लिअनीद अन्द्रयेइफ़ की कहानी 'कटखना'

 

लिअनीद अन्द्रयेइफ़ 


लिअनीद अन्द्रयेइफ़ ( Lionid Andreev)               


परिचय           

  

21 अगस्त 1871 को  ज़ारशाही रूस में एक भूमिनापक के परिवार में जन्म। रूसी साहित्य के रजत युग के प्रतिनिधि लेखक। कहानी, नाटक व उपन्यास लेखन के अलावा चित्रकारी और फ़ोटोग्राफ़ी। रूस में सबसे पहले रंगीन फ़ोटोग्राफ़ी का चलन लिअनीद अन्द्रयेइफ़ ने ही शुरू किया। 1897  में वकालत पास करने के बाद पत्रकार बन गए। पत्रकारिता के दौरान ही कहानियाँ लिखने लगे। मकसीम गोरिकी ने और चार्ल्स डिकेन्स ने इनकी कहानियों की प्रशंसा की और युवा लेखक के रूप में इनकी प्रतिभा को पहचाना। मकसीम गोरिकी ने तो अपने ’ज्ञानबोध प्रकाशन’ में इन्हें सहायक सम्पादक बना लिया। जीवन में दो बार आत्महत्या की कोशिश की। प्रेम में असफल होने के बाद दूसरी बार छाती में गोली मार कर मरने की कोशिश की। इन्हें बचा लिया गया, लेकिन उनके दिल में छेद हो गया, जिसकी वजह से सारी ज़िन्दगी बीमार रहे। और इसी दिल की बीमारी की वजह से 12 दिसम्बर 1919 को इनका देहान्त हो गया। इन्हीं के एक पुत्र दनील अन्द्रयेइफ़ रूस के बड़े दार्शनिकों में गिने जाते हैं।   



सन 1871 में रूस  के अर्योल प्रान्त में पैदा हुए लिअनीद अन्द्रयेइफ़ रूस के विश्व प्रसिद्ध लेखक हैं। इन्हें रूस का फ़्रान्ज काफ़्का माना जाता है। इनका लेखनकाल भी क़रीब-क़रीब वही है, जो काफ़्का का है। यह हम पाठकों का दुर्भाग्य ही है कि सोवियत सत्ता काल में रादुगा प्रकाशन और प्रगति प्रकाशन ने इनकी कहानियों और लघु उपन्यासों का कोई संग्रह प्रकाशित नहीं किया। अब जब अँग्रेज़ी से अनुवाद करने वाले पंजाबी भाषी अनुवादकों की जगह सीधे रूसी से अनुवाद करने  वाले कुछ हिन्दी-भाषी अनुवादक सामने आ गए हैं, तो लिअनीद अन्द्रयेइफ़ की कहानियों का अनुवाद भी प्रकाशित करने की योजना बनी है। हिन्दी में इनकी कोई कहानी सबसे पहले ’पहली बार’ में सामने आ रही है। जल्दी ही इनकी कहानियों का एक संग्रह हिन्दी में सामने आएगा।" तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं लिअनीद अन्द्रयेइफ़ की कहानी 'कटखना'। इस कहानी  का अनुवाद किया है सरोज शर्मा ने। प्रस्तुति अनिल जनविजय की है।

                                                     

                                                               

प्रस्तुति : अनिल जनविजय


                                     

'कटखना'


लिअनीद अन्द्रयेइफ़



भाग - 1 


वह किसी का न था, न ही उसका कोई नाम था और न ही किसी को यह पता था कि वह लम्बे समय तक चलने वाली सर्दियों में ठंड से कहाँ छिपा करता था और क्या खाया करता था। गली-मोहल्ले के दूसरे लावारिस कुत्ते भी उसे अपने पास फटकने तक न देते थे। वे उसे खदेड़ कर दूर भगा दिया करते थे। गली के उन कुत्तों में और इस कुत्ते में सबसे बड़ा फ़र्क यह था कि इसे कोई भी ज़रा भी लाड़-प्यार न करता था, जबकि दूसरे कुत्ते इस बात पर बड़ा गर्व करते थे कि मोहल्ले में रहने वाले लोगों में से कोई न कोई उनसे लगाव रखता है। हालाँकि समय-समय पर भूखा तो उन्हें भी रहना पड़ता था, लेकिन किसी न किसी रूप में लोगों के साथ जुड़ाव से उन्हें ताकत मिलती थी। इसके विपरीत जब यह अकेला कुत्ता भूख से परेशान हो जाता और दूसरे कुत्तों के साथ मिल कर रहने की कोशिश करता तो मोहल्ले के बच्चे उस पर पत्थरों की बौछार करते और सीटियाँ बजा कर उसे भगाने की कोशिश करते। उस पर पत्थर फेंक कर बच्चे बहुत खुश होते थे। जब भी उसके साथ ऐसा सौतेला व्यवहार होता वह बुरी तरह से डर जाया करता था और उस मोहल्ले के घरों की बाड़ों के पास से ख़ुद को घसीटता हुआ वह कुत्ता गाँव के दूसरे छोर पर सुनसान पड़े एक मैदान में जा कर छिप जाया करता था। वहाँ पड़ा-पड़ा वह अपने घावों को चाटता था। ऐसी तनहा ज़िन्दगी से उसके मन के भीतर डर और वैर घर करते गए। 



उसकी ज़िन्दगी में जिस आदमी ने पहली बार उस पर तरस खा कर उसे दुलराने की कोशिश की थी, वह आदमी था शराबख़ाने से बाहर आया एक पियक्कड़। वह आदमी नशे में बुरी तरह से धुत्त था, इसलिए वह सबसे प्यार से बोल रहा था और सब पर दया दिखा रहा था। वह शराबी अपने दोस्तों के बारे में धीरे-धीरे कुछ बुदबुदा रहा था। शायद उसे उनसे बड़ी उम्मीदें थीं। अचानक उसकी नज़र धूल-मिट्टी में सने, झबरीले बालों वाले इस कुत्ते पर पड़ी। कुत्ते की बुरी हालत देख कर उस शराबी को उस पर बेहद तरस आया। 



शराबी ने लड़खड़ाती आवाज़ में उससे कहा - टॉमी, टॉमी! आओ, मेरे पास आओ, डरो मत। 



कुत्ता उसकी आवाज़ सुन कर धीरे-धीरे पूँछ हिलाने लगा, लेकिन उसके पास जाने की हिम्मत न जुटा सका। शराबी ने कुत्ते को एक बार फिर पुचकारा और अपनी हथेली से अपने पैरों पर थाप देते हुए कहा - अरे,  आओ न, आओ बेटा, मेरे पास आओ!



कुत्ता कुछ घबराया हुआ था और वह सोच रहा था कि वह उसके क़रीब जाए या न जाए। लेकिन कुछ ही देर बाद वह साहस बटोर कर, पूँछ हिलाते हुए उसके करीब पहुँचा, लेकिन तब तक शराबी का मिज़ाज बदल चुका था। उसे यह याद आ गया था कि कैसे उन लोगों ने जिन्हें वह भला इनसान मानता था उसकी बेइज़्ज़ती की थी और दुख पहुँचाया था। इन बातों को याद कर के उसे ग़ुस्सा आने लगा था। अपनी तौहीन की बात याद करके वह नाराज़ हो गया था इसलिए उसने कुत्ते की तरफ़ लातें झटकारते हुए फटकार कर कहा - धत्त! कमीने! दफ़ा हो जा यहाँ से। तुझे कोई और आदमी नहीं मिला? 



इससे पहले भी कुत्ते के साथ कई दफा बेरहम हादसे हो चुके थे। लेकिन आज पहली बार उसके साथ ऐसा हुआ था कि किसी ने पुचकार कर पहले उसे अपने पास बुलाया हो और फिर लात मारी हो। उधर वह पियक्क्ड़ लड़खड़ाता हुआ अपने घर की ओर चल दिया। घर पहुँच कर उसने सबसे पहला काम तो यह किया कि उसने अपनी बीवी की पिटाई कर दी और इस तरह अपनी खीज उतारी। उसकी बीवी के सिर पर एक रुमाल बँधा हुआ था। यह उसने पिछले हफ़्ते ही उसे तोहफ़े में दिया था। और अब झुंझलाहट में आ कर बड़ी नाराज़गी से उसके सिर पर से वह रुमाल उतार लिया। 



उधर पुचकारने के बाद लात खाने वाली जो वारदात उस कुत्ते के साथ हुई, उसके बाद से उसका लोगों पर से विश्वास उठ गया। अब जब कभी कोई उसे सहलाने की कोशिश करता तो वह दुम दबा कर वहाँ से दूर भाग जाया करता था। और कभी-कभी तो ऐसा होता था कि वह ग़ुस्से में आ कर उस आदमी पर झपट पड़ता, जो उसे पुचकारने के इरादे से अपना हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाता था। वह तब तक गुर्राता रहता था, जब तक उसे छड़ी या पत्थर आदि दिखा कर वहाँ से भगा नहीं दिया जाता था। 


सर्दियाँ फिर से आ गई थीं। कुत्ते को अक्सर भूखा रहना पड़ता था। एक दिन भोजन की तलाश में भटकता हुआ वह कुत्ता गाँव के एक जागीरदार के घर में जा घुसा। परन्तु वह बड़ा-सा घर खाली पड़ा था। उसने घर के बाहर अहाते में बालकनी के नीचे डेरा डाल लिया और पूरी सर्दियाँ वहीं रहा। वह कुत्ता हर रोज़ उस कोठी की चौकसी किया करता था। हर रात बाहर सड़क पर निकल कर वह गला फाड़-फाड़ कर देर तक भौंका करता था। जब वह भौंकते-भौंकते थक जाता तो अहाते के भीतर आ कर लेट जाया करता था और देर तक कूँ-कूँ करता रहता था। उस कुत्ते को कोठी की पहरेदारी करने में सुकून मिलता था और अब वह ख़ुद पर फ़ख़्र करने लगा था।  


घोर सर्दियों के उन दिनों में चारों ओर चुप्पी छाई रहती थी। रोज़ गिरने वाली बर्फ़ से कोठी का बगीचा भी पूरी तरह से जम गया था। उस साल हाड़-तोड़ सर्दी पड़ रही थी। सुनसान पड़ी कोठी की काली और सुरमई पड़ चुकी खिड़कियाँ भी ठण्ड से पूरी तरह जकड़ गई थीं। खिड़कियों के शीशों पर भी बर्फ़ की मोटी परत जमी हुई थी। खिड़कियाँ बड़ी उदासी से इस बर्फ़ को ताका करती थीं। कभी-कभी इन खिड़कियों के काँच चमकने लगते थे, जब चाँद की मद्धम रोशनी उन पर गिरती या आसमान साफ़ होता और आकाश से टूट कर गिरते हुए किसी सितारे की परछाई उन खिड़कियों में झलकती तो उन उदास खिड़कियों में भी जैसे जीवन गूँज उठता था। सर्दियाँ बीत रही थीं। कोठी के बाग़-बगीचे और कुत्ते को बड़ी शिदद्त से बसन्त का इंतज़ार था। 





भाग- 2  


आख़िर बसंत आ गया। चारों ओर बसंत की हलचल दिखाई पड़ रही थी। बग़ीचे में लगे पेड़-पौधों और झाड़ियों पर हरे पत्ते आने शुरू हो गए। सेब के पेड़ों पर तो सफ़ेद फूल भी खिल चुके थे। इस बार बौर बहुत अच्छा आया था। एक दिन कुछ लोगों का एक झुण्ड कोठी में पहुँच गया। इस झुण्ड में कई छोटे-बड़े बच्चे भी शामिल थे। इस भरे पूरे परिवार को देख कर कोठी का जीवन खिल उठा था। बच्चे ख़ूब मस्ती कर रहे थे। यह परिवार कोठी में रहने और आराम करने के लिए आया था। उनके वहाँ पहुँचते ही कोठी में हँगामा, ख़लबली और उथल-पुथल शुरू हो गई। सुनसान पड़ी कोठी में घोड़ागाड़ियों के पहियों की चरमराहट और उन लोगों के ज़ोर-ज़ोर से बात करते हुए गाड़ी से सामान उतार कर उसे अंदर ले जाने की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। वे सब लोग वहाँ पहुँच कर बहुत खुश थे। मदमस्त हवा और मीठी-मीठी धूप के नशे में उन लोगों के हँसने-बतियाने की आवाज़ें हवा में गूँज रही थीं। सबसे तेज़ आ रही थी एक लड़की के हँसने की आवाज़। 


कोठी में रहने आए लोगों में से कुत्ते की मुलाक़ात सबसे पहले इसी लड़की से हुई। इस लड़की का नाम था लाली और वह दसवीं की छात्रा थी। लाली भूरे रंग की स्कूल की वर्दी पहन कर आई थी और उन्हीं कपड़ों में दौड़ कर वह सीधी बग़ीचे में जा घुसी। वहाँ खड़ी-खड़ी वह ललचाई नज़रों से अपने चारों तरफ़ की प्रकृति को ऐसे निहार रही थी, जैसे अभी उसकी सारी की सारी सुंदरता अपने भीतर समो लेगी। उसने पहले तो चेरी के पेड़ों की लाल-लाल टहनियों को निहारा और फिर चमकते हुए नीले आसमान की तरफ़ देखा। फिर एक झटके में पहले तो घास पर पीठ के बल लेट गई। और फिर अचानक वैसे ही उछल कर खड़ी हो गई। उसके बाद उसने ख़ुद को अपनी ही बाहों के घेरे में भर कर, बासंती हवा को चूमते हुए ज़ोर से भावपूर्ण आवाज़ में कहा - आ… हा…! कितना मज़ा आ रहा है! 


यह कह कर लाली वहीं एक जगह पर खड़े-खड़े गोल-गोल चक्कर खाने लगी। तभी अचानक कुत्ते ने वहाँ आ कर उत्तेजित हो कर हवा में लहराती हुई उसकी लम्बी-फ्रॉक के एक छोर को दाँतों से पकड़ लिया। फ्रॉक फट गई और कुत्ता मारे डर के झट से बेरियों की घनी झाड़ियों में जा कर छुप गया। 


कुत्ते का यह रूप देख कर लाली बुरी तरह से डर गई थी। वह रोती-रोती घर की तरफ़ भागी। भागते-भागते वह अपनी माँ को पुकार रही थी। माँ को देख कर उसके रोने की आवाज़ थोड़ी बढ़ गई। माँ ने पूछा - क्या हुआ? क्यों रो रही हो? - माँ! वहाँ एक डरावना कुत्ता है। उसने मेरी फ्रॉक अपने मुँह में पकड़ ली थी। देखो न! मेरी फ्रॉक फट भी गई है।  


रात में जब सब लोग सोने चले गए, तब टॉमी दबे पाँव झाड़ियों से बाहर आया और चुपचाप बालकनी के नीचे अपने सोने की जगह पर जा कर लेट गया। दिन भर के थके-हारे लोग घर के अंदर मीठी नींद सो रहे थे। कमरों की खुली खिड़कियों से कुत्ते को लोगों की गंध आ रही थी और वह उनकी साँसें भी महसूस कर रहा था। नींद में, भला, वे लोग उसका क्या बिगाड़ सकते थे! उलटा वे तो ख़ुद असहाय थे, क्योकि कोई भी उनके घर में घुस सकता था। लेकिन टॉमी उन सबकी निगरानी कर रहा था और चौकन्ना हो कर सो रहा था। हल्की-सी सरसराहट सुन कर भी वह सतर्क हो जाता और सर हवा में तान कर, रात के अँधेरे में अपनी चमकती हुई आँखों से यह देखने की कोशिश करता कि यह सरसराहट कैसे हो रही है। कभी घास में किसी कीड़े-मकोड़े के रेंगने से उसके कान खड़े हो जाते तो कभी बाहर सड़क पर सामान से लदी गाड़ियों के आवागमन की  गड़गड़ाहट से वह चौंक जाता। वहीं कहीं पास में नई सड़क बन रही थी, जहाँ से तारकोल की ताज़ा गंध उठ कर उसके नथुनों में घुसी जा रही थी और उसे अपने पास बुला रही थी।


वैसे तो कोठी में रहने के लिए आए सभी लोग बहुत अच्छे और दयालु थे, लेकिन उस जगह की हरियाली, नीले खुले आसमान और साफ़ हवा का भी उन पर कुछ ऐसा सकारात्मक असर हुआ था कि अब वे पहले से भी अधिक दरियादिल हो गए थे।कई महीनों तक चलने वाले जाड़े और ठण्ड को झेलने के बाद अब बसन्त के सूरज की जो गरमी उन्हें मिल रही थी, वह उनके बदन से हँसी बना कर बाहर निकल रही थी। इससे उनके स्वभाव में भी हलका सा बदलाव हुआ था। वे लोग प्रकृति और जीव-जंतुओं के प्रति कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील हो गए थे। उनके कोठी में आने के पहले ही दिन जब कुत्ते ने लाली को डरा दिया था, तब वे उसे वहाँ से भगा देना चाहते थे। उन लोगों ने तो यह भी सोच लिया था कि यदि वह वहाँ से नहीं जाएगा तो वे उसे गोली मार देंगे। लेकिन जल्दी ही उन्हें उस कुत्ते से लगाव हो गया। कभी-कभी जब रात में वह भौंकता था तो भी वह उनके लिए परेशानी का बायस नहीं होता था। उन्हें उसकी आदत पड़ गई थी। सवेरे उठते ही सब उसे याद करने लगे और उसका बड़ा ख़याल रखने लगे। बच्चे तो बिस्तर से उठते ही घर से बाहर की ओर भागते थे और कहते थे  - अरे! हमारा कटखना कहाँ है? 


इस तरह अब उस कुत्ते का नाम ही कटखना पड़ गया। अब वह अक्सर वहीं बगीचे में बच्चों के आसपास घूमता दिखाई देता। लेकिन जब भी कोई उसे अपने हाथ से खाने के लिए कुछ देने की कोशिश करता तो वह बड़े संदेह और शक की निग़ाह से उस आदमी को देखने लगता। उसे मानव जाति पर कोई भरोसा नहीं रह गया था। कोई उसे रोटी देता तो वह डर कर वहाँ से ऐसे नदारद हो जाता, जैसे उसकी तरफ़ रोटी नहीं बढ़ाई गई हो, बल्कि उसे पत्थर दिखाया गया हो।  


देखते-देखते घर के सभी लोग कटखने के आदी हो गए। अब वे लोग उसके बारे में जब भी कोई बात करते तो उसे ‘हमारा कुत्ता’ कह कर पुकारते थे। वे लोग उसके अजीब-से रवैये और बिना किसी बात के उसके मन में बैठे डर को ले कर भी मज़ाक भी करने लगे थे। उधर कटखने का डर आहिस्ता-आहिस्ता ख़तम होने लगा। इनसानों और उसके बीच जो दूरी अब तक पैदा हो चुकी थी वह धीरे-धीरे मिटने लगी। कटखना घर के लोगों को क़रीब से जानने-पहचानने लगा था। अब वह उनकी आदतें समझने की कोशिश कर रहा था। खाने के समय से आधा घंटा पहले ही वह खाने की जगह से थोड़ी दूर आ कर खड़ा हो जाता और ज़ोर-ज़ोर से अपनी पूँछ हिला कर सबको प्यार भरी भरोसेमंद नज़रों से घूरने लगता। 


अब वही लाली कटखने से ज़रा भी नहीं डरती थी। अब पूरे परिवार में वही अकेली ऐसी लड़की थी, जो दिन भर कुत्ते को पुचकारती और चुमकारती रहती थी। उसकी ज़ुबान पर सारा दिन सिर्फ़ कटखने की ही बात रहती थी। वह सिर्फ़ अपने परिवार के लोगों से ही नहीं, बल्कि पास-पड़ोस में भी हमेशा उसी की चर्चा करती। अब पड़ोसी भी उसे लाली का कुत्ता कहने लगे थे। 


परन्तु कुत्ता अब भी उसके हाथ से खाने की कोई चीज़ लेते हुए घबराता था। लाली जब भी  हाथ के इशारे से उसे अपने क़रीब बुलाती और लाड़ से उससे कहती - कटखने… ए कटखने… ज़रा यहाँ आओ। आओ मेरे पास बैठो। मेरे पास आ जाओ। तुम बहुत अच्छे हो! कितने प्यारे हो तुम! ये लो, बिस्कुट खाओगे…? लो, खाओ। वह उसे बिस्कुट दिखाती। 


लेकिन इनसान से कुत्ते का डर पूरी तरह से अभी भी ख़तम नहीं हुआ था, इसलिए वह लाली के पास नहीं गया। लाली का चेहरा जितना ख़ूबसूरत था उतनी ही मधुर उसकी आवाज़ भी थी। वह जितने प्यार से बोल सकती थी, उतने प्यार से बोलते हुए, ताली बजाते हुए, आहिस्ता-आहिस्ता सावधानी से कटखने की तरफ़ बढ़ी। हालाँकि वह ख़ुद भी डर रही थी कि कहीं वह उसे काट न ले। 


लाली अब भी उससे बात कर रही थी - देखो न, कटखने! मैं तुम्हें पसंद करती हूँ, मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। पर तुम मुझे प्यार नहीं करते। मेरे पास आते भी नहीं। अर्र… रर… रे… तुम्हारी नक्कू कितनी ख़ूबसूरत है! और तुम्हारी आँखें! तुम्हारी आँखें भी कितनी प्यारी हैं! और तुम्हारा थोबड़ा! भई, यह थोबड़ा तो मैं खाना चाहती हूँ! इतना पसन्द है मुझे तू! लेकिन, तुझे मुझ पर ज़रा सा भी यकीन नहीं है। यह कहते हुए उसने अपनी भवें मटकाईं। लाली की ख़ुद की नाक बहुत आकर्षक थी और आँखें भावपूर्ण। उसका कोमल और भोलाभाला चेहरा कटखने के लिए प्यार से लाल हो गया था। 


कटखना अचानक उसके क़रीब चला गया। अपनी ज़िन्दगी में वह दूसरी बार किसी इनसान के पास गया था। और इसके लिए जैसे उसने ख़ुद को ही दाँव पर लगा दिया था। उसे अब भी यह  आशंका थी कि यह लड़की उसके साथ न जाने कैसा सलूक करे! लाली के निकट आ कर उसने अपनी आँखें मूँद ली और अपनी थूथनी लाली की तरफ़ बढ़ाई। लाली ने भी बिना कुछ सोचे-समझे अपना हाथ उसके झबरीले सर पर रख दिया और उसे सहलाने लगी। उसकी उँगलियाँ कटखने के  रूखे बालों में घूम रही थीं। 


कटखने की आँखें अभी भी बन्द थीं। वह उस प्यार को महसूस कर रहा था, जो यह प्यारी लड़की उस पर बरसा रही थी। झबरीले ने ख़ुद को ढीला छोड़ दिया। उसकी, बस, एक इसी हरक़त से लाली को यह एहसास हुआ कि झबरीला अब  उसका अपना कुत्ता बन गया है। वह धीरे-धीरे उसके पूरे बदन को सहलाने लगी। कभी वह उसके पेट पर गुदगुदी करती तो कभी उसे सहलाते हुए उसके बालों को धीमे से मुट्ठी में भींच लेती।  


अब लाली बेहद खुश थी। मारे ख़ुशी के उसने ज़ोर से माँ को पुकारा - माँ-माँ, आओ देखो! मैं कटखने को सहला रही हूँ। उसकी आवाज़ सुन कर माँ के साथ-साथ घर में हल्ला-गुल्ला कर रहे बच्चे भी भाग कर लाली के पास पहुँचे। कटखना बच्चों को देखते ही डर के मारे वहीं जम गया और सोचने लगा कि उसे और कितनी देर ऐसे ही बैठे रहना होगा। वह अच्छी तरह से यह जानता था कि बीते दिनों में वह काफ़ी बदल गया है। अब वह पहले जैसा तो बिलकुल नहीं रह गया। ग़ुस्सा करना तो वह कब का भूल चुका। अब अगर कोई उसे तंग भी करेगा या उस पर हाथ उठाएगा तो वह अपने पैने दाँत उसके बदन में नहीं गड़ा पाएगा। 


जब सब लोग आगे बढ़-बढ़ कर उसे पुचकारने और उस पर हाथ फेर-फेर कर उसके साथ खेलने के लिए आपस में होड़-सी करने लगे तो वह ख़ुशी से काँपने लगा। उसे इतने प्यार की आदत न थी। हर बार जब भी कोई उसे प्यार से छूता तो उसे वैसे ही दर्द का एहसास होने लगता जैसा दर्द आमतौर पर पिटने के बाद होता था। 





भाग - 3 


कटखना अब सचमुच बदल गया था। इनसानों के लिए उसकी नाराज़गी और ग़ुस्सा जैसे हवा में घुल गया था। वह दयालु हो गया था और लोगों पर एतबार भी करने लगा था। अब उसे एक नाम भी मिल गया था, जिसे सुन कर वह दूर से ही दौड़ा चला आता। गली के दूसरे कुत्तों की तरह अब उसका भी एक घर का हो गया था। अपने इस घर के लिए वह वो सब करने लगा था, जो एक पालतू कुत्ता आमतौर पर अपने स्वामी के लिए करता है। 


बीती हुई ज़िन्दगी में उसे खाने के लिए, दाने-दाने के लिए दर-दर भटकना पड़ता था, इसलिए उसकी कम खाने की आदत पड़ गई थी। खाता तो वह अब भी कम ही था, लेकिन उसके जीवन में जो बदलाव हुए, उनसे उसे पहचानना मुश्किल हो गया था। पहले उसके बदन पर मिट्टी जम कर सूख जाया करती थी और उसके भूरे-लम्बे बाल उलझ कर गुच्छों का रूप ले लेते थे। अब उसके पूरे बदन पर चमक आ गई थी और उसके बाल पहले से ज़्यादा काले दिखाई देने लगे थे। वह बार-बार घर के बाहर की तरफ़ दौड़ जाता और घर की देहलीज़ के बाहर खड़ा हो कर चारों तरफ इस तरह से देखा करता था कि जैसे वह ही घर का मालिक हो। 


परन्तु ऐसा उन्मुक्त और गर्वीला वह केवल तभी दिखाई देता था जब वह अकेला होता था। मिल रहे लाड़-दुलार के बावजूद अभी भी उसके दिल से इनसान का डर पूरी तरह से ख़तम नहीं हुआ था। हर बार जब कोई अजनबी उसे दिखाई देता या फिर कोई बाहरी आदमी उस घर में आता तो वह थोड़ा सहम-सा जाता और उसे लगता कि कहीं यह आदमी उसकी पिटाई  तो नहीं कर देगा। लोगों की यह मेहरबानी और यह प्रेम उसे अनायास होने वाला एक चमत्कार सा लगता था। उसे समझ में नहीं आता था कि लोगों से उसे जो प्यार मिल रहा है, उसके बदले वह उन लोगों के लिए क्या करे। दूसरे कुत्ते कभी अपने पंजों के बल खड़े हो कर,  तो कभी अपने साथ खेलने वाले के सामने पूँछ हिला कर, तो कभी अपनी जीभ से उन्हें चाट कर अपनी भावनाएँ प्रकट करते हैं। लेकिन कटखने को तो अपना जज़्बा दिखाना ही नहीं आता था।  


अपनी ख़ुशी, आभार और ममता जतलाने के लिए कटखना, बस, एक ही तरीका अपनाता था। वह ज़मीन पर पसर जाता और अपनी आँखें मूँदकर कूँ… कूँ… कूँ… करके धीरे-धीरे किकियाता था। लेकिन उसका यह तरीका आभार प्रकट करने के लिए काफ़ी नहीं था। इसलिए उसने एक और तरीका अपना लिया था — अब वह ज़मीन पर लोट लगाता और उस इनसान के चारों तरफ़ कूदता-फाँदता और गोल-गोल घूमता, जिसके लिए वह अपना प्यार जतलाना चाहता था। कटखना बहुत फुर्तीला और लचीला था, पर जब वह कहीं अटक जाता, तो उसे देखने वालों की  हँसी छूट जाती थी और उन्हें उसपर तरस भी आता था। 


कटखने की नई-नई हरक़तें देख कर सबसे ज़्यादा मज़ा लाली को आता था। वह खुश हो जाती थी और ख़ुद भी कटखने की तरह ही उछल-उछल कर तालियाँ बजाने लगाती थी। जब कभी वह ज़्यादा जोश में आ जाती तो अपनी माँ को पुकारने लगती — माँ! ज़रा यहाँ आओ! तान्या, रोमा, साशा, तुम सब भी आओ! देखो तो ज़रा! देखो तो…  हमारा कटखना कितना मज़ेदार नाच दिखा रहा है। हँसते-हँसते लाली की साँस फूल जाती और वह कटखने से इसरार करने लगती — अरे, एक बार फिर नाच! माँ को भी अपना नाच दिखा… वाह, शाबाश! मेरे प्यारे कटखने! फिर एक बार, हाँ ऐसे…। 


सब लोग कटखने के इर्दगिर्द जमा हो गए थे। उसके खेल देख-देख कर उससे बहुत मज़े ले रहे थे और खिल-खिला कर हँस रहे थे। वह कभी लोटपोट होता, कभी गोल-गोल घूमता और कभी धम्म से एक ही जगह पर बैठा रह जाता। लाली के परिवार का लाड़-प्यार और दुलार पा कर उसका सारा डर दूर हो गया था और वह कहीं से भी घबराया बेचारा नहीं लग रहा था। उन दिनों जब वह लावारिस ज़िन्दगी जी रहा था, बच्चे उसे तंग करने के लिए और उसका रोष देखने के लिए कभी हो-हो, तो कभी भों-भों करके उसे छेड़ा करते थे। उनकी वह छेड़छाड़ ठीक वैसी ही थी जैसी छेड़छाड़ अब इस घर के बच्चे उससे प्यार जतलाने के लिए किया करते। वे उसे बार-बार सहलाया करते और जब देखो तब उसे अपने पास बुलाते और लाड़ लड़ाते हुए उसे कहते— प्यारे कटखने, ज़रा कूद कर दिखाओ… आओ न खेलो हमारे साथ… अपना नाच दिखाओ…। 


लगातार चलने वाले ठहाकों के बीच कटखना बार-बार कलाबाज़ी दिखाता। वह पूँछ हिलाता और पूँछ हिला-हिला कर अपनी वफ़ादारी दिखाता। बच्चों के साथ वह भी बच्चा बन जाता। कभी किसी की उँगली अपने मुँह से पकड़ लेता, लेकिन किसी को भी काटता नहीं था। फिर से घुमेरी मारता, गोल-गोल घूमता और बड़े मज़ाकिया अंदाज़ में ज़मीन पर गिर जाता। सब लोग उसके करतबों की तारीफ़ करते और उसकी सुरमई-नीली ख़ूबसूरत आँखों पर फ़िदा हो जाते। अब उन्हें बस एक ही बात अखरती थी कि अनजान लोगों के सामने वह कोई खेल नहीं करता था। इतना ही नहीं, वह उन्हें देखते ही या तो अपनी उसी बालकनी के नीचे छिप जाता या भाग कर बगीचे में चला जाता था। 


धीरे-धीरे कटखने को यह आदत पड़ गई कि अब उसे खाने के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। कोठी का बावर्ची ठीक समय पर उसे जूठन और हड्डियाँ दे दिया करता। अब उसके पास अपनी एक जगह थी, जहाँ वह ठाठ से रहता था। अपने हाव-भाव से वह घर के लोगों को अपने पास बुलाया करता और उन्हें अपने साथ खेलने व ख़ुद को सहलाने के लिए उन्हें आमंत्रित भी करता था। अब उसका वज़न भी बढ़ गया था। कोठी से दूर वह कभी-कभार ही जाता था। जब कभी बच्चे उसे घने पेड़ों वाले खुले पार्क में अपने साथ चलने के लिए बुलाते तो वह टालमटोल करने के अंदाज़ में पूँछ हिलाता हुआ वहाँ से खिसक जाया करता था। लेकिन रात में पहले की तरह ख़ूब ज़ोर से भौंकते हुए वह बड़े ध्यान से घर की निगरानी का उत्तरदायित्व निभाता था। 






भाग - 4 


शरद काल शुरू हो गया था। चारों तरफ़ पतझड़ की पीली रोशनी छाई हुई थी यानी पेड़ों के पत्ते झड़ने से पहले पीले होने शुरू हो गए थे। ऐसा लगता था कि जैसे सब पेड़ों को पीलिया हो गया। और बारिश ने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। गर्मियों का मौसम बीत गया था। इसलिए कोठियों में आराम करने आए लोगों ने वापस शहरों की ओर लौटना शुरू कर दिया था। सारी हलचल कम हो गई थी और सूनापन फैलने लगा था। ऐसा लग रहा था मानो तेज़ हवा और बारिश सभी कोठियों को मोमबत्तियों की तरह एक के बाद एक बुझा रही हों। 


लाली किसी चिंता में डूबी हुई थी। अपने घुटनों पर हाथ बाँधे खिड़की पर उदास बैठी वह बाहर बग़ीचे की ओर देख रही थी। बाहर बारिश की चमकीली बूँदे लुढ़क रही थीं। खिड़की पर थोड़ी देर पहले शुरू हुई बरसात की चमकीली बूँदें लुढ़क रही थीं। 


अचानक लाली की माँ उस कमरे में आईं। उन्होंने लाली को उदास बैठे देख कर उससे कहा 


- अरे! तुम ऐसे कैसे बैठी हो? भला, ऐसे भी कोई बैठता है? क्या बात है? क्यों उदास हो?


लाली ने उत्तेजित आवाज़ में पूछा - माँ, हम कटखने का क्या करेंगे? अपने साथ ले जाएँगे न?


कटखने को तो हमें यहीं छोड़ना पड़ेगा। अब जो होगा सो होगा। माँ ने जवाब दिया। 


लाली - पर यह तो बड़े अफ़सोस की बात है, माँ!


माँ ने कहा - बिटिया, तुम्हें तो मालूम है सर्दियों में शहर में हम बंद घरों में रहते हैं। कटखने को हम उस घर में कैसे रख पाएँगे? उसके साथ दिन में तीन बार खुली हवा में घूमना चाहिए। और शहर वाले हमारे घर में आँगन या अहाते जैसी खुली जगह कोई है ही नहीं। 


माँ की बात सुन कर लाली रुआँसी हो गई थी। वह कटखने को बेहद प्यार करने लगी थी। और अब उससे अलग होने का समय आ गया था। लाली ने एक बार फिर कहा - यह बड़े अफ़सोस की बात है। 


माँ ने उसकी बात बड़े ध्यान से सुनी और कहा - दगअयेफ़ ने तो हमें पहले भी एक पिल्ला देने की बात कही थी। उन्होंने यह भी बताया था कि वह कुत्ता बड़ी अच्छी नस्ल का है। वह क़रीब छह महीने का हो गया है और घर की चौकसी भी अच्छी-ख़ासी करने लगा है। 


लाली के आँसू झरने लगे थे। माँ ने उससे आगे कहा - तुम मेरी बात सुन रही हो न? यह कटखना क्या है ? एक लावारिस कुत्ता ही है न। सड़क के इस कुत्ते से तो वह पिल्ला ज़्यादा अच्छा था। लेकिन हमने उसे ही नहीं लिया। 


माँ की बात सुन कर लाली की नाक-भौहें सिकुड़ गईं। ऐसा लग रहा था कि वह अभी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगेगी। पर लाली ने ख़ुद पर काबू पा लिया और उसके गालों पर उसके आँसू पहले की तरह झरते रहे। 


एक दिन फिर कुछ अनजान लोग कोठी में घुस आए। घर के लकड़ी के फ़र्श पर उनके भारी-भारी बूटों की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं। वे लोग घर से सामान निकाल-निकाल कर बाहर बग्घियों में रख रहे थे। 


इन अनजान लोगों को देख कर कटखना डरा हुआ था। बग्घियों में सामान रक्खा जाता देख कर उसक मन किसी अनिष्ट की आशंका से भरा हुआ था। कटखना अजनबियों के ऊपर लगातार भौंक रहा था। लेकिन उनके निकट नहीं आ रहा था। वह घर से दूर बग़ीचे में खड़ा हुआ था और वहीं से भौंकते हुए लाल कमीज़ों वाले इन मजदूरों को सामान-असबाब उठाते-धरते देख रहा था। 


तभी लाली कोठी से निकल कर अहाते में आ गई। वह कटखने के पास आई और उसने उसके गले में अपनी बाहें डाल दीं।  वह कटखने को चुप कराने लगी - नहीं, कटखने! भौंकों नहीं। तुम तो भौंकते-भौंकते थक गए होंगे! अच्छा! मेरी बात सुनो, चलो हम घूमने चलते हैं। 


उस समय लाली अपनी उसी पुरानी स्कूल-ड्रेस में थी, जिसे पहली मुलाक़ात में कटखने ने अपने दाँतों में दबा कर फाड़ दिया था। बस, उसने आज काले रंग का एक कार्डिगन भी पहन रखा था। 


वे दोनों मुख्य-सड़क पर निकल आए थे। बादल ऐसे गरज रहे थे कि कभी भी बारिश शुरू हो सकती थी। सूरज तो सुबह से ही नहीं निकला था। घने काले बादलों की मोटी चादर आसमान में छाई हुई थी। सड़क के दोनों तरफ़ खेत ही खेत फैले हुए थे। अनाज की फ़सल कट चुकी थी और फ़सल कटने के बाद खेतों में सूखे ठूँठ खड़े हुए थे। खेतों में दूर कहीं-कहीं पेड़ और झाड़ियों के झुरमुट दिखाई दे रहे थे। सड़क पर ही आगे एक सीमा चौकी थी, जिसके पास एक ढाबा बना हुआ था। दूर से ढाबे की टीन की लाल छत दिखाई दे रही थी। ढाबे के बाहर गाँव के कुछ किशोरों का झुण्ड खड़ा था, जो एक अधपगले लड़के को चिढ़ा रहा था। उस लड़के का नाम इल्युषा था। वह अपनी तोतली ज़बान में उनसे भीख माँग रहा था। लड़के उसका मज़ाक उड़ाते हुए बदले में उससे ढाबे की भट्टी के लिए लकड़ी चीरने को कह रहे थे। इसके जवाब में इल्युषा उन्हें गालियाँ दे रहा था। हालाँकि उस अधपगले लड़के की गालियों में हँसने जैसा कुछ नहीं था, लेकिन किशोरों का झुण्ड ठहाके लगा कर हँस रहा था और मज़ा ले रहा था। 


लाली बहुत उदास थी और कटखने के साथ घूम रही थी। तभी एक बग्घी उसके पास आ कर रुकी। बग्घी में से माँ का सिर बाहर निकला और माँ ने लाली को पुकारा। लाली जल्दी से बग्घी में चढ़ गई। स्टेशन पहुँचने के बाद उसे याद आया कि उसने तो कटखने से विदाई तक नहीं ली। 





भाग - 5 


कटखना लाली को बग्घी पर चढ़ता देख हक्का-बक्का रह गया। फिर वह भी बग्घी के पीछे भागा। बहुत देर तक बग्घी के पीछे-पीछे भागता रहा। लेकिन बग्घी तेज़ी से आगे निकल गई। बारिश में भीगते हुए किसी तरह वह पदचिन्ह तलाशता हुआ रेलवे-स्टेशन पहुँचा। वह बुरी तरह से कीचड़ में सना हुआ था। रेलवे-स्टेशन पर उसे न तो लाली दिखाई दी और न ही घर का कोई अन्य सदस्य। जब उसे वहाँ कोई नहीं मिला तो बेहद ना-उम्मीद और मायूस हो कर वह वहाँ से वापस कोठी में चला आया। वहाँ उसने एक नई हरक़त की, जिसे कभी कोई नहीं देख पाया। वह पहली बार बालकनी में जा कर, अपने पिछले दोनों पंजों पर खड़ा हो कर काँच के दरवाज़े से अंदर झाँकने लगा और अगले पंजों से काँच को खरोंचने लगा। लेकिन उसके इसरार और बारम्बार तकाज़ों के बावजूद कमरे के भीतर से कोई आवाज़ नहीं आई। किसी ने भी उसकी इल्तजा और गुजारिशों का कोई जवाब नहीं दिया। 


शरद ऋतु की लम्बी रातों का अँधेरा हर तरफ़ छाने लगा था। पानी ऐसे बरस रहा था मानो बादल फट गया हो। सुनसान हो चुकी कोठी में चारों तरफ़ से अँधेरा और पानी समाने लगा था। कोठी की बालकनी से पहले एक तिरपाल नीचे की ओर लटका हुआ था। उसके हट जाने के बाद बालकनी खुली-खुली और खाली-खाली लग रही थी। आसमान में बिजली कड़क रही थी। उसकी रोशनी लम्बे समय तक अँधेरे के साथ संघर्ष करती रही और कटखने को दहलाती रही। 


रात गहरा गई थी। 


जब कटखने को इस बात का पक्का यक़ीन हो गया कि रात घनी हो गई है, तो वह वेदना से कराहता हुआ ज़ोर-ज़ोर से कूँ… कूँ करके रोने लगा। पीड़ा और निराशा से भरी उसके रोने की आवाज़ बारिश की एकलय नीरस झमझमाहट और घटाटोप अंधकार को भेदते हुए दूर अंधेरे-सुनसान-मैदान तक पहुँच रही थी।


हताशा में वह लगातार बहुत देर तक रोता रहा। जिस किसी ने भी उसका वह रुदन सुना होगा, उन्हें ऐसा लगा होगा कि निराश, अँधेरी रात उजाले के लिए कराह रही है। आख़िर वह भी जीवित प्राणी है, उसे भी दिन की गरमाहट, रोशनी और एक स्त्री के लाड़-प्यार-दुलार तथा मनुष्य के संग साथ और उसके नेह, ममता और राग की ज़रूरत है। 


कुत्ता रो रहा था क्योंकि वह फिर अकेला हो गया था।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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