चन्द्रेश्वर का तीन उपन्यासों पर आलेख

 

चन्द्रेश्वर 


चंद्रेश्वर

30 मार्च, 1960  को बिहार के बक्सर ज़िले के आशा पड़री गांव के एक सामान्य किसान परिवार में जन्म।

उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, प्रयागराज से चयनित होने के बाद 01 जुलाई 1996 से एम. एल. के. पी. जी. कॉलेज, बलरामपुर में हिन्दी विषय में शिक्षण का कार्य आरंभ किया। 26 वर्षों के शिक्षण कार्य के बाद 30 जून, 2022 को विभागाध्यक्ष एवं प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद लखनऊ में रहते हुए स्वतंत्र लेखन कार्य। हिन्दी-भोजपुरी की लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं- 'हंस', 'पाखी', 'वागर्थ', 'नया ज्ञानोदय',  'वर्तमान साहित्य','परिकथा', 'लमही', 'आलोचना','परिन्दे', 'प्रेरणाअंशु', 'नया पथ', 'संबोधन', 'नवोदित प्रवाह', मंतव्य', 'दस्तक', 'समकालीन सूत्र' , 'पाटलि प्रभा', 'उत्तरगाथा', 'विदूषक',' दूसरी परंपरा', 'कल के लिए', किरण वार्ता', 'समकालीन जनमत', 'व्यंजना', 'पतहर', 'अदहन', 'कृतिओर', 'लोक विमर्श', 'अक्षरपर्व', 'चिंतन दिशा', 'लहक', 'कथ्यरूप', 'उद्भावना', 'कथन', 'कथाक्रम', 'उत्तर शती', 'देशज', 'रेवांत', 'प्रसंग', 'जनपथ', 'समकालीन अभिव्यक्ति', 'भारत वार्ता', 'कृति बहुमत', 'संडे नवजीवन', 'नवभारत टाइम्स','हिन्दुस्तान', 'जनसत्ता', 'जनसत्ता एक्सप्रेस', 'पाटलिपुत्र टाइम्स', 'जनसंदेश टाइम्स', 'देशप्राण','जनमोर्चा','अमृत विचार', 'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'मुल्क प्रहरी' (हिन्दी); 'चटक-मटक', 'गांवघर', 'पाती', 'भोजपुरी साहित्य सरिता', 'संझवाती', 'भोजपुरी जंक्शन', 'भोजपुरी संगम', 'भोजपुरी मैना', 'आलोचना के चौपाल', 'समाचार विन्दु', 'भोजपुरिया माटी', 'पुरबी बयार' (भोजपुरी) में 1979-80 से कविताओं और आलोचनात्मक आलेखों का लगातार प्रकाशन। 


'समालोचन', 'पहली बार', 'अनुनाद', 'अपनी माटी', 'जानकी पुल', 'हिन्दी समय' व 'अंजोरिया' आदि चर्चित ब्लॉग्स पर भी कुछ हिन्दी-भोजपुरी कविताएं प्रकाशित।


'हिन्दवी' की लोकप्रिय वेबसाइट पर चयनित 62 प्रतिनिधि कविताओं का भी प्रकाशन।


अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित। तीन कविता संग्रह -'अब भी' (2010), 'सामने से मेरे' (2017), 'डुमराँव नज़र आयेगा' (2021) 


एक शोधालोचना की पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आंदोलन'(1994 ) एवं एक साक्षात्कार की पुस्तिका 'इप्टा-आंदोलन : कुछ साक्षात्कार' (1998) का प्रकाशन।


भोजपुरी कथेतर गद्य की दो पुस्तकें --'हमार गाँव' ( 2020), 'आपन आरा' (2023) एवं 'मेरा बलरामपुर' (हिन्दी में कथेतर गद्य, 2021-22) का भी प्रकाशन।


एक पाक्षिक समाचार पत्र 'भोजपत्र' (आरा) का फीचर संपादक (वर्ष 1996) 


महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका 'अरुणाभा' का संपादन (वर्ष 2001- 2015) 


सम्मान: भोजपुरी में कथेतर गद्य कृति 'हमार गांव' पर सर्वभाषा सम्मान -2024 



शिवमूर्ति का हाल ही में उपन्यास आया है 'अगम बहै दरियाव'। यह उपन्यास काफी चर्चित रहा है। कहना न होगा कि शिवमूर्ति लोकजीवन में गहरे रचे-बसे कथाकार हैं। सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए अपनी कृतियों में वे अपनी एक अलग शैली इजाद करते हैं और यह यथार्थ एक गहरी वैचारिक अंतर्दृष्टि के साथ, कल्पनाशीलता एवं  स्वप्न के साथ, एक विजन के साथ सामने लाते हैं। इसीलिए उनके उपन्यास पाठक के मन मस्तिष्क पर गहरा असर छोड़ जाते हैं। 

विवेक मिश्र का एक उपन्यास 'जन्म-जन्मांतर' सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। कम समय में ही विवेक मिश्र ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। उनके इस उपन्यास में समकालीनता का प्रबल आग्रह है। चन्द्रेश्वर के शब्दों में कहें तो 'यह उपन्यास एक अँधेरे और जटिल समय में भी जब घृणा और हिंसा, कट्टरता, असहिष्णुता और धार्मिक-मज़हबी उन्माद, जातीय और नस्ली भेद अपने चरम पर है - उम्मीद की रोशनी तलाशने का भी एक उपक्रम है।‌'

रचना में वैचारिकता किसी भी रचनाकार के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। वैचारिकता के साथ-साथ रचना को साध लेना एक कठिन काम होता है। प्रज्ञा पाण्डेय ने अपने पहले उपन्यास 'पंख से छूटा' में ही यह सफलता के साथ कर दिखाया है।  आलोचक चन्द्रेश्वर लिखते हैं - 'प्रज्ञा पाण्डेय की आधुनिकता परंपरा की नींव पर खड़ी दिखाई देती है, वह देशी परंपरा जो निरंतर परिवर्तनशील एवं प्रवहमान है।'

चन्द्रेश्वर ने इन तीनों उपन्यासों पर अलग अलग तीन गम्भीर आलेख लिखा है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं तीन उपन्यासों पर चन्द्रेश्वर पाण्डेय का आलेख।





प्रेमचंद और रेणु की परंपरा के कथाकार शिवमूर्ति


चंद्रेश्वर 


'अगम बहै दरियाव' कथाकार शिवमूर्ति का वर्ष 2023 में राजकमल प्रकाशन नयी, दिल्ली से प्रकाशित उपन्यास है। इस उपन्यास के केन्द्र में अवध का एक अंचल है। इसके माध्यम से कथाकार ने ग्रामीण जीवन की पिछले चार-पांच दशकों में बदलती गई सामाजिक वास्तविकताओं को सामने लाने की कोशिश की है। हिन्दी में प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़ते हुए आप देखते हैं कि उनमें एक तरह से पूरा सामाजिक ढांचा ही प्रवेश कर गया है। वहीं फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों में भी सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई है, मगर एक तराश के साथ। शिवमूर्ति भी हमारी हिन्दी में एक ऐसे समकालीन कथाकार हैं जिनमें दोनों ही बातें देखी जा सकती हैं। उन्होंने जितना प्रेमचंद को आत्मसात किया है, उतना ही रेणु को। उनके उपन्यास 'अगम बहै दरियाव' में भी वे जिस अवध क्षेत्र की कथा कहते हैं उसमें एक भाषाई कलात्मक तराश के साथ पूरा सामाजिक ढांचा उपस्थित दिखता है। 


इस उपन्यास में शिवमूर्ति जितनी गहराई से विचारधारा को लेकर सजग-सचेत हैं, उतने ही गहरे लोकजीवन में भी धंसे हुए हैं। यह वहीं ग्रामीण लोक है जिसकी कथा वे सुनाते हैं। वे अधिकतर प्रगतिशील-जनवादी कथाकारों की तरह यांत्रिक एवं इकहरी कथा नहीं सुनाते हैं तो इसकी मुख्य वजह यही है कि वे लोकजीवन में गहरे रचे-बसे कथाकार हैं। वे सामाजिक यथार्थ को भी जस का तस नहीं प्रस्तुत करते हैं; बल्कि एक गहरी वैचारिक अंतर्दृष्टि के साथ, कल्पनाशीलता एवं  स्वप्न के साथ, एक विजन के साथ सामने लाते हैं।


शिवमूर्ति का यह उपन्यास एक मिशन के तहत लिखा गया है, मगर यहां कुछ भी आरोपित अथवा गढ़ा हुआ नहीं जान पड़ता है। वे अपने व्यवहारिक जीवन में जितने सरल-सहज एवं मृदुल जान पड़ते हैं, उतने ही अपने लेखन में मिशनरी एवं वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं।


शिवमूर्ति अपने समूचे लेखन में और विशेष रूप से अपने इस नए वृहद् उपन्यास में कमज़ोर के पक्ष में खड़े हैं। इस उपन्यास में एक ओर कई छोटे-छोटे नायक अपनी संपूर्ण मानवीय गरिमा, स्वाभिमान और जिजीविषा के साथ उपस्थित हैं। वे अपने हक़ की लड़ाई एवं न्याय के लिए अपना पूरा वजूद दांव पर लगा देते हैं। वे सच के पक्ष में निर्भय हो कर खड़े दिखाई देते हैं। वे प्रतिरोध की चेतना से आप्लावित हैं। 


इस पूरे उपन्यास में जो एक बात प्रमुखता से रेखांकित की जानी चाहिए, वह है हमारे देश में न्यायपालिका एवं समूची तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था का, उसके सारे स्तंभों का जर्जर होना। उनमें सड़ांध पैदा होना। इसे पढ़ते हुए एक जेनुइन पाठक महसूस करेगा कि इस सड़ी-गली व्यवस्था को तो आमूल-चूल बदल दिया जाना चाहिए। इस उपन्यास में एक पात्र सतोखी है जो जाति का नाई है। उसके हिस्से की जोत ज़मीन को उस गांव का एक दबंग ठाकुर फर्जीवाड़ा कर अपने नाम करा लेता है। संतोखी 28 वर्षों तक मुकदमा लड़ कर अपनी ज़मीन वापस पाते हैं। यहां संतोखी सही होने पर भी न्याय पाने के लिए अपनी आधी उम्र गंवा बैठते हैं। उनके जीवन का अभाव, संघर्ष, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का बहुत ही सहज-सजीव चित्र प्रस्तुत करते हैं कथाकार शिवमूर्ति। उनके मुकदमें में गवाह बने भूंसी चौधरी जाति के गड़ेरिया हैं जो सच के लिए पूरे साहस के साथ खड़े रहते हैं।


शिवमूर्ति


इस उपन्यास में जंगू, बैताली, तूफानी, विद्रोही, पहलवान, खेलावन जैसे कई नायक हैं जो पाठकों को अपने प्रभाव में लेते हैं। इसी तरह दहबंगा, सोना जैसी नायिकाएं हैं। सामाजिक उत्पीड़न से, शोषण एवं दमन से लड़ने का एक रास्ता जंगू का है जो डाकू बन जाता है। वह दलित जाति से है। इस उपन्यास के अंत तक वह अपने प्रतिरोध के साथ अपनी तरह से लड़ता दिखाई देता है। दूसरी ओर बैताली है जो नाटक के जरिए नफ़रत की काली रात को समाप्त करना चाहता है, शोषित-पीड़ित-दमित जनता में चेतना पैदा कर, उन्हें संगठित कर।


इस उपन्यास में यथार्थ की कई परतें खुलती हैं। किसान जीवन की मार्मिक गाथा के साथ उनका संघर्ष एवं प्रतिरोध भी दिखाई देता है। इसमें हर जाति के किसान शामिल हैं। भगवत पांड़े हैं, तूफानी हैं तो और लोग भी हैं । दरअसल उपन्यास चार दशकों से ज़्यादा अवधि को समेटे हुए है, आपात काल (1975) से सन् 2008-9 तक। इस दौरान केन्द्र एवं उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीति को भी बखूबी चित्रित किया गया है।  कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा की राजनीति को बहुत ही वस्तुपरक ढंग से अपनी पारखी एवं यथार्थवादी नज़रिए से प्रस्तुत किया गया है। किसान भी हलयुग से ट्रैक्टर युग में प्रवेश कर जाते हैं। सन् 1990 के बाद का जो दौर है, वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण का, वह किसानों एवं आम आदमी के लिए कठिनाई ले कर ही आता है। भगवत पांड़े पहले अभाव में भी मस्त जीवन जीते हैं। वे एक नौटंकी कंपनी भी चलाते हैं। बाद में ट्रैक्टर बैंक से लोन पर लेते हैं जिसकी किश्तों को जमा नहीं कर पाते हैं और उनके एवज मे उनकी पूरी जोत ज़मीन नीलाम हो जाती है। नीलामी लेते हैं रघुनंदन तिवारी जो उनके विरोधी हैं। यह उपन्यास पढ़ते हुए मुझे बार-बार 'महाभारत' का स्मरण हो रहा था। यह पूरा उपन्यास भी विरोध-प्रतिकार, प्रतिरोध एवं प्रतिशोध के प्रसंगों से भरा  पड़ा है। सामंत एवं दबंग ज्वाला सिंह को जब जनता घेर लेती है तो छांगुर पासी सबसे पहले उनपर प्रहार करता है और उनकी हत्या हो जाती है। ज्वाला सिंह ने भी छांगुर पासी के बच्चे को हाथी से कुचलवा दिया था। बहुजन समाज पार्टी एवं सपा का गठबंधन, कांशीराम एवं मुलायम सिंह यादव का उभार, बाद में इनका अलगाव और दलित पार्टी की नेत्री का दौलत की बेटी बन जाना, ब्राह्मणवादी शक्तियों से उनका नव गठबंधन, पतन के गर्त मे जाना, उनसे पार्टी के ईमानदार ज़मीनी कार्यकर्ताओं का मोहभंग, इन सारे प्रसंगों को बहुत ही साफ़ नज़रिए से शिवमूर्ति सामने लाने की कोशिश करते हैं।


यह उपन्यास 586 पृष्ठों का है। यहां इसका सार-संक्षेप प्रस्तुत करना मेरा उद्देश्य नहीं है। दरअसल शिवमूर्ति उस विचारधारा के कथाकार हैं जिसे दूसरी परंपरा कहना सही होगा। हमारे देश में मुख्य धारा के बरक्स बुद्ध, कबीर, ज्योति बा फुले, पेरियार, अंबेडकर आदि ज्ञानियों की एक लंबी परंपरा रही है। इनसे भी वे अपनी वैचारिकी और तार्किकता को विकसित करते हैं। यही धारा हिन्दी साहित्य में आधुनिक युग में प्रेमचंद, रेणु आदि की भी रही है। वे हर जगह अपने दमित एवं जुझारू पात्रों की सोच के ज़रिए परंपरावादी, रूढ़िवादी विचारों पर पूरी तार्किकता के साथ प्रहार करते हैं। वे अगड़ी जातियों की दक़ियानूसी सोच का परिहास भी करते हैं। वे गांव के पुरोहित माठा बाबा के नामकरण से ही अपना स्टैंड साफ़ कर देते हैं। इस पूरे उपन्यास में पात्रों के नामकरण को लेकर वे बहुत सजग हैं। वे धर्म, वर्ण एवं जाति-व्यवस्था की पूरी संरचना और ताना-बाना पर प्रहार करते हैं। शिवमूर्ति की क़लम की कला यह है कि उनके यहां कुछ भी आरोपित अथवा गढ़ा हुआ नहीं जान पड़ता है। 


शिवमूर्ति को अपनी कहानियों और उपन्यासों में दृश्य विधान में महारत हासिल है। इन्हें पढ़ते हुए आपको लगेगा कि आप कोई उत्कृष्ट फ़िल्म देख रहे हों। बावजूद इसके शिवमूर्ति उपन्यास में लंबी वैचारिक बहसों को जन्म नहीं देते हैं जैसा कि हम प्रेमचंद में बहुधा पाते हैं।


बहरहाल, शिवमूर्ति ने जहां गांव को छोड़ा है, उसके दस-पंद्रह वर्षों के भीतर भी वह लगातार बदलता रहा है। मुझे उम्मीद है कि उनकी अगली कथात्मक कृति में वह भी दिखाई देगा। 


'अगम बहै दरियाव' (हिन्दी उपन्यास)

लेखक - शिवमूर्ति 

राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नयी दिल्ली 

प्रकाशन वर्ष - 2023

मूल्य - 599 ₹

पेपर बैक संस्करण, पृष्ठ संख्या -  रू. 586






मनुष्य एवं मनुष्यता को केंद्र में रखता है : 'जन्म -जन्मांतर'


उत्तरप्रदेश, बुन्देलखंड के ऐतिहासिक नगर झाँसी में 15 अगस्त 1970 को पैदा हुए विवेक मिश्र का नाम हिन्दी के समकालीन कथा साहित्य में जाना-पहचाना है। अब तक उनके तीन कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। वे कई पुरस्कारों से भी नवाज़े जा चुके हैं और वर्तमान में आजीविका के लिए देश की राजधानी दिल्ली में रहते हैं। समीक्ष्य पुस्तक 'जन्म-जन्मांतर' सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली से इसी वर्ष प्रकाशित उनका दूसरा उपन्यास है।


यह उपन्यास अपनी मूल कथ्य-संवेदना में युद्ध, हिंसा, घृणा, किसी तरह की कट्टरता, अंध राष्ट्रवाद एवं सांप्रदायिकता विरोधी है। यह पूरा उपन्यास मुख्यतया तीन किरदारों - डॉ. व्योम, सीतेश और रूबी की बातचीत व उनके विमर्शों से रचा गया है। अगर इसे यूँ कहें कि यह डॉ. व्योम और सीतेश के बीच के वार्तालाप से ही ज़्यादा संभव होता है तो उचित होगा। इन तीनों में रूबी नॉर्थ-ईस्ट से आती है जिसके पिता एक डिटेन्सन कैम्प से ही ग़ायब हो जाते हैं। उसकी माँ उन्हें कानूनन नागरिक प्रमाणित कर घर नहीं ला पाती है और मर-खप जाती है। डॉ. व्योम भी अपनी पत्नी सीमा से अलग हो जाते हैं। सीतेश भी अपने माँ-बाप के पारिवारिक तनाव से परेशान रहा है।‌ यानी यह उपन्यास आज के अँधेरे दौर में पारंपरिक पारिवारिक एवं दांपत्य जीवन के मूल्यों को टूटते हुए दिखाता है। जो हो, इस उपन्यास के शिल्प -विधान में पूर्व जन्मों एवं उनकी स्मृतियों का ख़ूबसूरती से प्रयोग किया गया है। पूर्व जन्मों की स्मृतियों के ज़रिए ही डॉ. व्योम और सीतेश दूसरे विश्वयुद्ध (1939-1945) के दौरान घटित हुई महात्रासदी को सामने लाते हैं, उसे सजीव करते हैं। नात्सीवाद और हिटलरशाही से जो विश्व मानवता के इतिहास में महात्रासदी घटित होती है -- को इसके कथ्य में  कलात्मक तरीके से अनुस्यूत किया गया है। उनके ये मुख्य किरदार अपने अतीत और वर्तमान में निरंतर आवाजाही करते  रहते हैं।‌ वे हिटलर के समय की मानव त्रासदियों से वर्तमान समय के त्रासद सामाजिक संदर्भों को जोड़ते हैं। इस उपन्यास में जिन-जिन स्थलों पर एक मुख्य किरदार सीतेश अपने पिछले जीवन की दबी स्मृतियों के तहखाने में प्रवेश करता है और अपनी हिंसा, घृणा और मानव विरोधी दुष्कृत्यों के लिए प्रायश्चित करता है, वे स्थल बहुत असरदार एवं मार्मिक बन पड़े हैं। हालांकि इस उपन्यास में पुनर्जन्म एवं उसकी स्मृतियों को एक औपन्यासिक कौशल या तक़नीक की तरह प्रयोग में लाया गया है। उपन्यासकार विवेक मिश्र इस उपन्यास में अपने मुख्य किरदारों के ज़रिए पुनर्जन्म एवं उसकी स्मृतियों को लेकर जो ज़िरह-बहस करते हैं, उससे पुनर्जन्म की धारणा को एक हद तक पुष्ट करते भी नज़र आते हैं। यह कला उनके उपन्यास के यथार्थवादी शिल्प-संरचना को कुछ अस्वाभाविक भी बना सकती है। बहरहाल, हमारे समाज में पुनर्जन्म और उसकी स्मृतियों को सम्मोहन से जगाने की कला की चर्चाएँ बहुत होती हैं। इस दिशा में पश्चिमी देशों में भी शोध होते रहते हैं।‌ इस उपन्यास में भी एक जर्मन प्रोफेसर एक्लिदो हैं जो इस भारतीय थियरी पर नए ढंग से काम करते हैं।


 


               


वैसे इस उपन्यास को पढ़ते हुए इसके मूल मंतव्य को समझने की कोशिश की जानी चाहिए। दरअसल यह उपन्यास हिटलरकालीन जर्मनी की विषम परिस्थितियों को आज के भारतीय समय और समाज की ज्वलंत सच्चाइयों व वास्तविकताओं से जोड़ता है। इस उपन्यास के कथ्य का मूल सौन्दर्य यही है। यह इतिहास से सबक लेने की सोद्देश्यता से भी जुड़ा है।


इस उपन्यास की भाषा बहुत ही संवादधर्मी है। इसमें एक तरह की सरलता व सादगी भी है। इस उपन्यास में कथ्य को प्रस्तुत करने की शैली में क़िस्सागोई व साफ़गोई भी है। इसे पढ़ते हुए हमारी गति बाधित नहीं होती है।


यह उपन्यास एक अँधेरे और जटिल समय में भी जब घृणा और हिंसा, कट्टरता, असहिष्णुता और धार्मिक-मज़हबी उन्माद, जातीय और नस्ली भेद अपने चरम पर है - उम्मीद की रोशनी तलाशने का भी एक उपक्रम है।‌ इसी अर्थ में यह उपन्यास महत्वपूर्ण है और सार्थक भी।


इस उपन्यास के अंत में जहाँ कथा का समाहार होता है, रूबी का यह कथन गौरतलब है --"इतने साल में कुछ नहीं बदला। हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। कहीं कुछ नहीं बदला। नफ़रत थी और आज भी है। नफ़रत करने की पुरानी वज़हें मिट गईं तो इंसान ने नयी वज़हें ढूँढ़ लीं। एक-दूसरे को मारने के लिए नए हथियार बना लिए। लड़ने के लिए नयी पहचानें गढ़ लीं। नयी सूचियाँ बना लीं। कुदरत की बनायी इस दुनिया से लोगों को दाख़िल ख़ारिज करने लगे। इस धरती के मालिक बन तय करने लगे, कौन रहेगा, कौन जाएगा। कौन जिएगा, कौन मरेगा। हमें पता ही नहीं चला ऐसा करते-करते कब हम मुहब्बत से, ज़िंदगी से, इन्सानियत से बाहर हो गए, बेदख़ल हो गए। जीते-जी एक मरी हुई प्रजाति में बदल गए। पर अब भी मैं ना उम्मीद नहीं हूँ।" यह उपन्यास अस्मितावादी विमर्शों से अलग मनुष्य और उसकी मनुष्यता को केन्द्र में रखता है।‌ इस अर्थ में उपन्यासकार आज के दौर में अपने को भीड़ से अलगाता भी है।  


'जन्म-जन्मांतर' (हिन्दी उपन्यास)

लेखक - विवेक मिश्र 

सामयिक प्रकाशन,नयी दिल्ली

पेपर बैक संस्करण, पृष्ठ संख्या - 144

मूल्य- 250 ₹


               




स्त्री की गरिमा, सृजनशीलता एवं स्वाधीनता का एक मोहक आख्यान है उपन्यास 'पंख से छूटा'  


'पंख से छूटा' सुपरिचित कथाकार प्रज्ञा पाण्डेय का शिवना प्रकाशन, सीहोर, मध्यप्रदेश से वर्ष 2024 में प्रकाशित पहला उपन्यास है। यह कुल जमा 166 पृष्ठों का है। पूरा उपन्यास जैसे एक सांस में लिखा गया हो, किसी प्रदीर्घ कविता की तरह। जैसे कोई धावक हो जो बिना हांफे दौड़ता रहता है, निर्धारित लक्ष्य के आने तक। इस उपन्यास में अनुच्छेद या अध्याय नहीं हैं, न ही छोटे-छोटे अथवा लंबे-लंबे उप-शीर्षक हैं। इसे कहीं से आप पढ़ना आरम्भ नहीं कर सकते हैं। इसे पूरा पढ़ना होगा, आद्योपांत। यह उपन्यास एक गहरी अंतर्दृष्टि एवं विज़न के साथ रचा-बुना गया प्रतीत होता है। इसमें स्त्रियों के महान स्वप्न एवं जीवन के संघर्ष शामिल हैं; अपने हिस्से के आसमान में उड़ने की, मुक्ति की छटपटाहट, पुरुष से बराबरी की चाहत भी शामिल है। यह उपन्यास कुछ इस तरह के गझ्झिन ताने-बाने में बुना गया है जिसमें जीवन एवं समाज की वास्तविकताएं उपन्यासकार की कल्पनाशीलता से जुड़ कर नया वितान रचती हैं। यह उपन्यास जितना यथार्थ में घटित होता है, उतना ही आदर्श में। इस उपन्यास में आई स्त्रियों के जीवन में उदासी है, वंचना है, उत्पीड़न है, वे छल-फरेब का शिकार हैं; फिर भी वे गरिमा, स्वाभिमान, करुणा, क्षमा जैसे उदात्त मानवीय मूल्यों से दूर नहीं हो पाती हैं।


वे  राग से रंजित हैं तो अपने मानाधिकार को ले कर बेहद आत्म-सजग भी हैं। वे पुरुष से कहीं ज्यादा सृजनशील और सुसभ्य और सुसंस्कृत हैं। प्रज्ञा पाण्डेय का यह उपन्यास स्त्री जाति के पक्ष में ही लिखा गया है, जिसमें स्त्री विमर्श के चालू नुस्खे नहीं दिखाई देते हैं। वे स्त्रीवादी हैं, लेकिन पुरुष के साथ सह अस्तित्व की परिकल्पना से परिचालित हैं। यहां पर  स्त्री-पुरुष का रोमांस है, जीवन के गहरे शोख़ रंग हैं, बाद में रिश्ते में टूट से पसरी उदासी है, सन्नाटा है; फिर भी स्त्री जीवन की सृजनशीलता अपनी निरंतरता में दिखाई देती है। वह खंडित नहीं होने पाती है। उनके स्वप्न भी खंडित नहीं होते हैं, न ही उनकी गरिमा में कोई कमी आती है। यहां स्त्रियों की तीन पीढियां दिखाई देती हैं। वल्लरी है, उसके माता-पिता का उल्लेख है, वल्लरी की दोस्त नलिनी है, सेविका मार्गरेट है तो नयी पीढ़ी में सुमेधा-शाश्वत, अत्रि एवं अन्ना भी हैं। इस उपन्यास में मुख्य किरदार वल्लरी है। वह दो पुरुषों अविनाश एवं आकाश के प्रेम में छली जाती है। अविनाश की पत्नी मीता है। अविनाश के प्रेम में पड़ कर ही वल्लरी उसकी अनिच्छा एवं विरोध के बावजूद अन्ना को जन्म देती है। अन्ना को मां ही पाल-पोस कर, पढ़ा-लिखा कर बड़ा बनाती है। वह मनोचिकित्सक बनकर उसी शहर में पहुंच जाती है, चंडीगढ़ में। हालांकि वे दोनों दुबारा कभी मिल नहीं पाते हैं। इस उपन्यास का पूरा कथानक मुख्यतः चंडीगढ़ और शिमला के बीच ही विस्तार पाता है। पृष्ठभूमि में बनारस और मिर्ज़ापुर भी हैं। बहरहाल, इस उपन्यास को पढ़ते हुए बराबर यह महसूस होता रहता है कि इसके कथा विन्यास में विनयस्त सारी स्त्रियां ज़्यादा रचनात्मक, ज़्यादा स्वप्नशील, ज़्यादा कर्मशील हैं। वे हार-हार कर भी पुरुष से आगे दिखाई देती हैं। उनकी चुप्पी में मुखरता और सृजनशीलता में प्रतिरोध समाहित है। यहां चीखें, शोर-शराबा और हंगामा नहीं है। वल्लरी, नलिनी, मार्गरेट शिमला में जिस घर में रहती हैं, एक कम्यून की तरह नज़र आता है। उसमें पुरुष हस्तक्षेप नहीं है। वह प्रज्ञा पाण्डेय की भाषा में व्यंजकता और काव्यात्मकता है। वह लयात्मक है। उसमें एक प्रवाह है , गत्यात्मकता है। वह नैसर्गिक है, बावजूद गढ़े होने के। भाषा की इन ख़ूबियों की तरह ही उनके सभी स्त्री किरदार हैं।  'पंख से छूटा' जो शीर्षक है, वह उपन्यास के आख़िरी वाक्य में पढ़ने को मिलता है। वल्लरी से जुड़ा है यह वाक्य - "उसने बंद आंखों के भीतर से देखा, उँगलियों पर तितली के पंख सै छूटा हुआ रंग लगा था।"


प्रज्ञा पाण्डेय 



इस उपन्यास में कहीं भी पुरुष बनाम स्त्री का संघर्ष अथवा द्वन्द्व सतही ढंग से मुखर नहीं है। स्त्री कम्यून एक यथार्थ भी हो सकता है और यूटोपिया भी। इसमें जो उपन्यासकार का विज़न है, वह अपनी प्रगतिशीलता और आधुनिकता के बाद भी अपनी परंपरा की वैचारिकी एवं उसकी गहराइयों से संपृक्त व सिंचित है। इसमें अंततः स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के भीतर लिव इन रिलेशनशिप को स्वीकृति नहीं मिलती है और विवाह को स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में स्थायित्व के लिए तर्कसंगत माना गया है। हालांकि यह विचार अत्रि एवं अन्ना, सुमेधा एवं शाश्वत के संवाद में सहजता के साथ प्रस्तुत किया गया है। एक स्थान पर अत्रि अन्ना से कहता है -"शादी ज़रूरी है ताकि तुम कभी भी मुझ पर अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर सको।"


प्रज्ञा पाण्डेय की आधुनिकता परंपरा की नींव पर खड़ी दिखाई देती है, वह देशी परंपरा जो निरंतर परिवर्तनशील एवं प्रवहमान है। सच पूछिए तो यही उनका स्त्री विमर्श को ले कर देशज नजरिया है और उनकी ठेठ भारतीयता भी। इस उपन्यास में उनकी अन्वेषित स्त्रियां भटकाव एवं धोखा के बाद भी अपने वजूद को बिखरने से बचा लेती हैं। शायद यही उनके भीतर की मातृशक्ति है। उनकी स्त्रियां आधुनिक संस्कृति में ढली हो कर भी आदिम स्त्रीत्व को नकार नहीं पाती हैं। उनके भीतर हिंसा का प्रतिकार अहिंसा से होता है। ध्वंस का प्रतिकार सृजन से होता है। वे छल का ज़वाब छल से नहीं देती हैं, बल्कि क्षमाभाव को ले कर जीवन के सफ़र पर आगे बढ़ जाती हैं। वे और सजग, और चेतस दिखाई देने लगती हैं। यह भाव ही उन्हें पुरुष से उदात्त बनाता है और मानवीय भी। यही उन्हें आदर्श की ज़मीन पर ला खड़ा करता है।


इस उपन्यास से कुछ उद्धरण द्रष्टव्य हैं -

1. "अन्ना ने यह तो जान लिया था कि मीता ठहरा हुआ पानी नहीं है। एक बहती हुई नदी पहाड़ों को पार करती अपने उद्गम से बहुत दूर निकल आई है। नदियां रास्ते बनाती हैं, पहाड़ रास्ते नहीं बना पाते। वह कहती थी।"

2.'मैं तुमसे पूछती हूं, 'शाश्वत क्या तुम मुझे मेरा आसमान दोगे!' 

शाश्वत अपने घुटनों पर बैठ कर सुमेधा का हाथ अपने हाथों में लेकर बोला,'आस्मां तुम्हारा होगा!'


3."अहंकार और छल के खेल में मैं जाने कितनी बार पराजित हुई और बहुत उदास भी हुई, लेकिन अब मैंने खुद को पूरी तरह से खोज लिया है। मेरे भीतर जो बंजर तुमने उगाया था, उनको मेरे ही भीतर की नदियों ने लबालब भर दिया।"


4."तुमने अपने जीवन को निश्छलता में जिया है वल्लरी। तुम सच्ची हो। उसी ईमानदारी से तुमने अपने हक़ की लड़ाई लड़ी है। तुम वह स्त्री हो जो इस धरती पर पहले पहल आई थी, बिलकुल पेड़ों जैसी।"


5. "स्त्री बहुत समर्थ होती है। वह गलतियां करती कहां है! इस दुनिया में जितने भी बच्चे हैं, उनका पालन-पोषण और उनको अच्छे संस्कार देने का काम सिर्फ़ औरतें करती हैं, वल्लरी।" वल्लरी के पिता का संवाद जो उपन्यास के पूर्वार्द्ध में आया है।


प्रज्ञा पाण्डेय का पहला उपन्यास ही पाठकों को आकर्षित करने वाला है और इसमें भाषा-शिल्प की प्रौढ़ता भी है। यह उपन्यास वन्या, अनन्या और दुनिया की सभी बेटियों को समर्पित है।

                  

'पंख से छूटा' (हिन्दी उपन्यास)

लेखक - प्रज्ञा पाण्डेय 

शिवना प्रकाशन, सीहोर, मध्यप्रदेश 

प्रकाशन वर्ष - 2024

पेपर बैक संस्करण, पृष्ठ संख्या -166

मूल्य - रू. 300


        

      

                

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