पंखुरी सिन्हा की कहानी 'बिरहन ओदी लाकड़ी'

 

पंखुरी सिन्हा 



कोरोना काल की तल्ख स्मृतियां आज भी दिलो दिमाग में बसी हुई हैं। इस कोराेना महामारी ने न जाने कितने प्रियजनों को हमसे छीन लिया। पंखुरी सिन्हा की इस कहानी के मूल में कोरोना और उससे जुड़ी हुई तल्ख स्मृतियां हैं। कोरोना ने जैसे जिन्दगी को ही कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया। चारों तरफ मौत का ताण्डव। श्मशान में लाशों का अंबार लेकिन सुगना डोम को एक भी लाश नहीं मिलती जिसका क्रिया कर्म वह करा सके। ऐसी बीमारी जिसके होने पर अपने तलक बेगाने हो जाते। ऐसे में एक महिला की लाश पर स्वर्णाभूषण देख कर वह खुद को रोक नहीं पाया। इसके बाद उसके दिलो दिमाग पर तारी मौत के भय ने सुगना जैसे डोम को आतंकित कर दिया। कवि पंखुरी सिन्हा की यह कहानी इस मायने में भी उम्दा है कि इसमें सुगना की जद्दोजहद जैसे एक आम आदमी की जद्दोजहद में तब्दील हो जाती है। कहानी में अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। हम कहानी के प्रवाह में जैसे एकमेक हो जाते हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पंखुरी सिन्हा की कहानी 'बिरहन ओदी लाकड़ी'।



'बिरहन ओदी लाकड़ी'


पंखुरी सिन्हा 


सड़कें लाशों से पटी हैं, लेकिन किसी को जलाने से मनाही है। पहले बड़े शहरों में ये हुआ, अब उसके अपने गाँव में हो रहा है। सुगना डोम को यकीन नहीं आ रहा है। इतनी मौतें और डोम बेकार! ऐसे कलजुग के बारे में, उसके बाप दादों ने न चेताया था। पहले के मरे हुओं की बदौलत, घर में चूल्हा जल रहा, लेकिन और कितने दिन? सारा शहर ट्रक, बस में बैठा, या मोटर साइकिल चलाता, या साइकिल के पैडल मारता, या पैदल ही गाँव चला आ रहा है। खेसारी का सत्तू गेहूँ के आटे से महंगा मिल रहा है। जिसके रास्ते में जो गाँव पहले पड़ रहा है, वहां कोई नाता रिश्ता ढूंढ कर लोग दुबके हैं। घरों की भीड़ को ले कर भी सरकार चेतावनी भेज रही है। गाँवों के स्कूलों में राहत शिविर खुला है, वहां भी सब कुछ मुसाफिरों के लिए।


सुगना डोम के लिए कहीं कुछ नहीं। बांस की टोकरी ले कर कहाँ बैठे? घर में टोकरियों का अम्बार लगा है। अर्थी धरने की जगह नहीं। जब बीमारी फैलने की खबर आयी, तभी से सुगना पूरे मन से बांस की अर्थी बनाने में जुटा हुआ है। लेकिन एक का भी उपयोग न भया! 


सरकार की गाड़ी आती है, हॉस्पिटल मलेटरी की, पन्नी के फूले फूले लिबास में लोग उतरते हैं, पन्नी में ही पैक लाशें उतरती हैं।एक साथ खड़्डे में फेंके जाने से पहले, चैन खोली जाती है और एक झटके से मृतकों को एक के ऊपर, एक, कुछ लकड़ियां, कुछ किरासन तेल डाल कर फूंक दिया जाता है. सुगना डोम दूर खड़ा देखता है सब! 


सब पता है सुगना डोम को। खत्म हो गई हैं लकड़ियां और खत्म हो गया है किरासन तेल।


दूर खड़ा ध्यान से देख रहा है सुगना! तीन चार लाशें छूट गई हैं! बच गई हैं! पड़ी हैं खड्डे में एक!


एक लाश से हट गई है थोड़ी सी पन्नी! बल्कि खिसक गई है, बल्कि सरक गई है शायद, लाने ले जाने में! थोड़ी सी धूप पड़ रही है, कुछ चमक रहा है लाश के बदन पर! 


दो चार कदम आगे बढ़ता है सुगना, क्या चमक रहा है, मारे कौतूहल बुरा हाल है! किंतु लाशें खतरनाक हैं! विषाक्त हैं! जहरीली हैं! बार-बार बताया गया है इनमें कीटाणु हैं! विषाणु हैं! मार सकती हैं! 

 

सुगना डोम को भी! लेकिन डोम का मन माने तब तो! अरे, इसी कारण तो उसकी बनाई इतनी अर्थियाँ पड़ी हुई हैं और यूं जलाया जा रहा है लोगों को! कंधे पर पड़ा गमछा बड़ी चतुराई से नाक मुंह पर लपेट कर सुगना सोचता है, जरा पास जा कर देखें क्या मामला है! आखिर, इंसान की ही लाश है, वह भी औरत की! क्या कर लेगी ऐसा? जब से पैदा हुआ, यही तो कर रहा है वह! 


दो कदम चार कदम आगे बढ़ता है, फिर थोड़ा और आगे, और रुक जाता है पांच छः कदम के फासले पर! एक नहीं अनेक चीजें चमक रही हैं! अब उसके और उस लाश के बीच मुश्किल से कदम भर का फासला है। एक डेग बढ़ाए तो हाथ में आ जायेंगीं, चमकीली चीज़ें! 

 

वही बेताब है या चीज है इस तरह से चमकती हुई कि खुद पर काबू मुश्किल! अगर उसका शक सही निकला, तो पीढ़ियां तर जायेंगीं! 


पीतल नहीं चमकता इस तरह! सही है, अंदेशा नहीं, अंदाज़ उसका! खालिस सोना है। देखा है, उसने पीतल! पीतल की बड़ी सी पतीली में बनता है, प्रसाद लड्डू गोपाल का! ताम्बे के लोटे में बनता है चरणामृत! फिर पुजारी बंद कर देता है पट मंदिर का! चांदी के खुद लड्डू गोपाल हैं, कोई चुरा ले गया तो! इस डर से रहते हैं ताले में बंद, चाभी पुजारी के पास! लेकिन पुजारी के पास नहीं है सुगना के भाग्य की चाभी! 


सुगना नहीं बाँटता, अपने भाग्य का ताला! रखता है अपनी मुट्ठी में बंद! नहीं तो पुण्य का प्रपंच कर, खटवा ले डोम से भी पुजारी! कितनी दूर तक है, मंदिर की ज़मीन! मजाल कि कोई सुगना से लगवा ले, मुफ्त में झाड़ू!


सुगना की अम्मा के कान में था कुछ, जिसमें लगी थी पीतल की तल्ली! पीतल के कहाँ होते हैं गहने? गहने तो होते हैं, वो क्या कहते हैं? अरे! पिछले ही मेले में कितनी ज़िद की थी बेटी ने उसकी, उन झुमकों के लिए! नकली झुमकों के लिए! हाँ! रोल्ड गोल्ड! रोल्ड गोल्ड कहते हैं उसे! रोल्ड गोल्ड के झुमकों के लिए, कुहराम मचा दिया था उस ज़रा सी लड़की ने! बित्ते भर की छोकरी उसकी! अब हो गयी है शादी के लायक! असली सोना देगा उसे सुगना!


उस स्त्री की लाश बाकी के ढेर से थोड़ी अलग रखी है। सुगना का काम आसान होता है। वह दौड़ा-दौड़ा घर जाता है और सामानों के अपने ढेर से, पन्नी निकालता है। हाथों में  दबाए दौड़ता है वापस लाश की ओर। कहीं किसी और ने देख लिया तो? जब तक वह पहुंचता है स्त्री के पास उसकी सांसें फूल गई हैं, इतना तेज दौड़ा है सुगना!

 

बड़ी कुशलता से अपने दोनों हाथों में, बांधता है पन्नी और धीरे धीरे चलता हुआ पहुंचता है उस मृत शरीर के पास! यह स्त्री लगता है किसी हड़बड़ी में गई है या कितनी अफरा-तफरी होगी कि किसी को मौका ही नहीं मिला इसके गहने उतारने का! एक बड़ा सा कर्णफूल है कान में और वह छुप कर, झुक कर देखता है, कान में एक से अधिक बुन्दे हैं, हाथ में कंगन है गले में एक चेन है! सब खालिस सोना है! सोने के अलावा और कुछ नहीं चमकता इस तरह! सुगना ने क्या सोना नहीं देखा? अभी ठाकुर की बेटी की शादी हुई, अलग पांत में बिठा कर खिलाया सुगना को, गाँव भर के डोम, चमारों के साथ, तो क्या? वो व्यंजन दिखाए और वो सोना देखा कि दिनों तक नींद ना आए।


ठाकुर का बाप, कहें कि पहले जमाने का बैंक! बस सूद दूना, हर क़र्ज़ पर! 


गांव घर का लगान जमा करता था। जाने किसकी बनाई सरकार था वह? अफसर था या सदियों पुराना ज़मींदार, जो गद्दी से हटा ही नहीं, ज़मींदारी खत्म होने के बाद! 


कितनों को अपने खेत में बेगारी खटाया! सालों का मज़दूरों का पसीना, बंद उसकी तिजोरी में, सोने चांदी की शक्ल में! आज भी ऐसे ना वैसे, ठाकुर कम दाम में सबसे मजबूरी कराता है! लेकिन क्या सोना देखा सब परिवार वालों की देह पर! चकाचौंध से जगमग, सब की आँखें! ठाकुर को लाज शर्म नहीं! कपडे की तरह, सोना पहनता है, औरों की कमाई का! उसके आगे झुकी रहतीं नज़रें सबकी! झुकी रहती है सुगने की बिरादरी! बस, सुगना नहीं झुकता, आगे किसी के! 


दूर से देखा, अब पास से, धनुष की कमानी सा, मोडे, झुकाये अपनी पीठ, गड़ाए आँखें, देख रहा है सुगना, ढूंढ रहा है, गिन रहा है, मरी हुई औरत की देह पर सोना! कितना सोना है! उसे एक भी मिल जाए तो उसका जीवन सँवर जाए! बदल जाए आमूल! पार उतर जाए उसकी नैया! किनारे लग जाए उसकी बेटी की जिंदगी! 


सुगना डोम देखता है उसकी बेटी की शादी है! अपने गाँव क्या, अगले पांच गाँव तक, बिरादरी में सबसे अच्छी शादी की है सुगना ने! सबको पंगत में बिठा कर खिलाया है! बारात सुंदर गाजे-बाजे के साथ आई है! लड़के की अपनी दुकान है, बाप का अपना कारोबार है! टोकरियां बना कर बेचता है! लड़के के हाथ की टोकरी दिल्ली के शो में सजती है! खुद रंगता है, लड़का अपने हाथ से टोकरी! सुगना का सपना रहा, रंग के बेचेगा टोकरी! रंगेगी उसकी बेटी! उसके सपनों के रंग की टोकरी! क्या रंग मिलते हैं, हाइवे पार, शहर के बाज़ार में! लाल ऐसा कि न सेमल, न पलाश, न गुलमोहर, न होंठ तोते के! एक लाल हो तो बता दे सुगना! इतने सारे लाल गुलाबी! हरा जैसे नया आया पत्ता, या रोज़ बढ़ता पत्ता! लाल हरे से, रंगी रहेंगी, सुगने की बेटी की उंगलियां! 


 बगल का गांव है, जहां से अक्सर आ जा सकेगी सुगना की बेटी! जब मन होगा, सनेस ले कर पहुँच जाएगा सुगना!

सुगना की बेटी ने सोना पहना है! आह! क्या चमक रहा है सोना! ऐसे तो नहीं चमकती धूप भी! 


क्या लाश से उतारा सोना पहनाएगा बेटी को? नहीं दूसरा बनवा आएगा! एक बार सुनार की दुकान में जाएगा और कहेगा बिना रत्ती भर काटे इसके बदले दूसरा नया दे दो, या गलवायेगा, नया गढवायेगा! खयालों में सुगना दूर-दूर निकल जाता है! 


फिर एक झटके से वापस आता है! अभी तो सोना उतारना है! डर किस बात का? उसने नाक मुंह पर गमछा बांध रखा है, हाथों में पन्नी बंधी है! फिर भी कुछ है जो खटक रहा है! उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा है! आज तक कभी किसी लाश के साथ ऐसा अपराध करने का उसे मौका ना मिला! पर देख कौन रहा है? लॉक डाउन है! सब बंद है! कौन आता है मसान में? जहां मुर्दों को जलाया जाना है, वह भी ऐसे मुर्दों को, जिनसे खतरा है! कोई भूले भी नहीं आता इधर! 


कोई देखेगा ही नहीं तो जानेगा कैसे? लेकिन ईश्वर तो सब देखता है ना! सुगना बाम्हन-ब्राह्मण के ईश्वर को नहीं मानता! लेकिन ईश्वर तो बाम्हन का ही नहीं होता, ईश्वर तो सुगना का भी है! सुगना भी पूजा करता है! फिर? फिर क्या? यह सोना आग में जाएगा, जलेगा बेकार होगा! इस मृत आत्मा को पुण्य होगा जो सुगना ने उतार लिया! इतना डर इसी बात का! अब तक तो उसे पार हो जाना चाहिए था इन सारे गहनों के साथ! पर वह कुछ कदम दूर खड़ा खड़ा बस सोच रहा है आखिर ऐसा क्या हो सकता है इस लाश के करीब जाने से? कैसे कीटाणु हैं? कैसे विषाणु हैं, जो इंसान को इंसान के लिए, इतना खतरनाक बना सकते हैं? आखिर सरकार क्यों इतना बोल रही है? ना रे सुगना, जाने दे! जान रहेगी तो बहुत सोना कमा लेगा! फिर दूसरा मन कहता है ऐसा सुनहरा चमकदार मौका क्यों जाने दे? ऐसा भी क्या डर? और इस बार सुगना धीरे-धीरे कदम बढ़ाता पहुंच जाता है स्त्री के पास! 





लाश लगता है, कुछ पुरानी हो गई है! कुछ पहले हो गया है उसका इंतकाल! लाने में भी देरी हुई है जलाने में तो हो ही रही है! सरकार कहती है ऐसे में ही यह बीमारी फैलती है! क्यों इतनी देर से खड़ा है सुगना? जल्दी निकाल देह में गुंथा सोना और भाग! एक हल्की सी बदबू है, जैसे-जैसे वह पास आता है बहुत तेज होती जाती है! सुगना जल्दी से झुकता है, बढाता है हाथ, फाड़ता है फटी हुई पन्नी को कुछ और, और धीरे-धीरे पहुँचता है उसके आभूषणों तक! कानों के बुंदे एक एक कर निकालता है, लेकिन देह अकड़ चुकी है! बुंदे निकालना आसान काम नहीं! काफी मशक्कत होती है! स्त्री का चेहरा बद शक्ल हो गया है, एक नीला रंग तारी है उसके मांस पर! 


काफी मशक्कत के बाद कानों के आभूषण निकलते हैं सारे के सारे! फिर निकलता है हाथ का कंगन! वह भी निकालना आसान नहीं! कानों के गहने तो फिर भी तल्ली खोल कर, खींच लिए जाते हैं, अलबत्ता कड़ी हो चुकी चमड़ी से लगी तल्ली घुमाना आसान नहीं, लेकिन हाथ का कंगन अगर ढीला न हो तो उसे भी निकालने में खासी मिहनत चाहिए, सुगना ने जाना! उसके पास कोई लाश आयी ही नहीं, इस तरह स्वर्ण जटित! 


एक बार, एक जर्जर बूढी की ऊँगली में रह गयी थी पंच धातु की एक अंगूठी, और क्या तमाशा किया था उसके रईस, बुढ़ाते, बेटों ने! बेटी ने तैयार किया होगा, माँ को अर्थी के लिए, सोचा था अंगूठी पर निगाह गड़ाए सुगने ने! अब कौन देता है डोम को ज़रा भी दान? 


कैसी लड़ाई मचती है, परिवार वालों में, केवल एक मुखाग्नि देने को ले कर? मैंने इतना किया, ये किया, सब चलता है, आंसुओं के साथ! 


कभी कोई गलती से देख ले, तो देख ले, वर्ना, अब कोई डोम की ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखता!


ओह कैसे निकाली थी, वृद्धा की काठ हो गयी ऊँगली से वह तांबई अंगूठी, उसके परिवार जनों ने! बस चलता तो ऊँगली तोड़ देते! बुढ़िया के छोटे लड़के ने, इतनी ताकत से खींची ऊँगली कि बड़ा लड़का दौड़ता आया, "अरे, साबुत तो जाने दो अम्मा को अग्नि में! यहीं रख लोगे, तोड़कर ऊँगली क्या?" " देखो भैया, दीदी को अम्मा का अंतिम श्रृंगार भी न करना आया!"


इतना तो समझ गया सुगना, कि सबसे गरजू रहा छोटा लड़का! निकाली अम्मा की अंगूठी और धर ली जेब में! ये न कि अम्मा की आत्मा को दान ही कर दें! मसान में निकली पंच धातु की चीज़ भी चाहिए अपने ही लिए! अब तो कुत्ते, बिल्ली, बंदर, भालू, क्या गाय तक का कौरा नहीं निकालते लोग, मसान में डोम को दान तो बड़ी चीज़ है! हँसता है मन ही मन सुगना! अम्मा की निकाल लेने के बाद अंगूठी, भूलता नहीं अम्मा के छोटे लड़के का पसीने से चिपचिपाया चेहरा! 


पर अभी सुगना है पसीने से लथपथ और सबसे भारी गहना मौजूद भी मृत शरीर पर! इतना पास आता है चेहरा, कि विकृत होने के बाद और डर लगता है, कहीं आँखें खोल देखने न लगे, कहीं सख्त हो आये अपने हाथ उठा कर सुगने की न पकड़ ले  गर्दन! बेहद मेहनत का काम, मुर्दे की गर्दन उठा कर चेन निकालना!  


तब तक बदबू से बुरा हाल सुगने का! एक बार सोना निकला कि बस वह भागेगा तेज दौड़ता हुआ!


किसी तरह, पूरी तरह मशक्कत कर, सारा सोना उतारा स्त्री की देह से सुगने ने और वो दौड़ा, वो दौड़ा कि सीधा घर के पास पहुँच कर दम लिया!


नदी में उसे धोना संभव नहीं था, घर के पास पहुंच कर, कुंए का पानी निकाल कर सब कुछ धोया! रगड़ रगड़ कर मिट्टी से! हाथों की पन्नी निकाल कर दूर फेंका! पत्नी को सोना थमाते हुए बोला, “बड़ी एहतियात से रखो जल्दी किसी सुरक्षित जगह! मैं अभी आता हूं।”


और फिर गया नहाने! पत्नी के सुपुर्द कर सब कुछ! इतना भी समय न था कि पत्नी को बता पाता, लूट का सारा किस्सा! उसे इतना भी भरोसा नहीं था, किसी पर, न हवाओं पर, न रोशनी पर, न सूरज पर, न किसी और पर कि पहले नहा ले फिर घर में प्रवेश करें! नहा कर लौटा तो पत्नी से बोला, “समझो एक लॉटरी लगी है रख लो! बच्ची के काम आएगी!”


पत्नी ने जानना चाहा, ऐसा सोना, इतनी मात्रा में, कैसे मिला, कहाँ से मिला? 


लेकिन, एकदम से बिफर उठा सुगना! “रहने भी दो! तुम्हें आम खाने से मतलब है या गुठली गिनने से? सोना रखो, संभाल कर रखो! मैं अगर ना भी रहा, तो बेटी के काम आएगी!”


आधी बेहोशी में, बड़बड़ा रहा था सुगना! 


 “ना रहा मतलब?!” पत्नी घबरा गई!


“कैसा खराब समय है देखो! कभी भी कुछ भी हो सकता है!”


कहकर सुगना घर के उसी पिछवाड़े वाली कोठी में चला गया जहां उसने टोकरियों के साथ-साथ अर्थियों का भी ढेर सजाया था! एक भी टोकरी रंगी न थी! रंग तो वह कभी खरीद ही न पाया! 


वहीं उन ढेरों की बगल में, मैली कुचली एक चादर बिछी थी जिस पर सुगना जा कर लेट गया! काफी देर तो कुढ़ता रहा, औरत की जात, जान मारे बिना नहीं छोड़ेगी! क्या ज़रूरी है जान लेना कि चीज़ कहाँ से मिली? बोल रहा है वह, कि चट सोना रख ले! लेकिन मारे तहकीकात कर रही है कि सोना आखिर मिला कैसे? ‘जनम भर में कभी इतना सोना देखा है तूने? ना देखा तो क्यों पूछ रही? चुप रह!’ सुगना मन ही मन, बीवी को कमरे के कटघरे में खड़ा कर, जिरह करने लगा!  


बड़बड़ा रहा था, लेटा लेटा सुगना, ‘जाने दो, क्यों जान खा रही?’ फिर कब बड़बड़ाते, कुढ़ते, दांत पीसते, उसे नींद आ गई, पता नहीं चला! नींद खुली उसी स्त्री की आवाज से! वह खाने के लिए बुलाने आई थी! उसी के कहे मुताबिक, दरवाज़े से ही खड़े खड़े आवाज़ लगा रही थी, भीतर न आयी थी! सुगने को लगा अभी गिर कर ढेर हो जाएगा, जैसे किसी ने धक्का दिया हो! माथा भी चकराया, मतलब ऐसे कि दीन दुनिया की ख़बर न रहे! फिर उसने सोचा, उसी फालतू बेकार के डर का साया है और उठ खड़ा हुआ। लेकिन उसके सिर में भयानक दर्द था, उसके गले में एक अजीब किस्म की चुनचुनाहट थी, मुंह सूख रहा था! क्या जिस स्त्री के गहने उतारे, उसने नींद में आ कर उस पर टोना कर दिया था? ‘अच्छा भला तो था, चल कर खा ले ठीक हो जाएगा! चल रे सुगना!’ उसने खुद से कहा और चलता चला लेकिन सिर का दर्द बेसंभाल था! गिन गिन कर, एक एक कदम आगे बढ़ाता सुगना कुंए पर पहुँचा! चेहरे पर पानी मारा तो बरछी सा चुभा पानी!





सुगने ने पत्नी से कहा था, खाना दरवाज़े पर ही रख कर चली जाए! वहीँ धम्म से बैठ गया वह! रोटी तोड़ी, दाल सब्ज़ी में डुबाई, लपेटी, लेकिन चबाई न गयी! हाय रे, सुगने का मुंह खाना खाने के लायक भी न रहा! उसकी आँखों में आंसू आ गए! कल्ले के दर्द को किसी तरह काबू करते, उसने धीरे धीरे शुरू किया चबाना! स्वाद तो खाने में कोई था ही नहीं! सुगना जानता था, जिस बीमारी से वह स्त्री मरी थी उसके होने पर न स्वाद मिलता था, न आती थी गंध! सुगने ने न जाने कहाँ से पूरी ताकत जुटा, पानी के सहारे निगल निगल कर खत्म किया खाना! निगलना क्या, थूक घोंटना भी हो सकता है इतना कठिन, सुगने को पता न था! 


खाने से भी ठीक ना हुआ कुछ! 'गर्दन में काँटों की झाड़ उगा दी ससुरी ने!', गहनों वाली मृत स्त्री को गरियाता, बड़बड़ाता सुगना चला फिर अर्थियों वाली कोठरी की ओर! उसे लगता जब तक बड़बड़ाता रहेगा वह, बनेगा रहेगा अपने साथ! चलती रहेगी उसकी सांस और वह ज़िंदा रहेगा! और बड़बड़ाता रहा वह शाम तक! लेटा लेटा, अर्थियों की बगल में, मैली चादर पर अपनी! 


उसने सुन रखा था शहर में लोग सांस के बिना मर रहे! सोने से भी महंगा बिक रहा ऑक्सीजन! 


ऑक्सीजन का काला बाज़ार खुला है और लोग हो रहे हैं भगवान को प्यारे! लेकिन सांस लेता रहेगा सुगना, नाक नहीं तो मुंह से, बोल बोल कर और शादी के बाज़ार में जा कर दिखायेगा अपना सोना! 


वक्त आ कर सुगने की हथेली पर पत्थर सा बैठ गया। कभी खाली न रहने वाली, लगातार बांस उगाने, काटने, छीलने, खप्पचियाँ बुनने वाली सुगने की उंगलियां, घड़ी के कांटे गिनने लगीं। 


शाम हुई, शाम के खाने का वक़्त हुआ! पत्नी फिर बुलाने आयी। 


खाने में जबकि उसकी प्रिय भाजी बनी थी, अच्छी सी एक सब्जी, रोटी गेहूं की और कुछ मीठा भी बना दिया था पत्नी ने, चाव से खिलाने भी बैठी थी कुछ दूर, लेकिन सुगना का रत्ती भर जी खाने में ना लग रहा था! कभी उसे लगता सिर का दर्द बढ़ रहा है, कभी लगता गले का दर्द बढ़ रहा है, कभी लगता वह दर्द सर से होता हुआ नीचे उसकी पीठ, उसकी कमर, उसकी टांगों तक में फैल गया है! बहुत ही कष्टदायक था, बैठे रहना भी! खाना तो दूर की बात! उसे लगने लगा बच नहीं पायेगा अब वह, ज़िंदा नहीं रह पाएगा, नहीं देख पायेगा, इस महामारी के बाद की ज़िन्दगी! मारे घबराहट के उसका हलक सूख रहा था! किसी तरह पानी पी पी।कर खाने को गटकता जा रहा था! पर उसे उबकाई आ रही थी! लग रहा था उल्टी हो जाएगी! 


दूर बैठी पत्नी ने वहीँ से पूछा, “क्या बात है? इतने परेशान क्यों हो गए अचानक? जब सोना लाए हो तब तो खुश होना चाहिए!” सुनते ही, वह बिखर गया पूरी तरह! “अबे चोट्टी! सोना, सोना की रट लगाए है! जब ले कर आया, पूछ पूछ कर प्राण ले लिए! अब भी जान के पीछे पड़ी है! कसर न छोड़ी पूछताछ में! अब कह रही है, 'क्यों चिंता कर रहे?! अबे चोट्टी! तू है सारी चिंता परेशानी की जड़! हराम ज़ादी! जब मैंने दिया तब तो दिमाग खराब कर दिया पूछ कर, जिरह कर, सोना कहां से लाया? सोना कहां से लाया? अरे! जहाँ से भी लाया, तेरे बाप के यहाँ से तो नहीं लाया?”


पत्नी ने कुछ बोलने के लिए मुंह खोला, लेकिन उसका तमतमाया चेहरा देख कर कुछ ना कहा! उसे लगा कहीं वह फिर न फट पड़े, बकने न लगे! वरना वह कहने को तैयार हो रही थी कि मैंने इसलिए पूछा कि कहीं तुम चोरी से तो नहीं लाए! 


लेकिन जैसे उसके मनोभाव पढ़ लिए हों, सुगना अपने आप चिल्लाने लगा! 


‘तुझे क्या लगता है? मैंने चोरी की है? मैं कोई चोर हूं? यह सोना बर्बाद होने जा रहा था, मैंने सोचा बेकार जाएगा! आग में जलेगा नाहक! आत्मा तो कब की पहुँच गयी होगी कहीं, जहाँ पहुंचना होगा उसे, क्यों? डोम की आग के बिना भी, आत्माएं पहुँच रहीं हैं कि नहीं परलोक? तुझे क्या लगता है, यहीं इंतज़ार में बैठी होंगीं? कि डोम हमारी देह को आग देगा तो हम जाएंगी ऊपर? अब पूछता कौन है डोम को?" 


"थूक दे, थूक दे सारा गुस्सा, यहीं डोमिन के पास! जो भी कर उतार अपना बुखार!" एक।साथ डोमिन का डर भी ख़त्म हुआ और दिल भी पसीजा! 


"अबे चुप रह करमजली! नासपिटी कहीं की! तेरी वजह से तो बुखार चढ़ा है! साली, तेरी जात ही खराब है! आदमखोर कहीं की! उस चोट्टी को देखो गहने पहने शमशान पहुंची है! मैंने सोचा, परमार्थ होगा, वो भी डोम के काम आएगा तो आत्मा को सदा स्वर्ग होगा! कोई भटकन नहीं! सोना किसी का हो, किसी के काम आ जाए, तो सोने के मालिक को पुण्य होगा! वो भी अंत समय में, डोम के काम आ जाए सोना, तो सबसे बड़ा पुण्य होगा! यही सोचा कि पार उतार दूँ और ले लिया!”


बड़बड़ाता सुगना डोलता हुआ उठ खड़ा हुआ, और किसी तरह एक के बाद दूसरा कदम बढ़ाने लगा! 


"और जानती है, कितनी मिहनत की? एक खरोंच तक न आने दी लाश को!", धीमी सी आवाज़ में कहते हुए सुगने ने हँसना चाहा, लेकिन टेढ़ी सी एक मुस्कुराहट होठों के किनारे पर अंटक गयी।

 

“तब फिर क्यों परेशान हो?” पत्नी ने भी यथा सम्भव मद्धम आवाज़ में ही कहा था, लेकिन बावजूद नाक, कान, गले की बंदी के सुगना ने सुन लिया! 


उसका यह जिरह भरा सवाल सुनते ही, सुगना ने ना आव देखा न ताव, लगाया खींच कर एक तमाचा उसे, और क्रोध में उफनता हुआ बोला, "ले! हो गयी पूरी कोरोना की सोशल डिस्टेंसिंग! बिना पति की मार के मानती ही नहीं! चोट्टी, साली, करमजली! लाश के गहने उतार के लाया हूँ! सुन लिया! जाने बिना मानेगी नहीं! अब हो गया चैन! अब मर तू भी मेरे साथ-साथ! गहने अभी दे दे बेटी को! देख लेगी दुनिया को!” बकता हुआ, कमरे से बाहर जाने लगा सुगना, किन्तु, पत्नी भरसक मुलायम, संयत स्वर में बोलती रही, "काहे घबराते हो, कुछ न होगा! हम तो जुगों से उतार रहे हैं लाशों के गहने!" 


सुगना ने आधा सुना, आधा नहीं और कमरे से बाहर हो गया! 

 

बाहर निकलते ही उसे अपने ऊपर और क्रोध आने लगा और वह लगभग डगमगाने लगा! उसने एक हाथ से अपने ही दूसरे हाथ को छू कर देखा और उसे लगा कि उसे बुखार है, बहुत तेज़! खाने और पत्नी की जिरह से, बुखार बढ़ गया लग रहा था! 


किसी तरह वापस जा कर उस गंदी सी चादर पर सो गया। उसकी आंखों के आगे उस मृत स्त्री  का चेहरा घूमने लगा! फिर थोड़ी देर के बाद लगा जैसे पत्नी आ कर खड़ी हो गई है सिरहाने! लेकिन उसने ढंग से देखा तो वहां कोई नहीं था! फिर बार-बार कैसे नज़र आ रहा था जो कुछ नज़र आ रहा था उसे!? फिर ऐन सामने मृत महिला का चेहरा आ कर ठहर गया! फिर बेटी का चेहरा! यहाँ, इस जलते ताप में कहाँ से चली आयी बेटी? बेटी के लिए तो मोल लिया, सुगना ने यह ताप! उसे रहना है इस ताप, इस आंच, इस जलन से बाहर! अंगारे सी जल रहीं थीं, सुगना की दोनों आँखें! उसने अँधेरे में आँखें गड़ा कर देखा, कोई भी तो नहीं था! क्या अजीब शक्लें, अख्तियार करता है अँधेरा! डरावनी बातें करता है अँधेरा! निकालता हुआ ख़ुफ़िया आवाज़ें भी! और फिर, कहीं कुछ भी के न दिखते में, आ कर खड़ा हो गया गाँव का साहूकार! फिर याद आया गांव का साहूकार, जिसने अपनी दुकान लॉकडाउन में बंद नहीं की थी और अल्लाह को प्यारा हो गया था! 





उसकी याद आ जाने से, सुगना बेहिसाब डर गया! उसे कंपकंपी होने लगी! उस कमरे में उस चादर के सिवा और कुछ ना था जिसे बिछा कर वह सोया था। वह ठिठुरने लगा और उसकी घिग्घी बंध गई। उसे लगा कि उसकी गायब होती आवाज़ के साथ साथ, उसकी सुनने, समझने, और सोचने की शक्ति भी गायब हो रही है। वह बेहिसाब डर गया! 


वह तय नहीं कर पा रहा था कि उसे मौत का भय ज्यादा सता रहा था या सिर्फ बुखार का! और सुगना समझ ही नहीं पाता था कि यह बेचैनी केवल इस खौफ की थी कि यह बुखार जानलेवा हो सकता है या की फिर असल बुखार की ही बेचैनी थी! बुखार का जाने कैसा देह दर्द, बुखार यानी जाने कैसा सर दर्द, ऐसा विकट कि जैसा उसने कभी जाना नहीं, महसूसा नहीं, और जिसे सुन कर, दूर से देख कर समझा नहीं जा सकता! बुखार यानी गले की खराश, गले की वह खराबी जो रिरियाने तक न दे, गले की ख़ुश्की जो सीने तक पहुंचती हुई लगती थी, आंखों से निकलती हुई, नाक से बहती हुई लगती थी, जबकि नाक एकदम सूखी थी, लेकिन लगता था जाने क्या गुबार है, क्या भारीपन, जो सर पर लगातार सवार था, और नाक, मुंह, कान और आँख के रास्ते बाहर आना चाहता था। यानी  बुखार जो उसे मार ही देना चाहता था अंततः! सुगने को लगता था, उसे खून की उल्टी होने वाली है! वह इंतज़ार करने लगा था कि खून की उल्टी हो और वह मुक्त हो जाए इस भयानक दर्द, बेचैनी, और जलन से, ऐसे या वैसे!


उसे लग रहा था, कि खून की उल्टी के बाद वह बचेगा नहीं! 


एक साथ खुशी और ख़ौफ़, एक साथ सर्दी और पसीना! वह पसीने से नहाया, बुरी तरह ठंढ से कांप रहा था! ख़ुशी या राहत सिर्फ इस बात की थी कि अब वह मौत के करीब पहुँच चुका था! अगर नहीं, तो फिर इतना बुरा हाल क्यों था उसका? क्या इतना बीमार हो कर भी, कहीं कोई ठीक होता है? 


अजीब किस्म की बेचैनी थी! लगता था, कोई आ कर छाती पर बैठ गया है। गहने वाली औरत फिर हाज़िर थी! इस बार, उसने अपने सारे गहने पहन रखे थे! जितने सुगना ने उतारे थे, उससे कहीं ज़्यादा! वह धीरे धीरे कदम बढ़ाती, चली आ रही थी सुगने की ओर! उसके चलने से उसके गहने धीमे-धीमे बज रहे थे! वह चलते चलते सुगने के इतने करीब आ गयी थी कि सुगने को लग रहा था, हाथ बढ़ा कर उसकी गर्दन दबा देगी! हो न हो, इसी के दूत भूत थे, बड़ी देर से सुगने की छाती पर सवार! औरत चलती चलती सुगने के इतने करीब आ गयी थी कि उसे लग रहा था वह ज़रा सा हाथ उठाएगी, और सुगने की गर्दन आसानी से उसकी मुट्ठी में आ जायेगी! 


न जाने कहाँ से शक्ति जुटा कर, सुगना गले से एक अजीब मिमियाती आवाज़ निकालता उठ बैठा और दोनों हाथ उठा उठा कर भांजने लगा, लाठी तलवार की तरह! थोड़ी देर में, स्त्री गायब हो गयी और सुगना थक कर निढ़ाल हो गया! 


लेकिन उस स्त्री का इतना करीब आना, कहीं मौत का ही करीब आना तो नहीं था? कहीं मौत आ कर खड़ी तो नहीं हो गयी है कमरे में? क्या ठीक पहचान रहा है सुगना अपनी मौत को? रूप बदल बदल कर आती है मौत, सुना था सुगने ने! 


आखिरकार उसने तय किया कि इस वहम, इस संशय की स्थिति से निकलेगा, और उसने तय किया कि इससे निकलने का सबसे सरल तरीका है मृत्यु का वर्णन करना! हाथ जोड़ कर, बाहें  पसार कर, दिल खोल कर! आंखें टिकाये, बिना डरे! क्योंकि जब मृत्यु आ ही रही है तो फिर डरना क्या? डरने से बड़ा कष्ट होता है, घबराहट होती है, और अगर यह तय हो जाए कि मृत्यु आ ही गई है, तो सुगना को भी चैन मिल जाए कि हां बस यही होना है! अब कोई उम्मीद नहीं, इसके बाद जिंदगी नहीं, बेटी की शादी वह नहीं देखेगा! 


नहीं देखेगा तो क्या हुआ? बेटी का सारा इंतजाम कर दिया सुगना ने? मन किया छाती ठोक ले अपनी! इतना तो वह पांच साल तक अर्थी बना बना कर भी नहीं कमा सकता था, जितना एक झटके में उसने एक मृत स्त्री के करीब जा कर कमा लिया था! जय हो कोरोना की! सुगने पर एक विद्रूप छाने लगा था! अब वह नहीं करना चाहता था, अपनी मौत का इंतज़ार तक! वह चाहता था उससे एक हो जाना! एक चैन की नींद सो जाना सदा के लिए! उसे लगता था कि उस मृत स्त्री ने उसकी नाक के दोनों छेदों में रुई ठूंस दी थी, और वह कितना भी जोर लगाए, अपने हाथों से उन्हें निकाल नहीं पाता था। छटपटाहट में अपनी आँखें खोल, वह तलाशता मौत का चेहरा और बस चमकता हुआ अँधेरा घूरता उसकी ओर वापस! बेहद कठिन अंत का इंतज़ार! बेहद कठिन अंत का इंतज़ार! अब बस मौत आए और सुगना की ले ले जान, लेकिन बेटी बस जाए और क्या चाहिए! 


कोरोना न होता तो मृत स्त्री के शरीर पर आधा तोला सोना ना होता! सुगना की स्त्री सब साफ करेगी, धोएगी, पहुंचेगी बाहर से धो धाकर घर! काफी देर सोना बाहर रहेगा तब जा कर बेटी के पास पहुंचेगा! ना ना सुगना की बेटी को कुछ नहीं हो सकता! 


उठा सुगना और जा कर लेट गया उसी में से एक अर्थी पर, ऐसा निर्विकार भाव लिए, कि अब बचा क्या? अब तो बस मृत्यु आएगी, उसे कंधे पर टांगेगी, क्या मालूम गोद में उठाएं, क्या मालूम हाथ पकड़ कर टहलाती लिए चले! कैसे ले जाती होगी मृत्यु अपने साथ लोगों को? देह रह जाती है काठ हो कर और प्राण उड़ जाते हैं! कैसे उड़ जाते हैं प्राण, मृत्यु के साथ? क्या रावण के उड़न खटोले में बैठ कर? सोच सोच कर भी सुगने को जवाब न मिला! उसने फिर हँसना चाहा, शायद अपनी आखिरी हँसी, लेकिन ओठ लकड़ी से सख्त मालूम हुए! देह पानी सी ठंढी! 


सुगना ने चाहा आए जल्दी मृत्यु! वह तो टहलता हुआ चला जाएगा उसके साथ! 


लेकिन कहाँ ले जायेगी मौत उसे? स्वर्ग या नरक? दोनों जानता है, जबकि ब्राह्मणों को कब का त्याग चुका! सुगने ने खुद को किसी से कम न समझा! 


न किसी जाति से खुद को कभी छोटा समझा! सुगने को कोई नहीं बताता दीन दुनिया, आकाश पाताल! सुगना सब जानता है।


अच्छे अच्छों का वह लगाता है बेड़ा पार! वह नहीं सुनता प्रवचन, उपदेश, कथायें! 


जाने कैसे जानता है सुगना लेकिन जानता है, एक स्वर्ग होता है, एक नरक! स्वर्ग में  जिसमें देवता रहते हैं, और भगवान भी, परियाँ और देवदूत, होते हैं सब मौजूद! वहाँ जाती हैं अच्छी आत्माएं, अपने अच्छे कर्मों के लिए! स्वर्ग में सब सुख से रहते हैं, प्रार्थना साधना करते हैं! स्वर्ग में ही है देवताओं का साम्राज्य, वहीं लगता है उनके राजा, इंद्र का दरबार! और नाचती हैं अप्सराएँ! उसी ओर दौड़ा चला जा रहा था सुगना कि मृत्यु ने घसीटना शुरु किया दूसरी ओर! दूसरी ओर था नरक, जहाँ जाते थे लोग अपने बुरे कर्मों के लिए! 


नरक का राजा था राक्षस, जिसे उसके मुसलमान दोस्त कहते थे शैतान! वो कहते थे कि शैतान के दूत घूमते थे हर जगह, ढूँढते अपने शागिर्द! उनसे बच कर रहना चाहिए।


कहते वो और यही कहता पंडित और यही कहते उसके चेले भी!


नरक के भूत पिशाच घूमते रहते हैं धरती पर, उनसे दूर रहना चाहिए! फिर क्यों जला कर बैठे रहते वो मसान में आग, अमावस को जब ठंढी हो जाती चितायें? बैठ कर देखते रहते, किसकी आत्मा गई किधर? कौन था, दरअसल कौन?


उन्हें पहचानना, उनसे दूर रहना, फिर ये कैसे नरकासुर के दूत घेरे हुए हैं, सुगने को?! उठा लिया है उन्होनें उसे कंधे पर, और टाँगे लिए जा रहे हैं, नरक के दरबार में! 


शैतान के दो शागिर्दों ने पकड़ा कस कर सुगने को और डाल दिया खौलते तेल के कड़ाह में! चमड़ी उधड़ गई उसकी! एक ऐसी रिरियाती चीख निकली। मुँह जो लगता था चिपक गया है अपने ही दो जबड़ों के बीच, काँटे उग आए हैं जिसमें, पर चीख निकली और नींद से उठ बैठा सुगना! अगले ही पल, वह खुशी से भर गया! न केवल वह ज़िंदा था, बल्कि अपने ही घर में मौजूद! भले ही पसीने से लथपथ, भयभीत!


न तो उसे मौत ले गई थी और न ही शैतान के कोई दूत थे आसपास! 'डोम को मारना इतना आसान नहीं होता!' कहती थी उसकी अम्मा! कितना कुछ कहती थी अम्मा! उसी ने दूर भगाया सुगना का हर डर!


सुगना डरता था किसी भी मृत शरीर के निकट जाने से! किसी जलती चिता से! लेकिन माँ कहतीं, "हमें मृत आत्माएं नहीं सताती! हम तो उन्हें पार लगाते हैं! 


और इस तरह, माँ की बातों के सिरे और पिता की उँगली पकड़, सुगने ने सीखा, मसान में दाह का काम!


वह भला कैसे जा सकता है, बीच में इतनी कश्तियाँ छोड़ कर? उसे तो अभी चढाना है कितनों को, अपनी बनाई अर्थियों पर!


नागफणी की झाड़ हो आई अपनी गर्दन से उसने खखारने की नाकाम कोशिश की, फिर किसी तरह थूक अन्दर किया, मुर्दे की तरह अकड़ गई उंगलियों से मुट्ठी बाँधी-खोली, और घुटने पकड़ उठ खड़ा हुआ। 


जो लोग बरसों बरस से मुर्दे निपटा रहे हों, उन्हें एक औरत की लाश कैसे मार सकती है? चाहे वह किसी भी बीमारी से मरी हो?



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



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मोबाइल  - 09968186375

टिप्पणियाँ

  1. गरीब आदमी को उसकी नैतिकता ही मार डालती है. वह बिना स्पष्ट अपराध के अपने भीतर भीतरी मारा जाता है. और जो इतने बड़े-बड़े लोग अरबों खरबों के क्राइम करते हैं कितने लोगों की जान ले लेते हैं सीधे-सीधे हत्याएं करते हैं, वे बहुत मजबूत जिगर के होते हैं.
    कोरोना आने के जिम्मेदार भी अमीर ही थे.
    बहुत संवेदनशील कहानी. पंखुरी सिन्हा को बहुत बधाई.

    -संध्या नवोदिता

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