हिमांगी त्रिपाठी की कविताएँ

हिमांगी त्रिपाठी
यह विडम्बना ही है कि  लड़कियों के साथ आज  भी परिवार में ही दोयम व्यवहार किया जाता है। फटकार जैसे उनकी नियति हो। आधुनिकता का दम-ख़म भरने वाले लोग भी इस मामले में रुढ़िवादियों जैसे ही दिखाई पड़ते हैं। हिमांगी ने इसे शिद्दत से महसूस कर कविता में ढालने का यत्न किया है। हिमांगी की एक कविता उस दामिनी या निर्भया के मित्र पर है जो घटना के वक्त दामिनी के साथ था और बलात्कारियों का प्रतिरोध करने का खामियाजा उसे भी भुगतना पड़ा था। संवेदना का एक कोण यह भी है जिसकी तरफ किसी कवि का ध्यान नहीं गया। अभी भी हिमांगी के सामने अपना काव्य-शिल्प विकसित करने की चुनौती है। इससे हिमांगी को खुद जूझना है और काव्य-संसार में आगे अपना सफ़र करना है। बहरहाल विभिन्न आस्वादों वाली हिमांगी की नयी कविताएँ एक बार फिर आज पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। 
 
हिमांगी त्रिपाठी की कविताएँ                                         


फटकार
छुटपन में जब हमको
मिली फटकार अपने बाबा से
तो उसमें
प्रेम की सौंधी महक
और अपनेपन की कुछ ललक थी

मिट्टी के घरौंदे में जब बनाते गुड्डे-गुड़ियों का घर
धुल मिटटी से सन जाते
दुकूल और तन
तब माँ ने लगाई जोरदार डाँट।

जैसे ही थोड़ी हुई बड़ी हुई
मिली फटकार उस शिक्षक से
जो चिंतित रहते हमारे भविष्य के लिये
फिर जब बँधी युवावस्था की जंजीरों में
पढ़ने जाती मीलों दूर
तो पिता ने फटकार लगाते हुए कहा
नहीं संवरेगा पढ़ने-लिखने से हमारा भविष्य
नहीं मिलेगा कोई सपनों का महल
चूल्हा-चक्की तक सीमित है ये जीवन,
गिगिड़ाती रोती रही अपनी माँ के सामने
लेकिन याद जब  पिता का वह भयावह रूप
तो सहम जाती मैं।

फिर विवाह के बन्धनों ने जब
खींच लिया अचानक ही अपनी ओर,
तो तमाम बंधनों और घेरों के बीच
बँध गई मैं,
तभी उनकी छाया में मिली
चंद दिनों की ही ख़ुशी
जिन्हें समेट लिया मैंने उसी तरह
जैसे रक्तिम किरणें ओस को
और बादल पानी को।

ससुराल में भी समय-समय पर
मिलते रहे सास-ननद-भौजाई के  
तरह-तरह के ताने-उलाहने
जिसमें न जाने कितना ताप था
इन सबके व्यवहार को
दरकिनार कर रख दिया एक ओर

इस तरह बढ़ती रही अपने जीवन में
आगे की ओर।
बुढ़ापे ने जब मुँह चिढ़ाते हुए
खींचा अपनी ओर
अजीब सी तन्हाई में
कर बैठती बेसुध होकर कोई काम
तो बनने के बजाय हो जाता
वह अस्त-व्यस्त
तभी मिलती बेटे और बहू की फटकार
और उनका बेगानो सा व्यवहार

छुटपन से लेकर बुढ़ापे तक
सभी ने बाँधना चाहा
पाबंदी की बेड़ियों में
इन्हीं सबके बीच उलझ कर
रह गई मेरी जिंदगी
आखिर क्यों हमारा समाज
अस्तित्व को कुचल कर
रखना चाहता है
अपने अधिकारों के पांवों तले 
  



एक आपके आने से

ज़िंदगी में हमारी आप
आ गए इस तरह
फूलों में आ जाती है
महक जिस तरह
एक आप ही के आने से
ज़िंदगी सँवर गयी
उदास आँखों में आप ही की
सूरत है बस गयी।

इक दिन हम कुछ
इस कदर आपके हो जाएँगे 
कि कभी चाह कर भी
आपको न छोड़ पायेंगे
इस बेजान दुनियाँ में
एक जान है हमारी
जो लगती है मुझे
जानी और कुछ पहचानी।

इन आँखों में हर वक़्त
वही छाए हैं
हमने दिल से है पुकारा
और देखो
वो बिलकुल अभी-अभी
आये हैं।

आखिर कैसे बन जाते हैं
ये प्यार भरे रिश्ते
बता दो न क्यूँ लगते हो
आप मुझे अपने फ़रिश्ते।

मेरे बस यूँ  ही बने रहना
इस ज़िंदगी से हमें
और कुछ भी नहीं है कहना।
  
दर्द भरा सफर

एक दर्द ने बिलकुल उसे तोड़ दिया,
उसकी ज़िंदगी का रुख ही मोड़ दिया।
ख़्वाबों में भी ऐसा न सोचा होगा,
हैवानियत ने भी ऐसा न खरोचा होगा।
ज़िंदगी का ये दर्द भरा सफर था,
उस दिन वो उससे बेखबर था।
उसके दामन में बसने वाली दामिनी
अब न मिलेगी ज़िंदगी में फिर कभी।
एक दर्द उसका भी रहा होगा जरूर,
दोनों थे अनजान और बिलकुल बेक़सूर।

जिसके साथ मरने जीने की खाई थी कसमें
जो लगती थी उसे प्यारी उन सबमें
वही उसके सामने पूरी तरह लूट गयी
ये देख नम आँखें नीचे झुक गयी
मगर अकेला था कुछ कर भी न सका,
उस भयावह दृश्य को देख मर भी न सका।
अपनी ज़िन्दगी को लुटते देखा अपनी आँखों से,
और पूछ बैठा अपनी साँसों से।

ये दयनीय दृश्य देख अभी जिन्दा हूँ ,
मैं इस वक़्त असहाय कितना हूँ।
इस गंदगी भरे समाज में उसकी कोमल काया,
जिसे देख दरिंदों को तरस नहीं आया।
ऐसा समाज जहाँ पूजते हम नारी को,
उसी समाज में हो गई वह निर्वस्त्र।

यदि लुटती रही इस तरह मासूम जिंदगियां,
तो जल्द टूट जायेगा सब कुछ,
जैसे मेरी जिंदगी टूट गई थी उस दिन,
जैसे मेरा भरोसा उठ गया था उस दिन


सम्पर्क-
द्वारा-श्री रजनीकान्त त्रिपाठी 
बस स्टैण्ड, थाने के सामने 
मऊ, चित्रकूट (उत्तर प्रदेश)
210209 

ई-मेल : tripathihimangi@gmail.com 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

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