रमाशंकर सिंह की कविताएं

 

रमाशंकर सिंह


सुख और दुःख जीवन के वे पहलू हैं जो हमें कभी खुशियों से भर देते हैं तो कभी गम के सागर में डूबा देते हैं। कवियों ने इस सुख दुःख को अपने तरह से विश्लेषित करने का प्रयास किया है। बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत ही है : "सब्बम दुखम"। इसका सामान्य सा अर्थ है "संसार दुःख से भरा है"। यह मानव जीवन की सार्वभौमिक प्रकृति को प्रदर्शित करता है। बुद्ध ने दुख से मुक्ति के लिए ही अपने प्रख्यात सिद्धान्त 'अष्टांगिक मार्ग' का प्रतिपादन किया जिसे 'मध्यम मार्ग' भी कहा जाता है। भक्ति सन्त कबीर के पास सुख और दुःख के बारे में कई दोहे हैं। वे लिखते हैं 

'सुखिया सब संसार है खायै अरु सोवै, 

दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै'

यानी जो सोया है उसके पास कोई चिन्ता नहीं। जो जागृत है उसे दुनिया को देख कर रोना पड़ता है। इस दुनिया में इतने लोग हैं और लोगों की समस्याएँ हैं कि अपना दुःख उसके आगे कुछ भी नहीं लगता। रमाशंकर सिंह एक कवि हैं साथ साथ इतिहासकार भी। वे अपनी एक कविता में तिरस्कृतों के सुख की चर्चा करते हैं। सुख की चर्चा तभी होती है जब दुख हो। और बात जब तिरस्कृतों की हो तो हम पाते हैं कि उनके जीवन में इतना अभाव है कि चारों तरफ दुःख ही दुःख है। ऐसे में जिनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है उनके लिए तो बस जीवन की सामान्य जरूरतें पूरा हो जाएं यही उनका सुख है। रमाशंकर के पास वह इतिहास बोध है जो उन्हें और कवियों से थोड़ा अलग खड़ा कर देता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रमाशंकर सिंह की कविताएं।



रमाशंकर सिंह की कविताएं



भाई के मौत की रात


शाम के सूरज और जीवन में तुम्हारे

होड़ थी कि कौन तपेगा ज्यादा

कौन पहले ढल जाएगा

जीते तुम दोनों

जीवन में

मृत्यु में


खेत में फावड़े भर मिट्टी

सिर पर धान की बालियों के बोझ से

भागते तुम्हें जगह मिली भी तो

शाहदरा की किसी फैक्ट्री में


मनीऑर्डर की पुरानी रसीदें घिस गई हैं

उड़ गई है उनकी स्याही बहुत धीमे-धीमे

वैसे ही गए तुम धीरे से

बेआवाज़


सुबह जला दिए जाओगे तुम

उसी बाग में जहाँ तुम्हारी प्रिय जामुन का पेड़ है


तुम्हें कुछ न मिला

न प्यार न सुख

न रूप न चाह

न भरपूर साँस मिली तुम्हें


सब कुछ इतना छुद्र है तुम्हारी मौत में

कि कोई तारा नहीं उदास

किसी चिरई के पूत की म‌द्धिम नहीं आवाज़

सब अपने काम पर जा रहे हैं

पृथिवी घूम रही है


और यह लंबी रात

कट नहीं रही यूपी रोडवेज की बस में

मैं भी चाहता हूँ कि

बस चले, चलती रहे

घर न आए

तुम न मिलो


घर आने पर तुम से होगी मुलाकात 

अंतिम बार 

इस बार तुम मुझे कंधों पर नहीं बिठाओगे 

बल्कि तुम्हें ले जाना है श्मशान 

मेरे कंधे अभी से पिराने लगे हैं 

इतनी दूर से।





नामालूम लोगों का जुलूस


हम ऐसे ही जायेंगे

भग्न हृदय

थोड़े से उदास

थोड़ा सा मुस्कराते


ऐसे ही जायेंगे

प्यास लिए, अधपेट

मुँह अँधेरे, चुपचाप

ऐसे ही गायेंगे अपना शोकगीत


टूटे पैर से 

कोई बेढंगा सा नाच 

गले में छालों के साथ 

बस ऐसे ही गायेंगे


ऐसे ही गाते-गाते 

डेढ़ टांग का नाच नाचते 

अपनी लय खोजेंगे 

खोज लेंगे अपना गीत


हम अभागे लोग हैं 

हमारे तलवे नहीं गुलाबी 

हमारी अंगुलियाँ हैं अकड़ी 

हम मद्धिम सी ढोल बजाते जायेंगे


तुम्हारी बस्ती के बगल

पगडंडी से जाते समय

एक तिरछी निगाह डाल कर

तुम्हें उपेक्षित करते जायेंगे।






तिरस्कृत के सुख


अनगिन अपमानों में लिथड़े

खेल दिखाने वाले भालू की तरह

गोंडा से फतेहपुर सीकरी तक

तपती सड़कों पर उसकी छाया

सूरज-चाँद-सितारे करते स्वागत उसका


दुनिया के बद-नसीबों से

उसने माँगे शब्द

गीतों के एक बोल के लिए

वह गया स्त्रियों के गोल के संग-संग

माँगा उनका दुःख

अँजुरी भर

जैसे प्यासा माँगे पानी पनघट पर


अनजाने गाँवों की बुझती मुस्कानों ने

पूछा पानी

भूखे तो नहीं बंधु?

नामालूम बस्तियों के बूढों ने

उसे असीसा


वह लौटा

सोया दिन-रात

महावत की माफ़िक

हाथी जिसका छीन ले गया है कोतवाल

कोई जगह नहीं है बाकी

जाना है जहाँ उसे आज।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 7380457130

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर और मार्मिक कविताएं

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  2. दिल को छू जाने वाली पंक्तियां। अक्सर देखा है दूसरों के लिए और अच्छा विचार मर जाते हैं, क्यों क्यों!!!?

    जवाब देंहटाएं
  3. केवल 3 कविताएं नाकाफी हैं।
    - सुधीर

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  4. कविताएं प्रभाव छोड़ती हैं। अद्भुत।
    राजेश्वर वशिष्ठ

    जवाब देंहटाएं

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