कॅंवल भारती का आलेख 'प्रेमचन्द : लोकतन्त्र के मुंशी'

 




लेखक बनना कोई फैशन नहीं होता। यह 'जो घर जारै आपना' की तर्ज़ पर जद्दोजहद करने वाला वर्ग होता है। क्योंकि लेखन आपको सत्ता के हर शोषण के विरुद्ध खड़ा कर देता है। लेखन की फितरत ही कुछ ऐसी होती है। यह आपको सुविधाएं दे न दे, आपको जेल जरूर भेजवा सकता है या फिर आपको फांसी के फंदे तक जरूर पहुंचा सकता है। प्रेमचंद अपनी रचनाओं के जरिए भारतीय समाज के ऐसे मुद्दों से जूझने का प्रयास लगातार कर रहे थे जो मूलतः भेदभावकारी था। उन्होंने अपनी कलम के माध्यम से शोषण और अन्याय के विरोध में आवाज उठाई। उनकी रचनाएं आज भी इसीलिए प्रासंगिक बनी हुई हैं क्योंकि समाज का भेदभावकारी स्वरूप लगभग पहले जैसा ही बना हुआ है। इसी आधार पर कॅंवल भारती ने प्रेमचंद को 'लोकतन्त्र का मुंशी' कहा है। प्रेमचंद जयंती पर कल हमने शिवदयाल जी का आलेख प्रस्तुत किया था। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है कॅंवल भारती का विचारोत्तेजक आलेख 'प्रेमचन्द : लोकतन्त्र के मुंशी'।  भारती जी ने यह आलेख अरसा पहले 25 जुलाई 2016 को लिखा था। लेकिन आज भी यह आलेख प्रासंगिक बना हुआ है ।



'प्रेमचन्द : लोकतन्त्र के मुंशी'


कॅंवल भारती 

(उनके लिए, जिनकी नजर में प्रेमचन्द सामन्त के मुंशी हैं)


 

किसी उस्ताद शाइर का शे‘र है- ‘हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बहुत मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’ प्रेमचन्द हिन्दी जगत के ऐसे ही सितारे थे, जिनके होने से स्वयं हिन्दी साहित्य गौरवान्वित हुआ। वे लोकतन्त्र के मुंशी थे, सामन्त के नहीं, जैसाकि कुछ दलित चिन्तक मानते हैं। उनकी कहानियों और उपन्यासों पर अलग-अलग तरह से और अलग तरीकों से बात काफी हो चुकी हैं। पर यहां मैं उन्हें उनके अग्रलेखों और पत्रों के हवाले से याद करना चाहूँगा।

  


शुरुआत मैं जयशंकर प्रसाद के नाम उनके एक पत्र से करूँगा, जो उन्होंने उन्हें 24 जनवरी 1930 को लिखा था। प्रसाद जी ने उन्हें अपना उपन्यास ‘कंकाल’ भेजा था। यह पत्र उसी की प्रशंसा में लिखा गया था। उन्होंने लिखा था-



‘प्रिय प्रसाद जी, 

पहले मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं ‘कंकाल’ पर आपको बधाई दूँ। मैंने इसे आदि से अन्त तक पढ़ा और मुग्ध हो गया। आपसे मेरी जो पुरानी शिकायत थी, वह बिल्कुल मिट गई। मैंने एक बार आपकी पुस्तक ‘समुद्रगुप्त’ की आलोचना करते हुए लिखा था कि आपने इसमें गढ़े मुर्दे उखाड़े हैं। इस पर मुझे काफी सजा भी मिली थी, पर जो लेखनी वर्तमान समस्याओं को इतने आकर्षक ढंग से जनता के सामने रख सकती है, इस तरह दिलों को हिला सकती है, उसे फिर वही बात मेरे मुंह से निकलती है, क्षमा कीजिए, पूर्वजों की कीर्ति का भविष्य के निर्माण में भाग होता है और बड़ा भाग होता है, लेकिन हमें तो नई सिरे से दुनिया बनानी है। अपनी किस पुरानी वस्तु पर गर्व करें? वीरता पर? दान पर? तप पर? वीरता क्या थी? अपने ही भाईयों का रक्त बहाना। दान क्या था? एकाधिपत्य का नग्न नृत्य, और तप क्या था? वही जिसने आज कम-से-कम 80 लाख बेकारों का बोझ हमारी दरिद्र जनता पर लाद दिया है। अगर 5 रुपए प्रतिमास भी एक साधु की जीविका पर खर्च हो, तो लगभग 20 करोड़ हमारी गाढ़ी कमाई के उसी पुराने तप के आदर्श की भेंट हो जाते हैं। किस बात पर गर्व करें? वर्णाश्रम धर्म पर, जिसने हमारी जड़ खोद डाली?’ (प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य, कमलकिशोर गोयनका, 1988, पृष्ठ 25-26)

 


आज हमारे देश में आरएसएस-भाजपा की सरकार उसी अतीत पर गर्व करने को राष्ट्रवाद बता रही है, जिस पर प्रेमचन्द सवाल खड़े करते हैं। प्रेमचन्द के समय में 80 लाख बेकारों का बोझ भारत की दरिद्र जनता पर था। आज यह संख्या करोड़ों में है, अतिश्योक्ति नहीं कि यह संख्या बीस करोड़ से भी ज्यादा हो। धर्म के नाम पर निठल्लों की इस विशाल संख्या को पूंजीपति और हिन्दू दोनों मिल कर पाल पोस रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि पूंजीपतियों का धन भी जनता के शोषण से ही इकट्ठा किया हुआ धन है। इस प्रकार आज एक साधु की जीविका पर ‘पुराने तप के आदर्श की भेंट’ चढ़ने वाली गाढ़ी कमाई 50,000 हजार करोड़ से भी अधिक हो सकती है। आप अन्दाजा लगाइए कि मरे से मरा बाबा भी धर्म के नाम पर आज सौ दो सौ करोड़ आसानी से जमा कर लेता है। 1928 में यही बात जब कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ में लिखी थी, तो हिन्दुओं ने उस पर चौतरफा हमले कर दिए थे, और उन्होंने ‘मदर इंडिया’ को साम्राज्यवादी इतिहास-लेखन की किताब घोषित कर दिया था, जबकि हकीकत में कैथरीन मेयो ने हिन्दू साम्राज्यवाद को नंगा इतिहास लिखा था। 



डा. आंबेडकर का मत था कि जाति व्यवस्था एक राष्ट्रविरोधी संस्था है, और भारत का मजदूर राष्ट्रवाद में नहीं, अन्तरर्राष्ट्रवाद में विश्वास करता है। हम देखते हैं कि यही बात प्रेमचन्द 1933 में  रेखांकित कर रहे थे। उन्होंने 27 नवम्बर 1933 के ‘जागरण’ में लिखा था-



‘राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बॅंटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगा, संसार में शान्ति का होना असम्भव है। जागरूक आत्माएं संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैं, लेकिन राष्ट्रीयता के बन्धन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझ कर उनकी उपेक्षा करता है।’ (विविध प्रसंग, 2, अमृत राय, 1980, पृष्ठ 333-34)



राष्ट्रवाद के प्रश्न पर दोनों विचारकों में कितनी बड़ी समानता है। डा. आंबेडकर कहते हैं कि राष्ट्रवाद एक दुधारी चेतना है, जो एक तरफ अपने धर्मसमुदाय के प्रति भ्रातृत्व की बात करती है, तो दूसरी तरफ अपने से भिन्न समुदायों के प्रति नफरत की भावना रखती है। उन्होंने एक जगह मजदूरों के सन्दर्भ में लिखा है कि राष्ट्रवाद कोई गण्डा-ताबीज नहीं है, जिसे गले में बांधने से उनकी सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। उन्होंने कहा कि मजदूर राष्ट्रवाद में नहीं, अन्तरराष्ट्रवाद में विश्वास करते हैं।



आज राष्ट्रवाद के नाम पर आरएसएस और भाजपा के आक्रामक हिन्दुत्व का मुकाबला साहित्य में प्रेमचन्द की विरासत को आगे बढ़ा कर ही किया जा सकता है।



जब राष्ट्रवाद का जिक्र आता है, तो पूंजीवाद का जिक्र जरूर आयेगा। क्योंकि राष्ट्रवाद वह बीमारी है, जो अनेक जनविरोधी बीमारियों को दावत देती चलती है। अगर राष्ट्रवाद है, तो उसके साथ पूंजीवाद, धर्मवाद, जातिवाद और अस्मितावाद की बीमारियां स्वयं सक्रिय हो जाती हैं। ये हमजोली बीमारियां हैं, जिनका आपस में एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पूंजीवाद जनता के शोषण का जो साम्राज्य कायम करता है, राष्ट्रवाद धर्म और जाति के हथियारों से उसकी सुरक्षा करता है। डा. आंबेडकर ने पूंजीवाद को दलित वर्गों का शत्रु करार दिया था, तो प्रेमचन्द भी इसे अंधा पूंजीवाद कहते हैं। 6 नवम्बर 1933 के ‘जागरण’ में प्रेमचन्द ने कितना सही लिखा था-

 


‘जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है। किसानों की खेती उजड़ जाय, उनकी बला से। कहावत के उस मूर्ख की भांति जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था, यह समुदाय भी उसी किसान की गर्दन काट रहा है, जिसका पसीना उसी की सेवा में पानी की तरह बह रहा है।’ (वही, पृ. 331)

 


इसी जगह प्रेमचन्द सेठ पुनपुनवाला और मि. बुल का उदाहरण दे कर आगे कहते हैं कि ‘जब किसान निपट मूर्ख था, तो उसके लिए काले और गोरे पूंजीपति में कोई अन्तर न था। पर, जब धीरे-धीरे उसने राजनैतिक ज्ञान सीखा, राष्ट्र और जाति जैसे शब्दों से उसका परिचय हुआ, तो उसने सेठ पुनपुनवाला के वैष्णव तिलक और हिन्दू धर्म के प्रति असीम श्रद्धा और उनके द्वारा बनाए गए धर्मशालाओं और मन्दिरों को देख कर उन्हें अपना उद्धारक समझा। लेकिन जब पुनपुनवाला की मिलों में उसकी ऊख की खरीद होने लगी, जब उनकी आढ़तों में उसका अनाज या सन तौला जाने लगा, तब उसे अनुभव हुआ कि सेठ जी बाहर से जितने बड़े धर्मात्मा और देशभक्त हैं, भीतर से उतने ही लुटेरे और बन्धुद्रोही भी हैं, और धन और देशप्रेम का यह सारा आडम्बर उन्होंने केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रच रक्खा है। वहीं उसे दूसरा अनुभव यह हुआ, कि मि. बुल इन सेठ पुनपुनवाला से कहीं खरे, सच्चे और सज्जन हैं। उनके मिल में उसकी ऊख झटपट तुल जाती है, और तुरन्त दाम मिल जाते हैं। उनकी आढ़तों में भी ज्यादा धांधली नहीं होती।’ (वही, पृ. 332) 

 


सम्पत्ति के सवाल पर डा. आंबेडकर संसाधनों, शिक्षा, उद्योग और भूमि के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में थे और सम्पत्ति पर निजी मालिकाना हक के खिलाफ थे। यह अद्भुत है कि प्रेमचन्द इस सवाल पर इसी मत के थे। वे सम्पत्तिविहीन समाज के निर्माण के पक्ष में एक जगह लिखते हैं-



‘सम्पत्ति ने मनुष्य को अपना क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस सम्पत्ति का क्या हाल होगा। हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं। हम विद्वान बनते हैं सम्पत्ति के लिए, गेरुए वस्त्र धारण करते हैं सम्पत्ति के लिए। घी में आलू मिला कर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भांति-भांति के वैज्ञानिक हिंसक यन्त्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएं क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है। जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगा, जब तक सम्पत्ति-व्यक्तिवाद का अन्त न होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी।’ (वही, पृ. 335)

 


प्रेमचन्द ने अच्छी तरह समझ लिया था कि भारत को निजी सम्पत्तिवाद पर आधारित पूंजीवाद नहीं, बल्कि समाजवादी व्यवस्था चाहिए। जाति, धर्म और सम्पत्ति के पिस्सुओं से साधारण जनता की मुक्ति केवल वर्ग और जाति विहीन समाज के निर्माण में ही हो सकती है। 



धर्म भी सम्पत्तिवाद के ही अन्तर्गत आता है। और मन्दिर इसके शुरु से ही प्रतीक रहे हें। लेकिन मैं यहां दलितों के मन्दिर-प्रवेश के मुद्दे पर आता हूं, जो आज भी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालांकि इस मुद्दे पर दलित आज भी सक्रिय नहीं हें, पर कुछ हिन्दू संगठन आज भी इसे जिन्दा रखे हुए हैं। यह मुद्दा शायद एक सदी पुराना हो चुका है। 1930 में डा. आंबेडकर ने इस समस्या पर हिन्दुओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए नासिक में मन्दिर-प्रवेश का आन्दोलन किया था, जिसमें सनानती हिन्दुओं ने लाठी-डण्डों से हमला किया था। प्रेमचन्द भी शायद ‘कर्मभूमि’ में मन्दिर-प्रवेश के ऐसे ही परिणाम को दिखा चुके हैं। अभी कुछ महीने पहले आरएसएस काडर के भाजपा सांसद तरुण विजय भी देहरादून में दलितों को मन्दिर में प्रवेश कराने में अपना सिर फुड़वा चुके हैं। स्पष्ट है कि आज भी बहुत से मन्दिरों में दलितों का प्रवेश वर्जित है। डा. आंबेडकर ने अपने नासिक आन्दोलन के समय ही साफ कर दिया था कि दलितों की समस्या मन्दिर-प्रवेश नहीं है, बल्कि उनकी समस्या सामाजिक और आर्थिक है। हिन्दी साहित्य में साहस से इस बात को कहने वाले लेखक प्रेमचन्द हैं। उन्होंने ‘जागरण’ के 26 दिसम्बर 1932 के अंक में इस समस्या को गम्भीरता से उठाया था। उन्होंने लिखा था-



‘हरिजनों की समस्या मन्दिर-प्रवेश से हल होने वाली नहीं है। उस समस्या की आर्थिक बाधाएं धार्मिक बाधाओं से कहीं कठोर हैं। आज शिक्षित हिन्दू समाज में ज्यादा से ज्यादा पांच फीसदी रोजाना मन्दिर में पूजा करने जाते होंगे। पांच फीसदी न कह कर अगर पांच फी हजार कहा जाए, तो उचित होगा। शिक्षित हरिजन भी मन्दिर-प्रवेश को कोई महत्व नहीं देते।.... असल समस्या तो आर्थिक है। यदि हम अपने हरिजन भाइयों को उठाना चाहते हैं, तो हमें ऐसे साधन पैदा करने होंगे, जो उन्हें उठने में मदद दें। विद्यालयों में उनके लिए वजीफे करने चाहिए, नौकरियां देने में उनकें साथ थोड़ी सी रियायत करनी चाहिए। हमारे जमीदारों के हाथ में उनकी दशा सुधारने के बड़े-बड़े उपादान हैं। उन्हें घर बनाने के लिए काफी जमीन दे कर, उनसे बेगार लेना बन्द कर के, उनसे सज्जनता और भलमनसी का बरताव करके वे हरिजनों की बहुत कुछ कठिनाइयां दूर कर सकते हैं। समय तो इस समस्या को आप ही हल करेगा, पर हिन्दू जाति अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकती।’ (वही, पृ. 455) 

 


हालांकि प्रेमचन्द के ये विचार हिन्दुओं से अपील के रूप में हैं, पर फिर भी उन्होंने मन्दिर-प्रवेश की अपेक्षा दलितों के आर्थिक उत्थान का पक्ष लिया था। आज 2016 में भी दलितों की बहुसंख्यक आबादी जीविका के सम्मानित साधनों से वंचित है। ताजा उदाहरण देखना हो, तो गुजरात के ऊना तालुका के उन दलित परिवारों का हाल देख लीजिए, जिनके चार युवकों को इसी 11 जुलाई को गोरक्षकों ने लोहे की राडों से मारा था। उनके पास गन्दे पेशे के सिवा कोई जीविका नहीं है, और इस गन्दे पेशे से भी वे एक दिन में 150 रुपए ही कमा पाते हैं। अभी परिमल दाभी की एक रिपोर्ट 24 जुलाई के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी है, जिसमें वह लिखते हैं कि उस गांव में दो मन्दिर हैं-रामजी मन्दिर और स्वामीनारायण मन्दिर, और दोनों में ही दलितों का प्रवेश वर्जित है। परिमल लिखते हैं कि गांव में मन्दिर को ले कर कोई तनाव नहीं है, क्योंकि गांव के दलित मन्दिर का नियम तोड़ने की कभी कोशिश ही नहीं करते।

 


स्वतन्त्र भारत में जनता के शोषण पर राजाओं और नवाबों की तरह ऐश करने वालों में पूंजीपति, भ्रष्ट राजनेता और धर्मगुरु हैं, जिनके कारनामे अखबारों में आते रहते हैं। प्रेमचन्द के जमाने में किसानों के नेता जमींदार थे, और वे ऐसे नेता थे कि किसान-जनता का खून चूस लेते थे। प्रेमचन्द ने अपने अग्रलेखों में इन जमीदारों को खूब उधेड़ा है। एक लेख का जिक्र करना चाहूंगा। यू.पी. कौंसिल में 1934 में होम मेम्बर ने एक बिल पेश किया था, जिसमें बकाया लगान पर 12 प्रतिशत की बजाए 6 प्रतिशत ब्याज की और लगान न देने पर किसान को चार साल तक बेदखल न करने की व्यवस्था की गई थी। जमींदारों ने इस बिल का विरोध किया। इस पर प्रेमचन्द ने 26 फरवरी 1934 के जागरण में लिखा कि कौंसिल में ‘तो बहुमत जमींदारों का है और सरकार सदैव उनकी रक्षा करती रहती है। किसानों की गरीबी पर किसी को तरस नहीं आता। जमीदार उन पर यों ही लगान नहीं छोड़ देते। मार-धाड़, कुरकी-सरसरी सब कुछ करके तब चुप होते हैं। जब इतने पर भी काश्तकार लगान पूरा नहीं अदा कर सकता, तो वह 9 फीसदी सूद कहां से देगा?’ आगे वे जमींदारों के लिए और भी कड़ी भाषा में लिखते हैं-



‘इन भले आदमियों को यह नहीं सूझता कि उन्हें 45 फीसदी का जो नफा होता है, वह तो मानो मुफ्त ही है। वह कोई परिश्रम नहीं करते, पसीना नहीं बहाते, केवल दो-चार शहने रख कर रुपए वसूल कर लेते हैं और बैठे मौज उड़ाते हैं। उनके मुकाबले में किसानों की क्या दशा है? एक लाख किसानों को खड़ा कर दीजिए। शायद ही किसी की देह पर साबित कपड़े निकलें। जमींदारों पर भी कर्ज इसलिए है कि वह आमदनी से ज्यादा खर्च करते हैं। काश्तकार इसलिए तबाह है कि उसकी खेती में न काफी उपज है, न जिसका अच्छा दाम है और उस पर एक न एक दैवी बाधा सदैव उसके पीछे पड़ी रहती है। मगर यहां तो अपना पेट अफरना चाहिए, कोई भूखा मरता हो, तो मरे।’ (वही, पृ. 508-09)  

 


मगर आज एक सदी बाद भी भारत के किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो प्रेमचन्द के ये शब्द आज के सरकार में बैठे नेताओं पर भी लागू होते हैं- ‘यहां तो अपना पेट अफरना चाहिए, कोई मरता हो, तो मरे।’

 


प्रेमचन्द की कलम हर शोषण और अन्याय के विरोध में उठी, इसमें सन्देह नहीं।





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