श्वेतांक सिंह की कविताएं

 

श्वेतांक सिंह



यह प्रकृति तमाम किस्म की विविधताओं से गुंजायमान है। यहां छोटे के लिए भी उतना ही सम्मान है जितना बड़े के लिए । कहा जा सकता है कि प्रकृति समानता का बर्ताव करती है। लेकिन प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट रचना मनुष्य के लिए यह बता नहीं की जा सकती। किसी भी व्यक्ति के लिए अहंकार से मुक्त हो पाना कठिन होता है। मनुष्य को अहंकाररहित बनाने में साहित्य और संस्कृति की भूमिका विशिष्ट होती है। कवि प्रकृति की तरह ही सूक्ष्म को उसका वैशिष्ट्य प्रदान करता है। वैसे किसी भी कवि के लिए छोटी कविताएं लिखना एक चुनौती की तरह होती हैं। विषय की समग्रता को कुछ पंक्तियों में समेटना वाकई हुनर का ही काम है। छोटी कविताएं अक्सर जेहन में बस जाती हैं। श्वेतांक सिंह ऐसे कवि हैं जिन्हें छोटी कविताएं लिखने में महारत हासिल है। कल श्वेतांक सिंह का जन्मदिन था। श्वेतांक को विलंबित बधाई देते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ नई कविताएं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि श्वेतांक सिंह की कविताएं।



श्वेतांक सिंह की कविताएं


मेरे दोस्त!


मेरे दोस्त!

मेरे पास 

कोई मशाल नहीं है,

कोई लालटेन भी नहीं,

कोई दिव्य प्रकाश पुंज 

तो बिल्कुल ही नहीं,

अंधकार का कोई पथ-दीप भी नहीं।

पर मेरे पास-

मेरी दो आंखे हैं

जिनसे 

मैं लम्बी रात के बाद 

आने वाली सुबह देख सकता हूं

मेरे दोस्त!

और ये आंखे

तो मैं तुम्हें दे ही सकता हूं।



नदी के साथ चलो 


नदी की लय से

यदि लिख सकते हो

कोई कविता,

तो बचा रहेगा ये गाँव,

शायद ये देश भी


हूबहू भले न हो,

सादी तस्वीर जैसा ही सही

पर ज़रूर पहचान लोगे

उसे वर्षों बाद भी

मैं ऐसा 

इसलिए कह रहा हूँ

कि जब भरी रहती थी नदी,

भरा रहता था मेरा गांव भी


पर

अब उसके सूखते जाने पर

सिकुड़ता जा रहा है

बुढ़ापा, जवानी, बचपन

और हमारा आदमीपन 

इसके साथ साथ

सुबह की चाय में घुल कर

कहीं खो गया है अपनापन!



जब स्त्री निर्वस्त्र की जाती है 


जब जब

सभाओं में 

चौराहों पर

भीड़ में

किसी स्त्री को

निर्वस्त्र करने के लिए

बेहया हाथ उठाए जाते हैं,

यकीन करना

उस समय 

एक स्त्री नहीं

बल्कि इस सदी के

समूचे पुरुष

एक झटके में निर्वस्त्र हो जाते हैं।

तब आकाश 

दुष्कर्मियों को देख कर

चांद के काले खोहों के

अंधेरे में मुंह छुपा लेता है,

हमारी धरती

ईश्वर को चुपचाप ताकती हुई

उनके पैदा होने की 

बदबूदार स्मृतियों पर

मातम मना रही होती है।


कहीं भी, कभी भी

जब एक स्त्री को 

निर्वस्त्र करने की कोशिश होती है

दो-पैर वाले जानवरों के हाथों 

पूरी सभ्यता निर्वस्त्र हो रही होती है।।






नरक


यहाँ

निंदा है

दम्भ है

ईर्ष्या है,

पतझड़ के पहले ही

पेड़ों की देह से

एक एक पत्तों को 

नोच लेने की

फूहड़ कु-लिप्सा है।


 

बागी बीज 


जब तुम

फूल, कलियों 

जड़ें, टहनियों सहित

समूचा पेड़ रौंद देते हो


फिर उसके बाद

थकी हुई बर्बर हथेलियों पर

एकाध बागी बीज 

ढिठाई से अंकुरित हो जाते हैं 

जिन्हें तुम कभी नहीं रौंद सकते,


कुछ वक्त बीतता है 

और फिर जो लाल फूल खिलते हैं

वे तुम्हारे तानाशाह रक्त को सोख कर

प्यारे फूलों का एक विशाल जंगल बना देते हैं ।



यह जरूरी है


जब फूल खिलेंगे 

तो महकेंगे

और जब महकेंगे तो

युद्ध के रंगों को

गहरा सफेद कर देंगे

इसलिए यह जरूरी है कि 

तुम फूलों को पूरा खिलने दो।






ताकि पता चले


नफरतों का इतिहास

लिखा जाना चाहिए


ताकि पता चले कि

भविष्य के लिए

प्रेम कितना जरूरी है।



इस दुनिया को


इस दुनिया को

प्रेम का 

एक दिन ही नहीं

बल्कि प्रेम की 

पूरी एक सदी चाहिए।



इतना छोटा


मैं छोटा आदमी हूं,

इतना छोटा कि

किसी बड़े आदमी की मुट्ठी से 

हर बार फिसल जाता हूं।






आदमी जैसा लड़ते नहीं देखा


मैंने

जंगलों में, बगीचों में

खेतों में, गमलों में

अलग-अलग जातियों के

कुछ काले, कुछ गोरे

कुछ ऊंचे, कुछ ठिगने 

कुछ कमजोर, कुछ बलवान

घोर पृथक पेड़-पौधों को

स्नेहपूर्वक साथ-साथ रहते देखा


आश्चर्य है

उन्हें कभी आपस में 

आदमी जैसा लड़ते नहीं देखा।।



हिन्दी 


हिन्दी मिली

अंग्रेजी रोजगार दफ्तर के बाहर

लाइन में खड़े

हाथ में बॉयोडाटा लिए।


मैं हिन्दी दिवस के 

एक सम्मेलन में

घंटों के व्याख्यान के बाद 

लौट रहा था

इसलिए उससे 

न आँखें मिला सका, न हाथ

और काफ़ी हाउस की ओर

बड़ी तेजी से निकल गया


मुझे अभी हिन्दी दिवस के

कई आयोजनों में शरीक होना था।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 7704813001

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