायद किसी भी प्रकार पाया भी नहीं जा सकता है? यह मुखौटे लगाने या आरोपण से संभव भी नहीं है? व्यंग्य लेखन के कुछ हितग्राही निरंतर मुखौटे चस्पा करने में भिड़े हैं और ऊपर से उछल कूद कर रहे हैं।
व्यंग्य लेखन के विकास की अनंत दिशाएं खुली हुई हैं ।यह अच्छी बात है। लेकिन यथार्थ में व्यंग्य की इतनी भारी गिरावट भी दर्ज़ की जा रही है।न जाने कितनी शिकायतें रो-कलप रही हैं। हमारी संवेदनशीलता तभी उजागर होगी जब हमारे संवेदनशील कान हों। हमारी अस्मिता आकांक्षा जिजीविषा और तड़प के साथ ताप भी हो.यदि ऐसा होगा तो उन्हें सुना जा सकेगा ।कहा सुनी के बाद, इतने प्रश्नांकन के बाद उसे ठीक से अभी बरता नहीं जा रहा है? एक विशेष किस्म की चौधराहट भी पसरी हुई है। व्यंग्य लेखन एकदम आलोचना के घेरे से बाहर पड़ता जा रहा है। और प्रशंसाओं के उड़न खटोले में सरपट उड़ रहा है। व्यंग्य लेखन के रहसे-बहसेपन के कारण भी प्रशंसा का बाज़ार सजा है और तारीफ़ों के गुणनफल की अखंड परियोजनाओं में इसका बाज़ार चालू है। यही नहीं व्यंग्य के निर्विघ्न साम्राज्य का सिलसिला जारी है। व्यंग्य लेखन कहाँ जा रहा है? वह किसी भी तरह, कुछ भी लिख डालने की प्रतिज्ञा से भी सनसना रहा है। व्यंग्य लेखन पर इतने प्रश्नवाचक झर रहे हैं कि व्यंग्य से दूर हास -परिहास की अनंत छायाओं का असर साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहा है। उससे गंभीरता, तन्मयता और सरोकार कपूर की तरह उड़ गए हैं।अपने व्यक्तित्व के चमकाने के इतने फार्मूले गढ़े और आजमाए जा रहे हैं कि कभी-कभी शर्म को भी शर्म आती है? प्रश्न है कि कितने अख़बार सही सलामत पढ़े जा रहे हैं। उनका अनुभव संसार क्या है? हम अपने आपको प्रतिष्ठित करने और हर हाल में स्थापित करने में जी जान से जुटे हुए हैं। एक ही रचना को छत्तीस-चालीस तरीकों से पढ़वाने की मार्केटिंग छाई हुई है। कुछ ऐसा हो कि व्यंग्य की सम्प्रेषणीयता के पट खुलें।
बार-बार हम वही भाषा की बात बोलते रहते हैं। विषय की गंभीरता की तरफ़ हमारा ध्यान प्रायः नहीं जाता होगा? व्यंग्य लेखन में गुणवत्ता होगी। वो हमारे जीवन के समय समाज के 'जेनुइन' सवाल उठाएगा तो लोग पढ़ेंगे ही। पढ़ने के लिए विवश भी होंगे? लेकिन तथ्य यह है कि व्यंग्य से पाठकों को कुछ मिलना ही चाहिए, चुहलबाजी और प्रशंसाबाज़ी नहीं, ठोस, दृढ़ और जीवंत।केवल हवा-हवाई बातें नहीं? मुझे लगता है कि देश-दुनिया से व्यक्तिगत ईमानदारी की बेहद कमी ने सरोकारों के झूलने से बहुत कुछ नक़लीपन भर दिया है। लेखक की संबद्धता आम जनता से होती है। उसके सरोकारों से होती है और उसी के लिए उसकी तरफ़ भी होनी चाहिए और बेचैनी भी। लेखक किसी भी क़ीमत में बेचैनी नहीं खरीद सकता। बेचैनी तो उसकी असलियत भी है आत्म पुकार भी।
लेखन की दुनिया आत्मालोचन से प्रायः बाहर आ चुकी है लेकिन एकदम रिक्त भी नहीं है। व्यंग्य का आत्म संघर्ष भी होता है और आत्मालोचन भी। यहीं गुंजाइश भी है और संभावना भी। व्यंग्य लेखन जीवन का हाहाकार भी है और विसंगतियों, अंतरविरोधों ओर पाखंडों का पर्दाफाश, प्रतिकार और प्रतिरोध भी। परसाई ने विकलांग श्रद्धा का दौर में इसे ठीक से स्पष्ट किया है- ”श्रद्धा पुराने अखबार की तरह बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं की किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है वह उतावली में अपने कपड़े उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है।”
कई तरह के प्रश्न उठे हुए हैं। सोचिए क्या ऐसा हो रहा है और नहीं हो रहा है तो क्यों नहीं हो रहा है? इसके लिए कौन उत्तरदाई है। व्यंग्य की गंभीर पत्रिकाएं ही कम हैं। कुछ हैं तो उनमें हास -परिहास और विनोद का ही बहुत बड़ा स्टॉक छपता है। प्रशंसाओं के बड़े बड़े खोमचे लगे हैं और तारीफों की धुंआधार बैटिंग हो रही है और संबंधों को साधने की तंत्र साधना काम कर रही है। पत्रिका यूँ तो कोई भी यत्न से, लोगों को संबद्ध रख कर निकाल सकता है और यह यूँ तो सरल काम नहीं है लेकिन आप जुट जाएंगे तो किसी न किसी तरह हो ही जाएगा। जुगाडशास्त्र हर जगह काम करता है। लोग सहयोग देने के लिए तैयार हैं, आपसे लेते बने तो? उसमें शुद्धता भी मूल्यों नैतिकताओं से बाहर आ जाएं तो। लेकिन मूल्यों और सामाजिक सांस्कृतिक तब्दीली के लिए कुछ भी करना चाहेंगे तो दाँतों चने चबाने पड़ेंगे। पत्रिका की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए प्रशंसा का विधिवत संयोजन करना होता है और जो भी यह कला साध लेता है। उसके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है।
व्यंग्य लेखन अपने आप में एक विशेष प्रकार की सामाजिक सांस्कृतिक आलोचना है, जिसे किसी भी सूरत में भूला नहीं जाना चाहिए। मुझे लगता है कि बदले हुए समय में आलोचना का प्रवेश और विस्तार भी होना चाहिए है लेकिन इस कोण के बरअक्स प्रशंसा का लंबा-चौड़ा व्यापार और बाज़ार तना है। उसकी सामाजिकता ही लगभग ध्वस्त की जा रही है। व्यंग्य लेखन जो सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं और परिवर्तनों का पैरोकार रहा है। वो निरंतर प्रशंसा के पहाड़े पढ़ रहा है कि शर्म को भी शर्म आने लगी है। जैसे आलोचना की सामाजिकता होती है उसी के समानांतर व्यंग्य लेखन की भी सामाजिकता होती है। वो स्वयं आलोचना और विवेक का बहुत बड़ा परिसर होता है। लेकिन दिन-रात उसके पंख काटे जा रहे हैं। एडवर्ड सईद की बातों को याद करना ज़रूरी है।- “सत्ता के सामने सच कहने के साहस से' व्यंग्य लेखन का और आलोचना की धरती और आकाश मंडल विस्तीर्ण होता है। मैनेजर पाण्डेय ने यथार्थ ही कहा है - “सत्ता केवल राजनीति की ही नहीं होती। धर्म, संस्कृति और साहित्य की भी सत्ताएं होती हैं, जो एक ओर बौद्धिक दमन और अपने वर्चस्व की स्थापना का प्रयत्न करती है तो दूसरी ओर राजनीतिक सत्ता को मजबूत बनाने में सहयोग भी करती हैं। ऐसी सत्ताओं के सामने सच कहने का साहस जिस आलोचना में होता है वह मनुष्य की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ी होती है, इसलिए वह सामाजिक होती है।” (आलोचना की सामाजिकता की भूमिका)
व्यंग्य एक बहुत बड़े पैमाने और दायरे में आलोचना की इसी भूमिका को निभाता रहा है। इसे हमें भूलना नहीं चाहिए। लेकिन अब तो पूरा का पूरा नक्शा भी बदल गया है और प्रशंसा का लंबा-चौड़ा साम्राज्य भी छा रहा है। हम तने हुए तारीफ़ों के आकाश मंडल में कब से विचरण कर रहे हैं। हरिशंकर परसाई का ज़माना गया। वो संघर्ष गया और वो तड़प और बेचैनी भी विदा हुई। व्यंग्य लेखन के लिए प्रशंसा नहीं बहुत बड़ा कलेजा चाहिए। मर-मर कर जीने का संकल्प चाहिए। निरंतर संकीर्णताओं से जूझने की ताक़त चाहिए। क्या यह सोचनीय मुद्दा नहीं है। कौन है जो इन प्रश्नों से निरंतर जूझता है? नहीं जूझता तो उसे हर हाल में जूझना भी चाहिए?
कई तरह के प्रश्न, अखबार की सुर्खियों में, फेसबुक में और अन्य माध्यमों में दिखाई पड़ रहे हैं। उनका हँसी-ठठ्ठा तो होता है लेकिन न कोई लाज है और न कोई शर्म। बहसों के तर्कों में हाँका पड़ा है लेकिन कोई हल नहीं और न उसके लिए कोई प्रयास। अब प्रायः.संपादकों का अवसान हो चुका है। वहाँ केवल 'मैनेजिंग डायरेक्टर' मिलेंगे। जो थोड़े से बचे हैं वो ही इन सभी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ज़ाहिर है कि जहाँ थोड़े से संपादन का 'स्पेस' निकलता है, वहीं कुछ गुंजाइश है। अब प्रायः संपादकों की तरफ़ से कोई नोटिंग नहीं होती। कोइ रेखांकन भी नहीं होता, जो भी भेजोगे। यदि वह सत्ता-व्यवस्था से इतर नहीं है तो उसे छपना ही है? अख़बार की गुंज़ाइश के लिए कुछ काट छांट भी होती है। मुझे लगता है कि व्यंग्य लेखन की किसी से तुलना भी नहीं की जा सकती। उसकी असलियत गुणवत्ता, अर्थवत्ता और दुनिया ही अलग है।
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की है।)
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