विमलेश त्रिपाठी की कविताएँ

 

विमलेश त्रिपाठी 


विमलेश त्रिपाठी 

बक्सर, बिहार के एक गाँव हरनाथपुर में सत्तर के दशक में जन्म। प्रारंभिक शिक्षा गाँव में। प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बी. एड.। कलकत्ता विश्वविद्यालय से केदार नाथ सिंह की कविताओं पर पीएच.डी। कविताओं और कहानियों का अंग्रेज़ी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद। पिछले 14-15 वर्षों से अनहद कोलकाता वेब पत्रिका का संचालन एवं संपादन।

अब तक छः कविता संग्रह, तीन कविता संचयन,  दो उपन्यास,  दो कहानी संग्रह और एक आलोचना की पुस्तक प्रकाशित।

‘कंधे पर कविता’ संग्रह दैनिक जागरण बैस्ट सैलर सूची 2018 में तीसरे पायदान पर शामिल। उपन्यास 'हमन हैं इश्क मस्ताना'  पाठकों के बीच बहुचर्चित।

हाल ही में मराठी में अनुदित कविता संग्रह  'कवितापेक्षा दीर्घ उदासी' नाम से प्रकाशित और चर्चित।

भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार एवं सूत्र सम्मान सहित अन्य कई महत्वपूर्ण पुरस्कार। अभिनय, गायन एवं स्क्रिप्ट लेखन में विशेष रूचि। 



अपने विकास के क्रम में मनुष्य ने शासन की उन राजनीतिक प्रणालियों को स्थापित करने का प्रयास किया जिसमें जनता की भागीदारी अधिकाधिक हो। जिस सत्ता प्रणाली में शासक जनता के हित के लिए हर समय सन्नद्ध हो। इसी क्रम में राजतंत्र, अधिनायकतंत्र, गणतंत्र और  लोकतांत्रिक प्रणालियां अस्तित्व में आई। लोकतांत्रिक प्रणाली इन सबमें निश्चित रूप से बेहतर थी। लेकिन समय बीतने के साथ नेताओं और नौकरशाहों ने इस व्यवस्था को अपने भ्रष्टाचार के जरिए खोखला कर दिया। यानी कि लोकतांत्रिक प्रणाली के जरिए जनता के हित और उसकी खुशहाली के जो सपने देखे गए थे उसे नाकामयाब बना दिया गया। जिस लोकतन्त्र को धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, वर्ग आदि के भेदभाव समाप्त करने थे, वह उसी का जबरदस्त पोषक बन गया। लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया प्रतिनिधि भी आज उसी ढर्रे पर चलता दिखाई पड़ता है जिस पर कभी राजा, सुलतान या बादशाह चला करते थे। जनता अपने द्वारा चुने गए प्रतिनिधि से आसानी से मिल तक नहीं सकती। सच कहा जाए तो एक व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र उन चुनौतियों से जूझ रहा है जो अब उसके अस्तित्व के लिए प्रश्न चिन्ह बन गया है। साहित्य और संस्कृति से जुड़े लोग लोकतंत्र की इन चुनौतियों को न केवल उजागर करते हैं बल्कि सवाल भी उठाते हैं। हमारे समय के चर्चित कवि विमलेश त्रिपाठी ने अपनी कविताओं में इन विडंबनाओं पर करारा प्रहार किया है। उन्होंने इस विषय पर कई उम्दा कविताएं लिखी हैं। विमलेश विषयों के लिए भटकते नहीं, बल्कि विषय खुद ब खुद उनके पास आते हैं। भोजपुरी के ऐसे देशज शब्द उनकी कविताओं में सहज ही मिल जाते हैं जो लोक में प्रचलित प्रसरित हैं। कवि का एक कविता संग्रह 'आदमी की बात' शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विमलेश त्रिपाठी के इस आने वाले संग्रह से कुछ कविताएँ।



विमलेश त्रिपाठी की कविताएँ 



फिलहाल लोकतंत्र


मैं अपने अज़ीज़ और नादान समय से दोस्त की तरह लगते रहे कई-कई जीवों की आंखों की नफरती और क्रूर भाषा पढ़ चुका था और उनकी जबान से निकलते तेजाब के छीटों को अपनी देह पर सहते हुए उनके सारे आरोप स्वीकार की तरह ही अस्वीकार कर उन्हें मन से धन्यवाद देते हुए उस अंधेरे घर से निकल आया था जहां मेरे अतीत और वर्तमान के स्वप्न गड़े थे


विकल्प और भी बहुत हो सकते थे

लेकिन उन विकल्पों के सामने कभी ओहदा 

कभी सदियों पुराने संस्कार की लंबी और काली दीवारें

कभी किसी हू-ब-हू पटरानी की तरह बोलती चलती

एक मायावी स्त्री की महत्वाकांक्षी और नकली हंसी की तरह खड़ी 

एक नफरती और साजिशी भीड़

खड़ी हो जाती थी मेरी चेतना के बरक्स


मैंने बहुत कोशिश की

और आंगन के सबसे अजीज पौधे से लिपट कर रो भी न सका

मेरी आँखों में

समय की धूल ऐसे भरी गई थी

कि मेरा रोना अपने अस्तित्व को बचा लेने का अंतिम वार मात्र था

और

मेरे लिए सबसे करुण और उनके लिए सबसे अधिक हास्यस्पद


उस दिन लोग सड़कों-गलियों और नुक्कड़ों पर

अमृत की खोज में निकले थे

वे अमरता का वरदान चाहते थे

जो दिल्ली नाम के शहर के एक पुराने किले से घोषित हो रहा था


मैं लड़खड़ाते कदमों

खुद को नकाब में ढक अपने घर पहुंचने की पगडंडी टोहता

किसी निर्जन सड़क पर अकेले भटक रहा था

इस बीच लाखों घर सरकारी बुलडोजरों के सामने आ गए थे

सड़कों पर हजारों अनाथ बच्चों ने पहली बार इस धरती का स्पर्श किया था

और

जैविक पिताओं की भीड़ 

साड़ी के टुकड़े में लपेट बच्चों की मरी देहों को मिट्टी में गाड़ने निकली थी


लगता था कि मुझ पर अभी-अभी हमला होगा

मेरे सच की वे सजा देंगे

आदमी के पक्ष में लिखे इतिहासों को कुरेद कर उनकी जड़ों में मट्ठे डाले जाएंगे

वे लिखेंगे अपना झूठा इतिहास

सच के पानी-सा चमकता हुआ

अब तो वे ही राजा हैं 

क्योंकि राजा तो वे ही होंगे 

वही होते आये सदियों से

यही परम्परा यही दर्शन और यही सत्ताशास्त्र 

यही झूठ

यही तय 

और निश्चित


मेरे जैसा गुमनाम और तिरष्कृत और औसत आदमी (जिसे आम कहने का चलन)

कभी नहीं

कभी नहीं 


मेरे लिए तो सच ही एक मात्र हथियार 

एकमात्र ढाल

मुझे लड़ना था जीवन भर उसी एक सच को लिए 

अपने ईमानदार और जर्जर हाथों में हथियार की तरह थामे


उनके नारे 

कभी नहीं होंगे


कभी नहीं होंगे

मेरे नारे


इसी समय और इसी जन्म में

आदमी की तरह आदमी इसी जन्म में

न्याय की तरह न्याय इसी जन्म में

देश की तरह देश इसी जन्म में

सच की तरह सच इसी जन्म में

क्योंकि यही एक जन्म आखिरी

यही एक आसरा

यही एक रास्ता

यही एक युद्ध आखिरी मेरे हिस्से का 

आदर्श 

धर्म 

दायित्व 

और नैतिक मूल्य 


तो कह रहा हूँ पूरी जिम्मेदारी और साहस से

बज रही तालियाँ


राजा झूठ बोलते हैं

तालियाँ


राजा बेसुरा गाते हैं

तालियाँ


राजा डराते हैं

तालियाँ


राजा खून वसूलते हैं

तालियाँ


राजा ये करते हैं राजा वो करते राजा ऐसे हैं राजा वैसे हैं

तालियाँ

लगातार तालियाँ 


और बीच इसके

फिर-फिर जनता का कोरस   मौन विलाप


वह अजीब ही समय था जहाँ कला और कलाकार और राजनीति और मक्कारी

सब एक साथ खड़े

कुछ सहमे कुछ डरे

साहस से कुछ 

सब एकमेक


वह अजीब समय था जिस समय बल ही देश का एकमात्र सिद्धान्त था

सच था


बहुत सलीके और साजिशी सावधानी से 

उसी को

फिलहाल लोकतंत्र समझा और माना जाता था।






मैं लोकतंत्र बोल रहा हूँ


मैं अपने पिछले जन्म की कथा भूल चुका हूँ

भूल चुका हूँ सब कुछ

सिवाय इसके कि मेरी शक्ल किसी जैविक तत्व से बहुत मिलती जुलती थी


इस जन्म में चारों ओर अंधकार है

इतना अंधकार कि खुद को टटोल कर देखना है

कि वह कौन सा अंग है जिसके सहारे रेंगते हुए 

रोशनी का कोई एक सुराख़ मैं खोज सकता हूँ


इस जन्म और समय में मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती

खुद को ठीक-ठीक और साबुत 

जिंदा रखना है।



काहे का लोकतंत्र


जैसे सब्जी वाले पर यकीन है 

कि वह चुन कर अच्छी ही सब्जियां देगा

दूध वाले पर है यकीन 

कि वह दूध में पानी नहीं मिलायेगा

जैसे यकीन है कि 

मोदीखाने का हिसाब बिलकुल दुरुस्त होगा

पानी की बोतलें गिनने में कोई बेईमानी न करेगा 

पानी वाला


जैसे यह 

कि तपती गर्मी के बाद देर से ही सही 

आयेगा ही मानसून

कि रात है तो दिन भी होगा ही जुरुर 

और सूरज का उजियारा फैल जायेगा धरती पर


जैसे मेरे सारे यकीन पुख्ता हैं

क्या ठीक वैसे ही मुझे सरकार पर भी यकीन है?


अगर है तब कोई बात नहीं

लेकिन अगर नहीं है उतना ही यकीन सरकार पर

तो काहे की सरकार

और काहे का लोकतंत्र।



सत्य


अपने को सही साबित करने के लिए तुम खूब कहानियाँ गढ़ना

कर देना साबित मुझे इस धरती का सबसे निकृष्ट जीव

तुम्हारी ईर्ष्या का यही खाद्य है बन्धु

तुम्हारे अहम के कलंक को अच्छाई और सत्य से नहीं धोया जा सकता

उसे तुम्हारे हृदय के विष ने पोषित किया है


तुम इस समय के दोस्त हो 

प्रेम हो 

और असंख्य लोगों के ईश्वर भी


मैं जानता हूँ कि तुम ही जीतोगे हर बार जैसे जीत जाता है असत्य

मैं पराजित अपने सत्य की गठरी के साथ धूल हो जाऊंगा


मैं मिट्टी हूँ

जीवन हूँ जिसे रहना है अलक्षित 


पराजित का कोई इतिहास नहीं होता बन्धु

उसके हिस्से के अंधेरे में ही चमकना तुम

मैं खुश हूँ

मैं अंधेरा हूँ जिसको चिर कर चमकेगा तुम्हारा प्रतिशोध


तुम अमर हो जाना

मैं सदियों इंतजार करूंगा

उस सत्य का जिसके सपने ने मुझे आदमी बनाया।





हे हिन्दी के कवियों 


हे हिन्दी के कवियों 

अगर तुम्हे लगता है कि तुम कवि हो गए हो 

तो मुझे एक बार जरूर पुकारना 

मुझे तुमसे कुछ कहना है


कहना है कि मुझे कवि कभी मत कहना

मुझे कहना आदमी ही

जो तुम्हारे शब्दों की दुनिया में गलती से चला आया था


कहना है कि तुम्हें तुम्हारी कविता से पहचानता रहा हूँ

तो मिलते वक़्त

अपनी कविता और अपने आदमी होने का मान रखना


मैं जानता हूँ कि कविता के बीच उभरेंगे तुम्हारे पाप

तुम्हारे झूठ

तुम्हारी सोच जो अब भी सामंती और वर्णवादी है


तुम इतना करना कि अपने कवि होने का भ्रम रखना

तुम भले ठहरना आलीशान सरकारी घरों में

भले किसी धार्मिक अफसर या नेता के आतिथ्य से गदगद हो कर लौटना

लेकिन जब मिलना हो तो चले आना ब्रिगेड परेड ग्राउण्ड के घास बीच


मैं वहीं किसी पेड़ के नीचे मिलूंगा

या फिर हुगली के किनारे


लेकिन किसी सरकारी वाहन में 

किसी भदेस कवि की चमचमाती कार में तो मत ही आना


मैं किसी कवि को इस तरह झुका हुआ

नहीं देख सकता।



कवि मत कहना


हमारी कुछ महत्वाकांक्षाएं तो थीं ही

लेकिन वह इसलिए अधिक थीं 

कि हमारा जन्म एक ऐसे देश में हुआ था

जहाँ धन ही जाति धरम और ईमान था


हमने अपनी पूरी एक उम्र खरच कर जाना था

कि सत्य एक ही होता है

अकेला और ताकतवर


उसे दोस्त की जरूरत नहीं होती

उसे देवपिता की जरूरत नहीं होती

उसे दरअसल किसी की जरूरत नहीं होती


वह अगर अभी गुम गया है

तो इसलिए कि तुम बांध चुके हो समय की पट्टियाँ

धन से

जन से

तलवार और धर्म से


मुझे कभी भी कवि मत कहना

मत कहना मनुष्य भी

कि एक जिम्मेदार नागरिक होने तक का जरूरी साहस नहीं मेरे भीतर

मैं जो देखता रहा सच को पराजित - निरीह 

और याद करता रहा अपने बच्चों के टूअर चेहरे


मैं जो खड़ा न हो सका दनदनाते लोहे के बीच

अपने लोगों के पक्ष में

मैं जो मशाल तो क्या 

न बन सका एक टिमटिमाता दिया भर

अपनी ही माटी के हक़ में


मैं जो पुरस्कारों के लालच में

जिंदगी और परिवार के लालच में

प्रेमिकाओं की देह गंध के लालच में

गढ़ता रहा तर्क अपनी बेगुनाही के पक्ष में


जब सबसे अधिक जरूरत थी बोलने की

मैं अपने घर में दुबका

लोगों को विश्व कविता दिवस की बधाई दे रहा था


मैं अपनी पीठ पर कविता का लांछन लादे

नहीं रह सकता इस मुल्क में

मुझे कहना होगा

नहीं है यह मन का विलास

यह जंग है

यह असत्य को हारने से बचाने की एक लंबी लड़ाई है


जब तक अपने शब्दों को लिए

न उतर जाऊं इस आग की दरिया में

मुझे कवि मत कहना


मनुष्य तो कतई नहीं।



यह युद्ध का समय है


पिघलने लगते हैं मस्तिष्क के रेशे

आग की भयावह लहरें उठती हैं

कितनी नफरत 

कितनी उपेक्षा

कितने दंश 

और कितनी हारी हुई लड़ाइयाँ


एक पैर डगमगाता है तो दूसरा सम्हालता

हाथ को टटोल कर हिम्मत खींचता दूसरा हाथ

हृदय की धमनियों में तो काला धुँआ भरा है

धुधंलायी आँखों में परछाई है एक चेहरे की

जो हिम्मत हार चुकी

जा चुकी समय और संसार 

देह और आत्मा के पार


सिपाही की नौकरी से रिटायर बूढ़े  पिता के साथ 

खाँसता है पूरा घर

माँ के पैरों के साथ अपाहिज बन घिसटता है प्यार

कहीं कोई शोर नहीं 

हर तरफ एक मुर्दा शान्ति

सिर्फ बेरोजगार भाई की देह 

सीढियाँ चढ़ती - उतरती 

हाँफती है

उसकी पत्नी की मुस्कुराहट में 

दुख के असंख्य रेशे उड़ते हैं


एक अकाल मृत्यु है

मेरे कंधे पर आ कर बैठ गई

धीरे-धीरे सच का संसार मर रहा है

और मैं 

अक्षम 

स्तब्ध

खड़ा हूँ मिट्टी जैसी कविता में पैर धँसाये


लेकिन सुनो ध्यान से हे अवसरपरस्त कवियों

सुनो मेहकड़ लगाए हे सत्तापरस्त बुद्धिजीवियों

लोकतंत्र के जादुई पहरुए

धर्म को चबा कर जनता के मुँह पर थुकने वाले हे बाहुबलियों

सुनो हे छद्म ईश्वर

छल बल कल से सुसज्जित करोड़ों देवपुत्रों


सुनो

बीच-बीच में बहुत धीमें 

समय के पार से चल कर आती

कुछ जनमतुआ बच्चों की किलकारियाँ 

गूँज रही अनवरत


सावधान हे अमृतपुत्रों

एक नागरिक की चीख है यह

है यह बीज का आर्तनाद


सुनो शंखध्वनि रणभेरियों की कुंहकी

सुनो परिवर्तन की उदबोधिनी


यह युद्ध का समय है।





यह जादू है


तुमसे बार-बार कहा जाएगा कि जो है दरअसल मदारी 

है वही राजा जो है दरअसल विदूषक है वही साहित्यकार घोषित बुद्धिजीवी 

कला को बार बार किया जाएगा 

अपमानित 

और कहा जायेगा उसे ही बार बार 

सम्मान


यह जादू है

हर समय और मौसम में

यह जादू ही है

तुम्हें इस जादू को समझना होगा


समझ के बाद हो सकता है कि तुम्हें क्रोध आए

और तुम्हारे पास हथियार न हो

क्योंकि 

तुम अभागत जनता हो एक अभागे देश की 

जिसे सदियों से पढ़ाया गया है अहिंसा

धर्म और बिहुनई का पाठ


तुम जिसके पिता को तीन गोली मारी गई

तुम जिसे हमेशा से मूर्ख और कमजोर समझा गया

तुम जो एक गाय हो

एक घोड़ा हो एक्का गाड़ी में जुते

तुम जो भेड़ की तरह रूढ़ हो गए हो

तुम जिसकी पीठ पर आज भी कोड़े और चाबुक के निशान हैं


इस घोर जादुई समय में अगर और कुछ नहीं तुम्हारे पास

तो मुँह में जबान तो है

बोलो मेरे दोस्त

अब तो वह भाषा बोलो जिससे जादू चटक जाता है

भिहला जाता आभासी गुम्बद अमहान

मिट्टी हो जातीं झूठ की किरचें


बोलो

कि तुम्हारे बोलने भर से ही

आसमान में दुधिया कबूतर उड़ने वाले हैं।



बेरंग


हम ब्रह्मांड के पार एक स्वप्न देश में रहते हैं

बोलो न 

कि रहते हैं


नहीं

बोलो मत 

यकीन करो


यकीन करो 

कि यह जीवन का सबसे सुंदर अध्याय है

जिसमें 

बिना किसी बंदिश

बिना किसी तनाव

बिना किसी शर्त

बिना देह और बिना आत्मा के 

अपने-अपने हिस्से के वादों और रुसवाइयों के साथ 

हम चल रहे साथ 


अभी-अभी

अभी ही

राहों पर रंगों की रोशनी साथ

असफलताओं की हँसी हवा 

उड़ते लट

दर्ज होते मुहावरे

ध्वनि और शब्द

और एक जीवन साथ


यह देखो 

यह समय है

हमारे हथेलियों के बीच सुस्ताता 

रंग 

और पानी 

और रोशनी 

और स्वप्न 

और जीवन


यह जीवन है 

हमारा

ज़िंदा 

और साबुत 


नहीं

कुछ मत बोलो

उजले रंगों का रुख 

अपनी पृथ्वी की ओर मोड़ दो।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



संपर्क: 


43/1 ठाकुरदास घोष स्ट्रीट, 

टिफ़िन बाज़ार, लिलुया, 

हावड़ा- 711204 (प.बंग.)


ब्लॉग: http://www.anahadkolkata.com


Email: drbimleshtripathi1974@gmail.com


Mobile: 09088751215

टिप्पणियाँ

  1. विमलेश त्रिपाठी का साहित्यिक परिचय के साथ उनकी प्रतिनिधि कवितायेँ प्रस्तुत करने हेतु आपका धन्यवाद,आभार!

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  2. महत्वपूर्ण कविताएं। विमलेश त्रिपाठी जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएं 🌻
    कविताएं पढ़वाने के लिए पहली बार और आपका शुक्रिया।

    जवाब देंहटाएं

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