पीयूष कुमार का आलेख 'साधारण के असाधारण लेखक'
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विनोद कुमार शुक्ल |
रचनाकारों के लिए प्रचलित भाषा से अलग हट कर अपनी अलग तरह की भाषा इजाद करना आसान नहीं होता। खासकर कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में यह एक चुनौती की तरह होता है। विनोद कुमार शुक्ल ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें गद्य और पद्य दोनों में उनकी अलग तरह की भाषा के तौर पर पहचाना जा सकता है। विनोद जी की यह भाषा रचना को पढ़ने में कहीं पर भी व्यवधान नहीं करती बल्कि विषय के अंतरजगत में प्रवेश कर उसकी बन्द पड़ी गिरहों को खोलने की कोशिश करती है। इस तरह उनकी भाषा असाधारण है जो साधारण यानी आम की बात कुछ खास अंदाज में करती है। विनोद जी को इस वर्ष के ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया है। उन्हें बधाई देते हुए कल हमने प्रियदर्शन का एक आलेख प्रस्तुत किया था। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है यह दूसरा आलेख। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पीयूष कुमार का आलेख 'साधारण के असाधारण लेखक'।
'साधारण के असाधारण लेखक'
पीयूष कुमार
विनोद कुमार शुक्ल का जन्म एक जनवरी को हुआ था। लगता है हिंदी में सत्तासी साल पहले शुरु हुए नए साल के पहले ही दिन को एक दृश्य में दो दृश्य देखने की, शब्दों के दार्शनिक जादूगरी की और तथ्यों को देखने की अलहदा शैली को स्थापित करने का प्रस्थान बिंदु होना था। विनोद कुमार शुक्ल दुनिया के उन लेखकों में शुमार हो गए हैं जिनका उल्लेख विश्व स्तरीय साहित्यक डायरियों में दर्ज हो चुका है। अपनी कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और बाल साहित्य में उनका लेखन जादुई यथार्थवाद के करीब माना जाता है जिसमें वे समग्र प्रकृति के साथ इतिहास, वर्तमान, परंपरा और आधुनिकता को नई अंतरदृष्टि से देखते हैं।
राजनांदगांव निवासी और प्रकृति से अंतर्मुखी विनोद कुमार शुक्ल जब पिछली सदी के पांचवे दशक में जबलपुर कृषि महाविद्यालय में पढ़ते थे तब उन्होंने कविता लिखना शुरु किया था। उनके बड़े भाई राजनांदगांव के जिस दिग्विजय महाविद्यालय में पढ़ाते थे, वहीं मुक्तिबोध भी पढ़ाते थे। उन्होंने मुक्तिबोध को इनके कविता लेखन के बारे में बताया तो उन्होंने इनकी कविताएं देखीं और इनकी आठ कविताएं ‘कृति’ पत्रिका के संपादक श्रीकांत वर्मा को भेज दी और जिसमें वे कविताएं प्रकाशित भी हुईं।
1971 में उनका पहला कविता संग्रह आया जिसका नाम था, ‘लगभग जयहिंद’। फिर दस साल बाद आये दूसरे कविता संग्रह ‘वह आदमी नया गर्म कोट पहिन कर चला गया विचार की तरह' ने हिंदी कविता के पाठकों को एक नये किस्म की चित्रात्मक भाषा और अपने बिल्कुल पास के जीवन में जिसे हम ध्यान नहीं देते हैं, उसमें ठहर कर देखने की दृष्टि दी। उनकी इन कविताओं ने रोजमर्रा के दिख कर ओझल हो जाने वाले अनुभवों से पाठकों को रूबरू करवाया। इस अनोखी कविता कला पर विनोद कुमार शुक्ल के कविता संग्रह ‘सब कुछ होना बचा रह जाएगा' में अशोक वाजपेयी लिखते हैं, ‘विनोद कुमार शुक्ल की कविता का यथार्थ अब उसकी बनी-बनाई और आज की कविता में चालू अवधारणाओं से समझा जाने वाला नहीं है। उसकी विडंबना अधिक गहरी और कठिन है। उसने अब वाक्यविन्यास भंग करने की अपनी ही युक्ति तज दी है। वह निरलंकार है पर उसकी त्वचा की कई तहें हैं। उसकी प्रगट आभा के नीचे एक और दीप्ति है। यह हमें आज विनोद कुमार शुक्ल की कविता के अलावा कौन जताता है कि जहां हम रहते हैं, वहीं तिलिस्म है।’
विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में मनुष्य और उसके परिवेश का चित्रण बारीक और यथार्थवादी है जहां प्याज की परत के बीच की झिल्ली जैसा पारदर्शी फर्क भी मौजूद रहता है। उनकी कविताओं में मनुष्य का मन संसार को उसके ओरिजनल और ब्लर, दोनों तरह से देख पाने में सक्षम हो पाता है। उनकी कविता की इस एक ही पंक्ति में यह देख सकते हैं,
‘उस आदमी ने
नया ऊनी कोट पहना
और एक विचार की तरह चला गया।’
इसी तरह उनकी कविता में अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता का अद्भुत गुण है जिसे ‘कुछ भी अतिरिक्त नहीं’ कविता की इस पंक्ति में बेहतर रूप में देख सकते हैं,
‘पेड़ में बहुत सारे पत्ते हैं
लेकिन एक भी अतिरिक्त पत्ता नहीं है।’
एक और पंक्ति उनकी देखें,
‘जो घड़ी में बज रहा है इस समय
वह सबका समय नहीं है
इस समय ...।’
कविता की इस पंक्ति में जिस समय की वह बात कह रहे हैं, वह संसार में सबके साथ है। कम शब्दों में काल और भूमि को नापता यह कवि इसीलिए विलक्षण है। गौरतलब है कि इस पंक्ति के केंद्र में मनुष्य है जिसका सब कुछ यहां दर्ज हो गया है। संसार को जोड़ने और आगे बढाने के लिए पारंपरिक कविताओ की तरह विनोद कुमार शुक्ल तटस्थ आह्नान नहीं करते। एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक पहुंचने के लिए क्या किया जा सकता है, उसका उपाय है उनकी यह पंक्तियां,
‘जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊंगा।’
इसी तरह उनकी एक बहुप्रचारित कविता है, ‘एक आदमी हताश हो कर बैठ गया था' इसकी पंक्तियां हैं -
‘एक आदमी हताश हो कर बैठ गया था
मैं उस आदमी को नहीं जानता था
लेकिन मैं हताशा को जानता था।’
इसमें हम शुक्ल की शांत और संक्षिप्त ध्वनि सुनते हैं जिसमें हारे हुए की पीड़ा सरल तरल रूप में महसूस होती है और उसका साथ देने एक व्यक्ति के रूप में कवि आता है। यह पंक्ति मनुष्य होने को सार्थक करता ही है, उसे एक ठोस विचार भी देता है।
उनके काव्य शिल्प से चमत्कृत होने के लिए उनकी एक कविता ‘वह आदमी नया गरम कोट पहन कर चला गया विचार की तरह’ की यह पंक्तियां भी देखी जानी चाहिए,
‘सुबह के छह बजे सुबह के छह बजे जैसे थे
एक आदमी पेड़ के नीचे खड़ा था
धुंध में वह ऐसे लग रहा था
कि वह अपने ही
धुंधले आकार के अंदर खडा है
धुंधला पेड़ बिल्कुल पेड़ जैसा लग रहा था।’
‘सुबह के छह बजे सुबह के छह बजे जैसे थे।’ दृश्य की इस पुनरुक्ति में ‘जैसे’ शब्द दो दृश्यों में एक पारदर्शी पर पर्याप्त अंतर को स्थापित करता है। यह अंतर शून्य से विराट की दूरी को नापता है। यह पाठक पर है कि वह इसे समझने की कितनी दूरी तय कर सकता है। यहां देख सकते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल अपनी तमाम कविताओं में किसी स्वतंत्र वाक्य को दुहराते हैं और फिर उस वाक्य की जांच करते हैं। कई बार उसकी तुलना खुद की छवि से भी करते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी कल्पना अक्सर मूल कथानक से हट कर अन्य सूक्ष्म कथानकों के विवरण दर्ज करने लगती हैं जिससे कभी-कभी कविता अनावश्यक विस्तार पाने लगता है।
विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं के बिंब विराट होने के बावजूद जटिल न हो कर सहज और स्वतःस्फूर्त हैं। उन्होंने बिंबों को कभी सोच कर नहीं लिखा है। उनके खुद के शब्दों में, ‘‘जब कविता को लिखने के लिए सोचने की बात होती है, तब कविता करना बड़ा मुश्किल होता हैं। कविता सोच की एक ऐसी स्थिति है जहां रुक कर सोचते हैं, ठहर कर। गद्य की सोच में आप ज्यादातर प्रवाह में होते हैं। कविता हमेशा चुपके से आती हैं और गद्य बतला कर कर आता है।’’
विनोद कुमार शुक्ल ने स्तरीय और सर्वथा विरल किस्म का गद्य लिखा है। उनकी अंतर्राष्ट्रीय पहचान में उनके गद्य और उनके शिल्प का बड़ा योगदान है। हिंदी में उन्होंने कविता और कहानी लिखना पहले आरंभ किया था पर पहला उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ (1979) मुक्तिबोध फेलोशिप मिलने पर लिखा था। जब उनका यह उपन्यास आया तो उनकी कविता यहां गद्य में भी चली आई जहां साधारण मनुष्य की साधारण जीवनचर्या स्वप्न और यथार्थ के मिले जुले रंगों के धुंधलके में दिखाई देती है। इसमें उन्होंने एक क्लर्क के मध्यमवर्गीय जीवन की जद्दोजहद को बारीकी और मार्मिकता से रचा है। अपने औपन्यासिक तत्वों के कारण इस उपन्यास को मध्यवर्गीय जीवन का महाकाव्य कहा गया है। उनकी इस शैली के कारण पेन नोबोकोव अंतरराष्ट्रीय सम्मान के लिए उनका चयन करते हुए जूरी ने लिखा है, ‘विनोद कुमार शुक्ल का गद्य और कविता एक सटीक और दुर्लभ ऑब्जर्वेशन है। उनकी कविताओं का स्वर गहरी मेधा से परिपूर्ण और स्वप्निल आश्चर्यों से भरा हुआ है। वह दशकों से लेखन कर रहे हैं और अब तक उन्हें वह पहचान नहीं मिली है जिसके वे हकदार हैं।’ जूरी के इस वक्तव्य में विनोद कुमार शुक्ल के लेखकीय कद को समझा जा सकता है।
इसी तरह से उनका एक उपन्यास ‘महाविद्यालय’ कई मायनों में एक विशिष्ट कथा है। इसमें दृश्य अनपेक्षित रूपकों और बिंबों में नजर आते हैं। अंधकार, दूरी, स्पष्टता और उनकी दृश्यात्मकता का धुंधलापन उनके कहन की विशेषता है। उदाहरण के लिए यह अंश देखें, ‘अंधेरे में, नीम का पेड़ असली नीम के पेड़ की तरह नहीं दिखता था। यह किसी अन्य पेड़ की तरह दिखता था जो नीम के रूप में तैयार किया गया था।’ इसी तरह ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में एक छोटा पैरा है, ‘रघुवर प्रसाद का रंग काला था। बचपन से सुबह उठने पर उन्हें ऐसा लगता था जैसे रात उनके शरीर में रह गई हो।’ रात के शरीर में रह जाने को पाठक अपने स्तर पर कितना और क्या समझ सकता है, उस पर निर्भर है। कहन का यह ढंग रचनाकार के द्वारा सब कुछ कह देने की कला का अतिक्रमण कर के पाठक को अपने ढंग से समझने का अधिकार देता है। अपनी इस विशिष्ट शैली के कारण बहुधा वे पाठक जो अपनी समझ नहीं लगा पाते, उन्हें विनोद कुमार शुक्ल कठिन लगते हैं। इसी उपन्यास में संवादों की एक विशेष शैली है जिसमें मुख्य पात्र आपस में कहते कुछ हैं और सुनते कुछ हैं पर वास्तव में वे एक दूसरे के मन को सुनते हैं। विनोद कुमार शुक्ल यह भावदृश्य शब्दों में दर्ज कर सके हैं, यह बात उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है।
‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ को विनोद कुमार शुक्ल ने किशोरों, बड़ो और बच्चो का उपन्यास माना है। इस उपन्यास में किसी भी प्रकार की महान घटना या त्रासदी जैसा कुछ भी नही है पर वह एक सक्रिय, विस्तृत और यथार्थ का संसार है। जिसे विनोद कुमार शुक्ल का जादुई यथार्थवाद कहा जाता है, उसके लक्षण इस उपन्यास में भरपूर मिलते हैं। यह उपन्यास सत्य और कल्पना का अद्भुत मिश्रण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म एक ही परिधि में भाव रूपी अणु के परमाणुओं की तरह संचालित होते रहते हैं। इस उपन्यास का एक अंश देखें, ‘एक लड़का है छह साल का। दूसरी कक्षा में पढ़ता है। मटमैले रंग की एक नई कमीज पहने है जो दो बार धुलने के बाद बहुत पुरानी लगती है। कत्थे रंग की पेंट है। वह दृश्य में इस तरह घुल-मिल जाता है कि मुरमी जमीन के मैदान पर थोड़ी दूर ही जाता है तो ओझल होने के बहुत पहले से ओझल होने लगता है। जब वह अचानक पास आ कर दिखाई देता है तो लगता है कि कैमरे के जूम लेंस से लाया गया है।' इसी तरह एक दूसरा अंश देखें, ‘बरामदे के बाद एक कमरा था। बरामदे का उजाला कमरे के दरवाजे से अन्दर उतना ही जाता था कि इतना ही बचा है। कमरे के अन्दर प्रायः अँधेरा ही रहता जिसमें थोड़ा सा उजाला कभी-कभी मिला दिया जाता हो। शाम को कमरे के अन्दर एक फीका बल्ब जलता था जो यह देखने के लिए जलाया जाता कि अँधेरा कितना है। बरामदे में ट्यूब लाइट जब तक जलती, कमरे का बल्ब नहीं जलाया जाता। कभी ट्यूबलाइट रात भर जलती जो तब चारों तरफ के घनघोर अँधेरे में कई दिनों से भटके हुए लोगों को सहारे की दिख गई उजाले की तरह होती। घनघोर जंगल के बीच यहाँ जो कुछ भी है भटक कर आई हुई जैसी है।'
इस गद्य को देख कर लगता है कि उन्हें समझने का आसान तरीका है कि उनकी भाषा को किसी कलात्मक डाक्यूमेंट्री फिल्म या सत्यजीत रे की फिल्मों की तरह पढ़ा जाए। जैसा कि फिल्मों में होता है, उनके दृश्य का पहला वाक्य दृश्य को सेट करता है फिर वे बिना किसी भावुकता के छोटे दृश्यों से बड़ा दृश्य बनाते हैं जो देखने से सीधे तौर पर तो भौतिक लगते हैं पर वह पाठक के अपने अंतस में घटते महसूस होते हैं। वे अपने लेखन में वस्तु, मनुष्य और उनके संबंधों को साधारण ढंग से भले ही बुनते हैं पर वह बुनावट पाठक को हैरान करती है। उनके दृश्य जो पाठक देखता है, उसे वे अलग ढंग की काल्पनिक हकीकत में ले जाते हैं। शायद यही वजह है कि कारण है कि उनकी छवियां पद्य और गद्य में आवाजाही करती रहती हैं। उनके लेखन में अनेकार्थता का वह गुण है जो उनकी जटिल मनःस्थिति को जाहिर करता है। उनके पास ऐसे सादृश्य की योजना होती है जो ठीक से दूसरे पर लागू नहीं होता पर विनोद कुमार शुक्ल एक दृश्य से दूसरे दृश्य के बीच आसानी से चले जाते हैं। यह संभवतः उनके अवचेतन की अभिव्यक्ति है जिसे वे अपने विलक्षण शिल्प से अभिव्यक्त कर पाते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल पर साहित्यिक समाज मेें उनकी वैचारिकी या किसी वाद की पक्षधरता को ले कर भी बातें हुई हैं। वामपंथी समूह या पारंपरिक जनवादी आलोचना उन्हें सत्ता के विरुद्ध कोई आक्रामक योद्धा नहीं मानता और यह भी मानता है कि उनका यथार्थ संवेदनापूर्ण हो कर भी सीमित है। इन विचारों पर विनोद कुमार शुक्ल ने स्पष्ट तौर पर कभी कुछ नहीं कहा है फिर भी उनका मानना है कि किसी विचारधारा का झंडा पकड़ लेने से ही विचारधारा स्पष्ट नहीं होती क्योंकि झंडा बदला भी जा सकता है। वास्तव में विचारधारा के बगैर कोई भी व्यक्ति नहीं है। वे मानते हैं कि साहित्य प्रतिरोध की आवाज और विधा है और उनकी हर कविता जनपक्षधर है। उनके अनुसार वे हर उस व्यक्ति के साथ हैं जो हाशिए पर है और जिंदगी के सबसे निचले पायदानों पर धकेल दिया गया है। उनकी बात वाजिब है जिसे उनकी कविताओं और उपन्यासों में देखा जा सकता है जिसके केंद्र में आम इंसान ही है।
हिंदी में एक लंबे अरसे तक विनोद कुमार शुक्ल की उपेक्षा हुई पर अपनी प्रकृति के कारण उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और अपना लेखन करते रहे। इधर नई आलोचना दृष्टियों के विकास और उनके अंतराष्ट्रीय स्तर के मूल्यांकन ने उन्हें आखिर वह जगह दी जहां वे आज दिखाई देते हैं। उनका लेखकीय मेयार बड़ा है क्योंकि उन्होंने संसार को, जीवन को और उसके अंतर्संबंधों को देखने की नई दृष्टि दी है। उन्होंने अपने लेखन के साथ-साथ अपनी नौकरी से सेवानिवृत्ति तक किसानों को कृषि तकनीक सिखाई है। संभवतः इसीलिए उनके लेखन में गांव और कस्बों के परिदृश्य और मनुष्य जीवन की गहन समझ दिखाई देती है। विनोद कुमार शुक्ल की वाक्यांश रचना आश्चर्यजनक रूप से अतीत और वर्तमान की दूरी को पाटती है और बताती है कि रचना में वाक्य कितना महत्वपूर्ण है। उनके लेखन में एकालाप के लक्षण भी मिलते हैं क्योंकि अंतर्मुखी प्रवृत्ति की मानसिक दशा या उलझनों की सफल अभिव्यक्ति के लिए एकालाप सर्वोत्तम माध्यम है पर यहां विनोद कुमार शुक्ल का एकालाप निज का नहीं वरन संसार मे सबका है, यह बात उन्हें बड़ा बनाती है। उन्हें हिन्दी साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिलने पर बहुत बधाई।
('निरंतर पहल' (मासिक) रायपुर के सितंबर अंक से साभार।)
सम्पर्क
पीयूष कुमार
सहायक प्राध्यापक (हिंदी),
बद्रीप्रसाद लोधी शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
आरंग
(छत्तीसगढ़)
मोबाइल : 8839072306
अच्छा लिखा है
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