संजीव कुमार का आलेख 'स्वामी ने क्या ग़लत कहा'
हिटलर का अत्यन्त विश्वस्त गोयबल्स यह कहा करता था कि अगर एक झूठ को सौ बार बोला जाय तो वह सच लगने लगता है। आज इतिहास एक बार फिर अपने को दुहरा रहा है। हमारे समय के गोयबल्स हैं श्री दीना नाथ बत्रा। तमाम किताबें लिख मारने वाले बत्रा जी की किताब के हकीकत और फ़साना पर एक नजर डाला है हमारे साथी संजीव ने। आइए पढ़ते हैं संजीव का यह जरुरी आलेख जो तीन दिसंबर के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था।
स्वामी ने क्या ग़लत कहा
संजीव कुमार
ज़्यादा
समय नहीं हुआ, भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी का
बयान आया था कि रोमिला थापर और बिपन चंद्रा जैसे नेहरूवादी इतिहासकारों की किताबों
को जला देना चाहिए। इस बयान की बड़ी चर्चा और निंदा हुई थी। पर थोड़ा ठहर कर सोचें
कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के पास ऐसी किताबों को जला देने, लुगदी बनवा देने, या बल-प्रयोग करके इनकी बिक्री रुकवा
देने के अलावा उपाय क्या है? क्या
आप उनसे उम्मीद करते हैं कि वे उदार और तरक्की-पसंद सोच के बौद्धिक दिग्गजों की
स्थापनाओं का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दें?
अभी-अभी
संघ खेमे की ‘इंडियाफ़ैक्ट्स’ नामक वेबसाइट पर अंग्रेज़ी में एक पोस्ट
आई जिसमें रोमिला थापर, अंगना चटर्जी, विजय प्रसाद जैसे आठ ‘भारत विरोधी बुद्धिजीवियों’ का पूरा परिचय डाला गया है। उसके नीचे
जो टिप्पणियां आई हैं, उनमें एक संघ हमदर्द की टिप्पणी
दिलचस्प है। लिखते हैं, ‘हमारी मुश्किल यह है कि हम इन
बुद्धिजीवियों के बनाये हुए पारिस्थितिक तंत्र (ईको-सिस्टम) के बरक्स कोई
प्रति-तंत्र विकसित नहीं कर पाए जैसा कि अमेरिका में दक्षिणपंथ के पास है।... मैं
नहीं समझता कि मोदी सरकार और संघ परिवार के पास वह दृष्टि और बौद्धिक माद्दा है कि
वे ऐसा प्रति-तंत्र निर्मित कर पाएं। यही हमारी सबसे बड़ी त्रासदी है।’ यह अहसास संघ से जुड़े लोगों को है। वे
जानते हैं कि वे बराबरी के स्तर पर जवाब देने की हालत में नहीं हैं। तो फिर
किताबों को जला देने का आह्वान क्यों न किया जाए!
लिहाज़ा, स्वामी के बयान को आप इस बौद्धिक
क्षमता की कमी के आत्मस्वीकार के रूप में भी पढ़ सकते हैं। वह जितना फ़ासीवादी मिज़ाज
का बयान है उतना ही यथार्थवादी भी।
कोई
चाहे तो कह सकता है कि ‘बौद्धिक क्षमता’ अपने-आप में एक गढ़ंत है जो आधुनिकता की
पश्चिमी परियोजना द्वारा हमारे ऊपर थोप दी गयी है। यह बौद्धिक कर्म के
आधुनिकता-निर्मित ढांचे का असर है जिसके चलते एक ख़ास प्रविधि का पालन करनेवाला, तार्किक-वैज्ञानिक चिंतन के मुहावरों
में बंधा लेखन ही हमारे लिए उत्तम बौद्धिकता की निशानी होता है। जिन विचारकों में
ग़ैरमिलावटी भारतीयता बची हुई है, उनके
यहां यह निशानी न मिले, यह स्वाभाविक है। वस्तुतः उनके यहां
ठेठ भारतीय क़िस्म की बौद्धिकता है जिसे पश्चिमी आधुनिकता ने, और इसीलिए हम जैसे जड़ों से कटे लोगों
ने, बौद्धिकता मानने से इंकार कर दिया है।
यह
उत्तर आधुनिक दलील प्रथम दृष्ट्या बहुत ग़लत नहीं लगती। पर शिक्षा-संस्कृति के
मोर्चे पर संघ की अगुवाई करने वालों को पढ़ें तो भेद खुल जाता है। वहां बौद्धिक
कर्म के उन सदियों पुराने उसूलों का भी कोई पालन नहीं मिलता जिनका स्वयं भारतीय
पांडित्य-परंपरा में सख़्ती से पालन किया गया है। ऐसा एक नमूना अभी मेरी मेज़ पर
खुला पड़ा है। यह अक्तूबर महीने की 29
तारीख़ को वेंकैया नायडू के हाथों लोकार्पित एक पुस्तक है। लेखक हैं, दीना नाथ बत्रा और पुस्तक का नाम है, ‘भारतीय शिक्षा का स्वरूप’।
आदरणीय
बत्रा जी को जिसने नहीं पढ़ा, वो
समझो ‘जन्म्याईं नईं’। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर
से शिक्षा-संस्कृति के मोर्चे पर काम करने वाले एक ऐसे समर्पित प्रचारक हैं जिनकी
स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत इज़्ज़त करते हैं। शिक्षा बचाओ आंदोलन की
अगुवाई करते हुए इसी साल वेंडी डॉनीगर की किताब ‘द हिंदूज़: ऐन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को लुगदी करवाने में कामयाबी हासिल कर वे चर्चा में आये थे। वैसे वे
काफ़ी समय से संघ के शिक्षा-नीति-निर्धारकों में रहे हैं और राजग-1 के दौरान 2001 में एन.सी.ई.आर.टी. के सलाहकार के तौर
पर उन्होंने उस समिति का नेतृत्व किया था जिसने इतिहास की किताबों में से हिंदू
राष्ट्रवादियों को ठेस पहुंचाने वाले हिस्सों को निकाल बाहर करने के काम को अंजाम
दिया। शिक्षा के भारतीयकरण और उसमें मूल्य-शिक्षा के समावेश के उद्देश्य से बत्रा
जी ने नौ पाठ्यपुस्तकें भी लिखीं, जिनका
गुजराती में अनुवाद कर गुजरात सरकार ने अपने 42000
विद्यालयों में उन्हें पढ़ाना अनिवार्य किया है। इनमें ‘तेजोमय भारत’ और ‘प्रेरणादीप 1’
‘प्रेरणादीप 2’ जैसी किताबें हैं जिनमें विद्यार्थियों
के लिए परोसी गयी सामग्री काफ़ी चर्चा में रही है। मसलन, ‘तेजोमय भारत’ में महाभारत की कथा के आधार पर प्राचीन
भारत में स्टेम सेल रिसर्च होने, टेलीविज़न
होने आदि की जानकारी दी गयी है। ‘प्रेरणादीप’ के अलग-अलग भागों में स्पष्ट नस्लवादी
मिज़ाज वाली ‘शिक्षाप्रद’ कहानियां हैं। मोदी जी ने स्वयं इन
किताबों के महत्व पर प्रकाश डाला है और भारतीय शिक्षा के उद्धार की मुहिम में
बत्रा जी के महती योगदान को स्वीकार किया है।
दीना नाथ बत्रा |
इन
बातों से समझा जा सकता है कि राजग-2
में शिक्षा के स्तर पर जो कुछ होने जा रहा है - और ज़ाहिर है कि बहुत कुछ होने जा
रहा है - उसमें दीनानाथ बत्रा नेतृत्वकारी भूमिका में रहेंगे। ऐसे व्यक्ति के
विचारों को सीधे उसकी पुस्तक से हासिल करने में किसकी दिलचस्पी नहीं होगी! मेरी
मेज़ पर उनकी किताब के खुले होने का कारण यह है।
तो
अब आइये इस खुली हुई किताब पर। अगर आप आज कल के बाबाओं को प्रामाणिक भारतीयता का
सबसे ठोस उदाहरण मानते हों,
तो यह किताब भारतीयता से ओतप्रोत है।
इसकी अंतर्वस्तु और शैली,
दोनों बाबाओं के प्रवचन जैसी है। इसमें
न किसी उद्धरण का स्रोत बताने की ज़हमत उठाई गयी है, न किसी तथ्य को प्रमाण-पुष्ट करने की। (वह सब बत्रा जी कह रहे हैं, यही क्या काफ़ी नहीं है!) उद्धृत किये
गये लोगों का पूरा परिदृश्य इतना वैविध्यपूर्ण है कि आप दंग रह जाएंगे। यहां श्री
मां, साईं बाबा, एकनाथ जी, स्वामी रंगनाथन, मां शारदा इत्यादि से लेकर विक्टर
ह्यूगो, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, बिनोवा भावे, गिजुभाई, दीनदयाल उपाध्याय, श्री
गोलवलकर, डॉ. कोठारी, डॉ. राधाकृष्णन और पता नहीं कौन-कौन से
विचारक मौजूद हैं और ऐसा लगता है कि इन सब ने मिल कर कुछ एक जैसी ही बातें कही
हैं। उद्धरणों के साथ कहीं भी संदर्भ नहीं बताया गया है, पर वह उतनी चिंताजनक बात नहीं।
चिंताजनक यह है कि पढ़ कर कई बार संदेह होता है कि लेखक अपने ही शब्दों पर उद्धरण
चिह्न ठोंक कर उन्हें किसी नामी-गिरामी के हवाले किये दे रहा है। पृष्ठ 177 पर स्वामी विवेकानंद का एक उद्धरण हैः
‘‘समझ के बिना कोरा ज्ञान मस्तिष्क में
पड़ा सड़ांध पैदा करता है। प्रेम के ढाई अक्षर आत्मसात करने से जीवन सफल तथा धन्य हो
जाता है।’’ फिर 186 पर विवेकानंद का उद्धरण हैः ‘‘शिक्षा
जानकारियों का ढेर नहीं, जो मस्तिष्क में पड़ा रह कर सड़ांध पैदा
करता है। ज्ञान के चार अक्षर भी यदि हम जीवन में आत्मसात कर लें तो हमारा जीवन सफल
हो जाए।’’ चूंकि दोनों उद्धरणों का स्रोत नहीं
बताया गया है, इसलिए प्रामाणिकता जांची नहीं जा सकती, पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘मस्तिष्क’, ‘सड़ांध’, ‘अक्षर’, ‘जीवन’, ‘आत्मसात’ और ‘सफल’ जैसे शब्दों को दुहराते हुए, और ‘प्रेम के ढाई अक्षर’ तथा
‘ज्ञान के चार अक्षर’ का अंतर बरत कर, दो जगह दो बातें स्वामी विवेकानंद ने
नहीं कही होंगी। यह बत्रा जी की अपनी मेधा से निकले हुए सूत्र ही हो सकते हैं
जिन्हें अधिक वज़न देने के लिए उन्होंने विवेकानंद के नाम कर दिया है। यह बात तब और
पुष्ट होती है जब आप पाते हैं कि पृष्ठ 17 पर
लेखक बिना किसी को उद्धृत किये यह बात कह रहा हैः ‘‘शिक्षा जानकारियों का ढेर नहीं है, जो मस्तिष्क में पड़ी रहकर सड़ांध पैदा
करती है।’’ फिर पृ. 205 पर उसके अपने शब्दः ‘‘शिक्षा कोरा अक्षर-ज्ञान नहीं है, जो
मस्तिष्क में पड़ा सड़ांध पैदा करता है।’’ और
तो और, इसी पुस्तक में बत्रा जी की जो कविताएं
संकलित हैं, उनमें भी यह रचनात्मक सूत्रीकरण मिलता
है, जिससे यह अंतिम रूप से सिद्ध हो जाता
है कि विवेकानंद को इसका श्रेय उन्होंने महज़ उदारतावश दे दिया था। कविता पंक्ति
हैः ‘यदा-कदा मास्टर जी आते हैं, मस्तिष्क में ढूंसते हैं अक्षरज्ञान /
वह वहां सदा सड़ांध पैदा करता है, नहीं
है यह अनुभूत ज्ञान।’
ग़रज़ कि सड़ांध ने बत्रा जी के शिक्षा-चिंतन पर लगभग क़ब्ज़ा जमा लिया
है। यह स्वामी विवेकानंद के चिंतन से आया हुआ शब्द है, ऐसा मानने को जी नहीं
करता,
पर जांच कैसे हो!
किताब
में आये सभी उद्धरणों का हाल बेहाल है। ‘कामायनी’ का एक छंद एकाधिक बार उद्धृत है और
मात्रा तथा आशय, दोनों दृष्टियों से उसे अधमरा करके
प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह एक छोटी-सी कहानी रचते हुए लेखक ने लक्ष्मण और उनकी
पत्नी उर्मिला के बारे में लिखा है, ‘‘लक्ष्मण
जब वनवास जाने लगे थे तो उन्होंने कहा था कि मैं श्रीराम के साथ जा रहा हूं, यह नहीं कहा कि मैं कब लौटूंगा।
उर्मिला ने अपनी एक सखी से यह शिकायत की थी कि सखि, वे मुझसे कहके जाते।’’ (पृ.
269) याद कीजिए कि ‘सखि, वे मुझसे कह कर जाते’ मैथिली शरण गुप्त की पंक्ति है जो उनकी कविता में गौतम बुद्ध की पत्नी
यशोधरा का कथन है।
पृष्ठ
186 पर डॉ. राधाकृष्णन को लेखक ने
अंग्रेज़ी में उद्धृत किया हैः ‘स्टैगनेशन
इज़ डेथ ऐंड मोशन इज़ लाइफ़’। यही वाक्य इसी तरह अंग्रेज़ी भाषा और
रोमन लिपि में पृष्ठ 177 पर लेखक की अपनी बात के रूप में है।
अब चूंकि राधाकृष्णन स्वयं बत्रा जी के जीवन काल में रहे हैं, इस लिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि बत्रा
जी के रूप में उनका पुनर्जन्म हुआ है और दोनों एक ही व्यक्ति हैं!
पश्चिमी
विद्वत्ता की बराबरी में दिखने की ग़रज़ से बत्रा जी लगातार अंग्रेज़ी में कुछ-कुछ
कहते चलते हैं। ‘वी आर द ट्रस्टीज़ ऑफ़ द वेल्थ’ (122), ‘रीड, च्यू ऐंड डाइजेस्ट’ (176), ‘ऑल
फ़ॉर वन ऐंड वन फ़ॉर ऑल इज़ आवर सॉन्ग (188)- ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। ग़लत-सही उद्धरणों और अंग्रेज़ी वाक्यों वाली
यह बाबासुलभ शैली भी क्षम्य होती, अगर
कम-से-कम सुसंबद्ध तरीके से अपनी बात कहने का गुर ही बाबाओं से ले लिया गया होता।
बत्रा जी की मुश्किल यह है कि प्रवचन और लेखन का यह बुनियादी सिद्धांत भी उनके यहां
मात खा जाता है। वे अपनी जैसी-तैसी स्थापनाओं को बस जैसे-तैसे स्थापित करते चले
जाते हैं। किताब के पहले ही अध्याय को देखें तो उसका शीर्षक है, ‘भारतीय शिक्षा का स्वरूप’, पर पूरे अध्याय में इस स्वरूप को लेकर
शायद ही कोई बात कही गयी है। असंबद्ध अनुच्छेदों में तरह-तरह की बातें कहता हुआ
लेखक शिक्षा संबंधी सरकारी तंत्र के ढांचे पर विचार व्यक्त करने लगता है और फिर
अचानक, बिना किसी बुद्धिगम्य कारण के, ‘गांधी के शिक्षा संबंधी विचार’ उप-शीर्षक के अंतर्गत अपनी समझ के
अनुसार उनके विचारों को बिंदुवार रखने लगता है। ऐसी असंबद्धता किताब में आद्योपांत
व्याप्त है। उसे पुस्तक का एक गुण नहीं, बल्कि
अंगी गुण कहना चाहिए।
याद
रखें कि दीना नाथ बत्रा जी इस समय संघ परिवार के सबसे कद्दावर शिक्षा-चिंतक हैं।
स्थानाभाव के कारण उनके बौद्धिक स्तर के और नमूने यहां पेश नहीं किए जा सकते, किताब की स्थापनाओं पर तो ख़ैर बात ही
नहीं की गयी, पर जो काम की बात है, वह इतने को आधार बना कर कही जा सकती
है। वह यह कि क्या इस तरह की बौद्धिकता के बल पर रोमिला थापर, बिपन चंद्रा जैसे विद्वानों का उत्तर
दिया जा सकता है?
तो
फिर बताइये, सुब्रह्मण्यम स्वामी ने क्या ग़लत कहा?
सम्पर्क-
ई-मेल - sanjusanjeev67@gmail.com
सुचिन्तित आलेख
जवाब देंहटाएंसुचिन्तित
जवाब देंहटाएंAgr is samay bhi nhi bole to phir kbhi bole jane yogya rahne bhi nhi diye jayenge. Dhanyavaad Lekhk aur Bloger jee!!
जवाब देंहटाएंKamal Jeet Choudhary