रवीन्द्र कुमार दास का आलेख 'मेघदूत का काव्यानुवाद करते हुए'





कुछ रचनाकार ऐसे होते हैं जो अपनी भाषा में लिख कर भी सार्वजनीन हो जाते हैं क्योंकि उनका लेखन दुनिया भर के लोगों की संवेदनाओं से सहज ही जुड़ जाता है हमारी संस्कृत काव्य-परम्परा में कालिदास ऐसे ही कवि हैं जिनके लिखे ग्रन्थ दुनिया भर की तमाम भाषाओं में अनुवादित किये गए और पढ़े गए हमने रवीन्द्र कुमार दास से संस्कृत के ऐसे ही कालजयी ग्रंथों के बारे में लिखने का अनुरोध किया जिसकी ख्याति तो हमने बहुत सुनी है लेकिन हम जानते बहुत कम हैं आज इसी क्रम में प्रस्तुत है पहला आलेख कालिदास के मेघदूत के बारे में  

मेघदूत का काव्यानुवाद करते हुए

रवीन्द्र कुमार दास 

मैं कालिदास की प्रशंसा में कुछ नहीं कहूँगा उनका कवि-व्यक्तित्व इतना ऊपर है कि मेरे शब्द उनके प्रति निर्माल्यार्पण की तरह होगा, जिस अपुण्य से मैं बचना चाहूँगा यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने उनकी कविता मेघदूत का अनुवाद किया अब यह प्रश्न यह है कि मैंने अनुवाद के लिए मेघदूत को ही क्यों चुना?

किसी भी टेक्स्ट को समझने की एकाधिक प्रविधि है मसलन, हम टेक्स्ट को “टेम्पोरल कॉन्टेक्स्ट” में जा कर समझें अथवा अथवा जब, जिस कॉन्टेक्स्ट में हम टेक्स्ट को समझ रहे हैं, उस के काल-बोध से उसे खोलें मैंने अपने समय सन्दर्भ को मुख्य मान कर कालिदास के मेघदूत को समझने का यत्न किया है, जो आपसे साझा कर रहा हूँ

मेघदूत को मैंने सबसे पहले अपने एम.ए. के दिनों में पढ़ा उसे पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता रहा, मुझे टेक्स्ट और उसका हिंदी अनुवाद एक भारी जंजाल की तरह लगता रहा पढ़ाने वाले शिक्षक कैसा पढ़ा रहे थे, इसपर टिप्पणी करना मेरी मर्यादा से बाहर है तथापि मेरा पक्ष यह है कि मेरे लिए वह एक उबाऊ-थकाऊ काम था प्रश्न-पत्र हल करने की अनिवार्यता से पढ़ा भी, और पुस्तकों की भूमिका आदि से टीप-टाप के, देख-रट कर उत्तीर्ण भी हो गया पर यह नहीं समझ पाया कि मेघदूत प्रशंसित क्यों है? अपने शोध-कार्य, एम्.फिल और पी-एच.डी. के दिनों में मैं उपनिषद और वेदान्त से संलग्न रहा किन्तु एम. ए. के दौरान कालिदास का नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम और उसके चार श्लोक, कण्व ने शकुन्तला को विदाई के समय दिए थे, मेरे अवचेतन में ठहर गए थे

इधर मेरा मन हिंदी-कविता से सतत जुड़ा रहा था, जहाँ मानवीय सरोकार ही केन्द्रस्थ थे
बाद में, जब मैंने संस्कृत-साहित्य की आलोचना का छिटपुट अवलोकन किया तो इस अवलोकन से ऐसा अनुभव हुआ कि सारे कवि किन्हीं उन पक्षों का चित्रण कर रहे हैं जिन्हें मैं जानता ही नहीं बल्कि उनसे मेरा कोई सरोकार ही नहीं है पर कालिदास प्रभृत कवियों के प्रशंसक तो समस्त संसार में फैले हैं कोई बात तो होनी चाहिए? इस विचार के पनपते ही मैंने कुछ काव्य-ग्रंथों का स्वाध्याय किया और स्वाध्याय के क्रम में इस बात के लिए सतत प्रयत्नशील रहा कि किसी भी विशेषज्ञ-दृष्टि से बचकर रहूँ और पढ़ा - 
  
कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येन भर्तुः।

इसे पढ़ते हुए यह महसूस हुआ कि किसी सेवक ने अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई तो उसके मालिक ने उसे एक साल का देश-निकाला दे दिया
यह कहना कठिन है कि यह शब्द-कोष की त्रुटि है या आलोचकों-विश्लेषकों का मनमानापन; जो उस यक्ष के स्वामी की निष्ठुरता को मेघदूत का मुख्य पाठ नहीं बनाया गया! खेद का विषय है कि संस्कृत आलोचना के इकहरेपन के कारण संस्कृत साहित्य जन-विरोधी प्रतीत होने लगा जबकि वास्तविकता यह है कि जो भी श्रेष्ठ रचनाएँ हैं उनका मुख्य चरित्र “कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि” का कोई व्यक्ति होता है. कुछ पांडित्यपूर्ण अलोकप्रिय रचनाओं को मख्य न मान कर संस्कृत साहित्य का आलोचन करें तो पाते हैं कि यह साधारण-जन की कहानी है कम से कम कालिदास के विषय तो यह दावे से कहा जा सकता है उनके जगत्प्रसिद्ध नाटक “अभिज्ञान शाकुंतलम्” स्वर्ग की अप्सरा (वेश्या) मेनका की फेंकी हुई बेटी की करुण-कथा है जो कुछ देर पक्षी द्वारा रक्षित हुई तथा बाद में एक अगेही ऋषि कण्व द्वारा पालित-लालित हुई राजा के द्वारा प्रतिज्ञा-प्रपंच से भोगी गई तथा गर्भवती होने पर पत्नी का स्थान मांगने पर अपमानित और तिरस्कृत हुई फलतः पुनः उसे अरण्य-वासिनी होना पड़ा
बहरहाल, मेघदूत पढ़ते हुए, मुझे अनुभव हुआ कि इस कविता का केन्द्रीय चरित्र एक वेतनभोगी कर्मचारी है जिसके व्यथित-पीड़ित हृदय से ही यह कविता निःसृत हुई है मुझे लगा, यह मेरी कविता है, मेरी अपनी कविता है यह सामान्य जन की कविता है और इस कविता पर किसी तरह की आभिजात्यता का आरोप नहीं लगाया जा सकता है जो मालिक की नौकरी करता होगा वह निश्चय ही अपनी सीमा और हैसियत जानता होगा कि ‘बॉस इज़ ऑलवेज राईट’

एक यक्ष है जो अलकानगरी के अधिपति धनपति कुबेर की सेवा में है उसकी नई नई शादी हुई है इस कारण अपनी प्रेयसी पत्नी के साथ रति-लीन है इसी क्रम में उससे अपने कर्तव्य का अनदेखा हो जाता है इस अनदेखा करने को, अनवधानता को एक ‘बड़े’ अपराध के रूप में लिया जाता है जाँच-पड़ताल से विदित हुआ होगा कि उसके इस प्रमाद का कारण उसकी अपनी ‘प्रेयसी’ के प्रति आसक्ति है धनपति कुबेर उसे इस अनवधानता के लिए क्रूरतम दण्ड देता है, वियोग का दण्ड अर्थात् देश-निर्वासन – तड़ीपार

दण्ड प्रक्रिया से आभास होता है कि वह बंधुआ दास है उसे सेवा से हटाया नहीं जाता, उसे निर्वासित कर दिया जाता है इस निर्वासन को विस्थापन की तरह नहीं समझ सकते क्योंकि वह अपनी पत्नी को साथ नहीं ले जा सकता था दंडाधिकारी की क्रूरता इस दंड-विधान में दीखता है
उसे ऐसे प्रदेश में भेज दिया गया जहाँ मनुष्यों का आना जाना तक नहीं था उस निर्जन प्रदेश में भी वह इस आशा और अभिलाषा से कि वह अपनी प्राणप्रिया से मिल सकेगा, लगातार अपने संघर्ष के छाले पर स्मृति और स्वप्न का मरहम लगाता हुआ वह आठ महीने गुजार देता है किन्तु अब, उसका धैर्य चूकने लगता है बुद्धि मन का साथ छोड़ने लगती है.... व्याकुल है, कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है आकाश में बादल बनते दिखने लगे है वह अधीर हो उठता है कि पावस में काम-वेग की अतिशय उत्कंठा में उसकी प्रेयसी पत्नी कहीं किसी और का दामन न थाम ले! स्वच्छंद प्रीति-विहार के गुण हैं, तो कतिपय अवगुण भी हैं

इसी विवशता और विह्वलता में आकाश में उभरे बादल से संलाप करने लगता है यह वस्तुतः उन्मत्त एकालाप है या शायद पराजित मन का प्रलाप है.... “ओ मेघ! तुम श्रेष्ठ हो तुम मुझ पर एक उपकार कर दो मेरी पत्नी से जा कर कहो कि वह धैर्य न खोए .... हमारा मिलन फिर होगा ... सब कुछ ठीक हो जाएगा....” यह कहते हुए वह अनावश्यक रूप से अतिविश्वास जताता है, जब कि वह इस बात को पूरी तरह जानता है कि अपने पतियों से असंतुष्ट ललनाएं अपने ‘जार’ पुरुष मित्रों से मिलने जाती हैं, जार पुरुष दूसरों के घरों में घुस कर स्त्रियों की कामेच्छा को तुष्ट करते हैं तो भी, वह अपनी प्रेयसी के लिए एकनिष्ठ होने का कथन करता है यह उस भयाकुलता का द्योतक है जिससे पीड़ित हो कर वह मेघ को अपना दूत बनाता है


मेघदूत के लगभग एक सौ सत्रह श्लोकों में सभी महत्त्वपूर्ण और श्लाघनीय हैं तथापि मेरा विशेष आग्रह है कि आप इन श्लोकों को आँख भर अवश्य देखें :

कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येन भर्तुः

यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु

स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु

बेचारा वह
भरा हुआ था प्रिया विरह से
कभी हुई थी चूक तनिक सी
उसके प्रभु ने शक्ति छीन ली
फिर निर्वासन एक बरस का
दूर रामगिरि के आश्रम में
जगत्पावनी सीता के स्नानधर्म से
साधारण जल
परिवर्तित हो बना पुण्यजल
जहां यक्ष ने किया बसेरा
वह बेचारा

संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोदः प्रियायाः
सन्देशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषस्य ।

गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां

बाह्योद्यानस्थितहरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या॥

तपते हैं जो धूप विरह में
शरण तुम्हीं
उन तप्त जनों की
मैं झुलसा धनपति प्रकोप का
सुन लो मेरी
दूर प्रिया से यहां पडा हूं
पहुंचा दो बस
उन तक यह मेरा संदेशा
रहती हैं
अलका नगरी में
उसी अमीरों की बस्ती में
जाना होगा,
जहां नगर के
बाहर का उद्यान भवन भी
बना श्वेत पत्थर से
जो हैखूब दमकता
शिव मस्तक की चन्द्रप्रभा से

धूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः
संदेशार्थाः क्व पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः।

इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे

कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु


धुंआ, आग, हवा और पानी
इनसे मेघ बना है
वह तो जीव-हीन है, चित्तरहित है
फिर भी उससे किया
निवेदन
उत्कण्ठा का मारा था
सो, सोच न पाया
इन संदेशों को ले जाना
सक्षम प्राणी के वश में है
जो अपनी आंगिक चेष्टा में
चतुर निपुण हैं

बडी दुसह है काम-यातना
बौद्धिक जन भी इसके मारे
भेद भुलाते
जड चेतन का
बस अपनी इच्छा दिखती है

[
यह श्लोक मेघदूत का मेटाफिजिकल जस्टिफ़िकेशन है]

त्वय्यायात्तं कृषिफलमिति भ्रूविलासानभिग्यैः
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः

सद्यः सीरोत्कषणसुरभि क्षेत्र्मारुह्य मालं

किंचित्पश्चाद्व्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण

खेती की तो आस तुम्हीं हो
इसीलिए ग्राम्या ललनाएं
तृषित दृष्टि से
देखेंगी भरपूर नज़र से
जो न जानती भ्रू विलास रति
भोली भाली चितवन वाली
प्रीति स्नेह से सहलाएंगी
माल क्षेत्र में

सोंधी सोंधी खुशबू
जब निकले मिट्टी से
हल से जब
खुजलाई जाए, तब
किंचित पश्चिम हो जाना
और तनिक आगे बढते ही
बंधु! शीघ्र उत्तर हो जाना

अक्षय्यान्तर्भवननिधयः प्रत्यहं रक्तकण्ठैः

उद्गायद्भिर्धनपतियशः किंनरैर्यत्र सार्धम्

वैभ्राजाख्यं विबुधवनितावारमुख्यासहाया

बद्धालापा बहिरुपवनं कामिनो निर्विशन्ति

सुनो मेघ तुम
घर में भरी तिजोरी जिनके
अलका के उन ऐय्याशों की दिनचर्या
ऐसी होती कुछ
वेश्या से गलबैयां करते
बातों से भी मद चखते
विह्वल होकर जी भर गाते
ऊँचे स्वर में
धनपति का सुख
इसी तरह वैभ्राज बाग में
करते हैं आनंद भोग वे
तरह तरह से.
 
अंत में, जहाँ सारे मार्ग बंद हो जाते है, कविता का मार्ग वहीं से खुलता है यह अनकहा सन्देश हमें कालिदास देते हैं इसके लिए मैं कालिदास का अतिरिक्त आभार व्यक्त करता हूँ
 

रवीन्द्र कुमार दास






सम्पर्क-
रवीन्द्र कुमार दास 

मोबाईल- 08447545320 

टिप्पणियाँ

  1. बात जैसे अधूरी रह गयी हो। और आगे पढ़ना चाहता था और तफ़सील से आगे की कथा जानना चाहता था। बीच में ही बंद हुआ जैसे।
    बहुत अच्छा लगा मेघदूत को ऐसे जानना।

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