कैलाश बनवासी की कहानी - ‘लव-जिहाद’ लाइव'
कैलाश बनवासी |
‘लव-जिहाद’ लाइव
कैलाश बनवासी
उस दोपहर खाना खाने के बाद हम माँ-बेटी बिलकुल पड़ोस के तारा काकी के घर में बैठे थे। यों ही गप मारते। वैसे भी आज इतवार था। स्कूल की छुट्टी का दिन।
अभी याद नहीं कि हम किस बारे में बात कर रहे थे...। शायद माँ और काकी आँगन में बैठे-बैठे मनरेगा’ में हो चुके काम के अब तक नहीं हुए मजदूरी के भुगतान बारे में बात कर रहे थे, कि सरपंच और सचिव दोनों मिल कर कैसे बंटाधार कर रहे हैं गाँव का...। या, धान की इधर शुरू ही हुए लुवाई के बारे में...या खेत में गेहूँ के संग अरहर-लाखड़ी बोने के बारे में। या शायद भुनेसर दाऊ के यहाँ गुरूवार से आरम्भ होने वाले भागवत कथा के बारे में बात कर रहे थे, जिसमें कथा बांचने मथुरा के प्रसिद्ध कथा-वाचक पं. अखिलेश्वर महाराज आ रहे हैं, जिसके निमंत्रण पत्र आस-पास के सारे गाँवों में बांटे जा चुके हैं...। ...या शायद माँ काकी को अगले इतवार को अपने मायके सांकरा जाने की बात बता रही थी जहाँ उसके भतीजी से रिश्ता पक्का करने ‘पैसा पकड़ाने’ के लिए लड़़के वाले आ रहे हैं...। और मैं अपने साथ कक्षा 10 में पढ़ने वाली तारा बुआ की बेटी रेखा के संग उसके कमरे में शायद स्कूल में नयी-नयी आयी लिली मैडम के नयी डिजाइन के कपडे, उसके फैशन और स्टाइल के बारे में हँस-हँस के बात कर रही थी।या हम अपने साथ पढ़ने वाले लड़कों के बारे में बात कर रहे थे....। या शायद.....
और सच पूछा जाय तो अब मुझे या माँ को कुछ भी याद नहीं। सब भूल गए। मानो कोई भारी बवंडर सहसा उन्हें उड़ा ले गया कहीं...। याद है तो बस यही कि मेरा छोटा भाई अज्जू आया था, औैर उसने सिर्फ इतना बताया था कि कुछ लोग आए हैं,बाहर से, और पापा को पूछ रहे हैं...।
हमें सब कुछ भुला देने के लिए इन दिनों इतना ही बहुत है!
जैसे ही सुनते हैं कि कोई आया है और हम लोगों को पूछ रहा है, हम सब कुछ एकदम भूल जाते हैं । कुछ भी याद नहीं रहता, सिवाय लगातार एक भीतरी थरथराहट के, जिसमें सहसा हम सूखे पत्ते की तरह कांपने लगते हैं। न जाने कितनी शंका-कुशंका एक साथ हमारे दिल-दिमाग में आषाढ़ के बादलों जैसे घुमड़ने लगती है, बहुत तेजी से । और तन-बदन में तारी उस थरथराहट से बच सकने का हमारे पास कोई उपाय नहीं। हम एकदम जान जाते हैं कि ये बाहरी लोग उसी के बारे में पूछने आए होंगे। हाँ, उसी के बारे में...।
उसी के बारे में, जिसकी चर्चा हम-यानी घर के सभी लोग- खुद अपने-आप से करने से बचना चाहते हैं।
हम लोगों में इतना भी साहस नहीं बचा था कि अज्जू से उन आने वालों के बारे में कुछ और पूछ-ताछ कर सकें।
और हमारा अनुमान गलत नहीं था। इस बार भी !
वे तीन लोग थे।एक बड़ी,चमचमाती बोलेरो हमारे घर के बांयीं ओर के शिव मंदिर वाले चबूतरे के पास खड़ी थी, नीम की छाया में।वे सभी शहरी, बहुत पढ़े-लिखे लोग थे। तीस से लेकर चालीस की उमर के। दो की आँखों में धूप का काला चश्मा था।
हमारे वहाँ पहँचते ही उनमें से एक ने, जो लम्बा और दुबला था, आगे बढ़ कर माँ से पूछा, ‘‘आप जया की माँ हैं?’’
माँ ने बस सर हिला दिया था।
यह नाम जैसे अब हम सुनना ही नहीं चाहते! जितना संभव हो दूर रखना चाहते हैं। लेकिन नहीं चाहते हुए भी यह नाम हम लोगों के सामने बार-बार आ ही जाता है.... कुछ वैसे ही जैसे पैर के अंगूठे में कहीं चोट लगी हो और बचते-बचाते हुए भी अंगूठा बार-बार किसी चीज से टकरा जाता है और घाव फिर टीसने लगता है...।
‘‘पूरन लाल जी कहाँ हैं?’’ उसने पूछा
‘‘ कहीं गए हैं अपने दोस्त के साथ।’’
‘‘कहीं बाहर गए हैं?’’ दूसरे ने पूछा, जिसके हाथ में कैमरा था।
‘नहीं-नहीं,’’ मैने बताया, ‘‘यहीं गाँव में हैं। किसी काम से गए हैं।’’
‘‘आप जया की छोटी बहन हो?’’ तीसरे सांवले और नाटे-ने मुझसे पूछा।
मैंने सिर हिलाया। चश्मा पहने पहले व्यक्ति ने- जो टीम का मुखिया जान पड़ता था- कहा, ‘‘अपने पापा को जरा बुला दोगी...। हमको उनसे मिलना है। हम लोग प्रेस से हैं, रायपुर से आए हैं। दिल्ली के एक पेपर के लिए काम करते हैं। उनसे पूछना है कुछ...। अच्छा, हम ही बात कर लेते हैं, उनका मोबाइल नम्बर बताओ जरा..।’’
मैं उनको पापा का मोबाइल नम्बर बताने लगी। माँ तब तक भीतर चली गई।
उसने पापा का नंबर लगाया, ‘‘हाँ, हैलो...। पूरन लाल जी बोल रहे हैं? नमस्कार पूरनलाल जी! मैं अखिलेश बोल रहा हूँ, दिल्ली’ के न्यूज-पेपर ‘जन-धर्म’ का संवाददाता। हम लोग इधर एक मिशन के तहत आए हैं। इस क्षेत्र से लड़कियाँ गायब हो रही हैं, गलत लोग उन्हें बहला-फुसला कर, अच्छी नौकरियों का लालच दे कर अपने जाल में फंसा रहे हैं। आप की बेटी भी गायब है साल भर से... । आप से थोड़ी बात करनी थी....जी, आप की बेटी जया के संबंध में...जी, हम लोग थाने गए थे, वहीं से आपका एड्रेस लेकर आपसे मिलने पहुँचे हैं...। मैं इस समय आप के घर के सामने खड़ा हूँ । जी मिलना जरूरी है...। कृपा करके आइये...। जी आइये...प्लीज, हम इंतजार कर रहे हैं...।’’
आ रहे हैं! संवाददाता ने खुश हो कर अपने सहकर्मियों को बताया।
इस बीच, जैसा कि गाँव में होता है, किसी अजनबी, वो भी गाड़ी-घोड़ा वाले, को आया देख आस-पास के लोग, क्या लइका क्या सियान, सब टोह लेने वहाँ सकला गए थे, और अपनी तरफ से भरसक मदद करने को तत्पर। पड़ोस के दुखहरन बबा इसमें अव्वल हैं। वो नंगे बदन, धोती पहने इन लोगों से पूछताछ करने लगे ... कौन हो, कहाँ से आए हो...।
अचानक संवाददाता की नजर हमारे घर के ओसारे में लाल रंग के नये ट्रेक्टर पर चली गई।
‘‘ये ट्रेक्टर आप लोगों का है?’’ उसने मुझसे पूछा।
‘‘नहीं-नहीं। ये तो दाऊ का है। पापा ड्राइवर हैं खाली।’’ मैं बोली।
बात को दुखहरन बबा ने लपक लिया और पोपले मुँह से बताने लगे, ‘‘अरे साहब, पूरन तो डरेवर है भुनेसर दाऊ का। बीसों साल से डरेवरी कर रहा है वो... छोकरा था तभ्भे-से! वो कहाँ से लेगा, साहब? दो एकड़ की खेती है, भला उसमें कितनी कमाई होगी...? खाने-पीने भर का हो जाता है.. मुस्कुल से।’’
घर के दुआरी में ट्रेक्टर खडा हो तो सबको धोखा होता है कि ट्रेक्टर हमारा ही है। खासकर सर्वे के बखत तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। वो कहते हैं, जब तुम्हारे दरवाजे पर खड़ा है तो तुम्हारा ही होगा! कई बार हम लोगों को भी ऐसा ही लगने लगता है। छोटे थे तब तो इतरा-इतरा के सबको बताते थे- हमर टेक्टर हमर टेक्टर!... पर हमारे भाग में कहाँ? भुनेसर दाऊ के घर में जगह नहीं है इस लिए बाबू यहीं खड़ी कर देते हैं। अब चाहे जो हो, घर के दुआरी में ट्रेक्टर खड़े होने का रौब तो पड़ता ही है। पापा को सब डरेवर ही बोलते हैं। डरेवर पूरन लाल!
मैं समझ गयी थी, ये किस लिए आए हैं। फिर से पूछताछ...वही सब! पिछले सवा साल से यही चल रहा है। शुरू-शुरू में लोग ज्यादा आते थे...कभी पत्रकार, तो कभी पुलिस वाले...या कभी एन.जी.ओ.वाले। पर मुझे समझ नहीं आया, ये लोग, अचानक, इतने दिनों बाद... ?
मैं घर में चली आई। रसोई में माँ के पास। माँ फिर चुप-चुप हो गई थी और किसी काम में लग गई थी, यों ही, मन को लगाने, खुद को जया की याद से बचाने। दीदी...जया दीदी की याद! जितना ही भुलाना चाहो, उतना ही और बढ़ता जाता है ...आज साल भर से ऊपर हो गए...। पिछले जून से गई है ....और आज नवम्बर...।
और इन महीनों में जो हमारा हाल हुआ है? बारा महीनो में जैसे बारा हाल! जैसे हमारी पूरी दुनिया बदल गई! अचानक! एक ही घटना से! एक घटना ही मानो आपका जीवन बदल देती है! ..सब याद है कुछ भी तो नहीं भूला। एक-एक बात। मेरी आंखों के आगे सब कुछ फिल्म की रील की तरह तेजी से गुजर जाता है ...एकदम फास्ट!
इसके पहले हम कैसा जीवन जी रहे थे। एकदम अलग।
माँ कैसी थी? उसको अब हँसते देखे बहुत समय हो गया। हमेशा हँसने खिलखिलाने वाली माँ, सबको सहयोग करने वाली माँ। माँ शहर जा कर घूम-घूम के साग-भाजी बेचती है। गाँव की कुछ और महिलाएं भी जाती हैं। उनका संग-साथ कितना जीवंत था। ये एकदम सुबह चार बजे उठ जाते। बाड़ी की साग-भाजी होती, या फिर गाँव के कोचिया से खरीद कर ले जाते। बड़े से झौंहा में साग-भाजी सर में बोहे...शहर की गलियों में फेरी लगाती, आवाज लगाती माँ- ‘ले करेला कोंहड़ा तरोई बरबट्टी धनिया पताल वोऽऽऽ!’ बचपन से देख रही हूँ, इसमें कभी नागा नहीं हुआ, केवल त्योहार-बार को छोड़ के। हम दोनों बहन भी बहुत बार माँ के संग जाते, अक्सर त्योहारों में, जब बोझा ज्यादा हो जाता। ऐसे माँ हम लोगों को कम ही ले कर जाती। पापा को पसंद नहीं हमारा यों बोझा ढोते-ढोते घूमना। वो कहते,पढ़-लिख के नौकरी लायक बनना। इसीलिए तो पढ़ा रहे हैं। पर जब हम शहर जाते तो वह हमारे लिए यादगार दिन हो जाता।
पिछले साल के गरमी दिनों की बात है। मैं हाई-स्कूल पहुँच गई थी-नव्वी में। मेरे लिए स्कूल बैग लेना था। माँ के साथ गई थी। बाजार में एक सिंधी की दुकान में गए थे। मैंने एक बढि़या-सा बैग, गहरे हरे रंग का पसंद किया था। दुकानदार ने जब कीमत बतायी- दो सौ पैंतालिस! तो मैंने मान लिया था कि इतना महंगा हम नहीं ले सकेंगे। पर माँ ने दुकानदार से उसे एक सौ पच्चीस में मांगा। मेरे को बहुत शरम आए। इतना बड़ा दुकान, जहाँ जाने क्या-क्या चीजों के ढेर लगे हैं, उसके सेठ से माँ इतने कम का भाव करती है! लगा, सेठ हमको दुकान से भगा देगा- भगो, देहाती कहीं के! बड़े आए खरीदने! दुकानदार इतने कम में देने से मना करता था- अरे कोई तुम्हारा साग-भाजी है जो इतना कम होगा! पर माँ अड़ी थी। दुकानदार पहले दो सौ पच्चीस बोला, फिर दो सौ, फिर एक सौ पचहत्तर। मुझको लगता था, दुकानदार अब इससे नीचे नहीं उतरेगा, और माँ को मैं मना करती, माँ के अडि़यलपने को मैं देहातीपन समझ रही थी, इस लिए खीज कर उसको कोहनियाती थी कि नहीं, चलो, अब बस, बहुत हुआ। पर माँ को बाजार के खेल मालूम थे, इसलिए उसने हार नहीं मानी। कोई आधे घंटे की झिक-झिक के बाद आखिर वो हार मान गया और दिया एक सौ पच्चीस में ही। जब वह मान गया तभी मुझे ठीक लगा। नहीं तो मैंने मन ही मन तय कर लिया था, आगे से कभी इस देहातन के साथ कभी बाजार नहीं आउंगी अपनी नाक कटवाने!
पर नाक तो आखिर कट ही गई। घर की। हम सब की।
जया एक लड़के के साथ भाग गई। वो लड़का हमारे पास के गाँव में तीन साल पहले खुले दूध फैक्ट्री में काम करने आया था।उसी गाँव में किराये से रहता था। ...उत्तर प्रदेश का रहने वाला था। दिखने में अच्छा था। बातचीत और बर्ताव भी अच्छा था। फिर दीदी भी तो कम सुंदर नहीं थी! और होशियार भी कितनी थी! हर साल अच्छे नम्बरों से पास होती थी, स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हमेशा आगे रहती थी, नाटकों में भाग लेती थी। कितने तो ईनाम मिलते थे उसको। वो जब बारहवीं पढ़ रही थी, तभी वो उसके संपर्क में आयी। फिर हमारा स्कूल भी तो उसी गाँव में है जहाँ दूध-फैक्ट्री है। मुझको पता चल गया था, दीदी उसको पसंद करती है। ऐसी बात भला छुपती कब है? पर ये नहीं सोचा था कि दीदी उसके साथ एक दिन...। घर के लोगों को भी ये अंदेशा कहीं से नहीं था। जब कहीं से खबर पापा तक पहुँची थी तो उन्होंने दीदी को धमकाया था- दूर रहो किसी भी लड़के-फड़के से! पर, बारहवीं का रिजल्ट निकलने के बाद-जैसे वो इसी का इंतजार कर रही थी- कि एक दिन हम सबको छोड़ कर उसके साथ भाग गई। न जाने कहाँ।
घर से जया कुछ नहीं ले गई। केवल अपने स्कूली सर्टिफिकेट्स। और अपने कुछ कपडे।
जिसे भागना होता है वो तो अपनी मरजी से भाग जाती है। उसके भागने की सजा घर के लोगों को भुगतनी पड़ती है-तिल-तिल! गाँव भर में हल्ला हो गया। थू-थू होने लगी। पहले थाने में रिपोर्ट करो। वहाँ उनके तरह-तरह के ऊल-जलूल सवाल...और घुमा-फिरा कर लानत-मलामत हमारी! ‘आप लोग अपने बच्चों को संभाल कर नहीं रख सकते? संभाल कर नहीं रख सकते तो पैदा क्यों करते हो? लड़की को जवानी चढ़ रही थी और तुमको खबर नहीं? कहीं दहेज-उहेज से बचने के चक्कर में तुम्हीं लोगों ने तो नहीं भगा दिया उसे? और वो भागी भी तो किसके साथ? मुसल्ले लौंडे के! और कोई नहीं मिला उसे इतने बड़े गाँव में? जवानी का जोश ऐसा ही चढ़ा था तो हिन्दू लड़कों की कोई कमी थी? भाग जाती किसी के भी साथ। अरे, जात गयी तो गयी, धरम तो बच जाता?
हाँ। वह लड़का मुसलमान है। जुबेर नाम है।
वह तो चली गयी, कलंक और बदनामी हमारे मत्थे मढ़ गयी। अब मुसीबत तो हमारी है! सब तरफ उसे लेकर पचासों तरह की बातें!
पापा जब भी इस बाबत थाना जाते, या थाने वाले पूछताछ की आड़ में घर आते तो पाँच सौ का नोट उनकी भेंट चढ़ता। बदले में, केवल नोट की चमक देख कर वे आश्वासन देते,.. ‘हम लोग ढूँढ रहे हैं, पता लगवा रहे हैं। जाएगा कहाँ साला हमसे बच के।’
गाँव की न्याय-पंचायती अलग! पंचायत बैठका में गाँव भर के लोगों, लइका-पिचका के सामने माँ और पापा सिर झुकाए बैठे हैं। हताश,उदास। नीचे जमीन को ताकते। और जमीन में ही गड़ जाने की इच्छा। पंचायत अपना फैसला सुना रहा है, बेटी भागी है, सो भी नान जात हो के, इसकी पूरी जिम्मेवारी घर वाले की ही है। इस लिए, जैसा कि नियम है, सामाजिक रूप से इनको बहिष्कृत किया जाता है। अगर इससे बचना है तो आर्थिक दंड देना होगा। पापा ने पंचायत को जुर्माना भरा है- दस हजार! लड़का अगर हिन्दू होता, और जाति-कुल अच्छा होता तो पांच हजार ही देना पड़ता। कुजात हुई है इसलिए दस हजार!
कलंक तो लग ही गया। वो तो मिटने से रहा।
माँ बार-बार कह रही है, इस बदजात लड़की ने तो हमको कहीं का नहीं छोड़ा। कोख में ही थी तभी काहे नहीं मर गयी करमफुटही!
पापा अब पहले से ज्यादा पीने लगे हैं। पी कर अक्सर दीदी को जी भ रके भला-बुरा कहते हैं। कहते हैं,कभी दिख भर जाय वो लड़की, मैं ट्रेक्टर का चक्का चढ़ा दूँगा हरामजादी पर! माँ सुन कर चुपचाप रोती है। उसका तो मन है, कैसे भी हो, मेरी बेटी एक बार घर आ जाए। माँ को पूरा विश्वास है उसके घर आने के बाद सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मुझको नहीं। वह घर आएगी तो दूसरी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी...।
और एक सबसे राज की बात! घर में सिर्फ मुझको ही मालूम है वो कहाँ है!
मेरी सबसे खास सहेली का नम्बर उसके पास था। उसने उसी के नंबर पर मुझे और किसी को भी न बताने की शर्त पर बताया था कि वो वहाँ जुबेर के साथ खुश है। कि उसकी कैसी भी चिंता करने की बिलकुल भी जरूरत नहीं। कि वह बाद में फोन करेगी। पल भर तो मुझे बिलकुल भी समझ नहीं आया था कि खुश होऊँ कि रोऊँ! किंतु मैंने फोन पर कोई खुशी नहीं जताई। बल्कि, मैं तो हमें छोड़ कर जाने और माँ-पापा की ऐसी हालत के कारण बेहद नफरत करती हूँ। गुस्से से चिढ़ी हुई थी, इसलिए भी कोई और पूछताछ नहीं की। तू जिए कि मरे, अब हमसे मतलब? मर तो हम लोग गए न!
इस बात को मैंने अब तक अपने तक ही रखा है। मन के सबसे भीतरी कोने में। सौ ताले में बंद कर के।
अपने होंठ एकदम सी कर के। फिर भी डरती रहती हूँ कि कभी भूल से भी मुझसे या सहेली के मुँह से यह बात न निकल जाए। बहुत डर लगता है,पता नहीं बताने पर और न जाने क्या-क्या हो। घर को मालूम नहीं इस समय जया कहाँ है? वे देवी-देवता से बस यही मनाते रहते हैं कि हे भगवान, वो जहाँ भी रहे, खुश रहे! ...लेकिन तरह-तरह के समाचार जो आजकल टी वी और अखबार में आते रहते हैं, हमको और-और डराते हैं। हरदम...।
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माँ ने मुझको इन लोगों के लिए चाय चढ़ा देने को कहा। मैंने छोटी गंजी मांज कर स्टोव जला कर चाय चढ़ा दी। मुझे लग रहा था,फिर पिछली बार की तरह वही सब होगा.. .दीदी की फोटो मांगेगे। हमारी फोटो खींचेंगे, और आश्वासन देंगे, बिलकुल झूठे...।
पापा आ गए। मैंने खिड़की से झाँक कर देखा, मोहन चाचा संग में हैं। जान गई, दोनों पी कर आए हैं।
नमस्कार पूरन लाल जी!
नमस्कार। जी कहिए।
‘‘जी कहते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा है, क्योंकि ये आपके लिए, घर के लिए तो बहुत दुख की बात है। मैं समझ सकता हूँ आपका दुख। लेकिन आप विश्वास कीजिए, हमारा अखबार इसको मेन इश्यू बनाकर चल रहा है, और हम दोषी को छोड़ने वाले नहीं हैं। हमारी पूरी कोशिश होगी कि आपकी बेटी आपको मिल जाए। शायद आपको मालूम नहीं है, इस क्षेत्र के विधायक ने विधान सभा में क्वेश्चन उठाया है कि इस इलाके की लड़कियाँ बड़ी संख्या में गायब हो रही हैं। निश्चित ही इसके पीछे किसी ताकतवर मानव-तस्कर गिरोह का हाथ है जिसकी पकड़ सत्ता के गलियारों तक है। हम उन्हें बेनकाब करना चाहते हैं। अभी हम पास के कुछ गाँवों से आ रहे हैं। वहाँ भी एक-दो लड़कियाँ गायब हैं। प्लीज,थोडा़ बताएंगे...क्या हुआ...कैसे हुआ...।’’
‘‘मैं क्या बताऊँ, सब बात तो पुलिस को बता चुके हैं, नया कुछ नहीं है।’’
‘‘फिर भी, आपको क्या लगता है कहाँ जा सकती है वो...। क्योंकि इस क्षेत्र में निरंतर लड़कियों को बहला-फुसला कर या अपहरण करके ले जाने की खबर मिल रही है। ...थोड़ा बताइये...। और उसकी फोटो...।
पापा ने इस बार भी वही सब किया। धूप तेज नहीं थी, इस लिए आँगन में पड़ी खटिया मुनगा झाड़ के नीचे डाल कर ,उस पर कथरी बिछा कर पत्रकार लोगों को बिठाया, और अपनी राम कहानी बताते रहे। गाँव में हुई बदनामी, पुलिस का रवैया और शोषण...। लड़की के चले जाने का जहाँ उनको गुस्सा था वहीं दुख भी था। पापा जया दीदी को बहुत चाहते थे! घर की पहली संतान थी वो। बताते-बताते पापा रो पड़े। उनके साथ के कैमरामैन ने तुरंत पापा की फोटो खींच ली। मैं उन्हें चाय देने गयी तो उसने मेरी भी फोटो खींच ली। हमारे घर की भी फोटो खींची। उस दौरान मैंने नोट किया, कि जैसे ही पापा ने उनको बताया कि वो एक मुसलमान लड़के के साथ भागी है, सहसा उनके चेहरे में जैसे कोई चमक आ गयी थी, लगा, जिस चीज की तलाश वो कर रहे थे, एकदम-से वो उनको मिल गई हो! वह संवाददाता जुबेर के बारे में काफी-कुछ पूछता रहा। उसने जब मुझ से पूछा तो मैंने कुछ भी जानने से इन्कार कर दिया। बल्कि पापा के समान मैंने भी गुस्से में कह दिया, वो हम लोगों के लिए मर चुकी है। एक साल हो गए उसे गए हुए, अब तो हम उसे भूलने लगे हैं।
कोई आधा-पौन घंटा हमारे घर में बिताने के बाद वो उठ गए।
जब वे जाने लगे, कमरे में माँ जया को याद करके रो रही थी, बहुत चुपचाप, भीतर ही भीतर। अच्छा हुआ जो उनका ध्यान इस ओर नहीं गया, नहीं तो इसकी भी फोटो ले लेते। वे पापा को धन्यवाद देते अपनी गाड़ी की ओर बढ़ चले।
उनके पीछे-पीछे मैं आँगन का कपाट बंद करने आयी थी। कपाट बंद करते-करते मैंने सुना, उनमें से एक बोला था, ‘‘अरे यार! ये लड़की तो स्साली थी ही एकदम भगाने लायक!’’
‘‘इसी लिए तो भगा ले गया वो!’’ हँस कर दूसरे ने कहा।
‘‘ऐश कर रहा होगा कटुआ...।’’ बहुत गहरी नफरत से पहले ने माँ की गाली दी थी।
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खबर को उस पत्रकार ने बहुत विस्तार से अपने अखबार में इस टाइटिल से छापा था- ‘सावधान! आप के इलाके में सक्रिय हैं ‘लव-जिहादी’!’
इसके आगे मुझे यह बताना भर शेष रह जाता है कि खबर पर इलाके भर में जबरदस्त तीखी प्रतिक्रिया हुई है। आज टी वी के एक लोकल न्यूज चैनल में मैं देख रही थी, लाइव, ‘लव जिहाद’ के खिलाफ ब्लॉक मुख्यालय में सैकड़ों की उग्र भीड़ ने अपने झंडे-डंडों, नारों-बैनर सहित लम्बा जुलूस निकाला है,चक्का जाम कर दिया है, और थाने का घेराव किया है...।
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सम्पर्क-
कैलाश बनवासी,
41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,
दुर्ग, (छ.ग.) पिन- 491001,
मोबाईल - 09827993920 41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,
दुर्ग, (छ.ग.) पिन- 491001,
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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