पंकज पराशर का आलेख 'अहमद फ़राज़ः चलो ‘फ़राज़’ को ऐ यार चल के देखते हैं'

 

अहमद फ़राज़ 


उर्दू ग़ज़ल की अपनी एक समृद्ध परम्परा रही है। मीर तक़ी मीर, मिर्जा ग़ालिब, मोमिन, दाग़, हसरत, यागाना, फ़ानी, जिगर, असग़र और नासिर काज़मी ने अपनी रचनात्मकता से उर्दू ग़ज़ल को शीर्ष पर पहुंचा दिया। मुहम्मद इकबाल और फिराक गोरखपुरी ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। सन 1947 के बाद की उर्दू ग़ज़ल के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे हैं अहमद फ़राज़। फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से बहुत महत्त्वपूर्ण है। हालांकि 25 अगस्‍त 2008 अहमद फ़राज़ को चल बसे लेकिन उनकी शायरी आज भी लोगों को जुबान पर रची बसी है। पंकज पराशर ने अहमद फ़राज़ पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। फ़राज़ की स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं पंकज पराशर का आलेख  'अहमद फ़राज़ः चलो ‘फ़राज़’ को ऐ यार चल के देखते हैं'।



'अहमद फ़राज़ः चलो ‘फ़राज़’ को ऐ यार चल के देखते हैं'


पंकज पराशर


सदियों से दिल ने सितम सहे हैं और सदियों से मोहब्‍बत ने हिज्र को भोगा है, मगर ऐसे अहमद फ़राज़ कम ही हुए हैं, जिन्‍होंने जब मोहब्‍बत को लिखा तो हर्फ गुल जैसे नाजुक थे और जब अवाम के हक में हुकूमत को ललकारा तो लफ़्ज फौलाद में ढ़ल जाते हैं। यही अहमद फ़राज़ की शायरी का परिचय है. वह अहमद फ़राज़ जो 25 अगस्‍त 2008 को इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए थे, मगर तब है और आज है, उन्‍हें जी भर भर याद किया जाता है. उनकी शायरी को आजमाया जाता है, उनके शेर ओ नज्‍मों को बहते आंसुओं के हलफनामे की तरह पढ़ा जाता है. कोई अदीब जब दुनिया से रूखसत कर जाता है, तो उसके लफ्जों के रूप में उसकी रूह यही रह जाती है, हमारे बीच. कुछ ऐसा ही हुआ है मरहूम शायर अहमद फ़राज़ के साथ. जब-जब उन्‍हें पढ़ते हैं, यू ट्यूब पर सुनते हैं तो महसूस होता है वे यहीं हैं, कहीं गए ही नहीं हैं. जब कोई आशिक अपने महबूब को दिल की बात कहना चाहे तो उसे अहमद फ़राज़ की शायरी याद आती है. जब अपने प्रिय की तारीफ करनी हो तो कौन होगा जिसे फ़राज़ की बात याद न आती हो और वह कह न देता हो, 


सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की

जो सादा दिल हैं उसे बन-संवर के देखते हैं।’ 


गर वह कहना चाहे कि आओ मेरी नजरें तुम्‍हारी राह तकती हैं तो उसे फ़राज़ की शायरी के मार्फत यूं कहना होगा, 


अब तक दिल-ए-खुश-फहम को तुझ से हैं उम्मीदें

ये आखिरी शमएं भी बुझाने के लिए आ’।


और जो हिज्र की बात हो, जुदाई का दर्द कहना हो तो फ़राज़ की जुबां में यूं न कहेगा, 


‘हुआ है तुझ से बिछड़ने के बाद ये मालूम

कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी।’ 


अहमद फ़राज़ पर हमेशा नौजवानों और लड़कियों के शायर होने का इल्जाम लगता रहा। अहमद फ़राज़ को चाहने वाले किस जज़्बे और किस शिद्दत से उन्हें चाहते थे इसका अंदाज़ा मशहूर पाकिस्तानी लेखक अहमद फ़ारूक़ मशहदी की यादों में महफ़ूज़ रह गए इस वाकये से लगाया जा सकता है। 'यादों के झुरमुट में एक उजली याद पी टीवी पर नश्र होने वाले एक मुशायरे की है, जिसमें अहमद फ़राज़ ने भी अपना कलाम पेश किया था। इस दौरान जब फ़राज़ अपनी ग़ज़ल पढ़ रहे थे, तभी टीवी के किसी शोख़ कैमरामैन ने अचानक कुछ लड़कियों को फ़ोकस किया, जिनकी आंखों से टप-टप आंसू गिर रहे थे। शायरी पर ऐसा ख़िराज-ए-तहसीन शायद ही किसी और शायर को नसीब हुआ हो।' आज फ़राज़ हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन उनकी शायरी, उनकी नज्म और उनकी ग़ज़लों में वो आज भी जिंदा हैं। जब तक इश्क है, बेवफाई है, देशप्रेम है, हिजरत है...तब तक फ़राज़ जिंदा रहेंगे।


ज़िंदगी से यही गिला है मुझे

तू बहुत देर से मिला है मुझे


तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल

हार जाने का हौसला है मुझे


जब बात उर्दू ग़ज़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें मीर तक़ी मीर, ग़ालिब, मोमिन, दाग़, हसरत, यागाना, फ़ानी, जिगर, असग़र और नासिर काज़मी आदि की चर्चा जरूर करनी होती है. मगर बीसवीं शताब्दी में ग़ज़ल की चर्चा हो और विशेष रूप से 1947 के बाद की उर्दू ग़ज़ल का ज़िक्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर मैं ये कहूँ तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल फ़ैज और फ़िराक का नाम आता है, जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया।


उनकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा। उनका जन्म पाकिस्तान के सरहदी इलाके में हुआ। उनके वालिद एक मामूली शिक्षक थे। वे अहमद फ़राज़ को प्यार तो बहुत करते थे, लेकिन यह मुमकिन नहीं था कि उनकी हर जिद वे पूरी कर पाते। बचपन का वाक़या है कि एक बार अहमद फ़राज़ के पिता कुछ कपड़े लाए। कपड़े अहमद फ़राज़ को पसन्द नहीं आए। उन्होंने ख़ूब शोर मचाया कि ‘हम कम्बल के बने कपड़े नहीं पहनेंगे’। बात यहाँ तक बढ़ी कि ‘फ़राज़’ घर छोड़ कर फ़रार हो गए। वह फ़रारी तबियत में जज़्ब हो गई। ताउम्र वह फ़रारी जीते रहे... कभी लन्दन, कभी न्यूयार्क, कभी रियाद तो कभी मुम्बई और हैदराबाद। अहमद फ़राज़ की शायरी के आलोचकों का यह भी मानना है कि अहमद फ़राज़ की शायरी की शोहरत आम होने की वजह उनकी शायरी की बाहरी सजावट और उनका सजीला व्यक्तित्व था। लेकिन मेरे जैसे पाठक को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उनकी शोहरत में उनके व्यक्तित्व का कितना हाथ है, क्योंकि मैं मानता हूँ कि शायरी की दुनिया में बाहरी चमक-दमक अधिक समय तक नहीं टिकती, जबकि अहमद फ़राज़ की शायरी दशकों बाद आज भी अपनी महत्ता बरक़रार रखे हुए है। यह सही हो सकता है कि अहमद फ़राज़ को ख्याति मुशायरों से मिली, पर मुशायरों पर छाए रहने वाले कितनी ही शायर अपनी लहक और चमक खोने के बाद अतीत का हिस्सा बन गए हैं, जबकि अहमद फ़राज़ का पहले से ज़्यादा आज मौजूद होना उनकी शायरी के दमख़म का पता देता है।


अहमद फ़राज़ की शोहरत ने अब अपने गिर्द एक ऐसा प्रभामण्डल पैदा कर लिया जिसमें उनकी साम्राज्यवाद और वाज़ीवाद से जूझने वाले एक क्रान्तिकारी रुमानी शायर की छवि चस्पाँ हो गईं। उनका अपना निजी जीवन भी इस प्रभामण्डल के बनाने में एक कारण रहा। उन्होंने अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान से बाहर गुज़ारा और वे एक जिलावतन (देश निकाला) शायर के रूप में पहचाने और सराहे गए। इसके अक्स उनकी शायरी में जगह-जगह हैं। उसमें देश से दूर रहने, देश के लिए तड़पने का एहसास, हिजरत की पीड़ा और हिजरत करने वालों का दर्द जगह-जगह मिलता है। बखूबी हम इसे फ़राज़ की शायरी के विभिन्न रंगों का एक ख़ास रंग कह सकते हैं। इस तरह डेमोक्रैसी की तड़प को फ़राज़ ने महबूब की जुदाई की तड़प में तब्दील कर दिया। उनकी शायरी पर मशहूर शायर कुँवर महेन्द्र सिंह बेदी ‘सहर’ की टिप्पणी यहाँ देना मैं मुनासिब मानता हूँ। वह टिप्पणी फ़राज़ को समझने में मददगार हो सकती है। उनका कहना है, 'फ़राज़ की शायरी ग़में दौराँ और ग़में जानाँ का एक हसीन संगम है। उनकी ग़ज़लें उस तमाम पीड़ा की प्रतीक हैं, जिससे एक हस्सास (सोचने वाला) और रोमांटिक शायर को जूझना पड़ता है। उनकी नज़्में ग़में दौराँ की भरपूर तर्जुमानी करती हैं और उनकी कही हुई बात, जो सुनता है उसी की दास्ताँ मालूम होती है।’’ बेदी साहब के कहे के मुताबिक़, ग़ौर करें तो फ़राज़ के यहाँ महबूब और ज़माने के ग़म एक साथ उभरते हैं, बल्कि कहीं-कहीं तो वो अपने निजी ग़म को भी सार्वजनिक बना देते हैं. ...।और यही उनका कमाल है। मिसाल के तौर पर ग़ौर करें :


कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िन्दगी जैसे

तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा


किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल

कोई हमारी तरह उम्र भर सफर में रहा


हिज़रत, ग़में दौराँ और ग़में जानाँ के अतिरिक्त अगर फ़राज़ ने केवल इश्क़ पर भी शेर कहे हैं, तो भी फ़राज़ ने उनमें रिवायती हुस्नो-इश्क़ से दूर, जीती-जागती दुनिया के लोगों के इश्क़, उनकी जुदाई, उनके मिलन आदि को कुछ इतने ख़ूबसूरत अन्दाज़ में ढाला है कि सुनने वाला उसमें अपने आपको ढूँढ़ने लगता है. कभी-कभी तो लगता है, महबूब को सामने बिठा कर बात की जा रही है। उनकी तमाम ग़ज़लें और उनके अशआर इसकी ताईद करते नजर आएँगे। फ़राज़ की शायरी पर हिन्दुस्तान अनेक समकालीन रचनाकारों ने अपनी राय ज़ाहिर की है। मजरूह सुल्तानपुरी ने एक बार लिखा कि ‘‘फ़राज़ अपने वतन के मज़लूमों के साथी हैं। उन्हीं की तरह तड़पते हैं, मगर रोते नहीं। बल्कि उन जंजीरों को तोड़ते और बिखेरते नजर आते हैं जो उनके माशरे (समाज) के जिस्म (शरीर) को जकड़े हुए हैं। उनका कलाम न केवल ऊँचे दर्जे का है बल्कि एक शोला है, जो दिल से ज़बान तक लपकता हुआ मालूम होता है।’’ दिल से ज़बान तक लपकता हुआ यह शोला कभी-कभी उनके आलोचकों को नाक-भौं सिकोड़ने का बहाना दे देता है और वे उनकी शायरी में हुस्नो-इश्क़ को घिसा-पिटा घोषित करते पाए जाते हैं। ऐसी आलोचनाओं का जवाब देते हुए पाकिस्तान के विख्यात शायर और कथाकार अहमद नदीम क़ासिमी ने एक बार लिखा, ‘‘यदि हुस्नो-जमाल और इश्क़ो-मुहब्बत की उम्दा शायरी घटिया होती तो मीर और ग़ालिब ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के महान् शायरों के यहाँ घटिया शायरी के अंबारों के सिवा क्या होता। फ़राज़ की शायरी में प्रयोग होने वाला हुस्नो-इश्क़ ऐसा विषय है जो इन्सानी ज़िन्दगी में से निकल जाए तो इन्सान के बातिन (अन्दर) सहराओं में बदल जाएँ. फ़राज़ तो भरी-पूरी ज़िन्दगी का शायर है।’’ अगर बारीक़ी से नज़र डालें तो फ़राज़ की शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबी नाजुकी और ख़ूबसूरती है। अहमद फ़राज़ का मैदान वैसे तो ग़ज़ल है, पर फ़राज़ ने नज़्में भी लिखी हैं जो अपने अन्दर कई पहलू लिए हुए हैं। फ़राज़ यहाँ भी अपने प्यारे विषय ‘देश-प्रेम’ और ‘हिजरत’ से दामन छुड़ा नहीं पाए हैं। यों उनमें सारी मानवता की पीड़ा समाई मिल जाएगी-दर-बदरी की तस्वीर में वे शब्दों का रंग यूँ भरते हैं :


किसी शहर बे अमाँ में

मैं वतन बदर अकेला

कभी मौत का सफर था

कभी ज़िन्दगी से खेला।

***






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मोबाइल : 9634282886

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