चन्द्र किशोर जायसवाल की कहानी 'के बोल कान्ह गोआला रे!'

 




विद्यापति के मैथिली गीतों से जो नहीं गुजरा, उसने जीवन को वास्तविक रूप में जिया ही नहीं। विद्यापति उस निश्छल प्रेम के कवि हैं जो हर इंसान के मन में स्वाभाविक रूप से पलता रहता है और अवसर आने पर पुष्पित पल्लवित भी होता है। प्यार की पहली अनुभूति जीवन की अनन्यतम अनुभूति होती है जिसे विद्यापति ने सहज ही अपने गीतों में उकेरा है। विद्यापति आज भी अपने इन गीतों में जिन्दा हैं। केवल मिथिला क्षेत्र में ही नहीं अपितु समूचे साहित्यिक क्षेत्र में। इन्हीं विद्यापति के गीतों को केन्द्र में रख कर चन्द्र किशोर जायसवाल ने एक कहानी लिखी 'के बोल कान्ह गोआला रे!' वाकई अद्भुत कहानी है यह। मन मस्तिष्क में रच बस जाने वाली कहानी। प्रेम तो अपनी बनावट में प्रेम ही होता है। वह कभी जाति पांति या धर्म के बन्धन को स्वीकार नहीं करता। चंद्रकिशोर जी को श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान देने की घोषणा की गई है। इस समय बहुत कम रचनाकार ऐसे हैं जिनको ले कर साहित्यिक समाज में एक सर्व सम्मति जैसी है। चन्द्र किशोर जायसवाल का नाम उनमें से एक है। शोरोगुल से दूर वे चुपचाप अपना लेखन नियमित रूप से करते रहे हैं। कहानीकार चन्द्र किशोर जी को सम्मान के लिए बधाई देते हुए आज हम उनकी कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चंद्रकिशोर जायसवाल की कहानी 'के बोल कान्ह गोआला रे!'



के बोल कान्ह गोआला रे!


चन्द्र किशोर जायसवाल


गांव में जब कभी आते हैं गवैयाजी, उनके आने की खबर बभनटोली के घरों में कानोंकान पहुंच जाती है। साल में बहुत बार आना होता भी तो नहीं उनका, किसी एक गांव में दो-तीन बार से अधिक नहीं। गंवई की बात छोड़ें, तब भी इलाके में ढेर सारे बड़े गांव हैं जहां उनका जाना होता है। गीतों के रसिया किस गांव में नहीं हैं! और विद्यापति के गीतों को सुनने के लिए तो बभनटोली की ललनाएं मार करती हैं। इन ललनाओं के कंठ में ढेर सारे पर्व-त्योहारों के गीत हैं जिन्हें वे गाती रहती हैं, पर विद्यापति के शृंगारिक गीत उन्हें गवैयाजी के कंठ से ही सुनना अधिक भाता है।


हमेशा ऐसा नहीं होता कि उनका दौरा अपने कार्यक्रम के अनुसार ही होता है, कभी-कभी उन्हें किसी गृहस्थ के आमंत्रण पर भी कहीं जाना पड़ सकता है। ऐसा तब होता है जब किसी विशिष्ट अतिथि या जामाता आदि के स्वागत के समय इन्हें गीत गाने के लिए बुलाया जाता है। तब गवैयाजी अतिथि की अभ्यर्थना करते हुए उन्हें शिव या कृष्ण जैसे किसी देवता के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। अतिथि कितना भी अनाम या गुणहीन क्यों न हो, गाया जाता है,


स्रवन सुनिअ तुअ नाम रे।

जगत विदित सब ठाम रे।

लिखि न सकथि तुअ गून रे।

कहि न सकथि तुअ पून रे।


अतिथि कितना भी असुंदर क्यों न हो, गवैयाजी उन्हें चमचमाकर चांद बना ही देते हैं….


बदन बिलोकिअ तोर हे।

ससि जनि निरखु चकोर हे।


गवैयाजी अभी दरवाजे पर अतिथि महोदय को चमचमा ही रहे होते हैं कि आंगन में टोले की औरतों का जुटाव होने लगता है। वे धीरज बांधे रहती हैं पाहुन के अच्छी तरह चमचमा जाने तक।


जब किसी अतिथि या जामाता को चमचमाने के लिए गवैयाजी का बुलावा नहीं होता और वे अपने कार्यक्रम के अनुसार पधारे होते हैं, तब भी गांव में उनके प्रवेश की खबर नाच क्यों न गई हो और जिस दरवाजे की ओर गवैयाजी बढ़ रहे हों उसके आंगन में औरतों का जुटाव क्यों न हो गया हो,- ऐसा नहीं होता कि गवैयाजी दरवाजे पर आ कर धड़धड़ाते हुए आंगन में घुस जाएं बेसब्र हो रही ललनाओं को गीत सुनाने।


उन्हें दरवाजे पर रुकना-ठहरना होता है, हाल-चाल पूछना-बताना होता है, और वहां बैठे मरदों को गीत सुनाने पड़ते हैं। मगर अक्सर ये यहां से छुट्टी पा लेते हैं दो-चार नचारी गा कर,


एलौं सब मिलि शिब दरबार

सुन लिय शिब मोर करुण पुकार

आनक बेरि छी अधम उधार

हमरहि बेरि किए एहन बिचार

अहींक हाथ सब गति सरकार

बिसरिय जनु शिब करिय उधार


नचारी गा लेने के बाद और कुछ गाने-सुनाने का अवसर कहां मिलता है गवैयाजी को! नचारी गाते-गाते तो आंगन से बुलावा पर बुलावा आने लगता है। बच्चियां दौड़-दौड़ कर अंदर से आने लगती हैं, “गवैयाजी! चलिए अब आंगन में। सब यहीं सुना दीजिएगा?” दरवाजे पर गीत सुन रहे मरदों में से ही कोई एक बोल बैठता है, “जाइए, गवैयाजी, अब आंगन में ही जा कर सुनाइए गीत। औरतों का दम निकला जा रहा है; घर का काम-धाम छोड़ कर गीत सुनने के लिए हाय-हाय कर रही हैं।”


औरतों की भीड़ में रसीले और शृंगारिक गीतों को सुनने के लिए सिर्फ गांव की गदरायी गुलाबी धनिया ही नहीं होतीं, वे कुंवारियां भी आती हैं जो अभी-अभी जवान हुई हैं….


शैशव छल नव जउवन भेल

श्रवणक पथ दुहूं लोचन लेल।

वचनक चातुरि लहु-लहु हास

धरणिए चान्द करइ परकास।


कभी बचपन था, अब तो नवयौवना हो गई। दोनों आंखें कान तक फैल गईं। वचन की चतुर हो गई है। मुखड़े पर विराजता है मंद-मंद हास्य। धरती को चंद्रमा ने प्रकाशित कर दिया है।


मुकुर लेइ अब करइ सिंगार

सखि ठामे पूछइ सुरत-विहार


किसी का क्या दोष कि अब वह आईना ले कर शृंगार करती है और सखियों से करती है… इश्श… काम-क्रीड़ा की बात? मगर कैसे नहीं करे! यौवन ने शैशव को खदेड़ भगाया है…


जौवन सैसब खेदए लागल

छाड़ि देह मोर ठाम।

एत दिन रस तोहे बिरसल

अबहु नहि विराम।


नहीं रुका जाता है उससे। उसके यौवन ने उसके बचपन को कह दिया है, “अब मेरी जगह छोड़ो। अब तक रस को विरस करती रही; अब तो विश्राम करो।” शैशव भागता है, यौवन पास आ जाता है। नवयौवना चली आती है रसीले गीतों को सुनने।


बालाजोबन का क्या दोष? भनइ विद्यापति कि इस बाला को कामदेव ने पंचवाण मार दिया है।


नवयौवना ही नहीं, गतयौवना भी चली आती हैं गीतों को सुनने।


दुख कितना भारी!…


आहा बएस कतए चलि गेल

बड़ उपताप देखि मोहि भेल।

थोथल थैया थन दुइ भेल

गरुअ नितम्ब सेहओ दुर गेल।

जौवन सेष सुखाएल अंग

पछेहेलि लुएल उमत अनंग।


कहां चली गई युवावस्था? बड़ा दुख हो रहा है मुझे यह देखकर। दोनों स्तन जर्जर हो गए; गुरु नितम्ब भी दूर चला गया। यौवन शेष हुआ, अंग सूख गए। मगर उन्मत्त अनंग अभी भी पीछे-पीछे चल रहा है।


किसका क्या दोष? विद्याापति ने तो नहीं लगा दिया है उनके पीछे कामदेव को!


कितनी ही बार चिलबिली नवयौवनाओं ने टोक दिया है चाची-फूफी को, “तूं कहां चली, चाची? तूं भी सुनने जाएगी गीत?”


“मैं क्यों नहीं जाऊं?”


“वहां भगवान के भजन नहीं गाएंगे गवैयाजी।”


“मैं कोई गीत-भजन सुनने थोड़े जा रही हूं,” चाची झूठ बोल जाती है, “मीठा गला है गवैयाजी का; मैं तो उनके कंठ का मीठा स्वर सुनने जा रही हूं।”


जिनके पिया परदेश में हैं, वे कहां चलीं? गवैयाजी किसे सुनाने बैठ गए अपने गीत? विरहिणियों के लिए ये गीत तो और भी विरह-विरस होंगे…


जकरा भरे घर युवती रे

से कैसे जाए विदेस।


जिसके भरोसे घर में युवती है, वह कैसे विदेस जाय?


सिर्फ जाने की बात ही तो नहीं है, गवैयाजी तो विद्यापति से भी एक कदम आगे बढ़ कर गाते हैं…


भार यौवन के जेकरा सहल नहीं जाय।

तेकर पिया परदेश कोना बसलै गे दाय।


इन गीतों को सुनाने गवैयाजी परदेश में बसे पियाजी के पास क्यों नहीं जाते? अब तो कागा संदेश नहीं ले जाता; गवैयाजी ही संवदिया क्यों नहीं बन जाते?





नहीं जाते गवैयाजी किसी परदेश में। जाते और ये गीत सुनाते,


तब भी क्या पियाजी बिसराये रह जाते? इसी महिचन्दा में एक बार एक दुलहिन हंसते-हंसते पूछ बैठी थी गवैयाजी से, “गवैयाजी! आप कभी पूर्णिया नहीं जाते?”


“नहीं, दुलहिन,” गवैयाजी ने मुसकुरा कर कहा, “मुझे कोर्ट-कचहरी का कोई काम नहीं रहता।”


“कोर्ट-कचहरी के काम से नहीं, गवैयाजी; गीत सुनाने जाते हैं या नहीं?”


“इन गीतों के रसिया उधर नहीं हैं। वहां तो और तरह के गीत-नाद चलते हैं।”


“हैं क्यों नहीं, गवैयाजी !” दुलहिन ने बताया, “पूर्णिया का कोरठबाड़ी मोहल्ला तो मैथिलों का मोहल्ला है। वहां तो इन गीतों को सुनने वाले भरे पड़े हैं। आपका तो खूब स्वागत-सत्कार होगा वहां, खूब दान-दक्षिणा मिलेगा।”


“नहीं, दुलहिन,” गवैयाजी ने जवाब दे दिया था, “मुझे तो अपने इस इलाके से ही फुरसत नहीं मिलती; दान-दक्षिणा के लोभ में तो जहा-तहां धावा नहीं मारूंगा।”


नहीं जाते गवैयाजी परदेशी पिया के पास, मगर विरहिणियां चली आती हैं उनके गीत सुनने। भाड़ में जाए कंठ की मिठास, उन्हें तो गीतों के बोल से मतलब है। परदेशी पिया को भेजे जाने वाले पत्र में वे चुन-चुन कर गवैयाजी के गीतों के बोल लिखेंगी। वे खुल कर लिखेंगी–


भार यौवन के जेकरा सहल नहीं जाय।

तेकर पिया परदेश कोना बसलै गे दाय।


इलाके के गांव-गांव में कीर्तन-मंडली है और हर गांव में गवैया हैं, पर इलाके में सिर्फ गवैयाजी के नाम से अगर कोई जाने जाते हैं, तो वे हैं चानन के पूर्णानन्द झा, और वे इस इलाके के हर गांव में जाने जाते हैं। इलाके में जहां कहीं भी गायन-कीर्तन का आयोजन होता है–त्रिकुंज हो या नौकुंज या कोई और आयोजन, इन्हें अवश्य बुलाया जाता है। इन व्यस्तताओं के बाद ही इन्हें फुरसत मिलती है गृहस्थों के घर जा कर गीत सुनाने की। मगर ये फुरसत निकालते हैं। इन्हें उन बच्चियों के लिए भी समय निकालना पड़ता है जिन्हें ये उनके घर जा कर गायन विद्या सिखाते हैं। हर किसी के लिए सप्ताह का एक दिन ही तय होता है। इसके लिए अक्सर वे संध्या का समय तय करते और अक्सर रात गृहस्थ के घर गुजार कर ही आते हैं।


अब तक उनका कहीं भी अकेले ही जाना होता था, मगर अब उन्होंने एक नवयुवक गवैया को भी अपने साथ कर लिया है। जब भी कहीं पहली बार उसे साथ ले कर जाना हुआ है, वहां इस नवयुवक गवैया के बारे में लोगों ने पूछ लिया है और उन्हें इस गवैया का पूरा परिचय देना पड़ा है।


पिछले कई महीनों से महिचन्दा आना नहीं हो पाया था गवैयाजी का। कुछ लोग तो सृष्टिदेव मिश्र से पूछने तक लगे थे, “गवैयाजी तो बहुत दिनों से नहीं आए हैं न?”


“हां, नहीं आए हैं,” जवाब मिलता था, “तीन-चार महीने तो हो ही रहे होंगे।” “हां, अब बूढ़ा शरीर हुआ, नहीं सपरता होगा बहुत आना-जाना।”


“शरीर कुछ बूढ़ा हुआ होगा, मगर गला बूढ़ा नहीं हुआ है गवैयाजी का।”


हर पूछने वाला सृष्टिदेव बाबू को यह सलाह भी देता गया कि बलेसरा को चानन भेजकर खबर की जाए गवैयाजी को आने के लिए।


सृष्टिदेव बाबू ने मन बना लिया किसी दिन नौकर बलेसरा को चानन भेजने का, मगर उससे पहले ही गवैयाजी हाजिर हो गए, इस बार अपने नए संगतिया के साथ।


गवैयाजी का सृष्टिदेव बाबू के पूरे परिवार के साथ बड़ा ही रागात्मक संबंध था। यह संबंध उस समय ही अत्यंत प्रगाढ़ हो गया था जब वे सृष्टिदेव बाबू की बेटी सुनयना को हर शनिवार की शाम गायन विद्या सिखाने आते थे। उन्हें सोच कर आना पड़ता था कि रात महिचन्दा में ही काटनी होगी। अक्सर देर रात तक भजन-कीर्तन चलता रहता था और भोजन करते-करते इतना समय हो जाता था कि उस रात में अपने चानन लौट जाना उनके लिए सम्भव नहीं होता था। सुनयना की मां बहुत श्रद्धापूर्वक उन्हें रात में भोजन कराती थी और सुबह हलवा खिला कर ही विदा करती थी। यह संबंध तब भी ज्यों का त्यों रहा जब कालेज की पढ़ाई के लिए गांव छोडऩे के कारण सुनयना की संगीत शिक्षा में बाधा आ गई। गवैयाजी तब भी, जब भी उनका महिचन्दा आना होता, वे सीधे सृष्टिदेव बाबू के घर का रुख करते और रात बिता कर ही चानन लौटते।





जिस समय गवैयाजी सृष्टिदेव बाबू के घर पहुंचे, वे अपने दालान में कुरसी पर बैठे हुए बलेसरा से बतिया रहे थे। गवैयाजी के आते ही वे सम्मान में उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम कर कुरसी पर बैठने का इशारा किया। तब तक गवैयाजी खाली चौकी पर बैठ गए थे और अपने संगतिया को भी उस पर बैठने का इशारा किया। सृष्टिदेव बाबू ने गहरी निगाहों से अपरिचित आगंतुक को देखा और उसे ब्राह्मण का बच्चा नहीं मान कर गवैयाजी से कहा, “आप दरवाजे पर ही चलिए, गवैयाजी। इसे यहां बैठने दीजिए।”


गवैयाजी को साथ लिए सृष्टिदेव बाबू घर के बाहरी बरामदे पर आए और वहां चादर बिछी चौकी पर गवैयाजी को बैठा कर बलेसरा को हांक लगा दी दालान से कुरसी ले आने के लिए।


चौकी पर बैठते ही गवैयाजी ने सुनाया, “आज रात मैं यहां टिक नहीं पाऊंगा, सृष्टिदेव बाबू। रात में चानन में रहना जरूरी है, इसलिए अभी ही चला आया। आज दिन में ही गीत-नाद होगा। मुझे एक जरूरी काम से रुदौली जाना है। वहां से लौट कर सीधे घर चला जाऊंगा।”


सृष्टिदेव बाबू ने गवैयाजी की बात सुन ली और कुरसी पर बैठते हुए हंस कर पूछा, “अब झोला ढोने के लिए एक आदमी को साथ ले कर चलते हैं, गवैयाजी?”


गवैयाजी ने मुसकुरा कर जवाब दिया, “वह झोला ढोने वाला नहीं है; वह भी गायक है। अब कहीं जाता हूं, तो गाने के लिए उसे भी साथ कर लेता हूं।”


“ब्राह्मण तो नहीं है?”


“नहीं, ब्राह्मण नहीं है, मगर अच्छा गायक है।”


“मैंने उसके रूप-रंग से ही जान लिया था कि वह ब्राह्मण का बच्चा नहीं है,” बोल कर सृष्टिदेव बाबू ने पूछा, “क्या नाम है?”


“गणेश।”


“गणेश?”


“गणेश मंडल।”


“किस जाति का है?”


“कोइरी।”


“कुछ-कुछ गणेश भी है या बिलकुल गोबर गणेश है?”


“मैं गोबर को अपना संगतिया बना सकता था क्या?”


“किसी ब्राह्मण को संगतिया बनाना था। कोई ब्राह्मण पात्र नहीं मिला आपको?”


“कोइरी पात्र भी बुरा नहीं है,” गवैयाजी ने जवाब दिया, “इनका पानी चलता है। हमारे चानन में तो ब्राह्मणों के घर में प्रवेश है इनका। ये पूजा-घर तक में आते-जाते हैं।”


“आप झोला ढोने के लिए तो नहीं रख रहे हैं इसे,” सृष्टिदेव बाबू बोले, “आप गीत सुनाने बाबू-बबुआनों के घर जाते हैं। कोई भी इस आदमी का रंग-रूप देख कर इसकी जाति पूछ बैठेगा। आप झूठ भी नहीं बोल सकते। आपके बताने पर लोग हंसेंगे नहीं कि कोई कोइरी गवैया हो गया है? इसके कंठ से विद्यापति के गीत शोभा पाएंगे?”


“इसके गीत सुन कर आप अपनी राय बदल लेंगे, सृष्टिदेव बाबू,” गवैयाजी ने कहा, “ब्राह्मण पात्र मिला तो था, मगर इसके जैसा मीठा गला कहीं नहीं मिला।”


“सिर्फ गला देखा, रूप-रंग भी तो देखना था।”


“अच्छा गला मिल रहा था, इसलिए रूप-रंग नहीं देखा,” गवैयाजी ने बताया, “यह लड़का अमाही की कीर्तन-मंडली में था। वहीं से मैंने इसे उठाया और अपने साथ कर लिया। पूरा एक साल लगाया है मैंने इसे एक अच्छा गायक बनाने में। आप इसके कंठ से विद्यापति के गीत सुनेंगे, तो मान लेंगे कि रूप-रंग से न सही, गला से तो यह आधा ब्राह्मण है ही।”


गवैयाजी की बात पर सृष्टिदेव बाबू मुसकुराए और फुसफुसा कर उनसे पूछ बैठे, “आधा ब्राह्मण सचमुच तो नहीं है?”


बोल कर सृष्टिदेव बाबू ठठा कर हंस पड़े और गवैयाजी भी अपनी ऐसी ही हंसी रोक नहीं पाए।


जिस दिन गवैयाजी आए, उससे दो दिन पहले ही सुनयना भागलपुर से महिचन्दा आ गई थी। जैसे ही उसे गुरुजी के आने की खबर मिली, वह अंदर से उनके पास आई और उनके चरण-स्पर्श किए। गुरुजी को अपना हाल-चाल सुना कर पुरानी शिष्या ने ढेरों आशीष लिए और यह जान कर कि गीत-नाद का कार्यक्रम अब थोड़ी ही देर में प्रारंभ हो जाएगा और गुरुजी थोड़ी ही देर रुकेंगे, वह आंगन में आवश्यक व्यवस्था करने झट अंदर चली गई।


गुरुजी ने दरवाजे पर दो-चार गीत गाए और हारमोनियम गणेश गवैया की ओर बढ़ा दिया। अपने पहले गीत के साथ ही कोइरी गवैया का जादू ब्राह्मण श्रोताओं के सिर चढ़ कर बोलने लगा। अपने गीतों से समां बांध दिया गणेश मंडल ने। मगर गीत-नाद का कार्यक्रम दरवाजे पर अधिक समय तक नहीं चल पाया। घंटा भर रुक कर गवैयाजी ने विदा ले ली और गणेश गवैया को कह कर गए, “अब अभी से आपका ही कार्यक्रम होगा। मैं जब तक रुदौली से वापस नहीं आ जाता हूं, तब तक आप यहीं रहेंगे। यहां लोग जब तक गीत सुनना चाहें, सुनाइएगा और खा-पीकर दालान में आराम कीजिएगा।”


अगर दरवाजे पर अपने गीत गा कर नहीं आए होते गणेश गवैया, तो उसकी सूरत देखते ही बिदक गई होतीं आंगन में ब्राह्मणियां; मगर, हां, उस सूरत को पचाते देर नहीं लगी। फिर तो यह आलम हुआ कि विद्यापति के गीतों का अपना पूरा भंडार ही खोलना पड़ गया था गवैया गणेश को। देर तक भूखे पेट भी गाना पड़ गया था उसे।





यह सब तो हुआ, मगर उस दिन एक दुर्घटना भी हो गई, और दुर्घटना ऐसी हुई कि भोजन करने के बाद दालान में चौकी पर आराम कर रहे गणेश कोइरी को सृष्टिदेव बाबू ने चीख कर सुनाया, “भागो यहां से, जल्दी भागो।”


महाविद्यालय के छात्रावास के जिस कमरे में सुनयना रहती थी, उसमें उसके साथ किरण को भी जगह मिली थी। वह सुपौल की रहने वाली थी। दोनों का प्रथम परिचय छात्रावास में ही हुआ था।


महाविद्यालय में उन दोनों का यह दूसरा साल था और इस दूसरे साल में दोनों को एक कमरे में साथ-साथ रहने का मौका मिला था। सुनयना को महाविद्यालय के किसी उत्सव में तो गीत गाते नहीं सुना किरण ने, मगर छात्रावास में कमरा बंद कर अक्सर वह गीत गाती थी और किरण को सुनाती थी। विद्यापति का नाम तो सुना था किरण ने, दो-चार गीत भी सुने होंगे, मगर विद्यापति के गीतों के जाल में वह पहली बार फंसी थी। ऐसा हुआ कि चार-पांच महीने के अंदर ही सुनयना से उसकी गीतों की पोथियां ले कर उसने अपनी एक अलग गीतों की पोथी तैयार कर ली। सुनयना ने उसे सिर्फ  गीत सुनाए ही नहीं, धीरे-धीरे उसे गीत गाना भी सिखाया। सुनयना की तरह तो नहीं, मगर धीरे-धीरे किरण ने गुनगुनाना शुरू किया और फिर गाना भी।


घर पर छुट्टियां बिता कर जब सुनयना छात्रावास पहुंची, तो दो दिनों तक उसे कमरे में अकेली ही रहना पड़ा। किरण तीसरे दिन आई। किरण को आते ही सुनयना की झाड़ सुननी पड़ी, “कहां लटक गई थी? पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता है क्या? अपना दुलहा खोजने गई थी? तीन दिनों से तुम्हारा इंतजार कर रही हूं।”


किरण ने मुसकुरा कर जवाब दिया, “मैं पहली बार दो दिन देर से आई हूं। इससे पहले तुम हमेशा दो-चार दिन जहां-तहां लटक कर आती रही हो। तब तो तुमने नहीं बताया था कि तुम्हारा मन पढ़ाई-लिखाई में नहीं लगता है या हर छुट्टी में तुम अपना दुलहा ढूंढने निकलती हो।”


“पहले बताने के लिए कुछ होता नहीं था, मगर इस बार बताने के लिए है,” बोल कर सुनयना ने सुनाया, “मैं दो दिनों से बेचैन हूं तुमसे अपनी बात कहने के लिए। किसी और से बतिया भी तो नहीं सकती थी।”


“कोई समस्या है क्या?”


“नहीं, मेरे लिए कोई भारी समस्या नहीं है, मगर बेचैनी है।”


“बोलो, किस बात की बेचैनी है?”


“अभी तुरत नहीं, स्थिर हो कर रात में, आराम से, सोने से पहले बताऊंगी।”


“कहती हो कि बेचैनी है, और बताओगी आराम से?”


जवाब में सुनयना मुसकुरा कर रह गई।


रात में आराम से सोने से पहले सुनयना ने अपना किस्सा खोला, “मैं कह नहीं सकती कि इस बार की छुट्टियां मेरी खराब हो गईं या खूब अच्छी कटीं, यह जरूर कह सकती हूं कि छुट्टियों के बीच ही मैं घर से भाग आना चाह रही थी। अचानक ही घर पर मैं बिलकुल अकेली हो गई थी और तुमसे मिलने के लिए जी तडफ़ड़ाने लगा था।”


“तो चली आती मेरे पास; मेरे गांव का पता तो था ही तुम्हारे पास।”


“उस वक्त, समझ लो, मुझे घर से बाहर कहीं भी निकलने की इजाजत नहीं थी। मुझे तो डर लग रहा था कि कहीं अब पढ़ाई के लिए भागलपुर आने से भी मुझे रोक नहीं दिया जाए।”


“ऐसा क्या हुआ था?”


“हुआ था विद्यापति के गीतों का उत्पात।”


“गीतों का उत्पात?”


“हां, किरण,” सुनयना ने सुनाया, “गुरुजी के कण्ठ से तो मैंने कितनी ही बार कितने ही गीत विद्यापति के सुने होंगे, मगर कभी ऐसा नहीं हुआ था। इस बार गुरुजी अपने साथ एक नया गवैया ले कर आए थे जिसके गीतों ने उत्पात खड़ा किया।”


“क्या उत्पात किया?”


“मैंने उसे चूम लिया।”


“चूम लिया?”


“हां।”


कुछ रुक कर पूछा किरण ने, “सबके सामने?”


“नहीं, अकेले में।”


फिर कुछ रुक कर पूछा किरण ने, “बहुत खूबसूरत था?”


“नहीं, था तो बदसूरत, बिलकुल बदसूरत।”


“जवान था?”


“था तो जवान, मगर मुझ पर उसकी जवानी का कोई असर नहीं हुआ था।”


“फिर क्यों चूमा रे? चूमने के पहले कुछ सोचा नहीं?”


“कुछ सोच कर नहीं चूमा; अचानक चूम बैठी।”


“अचानक कैसे?”


सुनयना ने बताया, “गुरुजी आए तो थे, मगर उस दिन वे दरवाजे पर ही दो-चार गीत सुना कर किसी से मिलने पास के एक गांव चले गए और हमारे आंगन में गीत सुनाने का भार अपने नए गवैया को दे दिया। आंगन में इस नए गवैया के गीत सुन कर मन्त्रमुग्ध तो हो गई थी मैं, मगर बेकाबू नहीं हुई थी।”


“कब हुई बेकाबू?” बोल कर किरण मुसकुरायी।


“जब गीत-नाद का कार्यक्रम समाप्त हो गया, तब मैंने ही उस गवैया को भोजन कराया था। भोजन के बाद उसे गुरुजी के आने का इंतजार करना था। वह दालान में चला गया आराम करने।





“भोजन करने के बाद पिताजी कहीं बाहर निकल गए थे और मां अपने कमरे में आराम कर रही थी। मेरे मन में क्या हुआ कि मैं दालान की ओर निकल गई।”


“अभिसार पर?”


“दुर! अभिसार पर नहीं,” सुनयना हंस कर बोली, “यों ही उसे एक नजर देख आने। अभिसार पर तो मैं तब निकल गई थी जब आंगन में उसने सुनाना शुरू किया था….


जलद बरिस जलधार

सर जओं पलए प्रहार

काजरे रांगलि राति

बाहर होइतें साति


उसके कंठ से यह गीत सुनते हुए मुझे सचमुच लगने लगा था कि अंधेरी रात है, भीषण वर्षा हो रही है, विषधर विचर रहे हैं, चारों ओर कीचड़ है और विद्युत के प्रकाश में ही कदम बढाए जा सकते हैं। बाहर निकलते भी भय होता है, मगर मैं अभिसार पथ पर बढ़ी जा रही हूं।”


“विद्यापति तुम्हें लिए जा रहे थे?”


“नहीं, विद्यापति नहीं,” सुनयना मुसकुरा कर बोली, “इस गीत को मैं पहले भी कई बार सुन चुकी थी। वह गायक मुझे लिए जा रहा था। गीत के भावों को ऐसा जागृत किया उसने और गीत में ऐसी लहरें पैदा कर दीं कि उन लहरों पर बैठ कर मैं बहती चली गई। अब मैं यह महसूस करती हूं कि कृष्ण की बांसुरी सुन क्यों गोपियां सुध-बुध खो कर दौड़ी चली आती थीं। कृष्ण क्या तब तक भगवान बन गए होंगे! सारा जादू वंशीधर की वंशी का रहा होगा।”


“जब अभिसार पर नहीं निकली थी तुम, तब जा कर उस गायक को चूम कैसे लिया?”


सुनयना खुल कर हंसी और फिर आगे सुनाया, “मैंने दालान में चौकी पर उसे सोया देखा और मेरे कदम उसकी ओर बढ़ गए। मैं बहुत धीमे कदमों से उसके पास आई थी। उसके पास पहुंच कर खड़ी हो गई मैं। वह गहरी नींद में सोया हुआ था। मैं देर तक उसका चेहरा निहारती रही।”


“फिर?”


“फिर मेरी निगाहें उसके होंठों पर जम गईं; उन निगाहों को सिर्फ उसके होंठ नजर आने लगे।”


“फिर?”


“फिर उसके होंठों से निकले गीतों की स्वर-लहरियों ने मुझे घेरना शुरू किया। मैं सुध-बुध खोने लगी, और फिर मुझमें ऐसा आवेग आया कि मैं उसके ऊपर झुकी और उसके होंठों को कस कर चूम लिया।”


“उसने आंखें खोल दी होंगी?”


“हां।”


“तब तो उसने उठ कर तुम्हें अपनी बांहों में भर लिया होगा?”


“बांहों में?”


“हां।”


“नहीं, ऐसा नहीं हुआ।”


“तो बेचैनी इसी बात की हो रही है,” किरण मुसकुरायी, “कि उसने उठ कर तुम्हें बांहों में भर क्यों नहीं लिया?”


“इस बात की बेचैनी?”


“हां, तुम्हें पता न हो, मगर तुम्हारे अंदर बेचैनी इसी बात की है। गायक ने वह नहीं किया जो उसे करना था। यह तो सीधे-सीधे सुंदरी का अपमान हुआ, सुनयना। तुम अपने अंदर अपमान झेल रही हो।”


“गायक ने अपमान नहीं किया है, किरण। मैंने उसे समय कहां दिया उठ कर बांहों में भर लेने का! मैं तो उसके पहले ही वहां से भाग गई।”


“भाग गई!” किरण फटकार के लहजे में बोली, “भाग क्यों गई, री पगली? विद्यापति को ही भूल गई?


दुइ मन मेलि कमने बेकताओब

दारुन प्रथम निवेदन रे।


प्यार में प्रथम निवेदन कितना कठिन होता है, यह जान कर भी भाग गई? जब मन की प्रीति को प्रकट कर दिया, तब क्यों भाग गई री, पगली? होंठों से हट कर उसके चेहरे पर निगाह चली गई होगी तुम्हारी और तुम्हारे हृदय में अचानक कांटा चुभा होगा कि हाय, यह क्या हो गया! चंदन के भ्रम में सेमल का आलिंगन कर लिया!


चंदन भरमे सिमर आलिंगल

सालि  रहल  हिय कांटे।


हुआ है न ऐसा ही?”


“नहीं री, यह भ्रम कैसे होता! सूरत तो उसकी पहले से देखी हुई थी।”


“तो फिर यह खयाल आ गया होगा,


सुरतरु तर सुखे जनम गमाओल

धुथुरा तर निरबाहे।


सोचा होगा, सुरतरु के नीचे सुख से जन्म बिताया, अब धथूरे के नीचे निर्वाह करूं?”


“दुर, बुद्धू! यह क्या जानती नहीं थी मैं कि जो गवैया गांव-गांव गीत सुनाने जाता है, वह कुबेर की औलाद नहीं है?”


“तो फिर कठिन निवेदन के बाद भागी क्यों? बुद्धू तू कि मैं?”


“अभी भी बुद्धू तू। नहीं भागती, मगर गवैया ने आंख खोली नहीं कि मुझे बिजली का झटका लगा।”


“बिजली का झटका?”


“हां, उधर गवैया की आंखें खुलीं और इधर कानों में चीख पड़ी, ‘दीदी!’”


“दीदी!” किरण मुसकुरायी, “यह दीदी कहां से आ गई?


“किधर से तो टपक पड़ी मेरी छोटी बहन सुकेशी। उसने मुझे गवैया के चेहरे पर झुकते देखा होगा, दम साध कर खड़ी रही होगी, और ज्यों ही मैंने गवैया के होंठों को चूमा, वह चीख पड़ी।”


“वह टपक सकती है, यह अनुमान नहीं लगाया था तुमने?”


“नहीं, बिलकुल नहीं। बताया तो तुम्हें कि बाबूजी घर के बाहर थे, मां अपने कमरे में आराम कर रही थी। मुझे खयाल ही नहीं रहा इस बिल्ली बहन का।”


किरण खिलखिला कर हंस पड़ी,


”कुहु भरमे पथ पद आरोपल

आए तुलाएल पंचदशी।


अमावास्या के धोखे मार्ग पर पैर रखा; पूर्णिमा आ कर उपस्थित हो गई।”


“हां, बिलकुल ऐसा ही हुआ।”


“कैसी बहन है तुम्हारी? हंसती-मुसकुराती तो क्या, चीख पड़ी! तब भी तुम्हें भागना नहीं था। तुम उलट कर सुकेशी को चुप रहने का इशारा करती, फिर उसके पास आ कर उसे बहला-फुसला कर अपने विश्वास में ले लेती और उससे यह कह कर कि अब आगे वह नहीं चीखे, तुम गवैया के पास लौट आती।”


“चीख कर क्या वह रुकी रही मेरी मिन्नत-मनौअल के लिए? चीख कर सरपट घर की ओर भागी। मैं समझ गई, वह सीधे मां के पास जाएगी घटना का बयान करने। तब मुझे भी उसके पीछे भागना था या नहीं मां से कुछ झूठ-सच बोल कर अपना बचाव करने के लिए?”


“सुकेशी ने मां से क्या कहा?”


सुनयना के चेहरे पर मुसकुराहट उतर आई, “मेरे कानों में उसकी आवाज आई, ‘गे मां! दीदी तो नया गवैया का चुम्मा ले रही थी।’ तब तक तो मैं वहां पहुंच ही गई थी। मैंने वहां पहुंच कर सुकेशी को भगाया और मां से कहा, “कोई बात नहीं है, मां, कोई बात नहीं है।”


“मां मान गई?”


“नहीं,” सुनयना बोली, “मां मुझे कड़ी नजरों से घूर रही थी और बोली, ‘यह बात है कि तुमने गवैया का चुम्मा लिया?’ मैं क्षण भर के लिए तो मूक रह गई और फिर कहा, ‘ऐसा क्यों हो गया, मां, यह सुन लो।’ मां का रुख कड़ा ही रहा और वह बोली, ‘सुनाओ।’”


बोलकर चुप हो गई सुनयना, तो किरण ने टोका, “क्या कहा तुमने?”


“मैंने कहा, ‘मां, इस गवैया के गीत तुम्हें भी बहुत मीठे लगे होंगे। इस मिठास से मेरा मन भरा हुआ था। उसे देखते ही क्या हुआ मुझे कि मैंने उसके होंठों को चूम लिया जिनसे वे गीत फूटे थे। उस गवैया को नहीं चूमा मैंने, उसके होंठों को चूमा। यह अचानक हो गया, मां। कुछ पहले से सोच कर ऐसा नहीं किया मैंने।’ सच कह दिया मैंने मां से। और क्या कहती? सुकेशी तो सब देख कर गई थी।”


“मां ने तुम्हारे सच को सच मान लिया?”


“हो सकता है, मान लिया हो, मगर वह सवाल कर बैठी, ‘उमता गई हो? ब्याह करोगी?’”


“क्या जवाब दिया तुमने?”


“बताओ, क्या जवाब देती अब? कह देती कि हां, उमता गई हूं, कर दो ब्याह, अभी, इसी गवैये के साथ? मैं चुप लगा गई। सिर झुक गया था मेरा और अब तक मेरी आंखों में आंसू भी आ गए थे।”


“मां पसीजी?”


“नहीं!” कुछ चीख कर बोली सुनयना और फिर सुनाया, “मां ने तो यही माना कि मैं उमता गई हूं और अब मेरा ब्याह जरूरी है। उसने सुना दिया, ‘अब घर से कहीं बाहर नहीं निकलोगी तुम। तुम्हारा पढऩा-लिखना बंद। ब्याह के बाद दुलहा पढ़ाये, तो पढऩा।’





“उस गवैया का क्या हुआ? वह भागा?”


“उस समय नहीं भागा। मां ने दालान जा कर उससे कुछ नहीं कहा। गवैया के मन में कैसा तूफान चल रहा होगा, यह मैं क्या जानूं, मगर उस तूफान को झेल कर भी वह रुका रहा। गुरुजी उससे कह कर गए थे रुके रहने के लिए। जब पिताजी आए, तब मां ने उन्हें पूरा किस्सा सुना दिया और किस्सा सुन कर पिताजी ने पहला काम यह किया कि गवैया को भगा दिया।” “किस्सा सुन कर पिताजी ने कोई दूसरा काम तो नहीं किया कि तुम्हें बेचैनी हो। उन्होंने तुम्हारी पढ़ाई बंद नहीं की, तुम्हें भागलपुर के लिए विदा कर दिया।”


“मां ने यह क्यों मान लिया कि मैं उमता गई हूं और मेरा ब्याह जरूरी है? मां ने मुझे बहुत-सी हिदायतें दे कर विदा तो किया है, मगर अब वह चुप नहीं बैठेगी और मेरा ब्याह कभी भी हो सकता है। मैं अभी ब्याह करना नहीं चाहती; मेरी पढ़ाई बंद हो जाएगी।”


“ऊंहूं, इस बात की बेचैनी नहीं है तुम्हें,” किरण ने सुनाया, “शादी के लिए तुम्हारे पिताजी कोई अच्छा घर-वर ही तलाश करेंगे। यह डर नहीं है कि चंदन के नीचे जीवन बीता और अब सेमल के नीचे दिन काटने होंगे। तुम्हारी पढ़ाई भी बंद नहीं होगी। जो लड़कियां शादी के बाद भी पढऩा चाहती हैं, उनकी पढ़ाई अब नहीं रुकती। यहां देख ही रही हो कि कितनी शादीशुदा लड़कियां पढ़ाई कर रही हैं। मां ने कहने को कह दिया, मगर तुम्हारे पिताजी ने मान नहीं लिया कि तुम उमता गई हो। अगर ऐसा हुआ होता, तो वे तुम्हें यहां आने नहीं देते और तुम्हारा ब्याह झटपट किसी भी काने-लूले से कर डालने के बाद ही तुम्हें घर से बाहर निकलने देते। ऐसा तो नहीं हुआ? अगर तुम्हारी शादी होती भी है, तो तुम्हारे पिताजी ही तुम्हारी पढ़ाई बंद नहीं होने देंगे, यह तुम भी जानती हो। तुम्हारी बेचैनी कुछ और है।”


“और क्या बेचैनी हो सकती है भला!” सुनयना ने कुछ अचरज प्रकट किया, “नहीं, और कोई बेचैनी नहीं है।”


किरण मुसकुरायी, “मैं जान रही हूं तुम्हारी बेचैनी।”


“क्या जान रही हो?”


“तुम बेचैन हो गवैया के लिए; वह तुम्हारे मन में बस गया है।”


“मन में बस गया है?”


“हां।”


“नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मैंने तो झोंक में आ कर चूम लिया था उसे।”


“तुमने बताया था, सुनयना, कि तुम्हारे गांव-जवार की ललनाओं में विद्यापति के शृंगारिक गीतों को सुनने की बड़ी ललक होती है और एक जमाने से वे सुनती आई हैं इन गीतों को, तो ऐसा कभी हुआ है कि कोई लड़की किसी सुकंठ गवैया के गीत सुन कर तुम्हारी ही तरह झोंक में आ गई हो?”


“ऐसा कोई किस्सा मैंने सुना नहीं है।”


“एक किस्सा मैं जानती हूं कि मेरे इलाके के एक मेला में एक सुंदर लड़की को देख कर एक लड़का इतना बेकाबू हुआ कि मेले की भीड़ में ही उसका आलिंगन कर बैठा और उसे चूम लिया। किसी लड़की ने कभी ऐसा किया, यह मैंने भी नहीं सुना है। उस लड़के की तरह ही तुम भी झोंक में आ गई। इस झोंक का मतलब है कि तुम्हारे मन में उस गवैया के लिए प्रेम उपज गया।”


“उस गवैया के लिए प्रेम?”


“हां, प्रेम उपजा और तुमने निवेदन भी कर दिया, प्रेम का पहला निवेदन, अत्यंत कठिन। यह प्रेम ही अब तुम्हें बेचैन कर रहा है।”


“उसे तो पिताजी ने उसी समय भगा दिया था। जब गुरुजी आए, तो पिताजी ने उनसे भी कह दिया कि किसी कोइरी-धानुक चेला को साथ ले कर किसी ब्राह्मण के घर न आया करें। अगर प्रेम उपजा भी, तो उसके साथ चला गया। बात आई-गई हो गई।”


“बात आई है, गई नहीं है। तुम दिल टटोल कर देखो, वह प्रेम तुम्हारे अंदर ठहर गया है। तुम्हारा पहला ब्याह तो उस गवैया के साथ हो गया। यह हुआ तुम्हारा मानस से ब्याह; अब और किसी के साथ तुम्हारा दूसरा ब्याह ही होगा।” “तुम प्रेम से ब्याह तक चली गई! झोंक में आ गई थी मैं तो, बस; मैं उस गवैया के लिए जरा भी व्याकुल नहीं हूं।”


“अभी तुम महसूस नहीं कर रही हो अपनी व्याकुलता, मगर जब पता चलेगा कि वह गवैया तुम्हारे लिए व्याकुल है, तब तुम्हें भी अपनी व्याकुलता का पता चल जाएगा।”


“उसका तो कोई अता-पता भी नहीं। और फिर, वह क्यों व्याकुल होने लगा!” “अगर उसके आंख खुलते ही तुम भाग नहीं गई होती, तो अवश्य वह उठ कर तुम्हें बांहों में भर लिया होता। तुम्हारे भागने के बाद भी वह भागा नहीं, तुम्हारे पुन: आने का इंतजार करता रहा। भागा तब जब उसे भगाया गया। अगर तुम लौट कर आई रहती उसके पास, तो अवश्य वह तुम्हारा आलिंगन कर बैठता और तुम्हारे कानों में कहता, ‘चलो, हम दोनों भाग चलें।’ तुम सोचती हो कि वह ऐसा नहीं कहता?”


“उस गवैया की यह हिम्मत नहीं होती कि मुझसे ऐसा कुछ कहता, यह हिम्मत भी नहीं कि मेरा आलिंगन कर बैठता।”


“ऐसा मत कहो, सुनयना। हिम्मत तो उसमें तुमने पैदा कर ही दी। वह आलिंगन के सुख को स्वर्ग का सुख मान कर उस सुख को हाथ से फिसलने नहीं देता। अब वह छूंछा गवैया रहा कहां! तुमने अपना प्रेम प्रकट कर दिया उसके सामने, और वह तुम्हारा प्रेमी हो गया।”


“प्रेमी!” मुसकुराते हुए बुदबुदायी सुनयना और बोली, “वह प्रेम का पूरब-पच्छिम भी जानता होगा क्या! भनइ विद्यापति,” हंस पड़ी वह, “भेक कि जाने कुसुम-मकरन्द। उसे मेढक मानो और तब बोलो कि वह फूलों की मिठास जानेगा? ब्राह्मण के घर में प्रवेश पा गया वह, उसके लिए तो यही स्वर्ग का सुख हो गया। इसके आगे कुछ नहीं। गला अच्छा है, मगर है तो भुच्च-गंवार ही। वह कोई रसिया नहीं हो सकता।”


“एक ‘भनइ विद्यापति’ मैं भी सुनाऊं?”


मुसकुरायी सुनयना, “सुनाओ।


“तुम मुझे कितनी ही बार सुना चुकी हो।”


“सुनाओ तो।”


किरण ने सुनाया,


‘सामर सुंदर हरि रहल आंचर धरि

फोअइतें किंकिनि माला रे।

आओर कहब कत रस उपजल जत

के बोल कान्ह गोआला रे।


तुम तो अभी तक कृष्ण को गंवार ही समझ रही हो! यह भी जान रही हो तुम कि ‘काठेओ रस दे नाना बंध।’ नाना प्रकार के उपायों से तो काठ भी रस देता है। जो गीत के रस को अपनी आवाज में ढाल सकता है, वह अवश्य रसिया है। तुम मानती रहो उसे भुच्च-गंवार, मगर ज्यों ही गवैया ने आंखें खोली होंगी, तुम्हें देखते ही वह रसमय हो गया होगा। तुम उसे मेढक मत मानो।”


“रसमय हो गया होगा, तब भी वह मेरे लिए मेढक ही ठहरा। अभी टर्रा रहा होगा किसी तालाब में।”


“तुम मेरी बात मानने से इनकार करोगी, मगर मैं तो कहूंगी ही कि वह तालाब भी तुमने अपने मन के अंदर ही खुदवा लिया है और उस मेढक की टर-टर मन ही मन सुन रही हो।”


“मुझे तो नहीं, पर तुम्हें अवश्य हो गया है उस मेढक से प्रेम। सुबह तक मैं उसे भुला चुकी होऊंगी। अब सो जाओ। कल से उसकी कोई चर्चा नहीं।”


“मैं तो सो गई,” बिस्तर पर पसरते हुए किरण ने जवाब दिया, “तुम सोचो कि सो पाओगी या नहीं।”


“चुप!” सुनयना ने मुसकुरा कर डांट दिया, “सो जा।”


यह बात भी दो-चार दिनों तक जगी रही उन दोनों में और फिर सो गई। छात्रावास में विद्यापति के गीत गाना और सुनना उन दोनों के बीच बदस्तूर जारी रहा, मगर हँसने-मुसकुराने के बीच भी न किरण ने कभी पूछा कि मेढक गवैया याद आ रहा है या नहीं और न सुनयना ने कभी बताया कि उसे छोटे गवैया याद आ रहे हैं। सिर्फ एक बार जब अगली छुट्टियां घर पर बिता कर सुनयना छात्रावास पहुंची थी, तो किरण ने पूछा था, “सुनयना, उस भागे हुए गवैया के बारे में कुछ सुनने को मिला था गांव में?”


“नहीं,” सुनयना कुछ क्षणों तक किरण के चेहरे पर निगाह टिकाये रही और फिर जवाब दिया, “मैंने कुछ नहीं सुना।”


“तुमने किसी से पूछा भी नहीं?”


फिर कुछ ठहर कर सुनयना ने कहा, “मुझे किसी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। पूछती भी किससे? सही जानकारी तो एक गुरुजी ही दे सकते थे न! उनसे मुलाकात होती, तब भी मैं उनसे पूछ सकती थी क्या?”



“सच बताना, सुनयना,” किरण ने कुछ गम्भीर स्वर में पूछा, “गवैया के बारे में जानने की मन में थोड़ी भी उत्सुकता कभी पैदा हुई है या नहीं?”


“इतनी उत्सुकता तो नहीं हुई कि किसी से पूछूं।”


“नहीं पूछा, किसी डर से,” किरण बोली, “खयालों में वह कभी आया या नहीं?”


“यह झूठ तो नहीं बोलूंगी कि कभी खयालों में भी नहीं आया। विद्यापति के गीतों के साथ वह जुड़ गया है, किरण,” सुनयना ने सुनाया, “मगर यह भी सच नहीं है कि मैंने उसे अपने खयालों में बसा रखा है।”


“एक बात मैं जानती हूं।”


“क्या?”


“पहला प्यार मरता नहीं है।”


“बताया न कि वह प्यार नहीं था; मैं झोंक में थी।”


“उस झोंक में प्यार ही था।”


“तो होगा जिन्दा मन के किसी कोने में। मन के चारों कोनों को टटोलने नहीं जा रही मैं। मुझे अब उस प्यार से कोई लेना-देना नहीं।”


“जिस स्वर ने तुम्हें एक बार मुग्ध कर दिया था, वह दुबारा नहीं कर सकता क्या? झोंक में क्या तुम फिर कभी नहीं आ सकती?”


“वह स्वर क्या अब कभी सुनने को मिलेगा?”


“मिल सकता है,” किरण बोली, “तुम्हारे अंदर का प्यार भले मर गया हो, मगर वह गवैया तो अपने पहले प्यार को कभी मरने नहीं देगा। अगर उसकी सूरत पर कोई लड़की लट्टू नहीं हुई होगी, तो उसके स्वर पर सुध-बुध खोने वाली अकेली लड़की का प्यार उसका पहला प्यार ही होगा। बदसूरत गवैया अवश्य मंडरा रहा होगा तुम्हारे आस-पास तुमसे मिलने के लिए। तुमने उसे चूमा है, सुनयना। किसी दिन अवश्य तुम्हें उसके स्वर सुनाई पड़ जाएंगे।”


“मगर अब मैं झोंक में नहीं आने वाली,” सुनयना हंस पड़ी, “अब यह याद रखूंगी कि सुकेशी मेरे पीछे खड़ी है चीखने के लिए।”





कुछ रुक कर किरण ने पूछा, “गुरुजी तुम्हारे गांव में आते हैं या नहीं?”


“एक हमारा घर ही पूरा महिचन्दा तो नहीं है,” सुनयना ने कुछ रूखी आवाज में जवाब दिया, “मैं जब तक गांव में रही, उनके आने के बारे में कुछ नहीं सुना, मगर यह नहीं मानती कि उन्होंने हमारा गांव ही छोड़ दिया होगा। अपनी इच्छा से उन्होंने आना भले ही बंद कर दिया हो, मगर अतिथि की अभ्यर्थना करने के लिए उन्हें दूसरे घरों से अवश्य बुलाया जाता होगा और वे अवश्य आते होंगे।”


“मैं अब कभी उस गवैया के बारे में पूछूंगी नहीं, सुनयना,” किरण ने कहा, “मगर जिज्ञासा बनी रहेगी उसके बारे में जानने की। अगर कभी तुम्हें कुछ सुनने को मिले, तो मुझे अवश्य बताना।”


छात्रावास में चार साल तक वे दोनों एक साथ रहीं। बी ए की परीक्षा के बाद की छुट्टियों में ही सुनयना को एक इंजीनियर दुलहा मिल गया, मगर शादी के बाद भी उसकी पढ़ाई जारी रही।


एम ए की पढ़ाई के लिए और दो साल वे दोनों भागलपुर में रहीं, मगर अलग-अलग जगहों में। अलग रह कर भी वे कभी अलग नहीं हुईं। उनका मिलना-जुलना बराबर बना रहा। एक साथ बैठ कर विद्यापति के गीत तक गाने-सुनाने के अवसर वे निकाल लेती थीं, कभी-कभी तो कॉलेज के गर्ल्स कॉमन रूम में ही। एम ए करने के बाद किरण सहरसा के एक कॉलेज में व्याख्याता के पद पर बहाल हो गई।


एम ए की परीक्षा के बाद जब उन दोनों को एक दूसरे से विदा लेने का समय आया, तो दोनों ही बहुत भावुक हो उठी थीं। हालांकि यह तय था कि आगे के दिनों में भी वे एक दूसरे से मिलती रहेंगी, पर उन्हें लग रहा था कि उन दोनों के लिए ही यह अंतिम विदाई है।


विदाई के उन क्षणों में ही किरण बोली, “यहां से मैं एक सुनयना को ही नहीं, अपने साथ एक अनुपमा को भी लिए जा रही हूं।”


“कौन अनुपमा?”


“तुम!” किरण मुसकुरा उठी, “तुम्हारी कोई उपमा नहीं।”


“कैसे?”


“जब से तुमने मुझे अपना किस्सा सुनाया है,” किरण ने बड़े ही शांत स्वर में कहना शुरू किया, “तब से ही मैं एक और ऐसी लड़की को ढूंढ़ती रही हूं जो गीत सुन कर इतनी मुग्ध हो उठी हो कि अपनी सुध-बुध खो कर गायक को चूम लिया हो। कोई एक न मिली। कितनी ही कामिनियों के मन में उपजा होगा प्रेम कलाकारों के लिए, पर कोई तुम्हारी तरह झोंक में आ गई हो, ऐसा सुनने को नहीं मिला। मैंने स्वयं कितनी ही बार आंखें मूंद कर यह कल्पना की कि मैं किसी सुकंठ से सुरीले-रसीले गीत सुन रही हूं और प्रयास किया कि सम्मोहित हो कर मैं भी तुम्हारी तरह झोंक में आ जाऊं, मगर मेरा हर प्रयास निष्फल रहा। इसलिए मैंने तुम्हें अनुपमा कहा; कोई उपमा नहीं मिली तुम्हारी।”


“अब तो मुझे भी अचरज हो रहा है,” सुनयना बोली, “कि मैं झोंक में कैसे आ गई!”


“प्रेम जगा, तभी तो तुम झोंक में आई,” किरण ने आगे सुनाया, “तुम्हें एक और कारण से भी मैं अनुपमा मान रही हूं।”


“और किस कारण से?”


“प्रेम के आवेश में तुम अपना निवेदन तक कर बैठी, और उसके बाद उस प्रेम को भुला दिया जिसका प्रथम निवेदन अत्यंत कठिन होता है।”


“मैंने तो तुम्हें बताया ही था कि एक झोंक में वैसा हो गया। मैं उस पहली झोंक के बाद ही इतनी सयानी हो गई कि फिर कभी कोई हलकी-फुलकी झोंक भी आने से रही। मैं उसे कब का भुला चुकी हूं।”


“इसीलिए तो तुम,” किरण ने सुनाया, “मेरे लिए अब सुनयना कम और अनुपमा अधिक हो गई हो।”


उस रात वे दोनों रात भर जगी रह गई थीं बातें करते हुए। अगली सुबह दोनों एक साथ निकलीं अपने-अपने घर के लिए। पूर्णिया में दोनों का साथ छूट गया; किरण सुपौल के लिए विदा हो गई और सुनयना महिचन्दा के लिए।


इस जुदाई के बाद भी उनके संबंध कभी ढीले नहीं पड़े। पहले की तरह साथ रहना तो कभी नहीं हुआ, मगर जब-तब दो-चार दिनों के लिए मिलना होता रहा। किरण की शादी में सुनयना अपने पति के साथ पहुंची थी। अगले पचीस वर्षों में और भी ऐसे कितने ही अवसर आए थे जब सुनयना किरण के पास आ गई थी और किरण का सुनयना के पास जाना हुआ था। सुनयना को जब कभी अपने मायके जाना होता, वह किरण से भी मिलने का कार्यक्रम तय कर लेती। भ्रमण के लिए जब कभी किरण को दिल्ली के आस-पास जाना होता, वह दिल्ली को छू आती और सुनयना से मिल कर आती। मुलाकातों के बीच टेलीफोन पर उनका संपर्क बराबर बना रहता।


इन पचीस वर्षों में एक बार भी सुनयना का प्रथम प्रेम चर्चा में नहीं आया।


एक दिन एक विचित्र खबर फूटी सुनयना के टेलीफोन पर। किरण ने खबर दी, “सुनयना! अब तुम मेरे लिए फिर से सुनयना हो गई, पूरी तरह सुनयना।”


“क्या मतलब?”


“याद करो, मैं भागलपुर से सुनयना के साथ किसे ले कर चली थी। आ रहा है कुछ याद?”


“हां, आ रहा है याद।”


“तो सुन लो कि अब तुम अनुपमा नहीं रही।”


“खोल कर बताओ।”


“वह तो मिलने पर ही बताऊंगी।”


“अब यह सुनने के लिए मैं तुम्हारे पास आऊं! बताना हो तो बताओ।” “बताऊंगी तो मिलने पर ही। तुम इधर कब आ रही हो?”


“अभी तो कोई विचार नहीं है उधर जाने का।”


“कभी तो आओगी?”


“हां, कभी क्यों नहीं आऊंगी! दो-तीन महीने के बाद तो आ ही सकती हूं।”


“ठीक है, मैं तुम्हारे आने का इंतजार करूंगी।”


“इंतजार करोगी, मगर अभी बताओगी नहीं?”


“नहीं, अभी नहीं बताऊंगी।”


“मत बताओ।”


सुनयना ने बात यहीं समाप्त कर दी, मगर दूसरे ही दिन उसने किरण को फोन किया, “किरण! मैं बहुत उत्सुक हो गई हूं सुनने के लिए। तुम कुछ तो बताओ।”


“कुछ तो बता दिया, अब बाकी मिलने पर ही बताऊंगी।”


अगले दिन फिर फोन किया सुनयना ने, “किरण! मैं परसों तुम्हारे पास पहुंच रही हूं, अकेली। पति महाशय से कह दिया है कि तुम्हारा फोन आया था, कि तुम मरण-शय्या पर हो और मरने के पहले एक बार मुझसे मिल लेना चाहती हो।” हंस पड़ी किरण और हंसी रोक कर जवाब दिया, “इस बहाने ही आओ। मैं तो मरने से रही; हां, अनुपमा मर गई।”


सुनयना के आने पर अनुपमा के मरने का किस्सा सुनाया किरण ने, “तुम्हारी उपमा मिल गई, सुनयना; अचानक मिल गई।”


“कहां?”


“इतिहास में।”


“किस इतिहास में?”


“फ्रांस की एक रानी ने प्रेम-गीत गाने वाले एक कवि के होंठों को चूम लिया था। वह कवि राजमहल के बरामदे पर एक बेंच पर सोया हुआ था।”


“चोरी से चूमा था?”


“हां, चोरी से ही चूमा होगा। उसने भी अमावस्या में ही कदम बढ़ाए होंगे और होंठों पर होंठ रखते ही पूर्णिमा उपस्थित हो गई होगी।”


मुसकुरा कर पूछा सुनयना ने, “उसके पीछे भी कोई सुकेशी खड़ी थी?”


“इतिहास लेखक ने यह सब नहीं लिखा है कि किसने देखा और बात कैसे फूटी,” किरण ने बताया, “मगर रानी का स्पष्टीकरण उसने दर्ज कर दिया है अपनी पुस्तक में।”


“रानी ने बताया कि वह झोंक में आ गई थी?”


“रानी ने ऐसा कुछ नहीं कहा,” किरण ने सुनाया, “रानी ने खुल कर कहा कि उसने किसी इंसान को चूमना नहीं चाहा था; वह तो उन होंठों को चूम रही थी जिनसे इतने मीठे गीत फूटे थे।” सुनयना ने गहरी निगाहों से किरण की ओर देखा और बोली, “मैं तो ऐसा नहीं कह सकती थी, किरण।”


“रानी ने यह भी कहा कि हर रोज वह उस कवि में ऐसा कुछ नया देखती है जो उसे प्यार और प्रशंसा की राह पर धकेल देता है।”


“सच कह रही होगी रानी।”


“यह तुम्हारा सच तो नहीं है?”


देर तक चुप रहने के बाद सुनयना ने मुंह खोला, “मैंने एक अपराध किया है, किरण।”


“कैसा अपराध?


“अगर सुनाऊं तो अनुपमा मरी तो मरी, तुम सुनयना को भी मार दोगी।”


“मैं मार दूंगी? तुम्हें? सुनयना को?” “हां?”


“मैं तो नहीं जानती कि तुमने कभी मेरा कुछ बुरा किया है, कभी बुरा सोचा भी है। तुमने अपराध किया और मुझे पता तक नहीं! क्या अपराध किया है तुमने?”


“मैं झूठ बोल गई थी।”


“कैसा झूठ?”


“मैं कभी किसी झोंक में नहीं आई थी।”


“तब झोंक में नहीं आई थी जब तुमने गवैया को चूमा था?” “और यह भी झूठ बोली थी कि मैंने उसे बिलकुल भुला दिया है।” “यह भी झूठ?”


“हां, किरण, उस गवैया के गीत जब-तब मेरे कानों में गूंजे हैं और जब कभी ऐसा हुआ है, मुझे लगा है कि मेरे होंठ उसके होंठों की ओर बढ़ रहे हैं।”



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स गूगल इमेज से साभार ली गई हैं।)


(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2013 अंक में प्रकाशित)

टिप्पणियाँ

  1. कितनी सुंदर और प्यारी कहानी है। मनुष्य का कला के प्रति ऐसा ही लगाव-प्रेम होता है। इसमें बातें तो बहुत सी हैं और इसे विभिन्न कोनों से देखा -परखा जा सकता है लेकिन इसे विशुद्ध प्रेम-कहानी के रूप में देखने से इसका सौन्दर्य अक्षुण्ण रहेगा। यह सोचने के लिए बाध्य हो गया कि यूं ही कोई किसी पर फ़िदा नहीं होता। कभी -कभी एक शब्द ही हमारे अस्तित्व को झुका देता है और हम नतमस्तक हो जाते हैं। विद्यापति के गीतों में जो माधुर्य और आधुनिकता है उनका पुनरावलोकन जरूरी है।

    बहरहाल, चंद्रकिशोर जायसवाल जी को इस प्रतिष्ठित सम्मान के लिए बधाई। इस प्रसंग पर आपकी टिप्पणी बिलकुल सही और सटीक है।
    ललन चतुर्वेदी

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  2. बेजोड़ हैं चन्द्रकिशोर जी.

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