यतीश कुमार द्वारा की गई समीक्षा
यह जीवन एक अनजाना सा सफर है। कब किस मुकाम पर यह यात्रा थम जाए, कहा नहीं जा सकता। फिर भी जीवन का यह संघर्ष तो निरन्तर चलता ही रहता है। यही जीवन की खूबी है। कवयित्री गीता गैरोला को कैंसर जैसी घातक बीमारी के चपेट में आ गईं। गीता जी ने जिस जीवट के साथ इस बीमारी का सामना किया वह प्रेरणास्पद है। कैंसर से जूझने के अपने अनुभवों को उन्होंने अपने संस्मरण में पिरो डाला है जिसकी परिणति है उनकी किताब 'गूंजे अनहद नाद'। यतीश कुमार ने गीता गैरोला के इस किताब की समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यतीश कुमार द्वारा की गई समीक्षा सकारात्मक बने रहने का सन्देश देती गूंजै अनहद नाद।
सकारात्मक बने रहने का सन्देश देती गूंजे अनहद नाद
यतीश कुमार
इस किताब के कुछ पन्ने पलटे ही होंगे कि समझ में आया अनुभव की नयी दुनिया में प्रवेश करने जा रहा हूँ। यह मात्र किसी कैंसर सर्वाइवर की कहानी मात्र नहीं है। कहानी में सच्चे अनुभव के साथ सकारात्मक संदेश छिपे हैं।
बड़ी बहन सरोजनी और अपने चाचा जी के साथ-साथ जिन डॉक्टर सिंह के यहाँ गीता जी का इलाज चल रहा था उनकी पत्नी, डॉक्टर संगीता को जिस बीमारी ने ग्रास बनाया, वही जब ख़ुद गीता जी को डस ले तो कैसी सिहरन, कैसा डर उनके भीतर कचोट मारा होगा उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सम्मान की राशि से एक टेस्ट का पैसा निकल जाने वाली बात, कितनी सकारात्मक है और मुसीबत में धैर्य के साथ रास्ता ढूँढने का संदेश देती है। ऐसा महसूस हुआ पढ़ते समय कि रोना हर बार ख़ुद को कमज़ोर साबित करना नहीं होता बल्कि रोना ख़ुद को और मजबूत करना भी होता है। गीता जी का इस बीमारी की ख़बर पर उस दिन एकांत में रोना कुछ ऐसा ही अनुभव था, ख़ुद को आगे के लिए मानसिक रूप से मजबूती के साथ तैयार करने वाला।
उनका यूँ सकारात्मकता रखना, भीतर की मजबूती को सबल बनाना दर्शाता है। उस कैंसर ग्रसित बच्ची की माँ को ढाँढस बँधाना वो भी जब आप स्वयं उसी बीमारी से जूझ रही हैं, कितनी बड़ी विडम्बनात्मक परिस्थिति के सामने आपकी सुदृढ़ मनःस्थिति को दर्शा रही है। उस माँ को सलाम, जिसने उस प्यारी कुसुमी का इलाज करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
संघर्ष की कई तहों से लिपटी है यह किताब। संघर्ष के साथ कई भावुक कर देने वाली घटनाओं का इतना सुंदर चित्रण है इस किताब में कि आँखें पढ़ते हुए बरबस नम हो जाती हैं और इसी के साथ इंसानियत पर आपका भरोसा बढ़ जाता है। ऑटो वाले का रोजा न खोलना और सब कुछ छोड़ कर गीता जी की रिपोर्ट बस अड्डे पर ढूँढना और उनके लिए दुआ रोजे के सवाब की तरह माँगना, ऐसी ही प्यारी-सी घटनाओं में से एक है जो किसी प्रेरणा से कम नहीं।
महिला समाख्या के माध्यम से लेखिका देश की स्थिति, योजनाओं की ज़मीनी हक़ीक़त, राजनीतिक हस्तक्षेप सब पर अपनी बात साफ़गोई से रखती हैं। इस पूरे प्रोसेस में रिश्तों में विश्वास को शीशे की तरह चकनाचूर होते देखने का विवरण भी बहुत मार्मिक है। ऐसी भावनात्मक अंदरूनी चोटों के बाद भी ख़ुद को दूसरों के लिए मददगार, सकारात्मक बनाये रखना और भी मुश्किल, पर यह कथा तो मुश्किलों के कीलों पर नंगे पैर चलने जैसी ही है। मार्मिक, भावुक, प्रेरित सब एक साथ कर देने वाली दास्तान।
मेरी पत्नी स्मिता भी पाकिस्तानी धारावाहिक ही देखती है। इस किताब में रुक-रुक कर उन धारावाहिकों का ज़िक्र है, जहाँ दर्शक को देखते हुए कितना सुकून चैन मिलता है। बतौर मरीज भी लेखिका, फ़ातिमा गुल या ज़िन्दगी चैनल का जिक्र करते नहीं थकतीं।
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गीता गैरोला |
चूँकि हम दोनों इस पूरे प्रोसेस के साक्षी रहे हैं, तो कीमो पैट, सिटी स्कैन और अन्य टेस्ट के चक्कर के साथ उस पूरे माहौल से भलीभाँति परिचित हैं। इसलिए पढ़ते समय वो सारी तस्वीरें दोबारा रील बन कर वापस दिखने लगीं। स्मिता की माँ और भाई दोनों इस बीमारी से गुज़रे। भाई के इलाज के चक्कर में हमारा पूरा साल ही जैसे मुंबई शिफ्ट हो गया। इससे कोरिलेट होना स्वाभाविक है मेरे लिए। जब समय बुरा आता है तब प्रतिघात की संभावना बढ़ जाती है। पर इस किताब में घात-प्रतिघात के साथ ही, साथ देने वालों का सामंजस्य भी लिखा गया है। आघात के साथ जाने और अनजाने लोगों का साथ भी, बहुत ख़ूबसूरती से अंकित है।
डॉक्टर वर्मा, रावत जी, सुविधा स्टोर की मालकिन, मुन्नी नौटियाल, कुसुम त्यागी पड़ोसन या फिर सुनीता, बीना और संतोषी जैसे लोग भी हैं इस दुनिया में यह जानना समझना सुखद है। हंस फाउंडेशन की पहल भी सराहनीय रही,भला ऐन मौके पर की गयी मदद कोई कैसे भूल सकता है। इस किताब में इन सब प्यारे किरदारों की समानांतर कहानियाँ चलती रहती हैं, जो विषय बदलाव का काम भी बड़ी आसानी से सहजता पूर्वक कर देती हैं।
- सोचता हूँ, कैसा लगता होगा जब आपके अपने अंग आपको ही अनजाने से लगने लगते हैं! जब आपकी बनी बनायी छवि टूटने के कगार पर होती है। गीता जी ने इस पूरे प्रोसेस को बहुत समझा कर लिखा है। मुझे लगता है डर, अप्रत्याशित आने वाले समय की उबड़ूबी चाल का आपके गले की हिचकियों को वहीं लॉक कर देता है। फिर आप उस डर से लड़ने के अपने तरीक़े ईज़ाद करते हैं उसे निगलते हुए। यह पूरी किताब लेखिका के उन तरकीबों का दस्तावेज़ीकरण भी है, जब लेखिका लिखती हैं “उस दराँती की छन-छन ग़ायब थी" जहाँ कंघी को दराँती का रूपक दिया गया है। इस व्यंजना भाव से गुज़रते हुए, आप इतने सहज कहन के बावजूद सिहर जाएँगे। लिखते समय उठाते गए प्रश्नों का सदर्भ कई बार आत्मालाप या ख़ुद से बातें करने जैसा है। ख़ासकर यौनिकता पर जब लेखिका अपनी बात कर रही हैं तो लगता है वो ख़ुद से बात कर रही हैं। बात करते हुए इन प्रश्नों के जवाब ढूँढ रही हैं।
एक बहुत ही महत्वपूर्ण सीख है इस किताब में, ख़ुद को सबसे पहले स्वीकार करने की बात। हम सब किसी न किसी हैंडीकैप के साथ इस दुनिया में आए हैं पर बार-बार उस दुखती रग को कोसते रहने के बजाय उसे स्वीकार लेना एक तरह से हल है, जीवन में सकारात्मक बने रहने का। यह हर रिश्ते के बीच की प्रगाढ़ता की गहराई बनाये रखने में मददगार साबित होता है अगर आप सामने वाले को उस हैंडीकैप के साथ स्वीकार करते हैं।
अस्पताल के अनुभव कई बार बहुत मार्मिक बन पड़े हैं। इलाज के दौरान साथी मरीजों के दर्द की व्याख्या भीतर तक हिला देने के लिए काफ़ी है। एक वाक़या है, जब पैटस्कैन कराते हुए एक मरीज को हार्ट अटैक आता है और ठीक उसके बाद गीता जी का टेस्ट होना है, आपको भीतर से हिला देगा । इस पूरी यात्रा में कैसी-कैसी मुश्किलों से गुजरना पड़ा गीता जी को। जीवन हर ऐसे बड़े झटके के बाद थोड़ा मलहम लगाता है। कैंसर नब्बे प्रतिशत क्योर हो गया है, इस खुशख़बर की सूचना इसी टेस्ट के बाद आयी थी।
दर्द को भी कैसे हँसते खेलते लेना है, यह कई मौकों पर गीता जी के स्वभाव में झलक उठता है। “मैं कैंसर से तो नहीं मरूँगी भले किसी और बीमारी से मर जाऊँ” जैसी बातें गीता जी बहुत सहजता से करती नज़र आयीं। इसी सकारात्मकता की लहर में हर बार जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल जाने वाली बात यहाँ सार्थक नज़र आती है। हर बार, जब सारे दरवाज़े बंद दिखते हैं, तो कोई हौले से एक दरवाज़ा खोलता है और बोलता है कि “मैं हूँ न”। रानु जैसे लोग यूँ यहाँ ऐसे ही मिल जाते हैं ।
इस बीमारी ने मेरी सासू माँ का दिल 35 प्रतिशत पर चलने को बाध्य कर दिया था, यहाँ वही बात गीता जी के जीवन में दोहराती दिख रही है।
जीवन, ठीक होने के बाद भी सामान्य नहीं हो जाता। सामान्य होने के अपने तरीकों का अपना अलग प्रोसेस है ऐसे समय में साहित्य एक दवा की तरह आपके पास आती है और मलहम बन जाती हैं।
आपको केंद्र में रख कर लिखी गयी कविताएँ। खासकर अशोक पांडे जी की लिखी कविता गीता गैरोला की पूरी यात्रा के सार की तरह आपसे मिलती है।यह सब कितना सुखद भी है कि कोई आपसे भावना के इस लेवल पर यूँ जुड़ जाये।
एक सुंदर संस्मरण के लिए लेखिका को बधाई ।
अंत में एक सुझाव कि इसके पन्ने कम किए जा सकते हैं, इस पर लेखिका विचार करें यह बस एक व्यक्तिगत सुझाव है।
गूंजे अनहद नाद : गीता गैरोला
संभावना प्रकाशन, हापुड़
पृष्ठ 283,
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यतीश कुमार |
सम्पर्क
मोबाइल : 8420637209
धन्यबाद तो बहुत खोखला शब्द है मै आपको स्नेह देती हूं. खास तौर पर योनिकता वाले सन्दर्भ को समझने के लिए. मैंने बर्षो गांव में नारीवादी बिचार धारा से महिलाओ के बीच खुद के लिए भी काम किया. वो मेरी खुद की बात है. आम तौर पर बहुत लोगों ने पढ़ा और इस बात पर ध्यान नहीं दिया जबकि स्त्री होने के नाते मेरे लिए वो एक पड़ाव था.. बार बार स्नेह आपको
जवाब देंहटाएंगीता गैरोला
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