योगिता यादव की कहानी 'झीनी झीनी बिनी रे चदरिया'
योगिता यादव |
युवा लेखिका योगिता यादव को हाल ही में “कलमकार पुरस्कार” से सम्मानित किया गया। उन्हें यह
पुरस्कार उनकी नयी कहानी “झीनी-झीनी बिनी रे चदरिया” के लिए दिया गया। कहानी में
चादर एक ऐसा बिम्ब है जिसे अपने शिल्प के बल पर योगिता ने अनूठा स्वरुप दे दिया है
और उसके हवाले से ही उन्होंने स्त्री जीवन के उन अछूते कोने-अंतरे की बातों को उठाया
है, जिस पर बात करने की हमारे समाज में प्रायः मनाही है। स्त्री जीवन की इस
विडम्बना को समेटे यह कहानी प्रतीकों में ही सब कुछ बया कर देती है। तो आइए पढ़ते
हैं यह कहानी।
झीनी-झीनी बिनी रे
चदरिया
योगिता यादव
पहाड़ों की तलहटी
में चादरों पर एक राष्ट्रीय स्तर का सेमिनार चल रहा था। चादर बनाने और ओढ़ाने में
अभ्यस्त वरिष्ठ जन बड़े आदर के साथ आमंत्रित किए गए थे। उनके साथ उन नए बुनकरों को
भी बुलाया गयाए जो अपनी-अपनी मर्जी की चादरें बुन रहे थे। अपने आकार, अपने प्रकार से।
वरिष्ठों में वरिष्ठतम ने मंच संभाला और बताया कि इतिहास में हमारे समाज की चादरें
बहुत महान हुआ करती थीं। आरामदायक भले ही न हो पर सब कुछ ढक सकने की क्षमता उनमें
थी। चादर की लंबाई और चौड़ाई बता कर इंसान को उतना ही लंबा और चौड़ा होने के विचार के साथ
वरिष्ठतम ने अपना भाषण समाप्त किया।
भाषण के शब्द धीरे-धीरे वरिष्ठतम के
सिर पर इकट्ठा होने लगे। शब्दों ने एकजुट हो एक मोटी, सब कुछ ढांप सकने लायक चादर बना ली। और सब कुछ ढक सकने वाली
चादर राष्ट्रीय सेमिनार के बैनर पर जा लटकी।
क्रांतिकारियों के
होते सब शांतिमय ढंग से सम्पन्न हो जाए यह कैसे मुमकिन है। इसलिए वरिष्ठतम के भाषण
पर क्रांतिकारी सनक गया और बोला, “ऐतिहासिक चादरों पर चर्चा से बेहतर होता यदि आप हमें
मौजूदा चादरों के बारे में कुछ बताते। जमाना बदल रहा है इसलिए पुरानी चादरें अब
नहीं टिक पाएंगी।”
क्रांतिकारी के इस
विचार के समापन पर तालियां बजने लगीं। नए बुनकरों को लगा कि अब हमें पूछा जाएगा।
अब नए बुनकरों की बारी थी। इनमें सबसे वाकपटु ने मंच संभाला और पेश की एक ऐसी
सिंथेटिक चादर जिसे अपनी सुविधानुसार कहीं से भी, कितना भी खींचा जा सकता था। अपनी
चादर की खूबियां बताते हुए उसने कहा कि अब ढकने-ढकाने का जमाना नहीं रहा। अब तो
दिखने-दिखाने का दौर है। आपका पेट अगर खाली है तो दिखाओ, बदन नंगा है तो दिखाओ... इनका
भी बाजार है। जब तक आप दिखाएंगे नहीं, लोग जानेंगे कैसे। और जब तक बाजार जानेगा
नहीं तो आपको आपके आकार की चादर मिलेगी कहां से...।
वाह! वाह! वाह! एक
दम नया। मध्यमार्गी कुछ लोग जो अब तक चादरों में लिपटे बैठे थे ने कांधों पर से
चादरें जरा जरा सी सरका दी। शुरुआत यहीं से सही...।
वाकपटु के पास वे
सब तर्क थे जिनसे यह माना जा सकता कि मोटी और ढक सकने लायक चादरों का दौर खत्म हो
चुका है। बैनर पर टंगी मोटी चादर को खींच कर नीचे फेंक उतार दिया गया। अब वह पैरों
तले के कालीन की जगह पड़ी थी।
चादर को कसमसाता
देखना संस्कृतिवादियों को अच्छा नहीं लगा। उनके तर्क वाकपटु के आगे कमजोर थे पर
उन्हें लगा कि अगर हम एकजुट हो जाएं तो वाकपटु के तर्कों की धज्जियां उड़ाई जा
सकती हैं। उन्होंने वाकपटु के विचारों के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी।
वाकपटु ने
संस्कृतिवादियों को नारीवादी मानसिकता का कह कर लज्जित करने का भरसक प्रयास किया।
इस पर वे और भी भड़क गए। उन्हें न नारीवादी होना अच्छा लगा, न लज्जित होना।
अपनी स्वतंत्र पहचान का बिगुल फूंकते हुए उन्होंने चादर का झण्डा बना लिया और
झंडाबरदार हो गए।
पकवानों की गंध
सेमिनार हॉल तक पहुंचने लगी थी। वरिष्ठों, क्रांतिकारियों, आधुनिकों और
संस्कृतिवादियों ने अपने-अपने थैले उठाए और खाने के पण्डाल की ओर बढ़ चले। चादर
अकेली रह गई। उसे लगा अब अकेले यहां क्या करना, सो उड़ चली पूरब की ओर ....
उड़ते-उड़ते थक गई
चादर, एक समारोह के पण्डाल के ऊपर जा पसरी। यहां अपने परिवार और नाते-रिश्तेदारों
के बीच घिरी बैठी थी सत्तो।
एक बलिष्ठ,
खूबसूरत नौजवान ने सत्तो के पैर छूते हुए कहा, “प्रणाम बुआ जी।”
अचानक पैर छूने पर
सकपकाई सी सत्तो को संबोधित करते हुए आनंद ने कहा – “जी पहचाना इसे, अवधेश हैं।”
“अरे अवधेश...
जीते रहो, खुश रहो, बहुत बड़ा हो गया, इन्हीं के होने में आए थे हम जब ट्रैक्टर से
चाची गिर पड़ी थीं।”
“तुम भी जीजी, वो
तो अखिलेश हुए थे, बड़े दद्दा के। ये तो हमारे वाला है अवधेश।”
उनके इतना कहते ही
एक और बलिष्ठ, खूबसूरत सा नौजवान पहले वाले से उम्र में कोई सात-आठ साल बड़ा आगे
आया और सत्तो के पैर छूने लगा।
“बच्चे कब बड़े हो
जाते हैं पता ही नहीं चलता। अब हम तुम बूढ़े हो गए मालूम पड़ते हैं भैया।” सत्तो
ने झेंप छुड़ाते हुए कहा।
“क्या कर रहे हो
बेटा आजकल? शादी-ब्याह हुआ के नहीं?”
“जी अपना स्कूल
खोला है, वही संभाल रहे हैं। वैसे तो कॉलेज में अध्यापन के लिए भी प्रस्ताव आया था
पर गांव की जमीन देखने को चाचा अकेले पड़ जाते। अवधेश अभी पढ़ाई कर रहे हैं।”
“देख ले बेटा, ये
हैं हमारे यहां के बच्चे। पढ़े-लिखे होने के बाद भी गांव-परिवार और जमीन से जुड़ाव नहीं
छूटा।”
सत्तो ने अपने
अल्ट्रा मॉडर्न बच्चों को लक्षित करते हुए उन तमाम लोगों पर कटाक्ष किया जिनके लिए
स्टडी टेबल से उठते ही मंजिल अमेरिका, कनाडा या आस्ट्रेलिया हो जाती है।
“जीजी अगले महीने
ब्याह है अखिलेश का, आप सबको जरूर आना पड़ेगा। जीजा जी एक महीने से कम का कार्यक्रम
मत बनाना। आई समझ के नहीं।”
आनंद ने अधिकार
भाव से अखिलेश की शादी का निमंत्रण दिया और पिता जी को पुरुषों वाली मंडली की ओर
ले गए।
इधर अखिलेश शादी
की बात छिड़ते ही धारावाहिकों में मौजूदा बेटियों की तरह शरमा कर दूसरी तरफ चले
गए।
सत्तो अपनी अधेड़
और कुछ उम्रदराज बहनों के साथ बातों में मशगूल हो गई।
“जीजी आनंद जैसे
आदमी आजकल नहीं मिलेंगे।”
“बहुत समझदार आदमी
है आनंद। हर बच्चे को बराबर प्यार दिया। कोई देखे तो कह ही नहीं सकता कि अखिलेश
इनके हैं के बड़े दद्दा के। खूब बढिय़ा कपड़े लत्ते, पढ़ाई लिखाई, संस्कार क्या नहीं
दिया। भाभी को भी तो इन्होंने ही संभाला। तब उम्र ही क्या थी बेचारे की।” सत्तो की
बहन ने पुराने दिनों की याद करते हुए बातों को आगे बढ़ाया।
सत्तो अपनी अधूरी
जानकारी को पुख्ता करने के इरादे से बोली, – मेरे ख्याल भाभी से छोटे ही थे आनंद।”
“ये थे दद्दा से
आठ साल छोटे और भाभी चार साल.... हां चार साल छोटे थे भाभी से।” सत्तो की बहन ने
अंगुलियों पर हिसाब लगाते हुए कहा।
“जब भाभी आईं थीं
तो उनके सामने खाट पर भी नहीं बैठा करते थे। कालेज से लौटते तो बूशर्ट का कालर
इतना गंदा करके लाते कि भाभी परेशान हो जातीं। फिर बेचारे हैंडपंप से पानी खींचते
रहते, पर मजाल है कि कभी आंख उठा कर भी देखा हो।
पर होता तो वही है
जो विधाता को मंजूर हो, सत्तो की बहन ने आह भरते हुए आनंद का एक चैप्टर खत्म करते
हुए बड़े दद्दा की मौत का अगला चैप्टर शुरू किया।
“65 की लड़ाई के बाद
छुट्टी आई थे दद्दा। पंडित ने पहले ही बता दिया था दद्दा को कि गोली लगने से प्राण
जाएंगे, फिर भी फौज में भर्ती हो गए। और देखो कितनी लड़ाई और मेडल जीत कर लाए। कहा
करते, अरे सब साले पंडित झूठे हो गए हैं। जब से इनकी जुबान को मांस लगा, बातों से
सत चला गया। इतनी लड़ाई तो जीत लीं अब कौन मारेगा गोली।
दूर-दूर तक लोग
दद्दा की बहादुरी के किस्से सुनाते। ऊपर से तारीफ करते पर भीतर ही भीतर जलते थे
लोग। पार्टीबंदी हो गई थी किसी के साथ। उसी ने भेजा था वो लड़का। दो महीने खूब मन
लगा कर दद्दा की सेवा पानी किया। घर का हर भेद ले लिया, फिर एक दिन दोपहरिया में
दद्दा की पिस्तौल मांगी देखने के लिए, फिर बोला चला कर देखूं, दद्दा के पैर छुए।
दद्दा बोले “विजयी
भव” और उसने तान दी पिस्तौल दद्दा पर...। दद्दा वहीं ढेर... दद्दा का आशीर्वाद भी
फल गया और पंडित की वाणी भी सच्ची हो गई।
शकुंतला एक साल की
थी और अखिलेश तीन साल के रहे होंगे... भाभी भी कहां जानतीं थीं छाती पर मैडल लटकाए
घर आने वाले फौजी की ये आखिरी छुट्टियाँ थीं।”
बहनों की मंडली और
उनके बच्चों की आंखें नम हो गईं, बड़े दद्दा की दुखद मौत और उस लड़के की गद्दारी
पर। पर अभी एक और चैप्टर बाकी था, जिसे सत्तो की सबसे बड़ी बहन ने पल्लू से आंखें
पौंछते हुए सुनाना शुरु किया।
“16-17 साल के रहे होंगे
आनंद उस वक्त, पिता जी भी नहीं थे। अम्मा बोलीं आनंद अब तुम्हारे ही हाथ है सब, घर
की चदरिया और खेत का हल।”
“सब जनी मिल के
भाभी की चूडिय़ां फोडऩे लगीं तो आनंद ने मना कर दिया बोले हमारी चदरिया दे दो बड्डी
के सिर पे।”
पण्डाल पर पसरी
चादर ने उड़ कर “बड्डी्” का सिर ढक दिया।
“तब से आज तक आनंद
ने ही संभाला है सब। शकुंतला एक साल की थीं, उन्हें पढ़ाया-लिखाया, शादी करवाई।
अखिलेश को पाला-पोसा। कोई पांच एक साल बाद अवधेश हुए।”
“तो क्या फेरे-वेरे
कुछ नहीं हुए।” अल्ट्रा मॉडर्न बच्चों ने कौतुहल से पूछा
“न बेटा, हिंदू
समाज में औरत के फेरे जिंदगी में एक ही बार होते हैं। बस चूडिय़ां बदली जाती हैं।”
बड़ी-बूढिय़ों ने प्रौढ़ता से बच्चों का कंधा दबाते हुए जवाब दिया।
........................
ग्रामीण माहौल से
चादर उकता गई और उड़ चली महानगर की ओर।
यहां शहर के सबसे
बढिय़ा स्कूल के बाहर कुल्फी बेचने वाला ऊंचा लंबा बाबा नंदराम अपने घुटनों तक की
धोती में मुंह दबाए सिकुड़ा बैठा थाए उस दिन जिस दिन उसके बेटे ने उसे मारा तो
नहीं पर हाथ लगभग उठा ही दिया था। उसकी मां को गाली देने के आरोप में।
पूरे मोहल्ले ने नीची
जात कह कर उस परिवार की खूब थू-थू की।
पर बाबा नंद राम
शाम ढलने के बाद भी अपना मुंह घुटनों से उठा नहीं पाया।
एक ढलती उम्र के
आदमी को रोता देख कौशल्या से रहा न गया और उसने प्यार भरी झिड़की देते हुए बाबा को
उठने को कहा,
“अब उठिए बाबा, जो
होना था सो हो गया। घर की बात है इस तरह बाहर बैठ कर रोना ठीक नहीं लगता, बच्चे
देख रहे हैं।”
पहले से भले ही
बेटे के हाथों बेइज्जत हुए बाबा को होश न रहा हो, पर इस बार जब उसे पता चला कि रोज
कुल्फी के लिए उसे घेरे रहने वाले बच्चे आज उसे दयाभाव से देख रहे हैं तो उसे कुछ शर्मिंदगी
महसूस हुई।
बाबा शर्मिंदा हुए
तो चादर उड़ कर बाबा के घुटनों पर जा गिरी। लज्जित से बाबा ने चादर के एक छोर से
नाक साफ की और दूसरे छोर से आंसू पोंछे।
कौशल्या ने एक
पुराने से कप में बाबा को चाय दी। चाय पी कर वे कुछ संभले और सिर्फ इतना कहा, पराया
खून पराया ही होता है। इस छोरे के पीछे मैंने कोई सुख नहीं देखा। इस बुढ़ापे में
भी कुल्फी की रेड़ी लगाता हूं। मेरा अपना होता तो”
कहते-कहते बाबा
चबूतरे से उठे और अनसोची राह पर चल दिए....
तब तक बाबा की
पत्नी निर्मला भी रोटी ले कर आ गई थी, कौशल्या को देख थोड़ी शर्मिंदा हो गई।
बुड्ढे आदमी के
साथ ऐसा नहीं करना चाहिए-- कौशल्या ने समझाने की कोशिश की।
“बहन जी मैंने तो
जिंदगी भर बर्दाश्त किया। अब लड़का जवान हो गया है वो कहां सहन करेगा, इन्हें भी
तो समझना चाहिए।”
“फिर भी थोड़ा तो
सोचना चाहिए, बेचारे दिन भर बैठे सुबकते रहे, कह रहे थे पराया खून पराया ही होता
है”
इतना कहना था कि
निर्मला की आंखें आग उगलने लगीं।
“अपने पराये की
बात नहीं है, बहन जी ... अगर ढंग से रखो तो पराये भी अपने हो जाते हैं। और ये कौन
सा बाहर का है। तब तो इन्हीं को शौक चर्राया था अब काहे का उलाहना देते हैं”
“तू भी भली है, ये
शौक भला किस आदमी को नहीं होता। बच्चा पैदा किया है तो क्या उससे पिटवाएगी...”
“इसके पैदा करने
से होता तो हो लिया होता, ये तो किसी काम के ही नहीं है... ...”
अब की बार उसके
गले में दुख भरा था। फिर भी उसने यह बात इतने आराम से कह दी जैसे घर की किसी मशीन
के खराब होने की बात कर रही हो।
“हे भगवान...” रामायण पढ़-सुन कर जवान हुई कौशल्या के दोनों
हाथ होंठों और दांतों को ढांप गए, “तो किसकी औलाद है ये... ...”
“अब तो सेहत कुछ
नहीं रही, जब शादी हुई थी तो लंबे चौड़े खूबसूरत लगा करते थे। सब खुश थे इतना
सुंदर और इकलौता है अपने घर में। घर-बार की मैं अकेली मालकिन। मेरी बड़ी बहन भी
खूब खुश थीं। मेरी शादी में बकरी दी थी उन्होंने।”
“फिर”
“खूब मिठाई, बाजे
गाजे। अपने गांव की गिनी-चुनी शादियों में से एक थी हमारी शादी। इनकी अम्मा ने भी
खूब खुशियां मनाईं थीं। सिनेमा के नाम से ही मचल जाते थे लोग पर हमारी सास खुद
पैसे देती थी कि जाओ सिनेमा देख कर आओ। ‘शोले’ दिखाई थी इन्होंने मुझे सबसे पहले।
पर खुशियां यहीं सब थोड़ी है... ...”
“तूझे कितने दिन
बाद पता चला”
“कुछ दिन तो गुजर
गए ढोल ढमाके में। पर जैसे ही इनके पास भेजी गई इन्होंने सब बता दिया। बोले, जो
खुशी चाहिए मांग लेना। बस एक को छोड़ कर।”
“तूने घर जाकर
बताया नहीं”
“किसे बताती... अपनी
ओढऩी हटाओ तो अपना ही सिर नंगा होता है।”
“पर इतनी बड़ी बात...
तेरी सास को तो पता होगा।”
“हाँ, पता था तभी
ज्यादा लाड करती थी मेरा और दुखी भी होती थी कि वंश आगे कैसे बढ़ेगा। बात कितने
दिन छिपी रहती। तीसरे साल भी जब गोद नहीं भरी तो दीदी दाई के पास ले गई। दाई
बेचारी को क्या पता था बोली सब ठीक ठाक है, जब ऊपर वाला चाहेगा भर जाएगी गोद। फिर
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने दीदी को सब बात बता दी। वो तो सिर पकड़ कर बैठ गई।
दबी आवाज में सभी मातम मना रहे थे। फिर न जाने कैसा करार हुआ इनमें और जीजा में कि
ये राजी हो गए... ।
दस ग्यारह साल की
ही तो थी जब जीजा ब्याहने आए थे जीजी को। मेले, हाट, बाजार सब जीजा के साथ ही
देखे। छोटी बच्ची की सी जिदें पूरी करवाते थे उनसे... अब उसी जीजा के साथ। मेरे
कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। फिर इन्होंने ही सास को भी मना लिया... ।
अब कहते फिरते हैं
पराया खून, पराया खून... ।
पहले पहल तो किसी
को भी पता नहीं था। इसकी इज्जत भी ढकी हुई थी और हम सबकी भी। सब इसी के कर्म हैं...
मैं तो दीदी की एहसानमंद हूं, जो है सब उन्हीं का दिया है... ।”
“कहां है री तेरी
दीदी...?”
जीजा को टी बी हो
गई थी, बड़ा पैसा बहाया बेचारी ने इलाज में, पर बचा नहीं पाई... कोठियों में बर्तन
मांजने जाती है।”
......................
एक बार चादर फिर
से कसमसाने लगी। गांव और शहर भर का भ्रमण कर चुकी थी चादर। घूमते-फिरते अब वह फिर
से पहाड़ों की तलहटी में बसे एक आधुनिक हो रहे गांव में पहुंची।
यहां सुमित्रा के
बेटे की शादी चल रही थी। किसी को धूप न लगे इसलिए चादर सुमित्रा के आंगन के ऊपर तन
गई।
चादर ने देखा कि
जमाना बदल चुका था। जमाने की तरह इस गांव की लड़कियों ने भी अब साधना कटिंग छोड़
दी थी और श्रीदेवी स्टाइल में पहले बाल उठा कर क्लिप लगातीं फिर लंबी चोटी बनाया
करती थीं।
इस गांव के
ब्राह्मण परिवारों में यूं तो दोहरे रिश्तों की परंपरा थी पर अबकी बार सुमित्रा
चाहती थी कि सबसे पहले बड़े बेटे की शादी हो, “बाकियों की होती रहेगी। और अब वो
पहले का सा जमाना कहां रहा है।”
घर, बार, जजमानी
सब गिना दिखा कर एक खूबसूरत, कार्यकुशल और हुनरमंद बहू सुमित्रा को मिल ही गई
जानकी।
सुमित्रा का बेटा
बल्लियों उछल पड़ा था इतनी सुंदर पत्नी पा कर। किसी ने बताया था थोड़ा बहुत पढ़-लिख
भी लेती है। सिलाई बुनाई का तो पूछो ही नहीं, हाथ नहीं जैसे मशीन हो।
शादी की चौथी ही
सुबह सुंदर, कार्यकुशल और मृदुभाषिणी जानकी ने विद्रोह कर दिया, “मैं नहीं रहूंगी
यहां, घर-बार सिर पर रखूंगी, जब पल्ले से खूंटा बांध दिया हो।”
नई नवेली बहू का
ऐसा रौद्र रूप सुमित्रा से बर्दाश्त न हुआ और उसने एक जोरदार तमाचे के साथ उसे
वापस कमरे के भीतर धकेल दिया... ।
बड़ी-बूढिय़ा
खुसफुसाने लगीं, “हम तो पहले ही कहते थे मत कर इसका ब्याह, तुझे ही पड़ी थी। सबकी
कटती है, क्या इसकी नहीं कटती। दो फुलके ही तो खाने थे इसने, क्या छोटा भाई नहीं
खिला देता।”
“जब मैं ले आईं
हूं, तो निभा भी लूंगी।” सुमित्रा ने तुनक कर जवाब दिया।
खुसफुसाती बूढिय़ां
चुप हो दहेज का सामान देखने लगीं।
सुबकती, ईश्वर की
मार पडऩे जैसी गालियां देती जानकी कमरे में तो चली गई, पर उस दिन के बाद से उसने
अपने पति को कमरे में दाखिल नहीं होने दिया।
सुमित्रा कमर कस कर
तैयार थी। जैसे वह पहले से जानती थी इस दुर्घटना का घटना।
सप्ताह भर बाद
जानकी के भाई उसे लेने आए और वह आंसुओं, कराहों और टूटे सपनों के टुकड़ों के साथ
मायके चली गई।
अगले ही दिन जब
जानकी के मायके का दल बल घर पहुंचा तो पता चल गया कि टूटे सपनों के टुकड़ों के साथ
वो खबर भी जानकी के मायके पहुंच गई है जिस पर जानकी ने विद्रोह कर दिया था।
मायके वाले जब
बुरा-भला कह कर थक चुके तो सुमित्रा ने उनके लिए ठंडा शरबत बनवाया। दहेज में दिया
उनका सारा सामान उनके आगे कर दिया और दोनों हाथ जोड़ कर बोली, आपकी बेटी अब हमारी
इज्जत है। हम ब्याह कर लाए हैं, हम संभाल भी लेंगे। उसे यहां किसी चीज की कमी नहीं
होगी।
आधी जमीन जानकी के
नाम करने का वायदा ले जानकी के मायके का दल बल वापस लौट गया। और अगले दिन जानकी भी
ससुराल बुलवा ली गई।
जानकी फिर उसी
कमरे की दीवारों से सर पटकने लगी जिससे उसने अपने पति को निकाल बाहर किया था।
सुमित्रा ने कुछ बहलाने के इरादे से जानकी को रसोई संभालने को कहा। रसोई संभालने
के बाद घर बार की तमाम जिम्मेदारियां जानकी को ही दे दी गईं। जानकी घर में सबकी
लाडली हो गई। खाने-पीने, पहनने-ओढऩे की हर जरूरत उसके कहने से पहले पूरी होती।
सिवा, एक के।
और आखिर एक दिन वह
आखिरी जरूरत भी पूरी कर दी गई। सुमित्रा ने अपने छोटे बेटे को कमरे के अंदर दाखिल
कर दिया और खुद पहरे पर बैठ गई।
यह रात हर बार
दोहराई जाती, जब जब सुमित्रा की या उसके छोटे बेटे की इच्छा होती। और धीरे-धीरे
सुमित्रा ने पहरे पर बैठना बंद कर दिया, जब उसे लगा कि शिकारी और शिकार दोनों एक
दूसरे के अभ्यस्त हो चुके हैं।
आखिर जानकी की गोद
भरी।
पहली संतान बेटी
हुई और दूसरा बेटा, तीसरा फिर बेटा।
गांव की वो बड़ी-बूढिय़ां
सुमित्रा और उसके परिवार को देखकर ईर्ष्या से भर उठतीं जो काफी लंबे समय से इस
शादी के खिलाफ थीं। सुमित्रा ने खुद कानाफूसियों में यह खबर गांव भर में फैला दी
कि “बड़ा शहरी इलाज के बाद ठीक हो गया है, वरना आंगन में किलकारियां कैसे गूंजतीं।”
जानकी ने बड़े चाव
से दोनों ननदों की शादी की। पर जब उसके देवर की शादी की बात आई तो उसने फिर से
विद्रोह कर दिया।
जाने वह अपने हक
के लिए लड़ रहीं थीं या आने वाले दुर्दिनों के संदेह से... ।
सबकी लाडली जानकी
कुलटा, कुलक्षिणी हो गई।
फिर एक जोरदार
तमाचे के साथ जानकी को उसी कमरे में धकेल दिया गया। अब छोटे बेटे को सख्त मनाही थी
इस कमरे के आस-पास भी फटकने की।
सुमित्रा ने एक
बार फिर तुनक कर कहा, “दूसरों पर ही पैबंद लगाता रहेगा, क्या इसकी अपनी जिंदगी
नहीं है...”
अब जानकी सिर्फ
अपने पति की लाडली थी, वही उसके हाथ का बना खाना खाता और वही उसके पुराने कपड़ों
को देख नए लाने की ख्वाहिश जताता। नई बहु के लिए बड़ा और सुंदर कमरा जरूरी था
इसलिए जानकी को उसके पति के साथ पिछवाड़े वाला कोठा थमा दिया गया।
नई बहू के लिए
पिछवाड़े का कोठा वर्जित क्षेत्र था। उसे बताया गया था कि उस कोठे में ऐसी कोई
डायन रहतीं है जो सबके पतियों को झपटने को तैयार रहती है। और तो और उसने जोगियों
के बाड़े को भी नहीं छोड़ा।
पिछवाड़े के कोठे
का दरवाजा जो बंद हुआ तो सालों साल खुला ही नहीं। बंद दरवाजे में जानकी की जवानी ढल
गई और उसकी बेटी जवान हो गई।
आज शहर से लड़के
वाले आ रहे थे उसे देखने, जानकी के भाई के साथ। गहना-गाठा कुछ भी तो नहीं था जानकी
के पास अपनी बिटिया को सजाने के लिए। उसका आंचल भी मैल भरा था। बिटिया का माथा भी
सूना, सिर भी नंगा...। कौन ध्यान देता इस पर।
मेहमानों की दस्तक
हुई ही थी कि चादर ने उड़ कर जानकी की बेटी का सिर ढक दिया। और जानकी सुहाग गाने
लगी।
सम्पर्क-
योगिता यादव
911, सुभाष नगर, जम्मू
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)
योगिता जी, यह कहानी बेहतरीन है इस के लिए आप को मुबारक। पता नहीं कब तब समाज में नारी बेनाम रिश्तों चादर ओढ़ती रहे गी।
जवाब देंहटाएंshukriya chanchal bhasin ji.... sahi kaha aapne jabran odhayi jati chadre...
जवाब देंहटाएंRegards
yogita
Aisi yatharthprk chadar bunane ke liye Yogita ji ke bunkar hathon ko Salaam!! Kamaal ki pathaniyta aur Bhasha...Haardik badhai Yogita ji. Abhaar Mitra Santosh ji!
जवाब देंहटाएंyogita ji..aap ki bhasha our shilp ka kyal to mein hoon hee...khani pad kr mera vishvaas our pakka ho gya hai...aise khani ke liye badahi our bhvishye ke kiye shubhkamnayein....
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंप्रयोगधर्मी योगिता जी को इस नवीन प्रयोग के लिए हार्दिक बधाई। कथ्य और शिल्प के स्तर पर हुए नवीन प्रयोग अचम्भित एवं आह्लादित कर गए। कुछ कहा भी नहीं और सब कह भी दिया। चादर ताने भी रखी और भीतर का सारा हाल ब्यान भी कर दिया.......कमाल
जवाब देंहटाएंकभी कबीर कह गए थे ।झीनी-झीनी बीनी चदरिया .......ज्ञांमार्गी विचारों मे आज योगिता जी ने कहानी के माध्यम से उकेरा है।सार्थक प्रयास....साधुबाद ......
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