सुप्रिया पाठक का आलेख 'स्त्री प्रश्नों की अहिंसक दृष्टि'

        

सुप्रिया पाठक 


समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद स्त्रियां एक लम्बे समय तक उपेक्षा का शिकार रहीं। आजादी की लड़ाई के क्रम में गांधी जी ने स्त्री प्रश्नों को अहमियत ही नहीं प्रदान किया अपितु उन्हें पुरुषों के बराबर का स्थान दिया। यही वजह थी कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में कई स्त्रियों की भूमिका अहम दिखाई पड़ती है। इसी क्रम में जीवन के विविध क्षेत्रों में स्त्रियों की सक्रियता बढ़ी। सुप्रिया पाठक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के क्षेत्रीय केन्द्र प्रयागराज में स्त्री अध्ययन विभाग में प्राध्यापक हैं। स्त्री अध्ययन के सन्दर्भ में उनका काम प्रशंसनीय है। 'भारतीय स्त्रियों का अहिंसक प्रतिरोध' उनका शोधपरक काम है। इस पुस्तक का एक आलेख हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुप्रिया पाठक का आलेख 'स्त्री प्रश्नों की अहिंसक दृष्टि'।



     'स्त्री प्रश्नों की अहिंसक दृष्टि'

 

सुप्रिया पाठक



 

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत में महिलाओं से जुड़े प्रश्न एक राजनीतिक प्रश्न के रूप में ठीक उसी प्रकार उभरे जिस प्रकार सांप्रदायिकता और अस्पृश्यता से जुड़े हुए प्रश्नों का उद्भव हुआ। इन प्रश्नों ने भारतीय राष्ट्र के स्वप्न को आकार देने का कार्य किया। इतिहासकारों और सामाजिक वैज्ञानिकों ने महिलाओं की समानता और असमानता के राजनीतिक पहलू पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया, जिसकी वजह से इस मुद्दे की न सिर्फ उपेक्षा हुई बल्कि इसके मूल्यांकन के तमाम अस्पष्ट और गलत धारणाओं को बढ़ावा मिला। भारत में महिला प्रश्नों के इतिहास का आरंभ सामान्यतः उन्नीसवीं शताब्दी से माना जाता है।। यद्यपि कुछ समकालीन शोध इस बहस को और प्राचीन करार देते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय प्रेस के प्रारंभ होने के बाद महिला प्रश्नों को सामाजिक बहस के रूप में प्रमुखता मिलने लगी। उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में हुए तमाम किसान आंदोलनों में महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिर भी, यह अत्यंत आश्चर्यजनक बात है कि समाज सुधारकों का ध्यान इनकी तरफ नहीं गया और ना ही यह उनके चिंता का विषय था। उन्होंने महिलाओं की भागीदारी को रेखांकित नही किया। इस दौरान हुए किसान और मजदूर आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका पर या तो बहुत कम ध्यान दिया गया या फिर ध्यान ही नहीं दिया गया।



वस्तुतः भारत में स्त्रियाँ पहली बार सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक रूप से गांधी जी के प्रयासों के कारण सक्रिय हुईं। यह स्त्री आंदोलन एवं स्त्री चेतना का लिए भी प्रस्थान बिंदु था। नारीवादी विमर्श गांधी जी को महिलाओं को राजनीतिक रूप से सक्रिय करने का श्रेय देता है। गांधी जी के लिए राष्ट्र की परिकल्पना संकीर्ण न हो कर विश्वव्यापी थी, जिसमें सैद्धांतिक स्तर पर गांधी जी सबको शामिल करने के हिमायती थे। उस राष्ट्रवाद की परिकल्पना में देश को स्वाधीनता दिलाने के आंदोलन का नेतृत्व किसके हाथ में हो, इसे ले कर उनकी राय बिल्कुल स्पष्ट थी। उन्होंने इस आंदोलन के लिए जिन दो मूल्यों को अपनाया वे थे 'सत्य' एवं 'अहिंसा'। बकौल गांधी जी, ये दोनों ही मूल्य पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ ज्यादा बेहतर ढंग से आगे बढ़ा सकती थीं। उन्होंने भारतीय स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहा था कि उन्हें विक्टोरियन स्त्री की तरह बनने की आवश्यकता नहीं थी बल्कि पूरे विश्व की स्त्रियों को भारतीय स्त्रियाँ बहुत कुछ सिखा सकती थीं। लता सिंह ने अपने आलेख 'राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाएँ' में राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न चरणों में महिलाओं की भागीदारी का वर्णन करते हुए लिखा है कि :



"गांधी जी की व्यक्तिगत छवि संत महात्मा की होने के कारण उनके नेतृत्व में शुरू हुए देशभक्ति आंदोलन की राजनीतिक और धार्मिक, मिली जुली छवि बनी। उसका क्षेत्र राजनीति से ऊपर उठ कर धार्मिक हो गया। देशभक्ति को धर्म माना गया और देश को देवी माँ की उपाधि दी गई। इन सबका असर यह हुआ कि महिलाओं को शक्ति मान कर उनका एक नए ढंग से शोषण शुरू हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं को बार-बार यह कह के जोड़ा गया कि जब तक भीतरी शक्ति बाहर नहीं आएगी, बलिदान अधूरा रहेगा।"



यह तथ्य गांधी जी के संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण  है कि उन्होंने रणनीतिक रूप से भी राष्ट्रीय आंदोलन का स्त्रीकरण (Feminization of National movement) कर दिया। उन्होंने आंदोलन का धार्मिक रूप कायम रखते हुए उसे अहिंसात्मक बनाया जिसमें धैर्य, त्याग, पीड़ा, सत्य और अहिंसा इत्यादि सर्वोपरि थे, जो महिलाओं के गुण माने जाते हैं। उन्होंने महिलाओं को यह विश्वास दिलाया कि देश को उनके नेतृत्व की आवश्यकता है एवं उनकी भागीदारी के बिना देश की आजादी संभव नहीं। गांधी जी ने समाज सुधारकों एवं पुनरुत्थानवादियों की स्त्री विषयक चिंता की दिशा बदलते हुए भारतीय स्त्री की एक नई परिभाषा दी जो अबला, शोषित, सुधार किए जाने योग्य की समझ से विपरीत आत्मबल से भरपूर नैतिक व्यक्तित्व थी। मधु किश्वर ने गांधी जी के विचारों की सराहना करते हुए लिखा है :


उन्होंने सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के अंदर एक नया आत्मसम्मान, एक नया विश्वास और एक नई आत्मछवि दिलाई। वे निष्क्रिय से सक्रिय नागरिक बनीं। उन्होंने स्त्री मुद्दों को समर्थन दिलाया। राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं को बड़ी संख्या में शामिल करने के गांधी जी के ऐतिहासिक कृत्य से इनकार नहीं किया जा सकता बावजूद इसके, महिलाओं के जिन गुणों की सराहना करते हुए उन्होंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कराया उससे महिला आंदोलनों का अपना दायरा सीमित हुआ।’’



कस्तूरबा गांधी 



यह भी विडंबनापूर्ण बात है कि इतिहासकारों ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महिलाओं की भागीदारी की प्रशंसा तो की लेकिन इसको महात्मा गांधी के चमत्कारिक व्यक्तित्व के साथ जोड़ कर ही देखा। उनसे परे जा कर महिलाओं की भागीदारी को रेखांकित नहीं किया गया।a  गांधी जी द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व संभालने के साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी। इसका कारण यह था कि गांधी जी की सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह की नीति महिलाओं के स्वभाव के अनुकूल थी। महात्मा गांधी ने यह स्वीकार किया है कि उन्हें अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग पर चलने की प्रेरणा अपनी मां और पत्नी से मिली। उनकी पत्नी कस्तूरबा उस काल की परंपरागत पत्नियों से अलग थीं। पुरुषों की दासता उन्हें पसंद नहीं थी, इसी वजह से मोहनदास को दबंग पति से ज्यादा उन्होंने समझदार पति बनने में सहायता की। 





हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका एवं कवियत्री महादेवी वर्मा पर गांधी जी का जबरदस्त प्रभाव था। उन्होंने गांधी जी की भौतिक उपस्थिति और आभामंडल पर टिप्पणी करते हुए लिखा है :


“प्रकृति सोच विचार कर महान पुरुषों एवं स्त्रियों को मस्तिष्क और हृदय प्रदान करती है ताकि वे जीवन के महान उद्देश्यों की लक्ष्य साधना कर आगे बढ सकें। साथ ही, उनमें सामान्य दिखने की भी अद्भुत क्षमता होती है। गांधी जी के पास न तो विशाल काया थी और न ही लुभावना रंगरूप। उनका बड़ा सिर, लंबे पैर, ललाट पर गहरी शिकन, खड़ी सुतवां नाक, छोटी सी ठुड्डी और कुल मिला कर उनका पूरा व्यक्तित्व पुरुष सौंदर्य की दृष्टि पर खरा नहीं उतरता था, पर एक बार उनसे मिलने के बाद उन्हें भूलना असंभव था। उनके चेहरे की हंसी किसी मासूम बच्चे की याद दिलाती थी। वे हंसते हुए बहुत प्यारे लगते थे। भाग्य ने उन्हें बहुत कुछ दिया था। थोड़े निकले हुए लंबे कान ताकि नन्हें बच्चों का रुदन भी अनसुना न हो सके। हालांकिउनके चेहरे में सबसे आकर्षक उनकी आंखें थीं जो हर समय सजग और संभावनाओं से भरी रहती थीं। उनकी आंखें उनके व्यक्तित्व की सबसे खास चीज थीं जिन्हें देख कर उन पर लोगों का विश्वास और मजबूत होता था। वे आंखों से रिश्ते बनाते थे, संवाद करते थे। कुछ लोग उन्हें जादूगर कहते थे जबकि कुछ के लिए वे 'अधनंगे फकीर थे।“[1]



महादेवी वर्


स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान था। वे घर के अंदर और बाहर दोनों स्थानों पर विविध राष्ट्रवादी गतिविधियों में शामिल थीं। घर में वे खादी बुनने, कातने एवं अन्य महिलाओं को शिक्षित करने के लिए कक्षाएं आयोजित करती थीं। कई स्त्रियों ने लेखों, कविताओं और राष्ट्रवादी साहित्य के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे राष्ट्रीय नेताओं को ब्रिटिश अधिकारियों से छुपाने का कार्य करती थीं और उन्हें वे अपने घरों में आश्रय देती थीं। उन दिनों गांधी जी के आह्वान पर प्रभात फेरियाँ निकला करती थीं। मुहल्लों में घरों के बाहर प्रभात फेरी का आयोजन होता जिसमें सभी महिलाएं भाग लेती थीं। इसमें हर धर्म और जाति के लोग देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत स्थानीय मंदिरों में गीत गाते हुए चलते जिसमें महिलाओं की बड़ी संख्या होती। उन्होंने बैठकों और प्रदर्शनों में सत्याग्रही के रूप में भाग लिया, शराब की दुकानों के आगे धरना प्रदर्शन किया और विदेशी वस्‍त्रों की दुकानें के सामने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करते हुए उनकी होली जलाई। इस राष्ट्रीय अभियान का नेतृत्व करती हुई वे जेल गईं और अनगिनत क्रूरताएं झेलीं। जब राष्ट्रीय नेतृत्व जेल में होते, तब महिलाएं नेतृत्व की भूमिका संभालतीं और आंदोलनकारियों का मार्गदर्शन करतीं। राष्ट्रीय आंदोलनों के संबंध में हुए समस्त लेखन से यह ज्ञात होता है कि उस समय जिन महिलाओं ने आंदोलन का नेतृत्व किया, लगभग वे सभी मध्यमवर्गीय परिवारों से थीं। हालांकि यह कहना ज्यादा श्रेयस्कर होगा कि गांधी जी के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन में सभी वर्गों, जातियों, धर्मों एवं विविध वैचारिक पृष्ठभूमि की महिलाओं ने भाग लिया। महिलाएं एक 'एकीकृत' राष्ट्र की शक्तिशाली प्रतीक के रूप में उभर कर सामने आईं ।[2]



जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से लौट कर भारत आए तब तक स्त्री मुक्ति की पृष्ठभूमि  तैयार हो चुकी थी। यहाँ की स्त्रियों की दुर्दशा तथा उनके महत्व के प्रति संवेदनशील गांधी जी ने प्रारंभ से ही उन्हें राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की नेतृत्वकर्ता के रूप में देखा। वे महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए अपने स्तर पर व्यापक जन समुदाय को जागरुक करने का कार्य कर रहे थे। उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा :


मैं स्त्रियों के अधिकारों के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं कर सकता हूँ। मेरे लिए उनके हित सर्वोपरि हैं। मैंने हमेशा स्त्रियों की सेवा की है। भारत आने के समय से ही मैं यह महसूस कर रहा हूं कि स्त्रियां मेरी तरफ बहुत उम्मीद से देखती हैं। मैं स्त्री मुक्ति के प्रति क्रांतिकारी विचार रखता हूँ। मैं यह मानता हूँ कि स्त्रियों की मुक्ति उन्हें उनके प्रयासों एवं संघर्षों से ही प्राप्त होगी। [3]



राष्ट्र निर्माण में स्त्रियों की भूमिका के संबंध में गांधी जी के विचारों को उस समय अत्यंत क्रान्तिकारी माना गया। हालांकि, वे स्वयं लिंग आधारित भूमिकाओं के पक्षधर थे लेकिन वे सती प्रथा, पर्दा प्रथा, देवदासी परंपरा, दहेज जैसी कुप्रथाओं के प्रखर आलोचक भी थे जिनके कारण समाज में स्त्रियों की स्थिति का अवमूल्यन हो रहा था। यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि गांधी जी भारतीय स्त्री प्रश्नों को किस रूप में देख रहे थे और राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने स्त्रियों की बड़ी संख्या में सहभागिता को कैसे सुनिश्चित किया? राष्ट्र किस प्रकार परिवार की परंपरागत परिभाषा के इत्तर बड़े परिवार में तब्दील हो रहा था जिसकी राजनीतिक गतिविधियों में स्त्रियों की गतिशीलता एवं सहभागिता को गैर राजनीतिक माना जा रहा था। गांधी जी को इस बात का अहसास था कि राष्ट्रवादी एजेंडे के तहत निर्मित की जा रही नई स्त्री की परिभाषा को नए सिरे से व्याख्यायित कर उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को तलाशा जा सकता था और घरों में बंद स्त्रियों को बाहर लाया जा सकता था। गांधी के आंदोलन की ताकत व्यापक जन समुदाय था जिसमें बड़ी संख्या महिलाओं की थी। उन्होंने इस बात पर बहुत बल दिया कि आत्म बलिदान एवं आत्म त्याग की भावना स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कई गुना अधिक थी इसलिए अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व स्त्रियां बेहतर ढंग से कर सकती थीं। वे यह मानते थे कि यदि हमारा भविष्य अहिंसा एवं सत्याग्रह है तो वह स्त्रियों के हाथ में है। गांधी जी में समाज के पिछड़े एवं शोषित समूहों के न्याय के प्रति विशेष आग्रह था। फरवरी, 1925 के यंग इंडिया में उन्होंने लिखा :


स्त्रियों को दोयम दृष्टि से देखना एवं उन्हें कमजोर समझना गलत है। यदि शक्ति का तात्पर्य नैतिक साहस से है तो स्त्रियां पुरुषों से श्रेष्ठ हैं। क्या उनमें परिस्थितियों को समझने की क्षमता अधिक नहीं है? क्या वे कम बलिदानी हैं? क्या उनमें साहस की कमी है? उसके बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं। मेरा मानना है कि स्त्रियां निर्विवाद रूप से नेतृत्वकर्ता होती हैं। यदि अहिंसा का मूल्य समाज एवं मानव मात्र के भविष्य के आवश्यक है तो हमारा भविष्य स्त्रियों के हाथ में है क्योंकि वे अपने जीवन में अहिंसा को चरितार्थ करती हैं। उनमें कष्ट को सहन करने की असीमित क्षमता होती है। आइए उनके माँ, पत्नी और बेटी के रूप में किए जा रहे प्रेम को पूरी मानवता के लिए संभव बनाएं। इससे उनके पुरुषों को भी उन पर गर्व होगा। वे सत्याग्रह आंदोलन की प्रणेता बनेंगी ।[4]



गांधी जी के भारत आगमन के पश्चात भारत की राजनीति एवं समाजिक व्यवस्था में व्यापक बदलाव आया। उन्होंने हिंदू धर्म की उन सभी मान्यताओं एवं परंपराओं को प्रश्नांकित करना प्रारंभ किया जिसके कारण स्त्रियों की राष्ट्रीय आंदोलन में सहभागिता सीमित हो रही थी। गांधी जी ने पर्दा प्रथा की यह कहते हुए भर्त्सना की कि इसके कारण न सिर्फ स्त्रियों का अहित हुआ बल्कि राष्ट्र की भी क्षति हुई है।



हालांकि गांधी जी की विवाह संस्था में गहरी आस्था थी एवं वे इसे समाज के नैतिक व्यवस्था के लिए आवश्यक मानते थे परंतु उन्होंने स्त्रियों से इस बात की पुरजोर अपील की कि वे वैवाहिक संबंधों में स्वंय को कमजोर तथा यौन संबंधों के लिए प्रस्तुत नायिका के रूप में न देखें। पत्नी पति की दासी नहीं, बल्कि उसकी संगिनी, मित्र और सहकर्मी होती है। वैवाहिक व्यवस्था के अंदर उसे भी समान अधिकार प्राप्त हैं। उन्होंने भारतीय स्त्रियों को उनकी वर्तमान स्थिति के प्रति जागरुक होने, स्वतंत्रता आंदोलन में कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ने तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने के लिए लगातार प्रेरित किया। हालांकि, भारतीय समाज की संरचना में महिलाएं सदियों से घरों के अंदर रहती आई थीं। उनके स्वामी पिता, पति और पुत्र के रूप में घर के पुरुष थे जिनकी अनुमति के बिना सार्वजनिक दुनिया में कदम रखना उन्होंने सीखा ही नहीं था। यह एक मानसिक चारदीवारी थी जिसके अंदर स्त्रियां स्वयं कैद थीं। 



संभवतः कुछ पुरुषों को इस बात का भी संदेह या भय रहा हो कि स्त्रियों को स्वतंत्र कर देने से उनकी सत्ता एवं पितृसत्तात्मक नियंत्रण को चुनौती मिल सकती थी। बावजूद इसके, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सिर्फ शहरी ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं ने इलाहाबाद एवं साबरमती में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी की। उनके साथ बड़ी संख्या में मुस्लिम एवं पारसी महिलाएं भी थीं जिन्होंने पर्दा छोड़ कर गांधी जी के आंदोलन में भाग लिया। जहाँ एक तरफ समाज सुधारक एवं बुद्धिजीवी वर्ग महिलाओं के अधिकार एवं सुधार की मांग बौद्धिक स्तर पर कर रहा था, वहीं  गांधी जी ने उन्हें भावनात्मक स्तर पर मुक्ति दिलाई। उन्होंने महिलाओं से स्वयं पर यकीन करने का अनुरोध किया। उन्होंने महिलाओं में यह आत्मविश्वास जागृत किया कि वे पाश्चात्य स्त्रियों की अपेक्षा कई गुना श्रेष्ठ हैं। पश्चिमी महिलाओं से उन्हें कुछ भी सीखने की आवश्यकता नहीं, न ही उनकी नकल करने की जरुरत है बल्कि पश्चिमी महिलाओं को भारतीय स्त्रियों से त्याग, बलिदान, आत्मनियंत्रण तथा वात्सल्य जैसे गुण सीखने की आवश्यकता है। उनके आत्म-बल से ही अहिंसक समाज का निर्माण संभव है। कांग्रेस के नेतृत्व में आयोजित हो रहे उस स्वाधीनता आंदोलन में स्त्रियों की सहभागिता देखते ही बनती थी। हर कोई दांतों तले उंगली दबाता था, यकीन करना मुश्किल था कि वे स्त्रियां जिन्हें अपने घर का पता भी ठीक से मालूम नहीं था, वे शराब एवं विदेशी वस्त्रों की दुकानों के सामने अपने बच्चों को गोद में लिए घंटों बैठी रहतीं और कभी-कभी तो यह क्रम लंबा चलता जब तक कि व्यापारी उनके सामने दुकान बंद न कर देते। अद्भुत दृश्य होता था जब भारत की शक्ति-स्वरुपा स्त्री भारत माता की स्वतंत्रता के लिए हो रहे यज्ञ में सहर्ष आहूति के लिए उपस्थित होती थीं।



गांधी जी ने कई बार यह महसूस किया कि स्त्रियों की ताकत ही उनकी कमजोरी भी थी। उन्होंने उनकी अहिंसक शक्ति का प्रयोग भारतीय पुरुषत्व तथा ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध करने का अनुरोध किया। उनके इस अह्वान पर भारतीय स्त्रियां घरेलू तथा राष्ट्रीय आंदोलन में एक साथ संघर्ष कर रहीं थीं। वे अपनी शक्ति का अधिकतम उपयोग कर रही थीं। गांधी जी महिलाओं में इस उत्साह को देखकर अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने यंग इंडिया में प्रकाशित अपने लेखों के माध्यम से लोगों से इस परिवर्तन के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करने की वकालत की। ब्रिटिश अधिकारी गांधी जी के व्यक्तित्व से चमत्कृत थे। तत्कालीन वायसराय विशेष रूप से उनसे मिलने आया करते। अहिंसा तथा प्रेम जैसे मूल्यों के प्रति गांधी जी की समर्पण भावना के प्रति उनके हृदय में बहुत सम्मान था। महिलाओं को जिस तरह उन्होंने अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया था, उससे उनमें एक नई उर्जा का संचार हुआ था। गांधी जी सिर्फ भारत की स्वतंत्रता नहीं चाहते थे बल्कि उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के लिए भी अथक परिश्रम किया।





भारतीय समाज की जिस व्यवस्था ने उन्हें सर्वाधिक तकलीफ पहुँचाई, वह थी जाति व्यवस्था। गांधी जी जाति आधारित छुआछूत के सख्त खिलाफ थे। दलित जाति की असंख्य स्त्रियां इस जाति व्यवस्था के कारण अत्यंत दुर्दशापूर्ण जीवन जी रही थीं। उनमें से कई स्त्रियों ने वेश्यावृति को अपनी आजीविका का आधार बना लिया था। अमरीकी विद्वान एलेन मोर्टन गांधी जी की उस घोषणा को याद करते हैं जब उन्होंने ब्रिटिश शासन द्वारा प्रस्तावित अलग निर्वाचन अधिकार के कानून को मानने से मना कर दिया था, जिसमें दलितों के मतदान के लिए अलग से व्यवस्था की गई थी। दलितों के प्रति अपनी संवेदनशीलता तथा भाईचारा प्रदर्शित करने एवं जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए उन्होंने आमरण अनशन तक किया। गांधी जी के इस अभियान का भारतीयों के ऊपर बहुत गहरा असर पड़ा। हिंदू धर्म के मंदिर के दरवाजे जो सदियों से अछूतों के लिए बंद थे, उनके द्वार खुले। जेल में रहते हुए गांधीजी ने एक पत्रिका निकालनी प्रारंभ की जिसका नाम उन्होंने हरिजन (ईश्वर की संतानें) रखा।  वे जाति व्यवस्था मुक्त समाज के पक्षधर थे जो उनकी दृष्टि में अहिंसक समाज के निर्माण की प्राथमिक शर्त थी। उनके इस अभियान में उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी (बा) ने बहुत सहयोग किया एवं इसके कारण जेल भी गईं। गांधी जी की इस बात में गहरी आस्था थी कि जाति व्यवस्था को समाप्त करने में गृहिणियों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी इसलिए उन्हें इस अभियान में शामिल किए बिना आंदोलन का लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा। हालांकि उन्होंने गृहणियों को इस मुहिम में शामिल करने का प्रयास किया लेकिन वे जाति व्यवस्था की संरचना को प्रश्नांकित करने एवं उसे बदलने में विफल रहे। भारत के स्वतंत्र होने के उपरांत भारत में जाति के आधार पर बरते जाने वाले भेदभाव और छुआछूत को सांवैधानिक दृष्टि से अपराध माना गया। कानून बन जाने और सामाजिक समानता के समस्त दावों के बावजूद हमारे यहाँ आज भी दलितों को इससे मुक्ति नहीं मिली है।



उसी प्रकार गांधी जी ने स्त्री-पुरुष संबंधों में समानता एवं अधिकारों की प्रस्तावना तो दी मगर वे लैंगिक संरचना को समाप्त कर नई सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना नहीं कर सके। वे स्त्रियों के लिए वर्तमान पितृसत्तात्मक संरचना में ही एक बेहतर स्थान चाहते थे। यह उनकी सीमा भी थी। गांधी जी ने स्त्रियों के उन गुणों पर सर्वाधिक बल दिया जो उनके राजनीतिक अभियान के लिए हितकारी थे। उन्होंने खादी बुनने एवं चरखा चलाने को आत्म नियंत्रण के साधन के रूप में देखा। खादी कातने के कार्य को उन्होंने महिलाओं के धर्म के साथ जोड़ कर देखा क्योंकि परिवार के भोजन एवं वस्त्र की व्यवस्था का दायित्व स्त्रियों का माना गया है। चरखा चलाना गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम का हिस्सा था। इस चरखे को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया और भारत के झंडे में भी इसे दर्शाया गया। खादी बनाना और उसे पहनना उस दौर के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के लिए अनिवार्य था जो इन समूहों के मध्य आत्मीयता का भाव पैदा करता था और लाखों लोगों को एक साथ जोड़ता था। गांधी ने खादी बुनने तथा उसे धारण करने की अपील करते हुए 1915 में आयोजित भगिनी सभा में स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहा कि : 


देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व स्त्रियों के हाथ में है, क्योंकि उनमें धैर्य, साहस, अहिंसा तथा सच्चे सत्याग्रही के गुण मौजूद हैं। वे नौ माह तक अपने शिशु को गर्भ में पालती हैं और हर प्रकार की पीड़ा सहती हैं इसलिए उन्हें सूत कातना है और खादी के वस्त्र भी धारण करने हैं। जब तकराष्ट्रनामक नए शिशु का जन्म न हो जाए।



गांधी के स्वतंत्र भारत का स्वप्न लाखों ग्रामीणों के जीवन पर केंद्रित था। वे स्वराज प्राप्ति की संकल्पना में खादी को अपना रहे थे और सभी को चरखा चलाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। वह ब्रिटिश लंकाशायर के प्रभुत्व को समाप्त करना चाहते थे जिसने भारत के परंपरागत कपड़ा उद्योग पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया था। वे फिर से सूती, खादी और जूट के उपयोग को बढ़ावा देना चाहते थे। भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ के लोग कृषि के खाली दिनों में अल्पकालिक रोजगार पर भी निर्भर थे जिसके कारण वे ब्रिटिश उद्योगों में काम करते थे। गांधी ने सूत कातने के कार्य को स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्यों के साथ जोड़ दिया। चरखे पर काते गए सूत के धागों को हथकरघे पर लगा कर खादी के वस्त्र तैयार किए जाते थे। इस कार्य में सबका श्रम और सबकी सहभागिता होती थी। खादी और चरखा दोनों ही स्वराज का प्रतीक बन गए थे। स्त्रियाँ विशेष रूप से घंटों सूत कातने का कार्य करतीं थीं।



सरोजिनी नायडू 



भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी के साथ कई संभ्रांत घरों की स्त्रियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनमें एक थीं सरोजिनी नायडू (1879-1949) जो प्रसिद्ध कवियत्री और राजनीतिक कार्यकर्ता थीं। उन्होंने न सिर्फ राजनीतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लिया बल्कि पर्दा प्रथा और बाल विवाह जैसी स्त्री विरोधी प्रथाओं के विरुद्ध भी खड़ी हुईं। 1917 से ही वे स्त्रियों के लिए पूर्ण मताधिकार की मांग उठाने लगी थीं। 1925 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं। सरोजिनी नायडू ने गांधी जी के संरक्षण में कार्य किया था। वे उन हजारों प्रतिनिधियों में एक थीं जिन्होंने बापू के साथ ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक पर लगाए गए कर के विरोध मेंनमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया था। गांधी के अह्वान पर स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी करने के लिए सिर्फ भारतीय स्त्रियाँ आगे नहीं आईं, बल्कि विदेशी स्त्रियों ने भी उनका शिष्यत्व ग्रहण कर उस महायज्ञ में अपनी महती भूमिका निभाई। उन महान स्त्रियों में एक थीं मीरा बेनगांधी जी के समस्त विदेशी अनुयायियों में मीरा बेन (मेडलिन स्लेड, 1892-1982) को सबसे अधिक याद किया जाता है जो ब्रिटेन से स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने भारत आई थीं। वे गांधी के साथ सार्वजनिक दुनिया में सर्वाधिक सक्रिय रहने वाली स्त्रियों में से एक थीं जिनका जिक्र भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एवं गांधी के सत्याग्रह कार्यक्रम के विभिन्न चरणों में किया जाता है।


मीरा बेन 



मीरा बेन गांधी जी के साथ सिर्फ अपने भावनात्मक जुड़ाव के कारण नहीं थीं बल्कि उन्होंने खुद को साबरमती आश्रम में एक आदर्श आश्रमवासी के रूप में भी समर्पित किया था। 1935 में एक अमेरिकी पत्रकार कुछ दिनों के लिए गांधी जी के आश्रम में आ कर रुकीं। वे उनके आश्रम जीवन एवं आश्रमवासियों पर अध्ययन करने आई थीं। उनके आतिथ्य की जिम्मेदारी मीरा बेन पर थी। मीरा बेन पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा था :



“मीरा बेन ने गांधी की आंखों से दुनिया को देखा था। वे स्वयं एक अनोखी स्त्री थीं। खादी की लंबी, बिना बांह वाली बंडी पहने हुई, अपने शरीर को खादी के वस्त्रों में लपेटे हुए वे किसी दैवीय शक्ति का आभास कराती थीं। बेहद ओजस्वी रंग-रूप और आभा से ओतप्रोत मीराबेन अनायास ही अपने इर्द-गिर्द के लोगों के मन में अपने लिए आकर्षण और सम्मान का भाव पैदा करती थीं। उनकी हिंदी अच्छी थी और वे सूत कात आईकर धागा बनाने की कला में महारत हासिल कर चुकी थीं। वह ऊर्जा का भंडार थीं। एक साध्वी के रूप में उन्होंने अपना पूरा जीवन गांधी, चरखा, सूत कताई, वन्य जीवों और पर्यावरण को समर्पित कर दिया था”।[5]



तुर्की की एक लेखिका हलिदे अदीब गांधी के सेवाग्राम आश्रम में उनसे मिलने के लिए आईं। इस दौरान उन्होंने मीरा बेन और गांधी के बीच के संबंध को करीब से देखा। मीरा बेन के संबंध में वह लिखती हैं :  


“मैंने यह महसूस किया कि गोरी चमड़ी के अंदर एक विशुद्ध भारतीय आत्मा आकार ले रही थी। चेहरे और रंग-रूप की बनावट उन्हें एक दैवीय आभा प्रदान करती थी। उनकी मुस्कुराहट एवं भूरी-भूरी आँखों के प्रति अनायास ही आकर्षण का भाव पैदा होता था। वह ऐसी स्त्री थीं, जिन्हें सब जानते थे पर वे अपने बारे में बहुत कम बात करती थीं”।[6]  



गांधी-मीरा के संबंधों का अध्ययन करने वाले विद्वानों के लिए यह टिप्पणी अत्यंत प्रासंगिक है। उसी प्रकार एनी बेसेंट पर भी गांधी जी का प्रभाव था। जिनसे उनकी मुलाकात 1887 में लंदन में हुई थी। उन्होंने उनके आदर्शों एवं स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में उनके संदेशों को जन-जन तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे 1917 में स्थापित भारतीय महिला संघ की प्रथम अध्यक्ष चुनी गईं।  वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रथम निर्वाचित अध्यक्ष थीं। उन्होंने भारतीय महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्रदान करने की मांग की।



गांधी जी के प्रभाव के कारण महिलाओं ने सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यों में अपनी भूमिका को समझा। उन्होंने अपनी परंपरा एवं व्यक्तिगत धारणाओं से बाहर जा कर स्त्री- पुरुष संबंधों को यौन संबंधों से इतर स्वस्थ मानसिक धरातल पर नए सिरे से परिभाषित किया। गांधी ने स्त्रियों को सशक्त करने के लिए प्रयास किया एवं बाहरी दुनिया से उनका साक्षात्कार कराया। कई नारीवादी विदुषियों ने गांधी जी के विचार, उनकी रणनीति, प्रविधि एवं उनके परिणामों का अध्ययन किया है, जो मानती हैं कि गांधी जी ने तार्किक रूप से घर एवं बाहर की दुनिया का स्पष्ट विभाजन किया एवं स्त्रियों के लिए भूमिकाएं निर्धारित कीं। वह अपने समय के एकमात्र ऐसे नेता थे जिनके कार्य एवं विचार अपने समय से बहुत आगे थे। आखिर क्या वजह थी जिसके कारण स्वयं महिलाएं गांधी जी से प्रभावित होती थीं। इसका उत्तर हमें दक्षिण अफ्रीका में उनकी सहयोगी रही मिस ग्राहम पोलक के संस्मरणों से प्राप्त होता है जिसमें वह इस तथ्य को स्वीकार करती हैं कि गांधी के व्यक्तित्व में नारीत्व की अभिव्यक्ति थी जो उन्हें अन्य स्त्रियों से जोड़ती थी। वे लिखती हैं :

बहुत सी स्त्रियां पुरुषों में मौजूद मर्दाना गुणों के कारण उनकी तरफ आकार्षित होती हैं लेकिन महात्मा गांधी से स्त्रियों ने उनके स्त्रियोचित गुणों के कारण प्यार किया। वे सारे गुण जो स्त्रियों का स्वभाव माने जाते हैं जैसे: विश्वास, धैर्य, गहरा समर्पण, कोमलता, सहानुभूति इत्यादि। गांधी  अपने अंदर मौजूद उन गुणों से स्त्रियों के साथ बंधते थे। वे उनमें अपना विस्तार देखती थीं और अपने सहयात्री के रूप में उनसे अपने सुख-दु:ख बांटती थीं। वे उनके साथ भावनात्मक तौर पर जुड़ती थीं।[7]



गांधी जी को अपने अंदर मौजूद इन गुणों का अहसास था। वे इस बात को महसूस करते थे कि महिलाएं उनके अंदर अपना मित्र तलाशती थीं। वे उनसे मिलने ऐसे आती थीं, जैसे वे स्वयं से साक्षात्कार करने आ रही हों। संभवतः यही वजह थी कि उनकी पौत्री मनुबेन पटेल ने गांधी जी के ब्रह्मचर्य संबंधी उनके प्रयोगों में अपनी सहमति से उनका साथ दिया। उनके लिए वे माँ की तरह थे, हालांकि किसी पुरुष के लिए सामान्यतः यह संभव नहीं हो पाता कि वे माँ जैसे वात्सल्यपूर्ण हृदय से अपने बच्चों से प्रेम कर सके परंतु गांधी को ईश्वर ने यह अनमोल उपहार दिया था। उनके अतिरिक्त भी कई स्त्रियां थीं जो उनके साथ इसी प्रकार का भाव महसूस करती थीं। गांधी जी की सेवाग्राम आश्रम में सचिव रहीं राजकुमारी अमृत कौर के लिए वे सिर्फ नाम के बापू थे। उनसे मिलने के बाद भय और चिंताएं समाप्त हो जाती थीं, सिर्फ प्यार रह जाता था जो माँ का रूप था।[8]



गांधी जी के प्रति स्त्रियों के सम्मान की वजह यह भी थी कि उन्होंने अन्य धार्मिक संतों की तरह स्त्री जीवन के लिए निर्देश जारी नहीं किए और न ही धर्म के अनुसार आचरण करते हुए उन्हें घर के कार्यों तक सीमित रखा। सुधार आंदोलनों ने कभी भी पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था की संरचना को प्रश्नांकित नहीं किया था। उन्होंने समाज में स्त्रियों की स्थिति के लिए कुप्रथाओं को जिम्मेदार ठहराया। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि सुधार आंदोलन में पुरुषों ने अपनी दृष्टि से स्त्री प्रश्नों को व्याख्यायित किया और स्त्रियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण संरक्षण का भाव रखा। इन सभी मनोभावों के विपरीत गांधी जी ने सीधे स्त्रियों को संबोधित किया। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए गांधी ने इंडियन ओपिनियननामक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया जिसमें उन्होंने अफ्रीकी महिलाओं के संघर्ष पर लम्बा लेख लिखा। वे सिर्फ उन महिलाओं के संघर्ष को समर्थन ही नहीं दे रहे थे, बल्कि उनकी घरेलू जिंदगी को भी समझने का प्रयास कर रहे थे। वहाँ की महिलाएं उनसे पत्र द्वारा अपनी समस्याएं बतातीं। भारतीय पुरुषों द्वारा छले जाने की व्यथा कहतीं। गांधी हरसंभव उनकी सहायता करते, उन्हें परामर्श देते। यही प्रविधि उन्होंने भारतीय महिलाओं से संवाद के लिए भी चुनी। उन्होंने आधुनिकता के नाम पर न तो उन्हें घरेलू भूमिकाओं का परित्याग करने की सलाह दी और न ही अपनी तकलीफों को नजरंदाज करने की। उन्होंने आत्म-बलिदान एवं त्याग की भावना को भारतीय स्त्रियों के श्रेष्ठ गुणों के साथ जोड़ कर देखा।



गांधी जी ने पाश्चात्य देशों की स्त्रियों को सड़कों पर उतर कर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए देखा था। भारत में किसी ऐसी तस्वीर की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। 1909 में इंग्लैंड तथा अमेरिका की स्त्रियां अपने राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई सेफ्रजेट आंदोलन (मताधिकार आंदोलन) के जरिए लड़ रही थीं तब गांधी जी इंडियन ओपिनियन के माध्यम से उनके नैतिक और अदम्य साहस की दुनिया भर में सराहना कर रहे थे। जिस समय क्लारा जेटकिन तथा अलेक्जेंड्रा कोलंताई जैसी स्त्रियां न्यूयार्क की सड़कों पर कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए काम के घंटे कम करने, समान वेतन तथा बच्चों के लिए पालनाघर जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए एकजुट हो रही थीं उस समय 1909 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से लौटते हुए हिंद स्वराज की रचना कर रहे थे, जो स्वतंत्र भारत के भविष्य का घोषणा पत्र था।



1930 में जब गांधी जी नमक कानून तोड़ने के लिए दांडी मार्च पर निकलने वाले थे, उन्होंने 71 प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की टोली बनाई जिसमें स्त्रियों को शामिल नहीं किया गया। गांधी जी के इस निर्णय से महिला कार्यकर्ताओं में असंतोष पैदा हो गया। मार्ग्रेट कूजिंस ने अपनी पत्रिका स्त्री धर्म में इस निर्णय की आलोचना की। 1930 के दशक में पुरुषत्व की अवधारणा चिंतन में किस रूप में उभर रही थी, इसकी झलक हमें गांधी जी के उस वक्‍तव्‍य में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है जब वे नमक सत्याग्रह में स्त्रियों को शामिल न करने का तर्क यह कह कर देते हैं कि :



“जिस तरह हिंदू धर्म में गाय को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जाता, उसी प्रकार ब्रिटिश किसी भी स्थिति में स्त्रियों पर हमला नहीं करते हैं। जिस तरह हिंदुओं के लिए युद्ध के मैदान में गाय को ले जाना कायरता है उसी तरह इस आंदोलन में स्त्रियों को अपने साथ रखना कायरता की निशानी होगी”।[9] 


कमला देवी 



हालांकि राधा कुमार अपनी पुस्तक स्त्री संघर्ष का इतिहास में इस संबंध में टिप्पणी करती हैं कि दांडी मार्च से महिलाओं को बाहर रखने का निर्णय कांग्रेस कार्य समिति का था। कमला देवी को ख़बर मिली कि महात्मा गांधी डांडी यात्रा के ज़रीए 'नमक सत्याग्रह' की शुरुआत करेंगे जिसके बाद देश भर में समुद्र किनारे नमक बनाया जाएगा लेकिन इस आंदोलन से स्त्रियाँ दूर रहेंगी। अपनी आत्मकथा 'इनर रिसेस, आउटर स्पेसेस' में कमला देवी ने इस घटना की चर्चा करते हुए लिखा :



"मुझे लगा कि स्त्रियों की भागीदारी 'नमक सत्याग्रह' में होनी ही चाहिए और मैंने इस संबंध में सीधे महात्मा गांधी से बात करने का फ़ैसला किया।" [10]



वह उस वक्त सफ़र कर रहे थे। लिहाज़ा कमला देवी उस ट्रेन में पहुँच गईं जिसमें गांधी थे। ट्रेन में गांधी जी से उनकी मुलाक़ात छोटी थी लेकिन इतिहास बनने के लिए काफ़ी थी। पहले तो महात्मा गांधी ने उन्हें मनाने की कोशिश की लेकिन कमला देवी के तर्क सुनने के बाद उन्होंने 'नमक सत्याग्रह' में स्त्रियों और पुरुषों की बराबर की भागीदारी पर हामी भर दी। गांधी का यह फ़ैसला ऐतिहासिक था। इस फ़ैसले के बाद उन्होंने बंबई में 'नमक सत्याग्रह' का नेतृत्व करने के लिए सात सदस्यों वाली टीम बनाई। इस टीम में कमला देवी और अवंतिका बाई गोखले शामिल थीं। उनके इस निर्णय से आज़ादी के आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी। पूरी दुनिया ने देखा कि स्त्रियों ने कंधे से कंधा मिला कर नमक क़ानून तोड़ा। इस एक कदम से भारतीय राजनीति में स्त्रियों की भूमिका बदल गई। इस आंदोलन की सबसे खास बात यह थी कि स्त्रियाँ स्वयं अपने घरों से निकल कर आई थीं और नमक सत्याग्रह का हिस्सा बन रही थीं। मुंबई की धनाढ्य स्त्रियाँ सुदूर समुद्र किनारे नमक बना रही थीं। वहीं, गांव की स्त्री भी अपने गांव की मिट्टी से नमक बना रही थी। नमक हिंदुस्तानी स्त्री के रसोईघर की पहली जरूरत थी इसलिए हिंदुस्तान के हर तबके, हर वर्ग, हर जाति और संप्रदाय की स्त्री ने नमक बनाया। अपना नमक, अपने लिए नमक...।



स्त्रियों के उत्साह और सहभागिता की जानकारी देते हुए सरोजनी नायडू ने बापू को बताया कि भारत की स्त्रियाँ भी अब हमारी सेना में शामिल हो गई हैं। कहीं भी किसी भी इलाके में उनके नेता गिरफ्तार होते, वह उसे शोक दिवस के रूप में मनाती थीं। वे गांधी के इस महान लक्ष्य के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थीं। ऐसा हिंदुस्तान में पहले कभी नहीं हुआ था। स्त्रियाँ गांधी के आंदोलन के लिए चंदा इकट्ठा कर रही थीं। यह स्त्रियाँ भारत की शक्ति थी जो खुशी-खुशी जेल जा रही थीं। उन स्त्रियों में जवाहर लाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू, उनकी बहन कृष्णा, विजयालक्ष्मी पंडित, सुचेता कृपलानी, राजकुमारी अमृत कौर, सुशीला नैयर और प्रभावती देवी जैसी स्त्रियों के साथ-साथ आम घरों की साधारण स्त्रियाँ भी थीं, जो कभी पर्दे से बाहर नहीं निकलीं थीं।


राजकुमारी अमृत कौर 



राजनीतिक अस्त्र के रूप में चरखा और नमक आंदोलन को गांधी जी ने ध्यानपूर्वक रचा बुना था। घरों में रहते हुए स्त्रियां स्वतंत्रता आंदोलन की सहयोगी के रूप में खादी कातने और बुनने का कार्य सुगमतापूर्वक कर सकती थीं। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन, अस्पृश्यता निवारण आंदोलन जैसे सभी आंदोलनों में महिलाओं ने बापू का साथ दिया। वे महिलाएं जो आंदोलन में सक्रियता से भाग नहीं ले पा रही थीं उन्होंने स्वदेशीके विचार को प्रचारित-प्रसारित करने में अपनी भूमिका निभाई। उन्होंने कई आश्रमों में खादी की कताई-बुनाई का प्रशिक्षण देने का भी कार्य किया। किसी भी जन सभा में पाँच हजार की भीड़ में दो हज़ार स्त्रियां हुआ करती थीं। सिर्फ विजयालक्षमी पंडित, स्वरूप रानी या कमला नेहरु ही सभाओं को संबोधित नहीं कर रही थीं बल्कि साधारण घरों की स्त्रियों ने भी कमान संभाल रखी थी। परंपरागत सामाजिक संरचनाओं को चुनौती दिए बिना गांधी जी ने महिलाओं को अपनी मुहिम में शामिल किया। मुस्लिम महिलाओं ने भी राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी उपस्थिति दर्ज की। बी अमन, बेगम मोहम्मद अली, बेगम हसरत मोहानी तथा अब्दुल कदीर जैसी युवतियों ने कम संख्या में ही सही पर उन दुकानों के सामने धरना प्रदर्शन किया जिसके मालिक मुसलमान थे और जहाँ जाने से हिंदू स्त्रियां कतराती थीं। उन्होंने बुरकाको भी राष्ट्रीय आंदोलन का मुद्दा बनाया। जो हिंदुओं के पर्दा प्रथा की तरह ही भयावह था।



परदा प्रथा के पीछे स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा की बहुप्रचारित अवधारणा के खोखलेपन और व्यर्थता पर प्रकाश डालते हुए गांधी जी अपना मंतव्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि पवित्रता स्त्रियों को बाहरी मर्यादाओं में जकड़ कर रख कर उत्पन्न होने वाली चीज नहीं है। उसकी रक्षा उन्हें परदे की दीवार से घेर कर नहीं की जा सकती। उसकी उत्पति और उसका विकास भीतर से होना चाहिए और उसकी कसौटी यह है कि वह पवित्रता किसी भी प्रलोभन से डिगे नहीं। इस कसौटी पर वह खरी सिद्ध हो, तभी उसका कोई मूल्य माना जा सकता है। गांधी जी के अनुसार, स्त्रियों की पवित्रता के प्रश्न पर पुरूषों का चिंतित होना उनके मानसिक अस्वास्थ्य का द्योतक है। क्या पुरूषों की पवित्रता के विषय में स्त्रियों को कुछ कहने का अधिकार है? पुरूषों के शील की पवित्रता के विषय में हम स्त्रियों को तो कोई चिंता करते हुए नहीं सुनते। स्त्रियों के शील की पवित्रता के नियमन का अधिकार अपने हाथों में लेने की इच्छा पुरूषों को क्यों करनी चाहिए? पवित्रता कोई ऐसी चीज नहीं है, जो ऊपर से लादी जा सके। वह तो भीतर से विकसित होने वाली और वैयक्तिक प्रयत्न से सिद्ध होने वाली चीज है। 1919 में ताज साहिबा लाहौरी ने मुस्लिम महिलाओं से भी खादी बुनने का आग्रह करते हुए कहा कि :



मेरी दोस्तों से मेरी अपील है कि वे चरखे को अपने घर में जगह दें। पूरे हिंदुस्तान की औरतें चरखा चला रही हैं। सबके घर में रोजमर्रे की जरुरतों की तरह चरखा चलाया जा रहा है। हिंदू औरतें पूरे समर्पण भाव से चरखा चला रही हैं। फिर हम ये काम क्यों नहीं कर सकते? मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतजार है जब हिंदुस्तान के हर घर से चरखे की आवाज़ आएगी। हम बहादुर औरतें एक दिन गरीब लोगों के तन ढकने की ख्वाहिश पूरी कर सकेंगी!!! [11]



मोरे चरखा के टूटे न तार, चरखवा चालू रहे। गान्ही बाबा बनलै दुलहवा, अरे दुल्हिन बनी सरकार, चरखवा चालू रहेजैसे लोक गीतों में इन प्रतीकों के प्रति सामाजिक लगाव का भाव पैदा होने लगा।



“कातब चरखा, सजन तुहु कात,

मिलही एहि से सुरजवा न हो,

पिया मत जा पुरूबवा के देसवा न हो”।



उस समय जब मजदूर पूरब देस यानी कोलकाता, रंगून कमाने जाते थे तो उनकी पत्नियां मना करते हुए कह रही हैं कि परदेस क्या करने जाना है...। घर में ही रह कर चरखा चलाओ, हम भी चलाएंगे, गांधी जी कह रहे हैं कि इससे कमाई भी होगी, सुराज भी आएगा ।



अपने हाथे चरखा चलउबै, हमार कोउ का करिहैं

गांधी  बाबा से लगन लगउबै, हमार कोउ का करिहैं

सासू  ननद चाहे मारैं गरियावैं

चरखा कातब नाहीं छोड़बै, हमार कोउ का करिहैं



इस गाने में एक गांव की स्त्री कहती है कि अपने हाथ से चरखा चलाउंगी, गांधी बाबा से लगन लगाऊंगी, सास-ननद चाहे गाली दें, चरखा कातना नहीं छोडूंगी।[12]



इसके साथ ही, मातृत्व की अवधारणा को भी इस राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने विस्तार दिया गया। सभ्यता एवं संस्कृति की पोषणकर्ता के रूप में अपनी भूमिकाएं निभाने वाली भारतीय माँओं को सभ्यता की रक्षकका दायित्व दिया गया। राष्ट्रीय नेताओं ने मातृभूमि के महत्व को समझा और उसे हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक विस्तारित किया। यह मातृभूमि भारत माता का पर्याय बन गई। इस विचार ने माँ के रूप में राष्ट्र के प्रति स्त्री के दायित्वों तथा कर्तव्यों को रेखांकित किया। भारत माता की संकल्पना में भारत माँ के सभी बच्चे शामिल थे। यह माँ खतरे में थी और उसे अपने सपूतों की आवश्यकता थी। भारत माता के इस विचार को दोहरे स्तर पर परोसा गया। पहला, माँ के रूप में भारतीय स्त्रियों की राष्ट्र के प्रति भूमिका निर्धारित करके और दूसरा हिंदू माँ की एकमात्र छवि निर्मित करके राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को इससे जोड़ने की एक सूत्रीय मुहिम चलाई गई ।[13]



गांधी जी ने महिलाओं की शिक्षा को पर्याप्त महत्त्व दिया, किन्तु वे जानते थे कि अकेले शिक्षा से ही राष्ट्र के निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जा सकते। वे महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों की मुक्ति के लिए समुचित कार्यवाही के पक्षधर थे। शिक्षा के बारे में उनके विचार अनेक समकालीनों से भिन्न थे और शिक्षा उनके ग्राम पुनर्निर्माण तथा उसके माध्यम से राष्ट्र पुएनर्निर्माण का एक हिस्सा थी। उन्होंने एक बार कहा था कि महिलाओं की शिक्षा मात्र ही पर्याप्त नहीं है, हमारी समूची शिक्षा-प्रणाली विगलित है। यंग इन्डिया में लिखे गांधी जी के एक लेख से पता चलता है कि उन्हें निरक्षरता, स्कूल सुविधाओं का अभाव, भू-स्वामियों के शोषण का शिकार होने और ऐसी ही अन्य सामाजिक आर्थिक अक्षमताओं की कितनी जानकारी थी, जिनका सामना ग्रामीण महिलाओं को करना पड़ता था। उन्होंने लिखा कि जरूरी यह है कि शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त किया जाये और उसे व्यापक जनसमुदाय को ध्यान में रखकर तय किया जाए। भारत में जो गिनी-चुनी शिक्षित महिलाएँ हैं, उन्हें पश्चिमी ऊँचाइयों से नीचे उतरकर देश के मैदानों में आना होगा। उनकी उपेक्षा के लिए निश्चय ही पुरुष जिम्मेदार है, उन्होंने महिलाओं का अनुचित इस्तेमाल किया है किन्तु जो महिलाएँ अन्धविश्वासों से उपर उठ चुकी हैं, उन्हें सुधार के लिए रचनात्मक कार्य करने होंगे। गांधी जी के अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो लड़के-लड़कियों को स्वयं के प्रति अधिक उत्तरदायी बना सके और एक-दूसरे के प्रति अधिक सम्मान की भावना पैदा कर सके। महिलाओं को सलाह है कि वे सभी अवांछित और अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह करें। इस तरह के विद्रोह से क्षति होने की आशा नहीं है 



दूसरी तरफ गांधी जी की मान्यता थी कि स्त्री-पुरूष समान दरजे के हैं, इसके बावजूद उनकी विशिष्टता बरकरार है। अतः स्त्रियों की शिक्षा के संदर्भ में इसे नजरंदाज नहीं जा सकता। उनके शब्दों में, ‘‘स्त्री पुरूष समान दर्जें के हैं, परन्तु एक नहीं, उनकी अनोखी जोड़ी है। वे एक दूसरे की कमी पूरी करनेवाले हैं और दोनों एक-दूसरे का सहारा हैं। पुरूष या स्त्री कोई एक अपनी जगह से गिर जाय तो दोनों का नाश हो जाता है। इसलिए स्त्री-शिक्षा की योजना बनाने वालों को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए। गृहस्थी के बाहरी दुनिया में पुरूष सर्वोपरि है। बाहरी कार्यो का विशेष ज्ञान उसके लिए जरूरी है। भीतरी कार्यों में स्त्री की प्रधानता है। इसलिए गृह-व्यवस्था, बच्चों की देखभाल, शिक्षा इत्यादि के बारे में स्त्री को विशेष ज्ञान होना चाहिए। यहाँ किसी को कोई भी ज्ञान प्राप्त करने से रोकने की कल्पना नहीं है। किंतु शिक्षा का क्रम इन विचारों को ध्यान में रख कर न बनाया गया हो तो स्त्री-पुरूष दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त करने का मौका नहीं मिलता। गांधी जी कहते हैं कि मुझे ऐसा लगा है कि हमारी मामूली पढ़ाई में स्त्री या पुरूष किसी के लिए भी अंग्रेजी जरूरी नहीं है। कमाई के खातिर या राजनीतिक कामों के लिए ही पुरूषों को अंग्रेजी भाषा जानने की जरूरत हो सकती है। मैं नहीं मानता कि स्त्रियों को नौकरी ढूँढ़ने या व्यापार करने के झंझट में पड़ना चाहिए। इस   लिए अंग्रेजी भाषा थोड़ी ही स्त्रियां सीखेंगी और जिन्हें सीखना होगा, वे पुरूषों के लिए खोली हुई शालाओं में ही सीख सकेंगी। स्त्रियों के लिए खोली हुई शाला में अंग्रेजी जारी करना हमारी गुलामी की उमर बढ़ाने का कारण बन जाएगा। यह वाक्य मैंने बहुतों के मुंह से सुना है और बहुत जगह सुना है कि अंग्रेजी भाषा में भरा हुआ खजाना पुरूषों की तरह स्त्रियों को भी मिलना चाहिए। मैं नम्रता के साथ कहना चाहूंगा कि इसमें कहीं-न-कहीं भूल है। यह तो कोई नहीं कहता कि पुरूषों को अंग्रेजी का खजाना दिया जाय और स्त्रियों को न दिया जाय”।



शिक्षा के मामले में स्त्रियों को भी पुरूषों के समान अवसर किए जाने की वकालत करने के बावजूद गांधी जी इसे लेकर स्त्री-पुरूषों के बीच अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा अथवा अंधानुकरण की प्रवृत्ति को उचित नहीं मानते थे। वे कहते हैं कि मैं स्त्रियों की समुचित शिक्षा का हिमायती हूँ, लेकिन मैं यह नहीं मानता हूँ कि स्त्री दुनिया की प्रगति में अपना योग पुरूष की नकल करके अथवा उसकी स्पर्द्धा करके ही दे सकती है। वह चाहे तो प्रतिस्पर्धा कर सकती है लेकिन पुरूष की नकल करके वह उस ऊँचाई तक नहीं उठ सकतीं, जिस ऊँचाई तक उठना उसके लिए संभव है। उसे पुरूष की पूरक बनना चाहिए।



गांधीजी का मानना था कि हमारे कानून-निर्माताओं और शास्त्रकारों ने स्त्रियों के प्रति न्याय नहीं किया है। वे कहते हैं :



कानून की रचना ज्यादातर पुरूषों के द्वारा हुई है और इस काम को करने में जिसे करने का जिम्मा मनुष्य ने अपने ऊपर खुद ही उठा लिया है, उसने हमेशा न्याय और विवेक का पालन नहीं किया है। स्त्रियों में नए जीवन का संचार करने के हमारे प्रयत्न का अधिकांश भाग उन दूषणों को दूर करने में खर्च होना चाहिए, जिनका हमारे शास्त्रों ने स्त्रियों के जन्मजात और अनिवार्य लक्षण कहकर वर्णन किया है।



गांधीजी स्त्रियों को जीवन के व्यावहारिक सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में पुरूषों के समान ही सक्रिय तथा प्रभावी देखना चाहते थे, बिल्कुल अपने नैसगिक गुणों के आधार पर। गांधी मानते थे कि स्त्री-पुरूष की साथिन है, जिसकी बौद्धिक क्षमताएं पुरूष की बौद्धिक क्षमताओं से किसी तरह कम नहीं है। पुरूष की प्रवृत्तिओं में, उन प्रवृत्तियों के प्रत्येक अंग और उपांग में भाग लेने का उसे अधिकार है और आजादी तथा स्वाधीनता का उसे उतना ही अधिकार है, जितना पुरूष को है। जिस तरह पुरूष अपनी प्रवृत्ति में सर्वोच्च स्थान का अधिकारी माना गया हैं, उसी तरह स्त्री भी अपनी प्रवृत्ति के क्षेत्र में मानी जानी चाहिए। स्त्रियां पढ़ना-लिखना सीखें और उसके परिणामस्वरूप यह स्थिति आए ऐसा नहीं होना चाहिए। यह तो हमारी सामाजिक व्यवस्था की सहज अवस्था ही होनी चाहिए। महज एक दूषित रूढ़ि और रिवाज के कारण बिल्कुल ही मूर्ख और नालायक पुरूष भी स्त्रियों से बड़े माने जाते हैं, यद्यपि वे इस बड़प्पन के पात्र नहीं होते और न वह उन्हें इतना सम्मान मिलना चाहिए। हमारे कई आंदोलनों की प्रगति हमारे स्त्री-समाज की पिछड़ी हुई हालत के कारण बीच में ही रूक जाती है। इसी तरह हमारे किए हुए काम का जैसा और जितना फल आना चाहिए, वैसा और उतना नहीं आता। गांधी जी स्त्री को जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में सभी प्रकार की स्वतंत्रता एवं समानता का अधिकार दिए जाने की वकालत करते हैं।

 

विनोबा भावे




विनोबा का स्त्री चिंतन

स्त्री मुक्ति के संदर्भ में विनोबा की दृष्टि क्रांतिकारी है। वह मानते हैं कि स्त्री-मुक्ति तभी संभव है, जब स्त्रियों में कोई शंकराचार्य पैदा हो। अर्थात् शंकराचार्य के समान प्रखर वैराग्य-संपन्न और ज्ञानी स्त्री ही स्त्री-मुक्ति का ध्वजावाहक हो सकती है। वे ऐसी स्त्रियों से बगावत की अपील करते हैं। यहां वे बगावतशब्द का प्रयोग भी विशिष्ट अर्थ में करते हैं। वे कहते हैं कि बगावत करने की वृत्ति को अविनयशील मानने की जरूरत नहीं। बगावत की वृत्ति और विनयशीलता में कोई विरोध नहीं है। विनयशीलता से तो बगावत बलवान बनती है। समझ-बूझ कर और उचित समझ कर किसी उचित आज्ञा को मानना विनयशीलता है। अनुचित आज्ञा को न मानना बगावत है और वह विनयपूर्वक हो सकती है। इसी प्रकार स्त्री-शक्ति के लिए विनोबा ब्रह्मविद्या को आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार,



“स्त्रियों के सामाजिक, कौटुम्बिक, राजनैतिक अधिकार और कर्त्तव्य वे ही हैं, जो पुरूषों के हैं। दोनों में एक ही मानव-आत्मा है, इसलिए बाह्य भेद दिखाई देने पर भी उनको महत्व देने की जरूरत नहीं। दोनों में जो ब्रह्म भेद है, उसके कारण दोनों के कार्यक्षेत्र में कुछ थोड़ा फर्क होना स्वाभाविक है, लेकिन उतने आधार पर उस भेदभाव को ठीक नहीं कहा जा सकता जो आज समाज में मौजूद है”।[14]



समाज में चिंतन की जो परिपाटी है, उसमें स्त्री और पुरूष को अलग-अलग रूप में अलग-अलग गुण-प्रकृति वाला जाना जाता है। इसी आधार पर दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग माने गए हैं। भर्त्ता यानि पति, पत्नी का उत्तम पालन-पोषण करता है, और भार्या आज्ञाकारिणी और पति के कहने के अनुसार करनेवाली बनी रहती हैं, इस प्रकार दोनों अपने अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं, तब भी दोनों का पूर्ण विकास हुआ, यह नहीं कहा जाएगा। पति को पत्नी और पत्नी को पति बनना पड़ेगा, अर्थात भूमिकाओं का मानासिक स्तर पर बदलाव आवश्यक है। तभी दोनों का पूर्ण विकास होगा। इस प्रकार स्त्री-पुरूष को लेकर समाज में प्रचलित भेदभाव से परे विनोबा दोनों को समान मानते हैं। स्त्री-पुरूष समानता को विनोबा भारत की प्राचीन मान्यता मानते हैं। उनके अनुसार,



हमारे शास्त्रों के अनुसार स्त्री और पुरूष दोनों की आध्यात्मिक योग्यता समान है। हम भगवान का नाम लेते वक्त सीतारामकहते हैं, इसलिए कि हम स्त्री-पुरूष समता को मानते हैं इसीलिए हमारे देश में स्त्रियों को वोट का अधिकार प्राप्त करने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ा। इंग्लैण्ड में तो इसके लिए स्त्रियों को आंदोलन करना पड़ा। यहां तो स्त्री-पुरूष में समता प्राचीनकाल से कम-से-कम तत्वतः (विचार से) तो मानी गई हैं, यद्यपि आचार में अभी नहीं है और उसमें सुधार की जरूरत है। यहां की हवा में आध्यात्मिक अधिकार समान होने की बात प्राचीन काल से हैं, प्राचीन काल में वह आचार में भी थी”।[15]



विनोबा स्त्रियों को स्वरक्षित और आत्मबल से परिपूर्ण देखना चाहते हैं। वे कहते हैं कि :



‘‘सदियों से माना गया है कि स्त्रियों की रक्षा का भार पुरूषों पर है। जब तक यह भावना, यह मान्यता कायम रहेगी तब तक सही अर्थ में स्त्रियों की रक्षा होना असम्भव है वास्तव में, स्त्री को रक्षा की जरूरत है, यह मानना ही गलत है। फिर भी वैसा माना गया, क्योंकि उसके पास हिंसा के पर्याप्त साधन नहीं है। हिंसा के क्षेत्र में स्त्री, पुरूष की अपेक्षा कमजोर पड़ जाती है। इसलिए वह रक्षित हो गई पुरूषों के द्वारा रक्षित: किसी ने यह नहीं सोचा कि वह स्वरक्षित हो! वह रक्ष्य ही समझी गई। परन्तु आज की परिस्थिति हमें साफ दिखा रही है कि हमें अब हिंसा की नहीं, अहिंसा की प्रतिष्ठा स्थापित करनी होगी अहिंसक समाज में स्त्री रक्ष्य नहीं रहेगी, स्वरक्षित होगी।[16]



वे स्त्रियों को आत्मबल की दृष्टि से दृढ़ देखना चाहते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा के बल पर स्त्री हर परिस्थिति में अपनी रक्षा करने में समर्थ है। शरीर बल पर निर्भर रहने के बजाय आत्मा के बल पर जीने की कला हम सभी को सीख लेनी चाहिए। सीता में इस बल की विद्यमानता और प्रभाव का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि :



रामायण में हम सीता जी का वर्णन पढ़ते हैं, रावण उनसे शरारत भरी बातें करता था। वे उससे बोलती भी नहीं थी। केवल एकबार बोलीं, वह भी घास का एक तिनका बीच में रख कर उसके द्वारा उन्होंने यह बताना चाहा कि कि हे रावण, मैं तुझे घास के इस तिनके के समान मानती हूँ। रावण उनका कुछ बिगाड़ नहीं सका। सीता का उदाहरण असाधारण हैं, ऐसा नहीं मानना चाहिए। ऐसा होता तो इस तरह की मिसाल हमारे सामने क्यों रखी जाती? प्रधानमंत्री हर कोई नहीं बन सकता, लेकिन सीता तो हर कोई बन सकती है, क्योंकि वह आत्मा का विषय है। आत्मा के बल पर रहलेवाले व्यक्ति की आँखों में जो निर्भयता का तेज होता है, वह दूसरे को प्रभावित किए बिना नहीं रहता। पशु तक आँख के उस तेज को पहचान लेते हैं। [17]



विनोबा मानते हैं कि स्त्रियों में इस आत्मशक्ति की कोई कमी नहीं है। परन्तु उसे प्रकट करने के लिए जीवन को उसके अनुकूल बनाना होगा। खाने के लिए जीना नहीं होगा, जीने के लिए खाना होगा। ब्रह्मचर्य को विनोबा भारतीय संस्कृति का एक खास विषय मानते हैं। विनोबा कहते हैं कि हिन्दुस्तान में ब्रह्मचर्य के बारे में जितना आदर और गहरा चिंतन मिलता है, उतना अन्यत्र नहीं। ब्रह्मचर्य में हमारे सामने निगेटिव बात नहीं रखी गई है, बल्कि पॉजीटिव बात ही रखी गई है। ब्रह्मचर्य की साधना का अर्थ है सर्वाधिक विशाल ध्येय अर्थात् ब्रह्म के यानी परमात्मा के साक्षात्कार का ध्येय सामने रख कर उस खोज में अपना जीवन क्रम रखना। किसी अन्य विशाल ध्येय के लिए भी ब्रह्मचर्य की साधना की जा सकती है। जैसे भीष्म ने किया। भीष्म ने पिता के लिए ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा की थी और जिंदगी भर उसका अच्छी तरह पालन किया। गांधी जी ने भी समाज की सेवा के लिए ब्रह्मचर्य का आरंभ किया। ब्रह्मचर्य का विनोबा एक विशिष्ट अर्थ प्रतिपादित करते हैं। वे लिखते हैं- ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ एक इन्द्रिय का निग्रह, इतना ही माना जाय, तो खतरा पैदा होगा ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों पर काबू पाना। विनोबा स्त्रियों के संदर्भ में ब्रह्मचर्य की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं :



 मेरी बहुत इच्छा है कि जवान लड़के-लड़कियां खास करके लड़कियां ब्रह्मविद्या के दर्शन कि लिए आगे आएं। ब्रह्मविद्या में स्त्री-पुरूष भेद नहीं है। वह विद्या स्त्री-पुरूष भेदों को मिटाती है। फिर भी अभी मैं इस काम के लिए बहनों की ओर आशा लगाए बैठा हूँ। स्त्रियों को मेरा खास संदेश है कि ज्ञान के क्षेत्र में वे सर्वश्रेष्ठ बनें। अखण्ड ज्ञान की लालसा रखें। ज्ञान की तृष्णा कभी नष्ट न होने दें। ज्ञान की उपासना से ही आप दुनिया को जीत सकते हैं। सरस्वती की तेजस्विता आएगी, तब बहनों में आक्रमणकारी शक्ति आएगी”।[18]



विनोबा कहते हैं कि जब कभी मेरे सामने प्रश्न आया कि आखिर समाज-क्रांति कौन करेगी, तब मुझे यही लगा कि पुरूषों से दो कदम आगे बढ़ कर स्त्रियां ही यह काम कर सकती है। इन दिनों लोग कहते हैं कि बहनों को आगे आना चाहिए। मैं भी यही कहता हूँ। लेकिन दूसरे अर्थ में कहता हूँ। केवल ब्रह्म विद्या का आधार ले कर बहनों को आगे आना चाहिए।



विनोबा पुरूषों के साथ स्त्रियों की स्थूल समानता के पक्षधर नहीं थे। वे स्त्रियों को उनकी अपनी विशिष्ट शरीर-मनेारचना के आधार पर विशिष्ट अर्थ में ही पुरूषों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने को कहते हैं। उनके अनुसार, यह विशिष्ट क्षेत्र करूणा का ही हो सकता है और करूणा के क्षेत्र में, विनोबा की दृष्टि में, स्त्रियां पुरूषों से काफी आगे जा सकती हैं। अहिंसा में स्त्रियां पुरूषों की बराबरी कर सकती हैं, बल्कि आगे जा सकती है इसलिए यह जरूरी है कि स्त्रियां अपने ढंग से आगे आएं। स्त्रियों का यह ढंग है करूणा का ढंग।



धर्म अथवा पंथ के नाम पर लोगों में विभेद पैदा करने की प्रवृत्ति को विनोबा निन्दनीय मानते हैं। यह प्रकृति ईश्वरीय विधान के भी विपरीत है। वे कहते हैं कि ईश्वर यह कभी नहीं चाहेगा कि हम अलग हों। इसलिए हमें ऐसा धर्म नहीं चाहिए, जो मानव के बीच दीवार बन कर आता है। हमें अध्यात्म चाहिए, जो सबको जोड़ता है। आज जब विज्ञान के जमाने में सारी दुनिया नजदीक आ रही है और हम सारी दुनिया को एक करने की बात करते हैं तब ये सारे पंथ तोड़नेवाले साबित हुए हैं इसलिए इन पंथों को खतम कर उनकी जगह अध्यात्म को लाना है। विनोबा मानते हैं कि स्त्रियों पर धर्म का प्रभुत्व अधिक होता है। उनमें एक प्रकार की भक्ति होती है और इसलिए बहुत-सारी बातें वे बिना समझे मान्य कर लेती हैं। इस चीज का मैं हटाना चाहता हूँ और केवल आध्यात्मिक शक्ति ही विकसित हो, ऐसा चाहता हूँ। इस प्रकार, सामाजिक परिवर्तन में विनोबा स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका देखते हैं। उनके अनुसार स्त्रियों की शक्ति समाज-परिवर्तन के काम में लगनी चाहिए। उसके लिए समाज में नए मूल्य विकसित करने होंगे। समाज की शील-रक्षा, शांति-रक्षा, सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा बहनों द्वारा ही हो पाएगी। बाकी जो मामूली सेवा के काम हैं, वे तो दुनिया में अखण्ड चलते रहेंगे। स्त्रियों की शक्ति क्रांति के काम में लगनी चाहिए। अहिंसक समाज-रचना की स्थापना में बहनों का बहुत बड़ा सहयोग मिल सकता है।



कृत्रिम उपायों से परिवार नियोजन को विनोबा वांछनीय नहीं मानते। इसे वे मातृत्व की विडम्बना कहते हैं :



‘‘कृत्रिम साधनों से परिवार-नियोजन करने में मैं अपने देश का कल्याण नहीं देखता। मैं मानता हूँ कि इसमें आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की हार है। मैंने एक सूत्र बनाया है। पृथ्वी को पाप का भार होता है, संख्या का नहीं। संतान पाप से बढ़ सकती है, पुण्य से भी बढ़ सकती है। संतान पाप से घट सकती है, पुण्य से भी घट सकती है। पुण्यमार्ग से संतान बढ़ेगी, तो पृथ्वी को भार नहीं होगा। पुण्यमार्ग से संतान घटेगी तो नुकसान नहीं होगा। पाप मार्ग से संतान बढ़ेगी तो पृथ्वी पर भार होगा और पाप मार्ग से संतान घटेगी तो नुकसान होगा। यह मेरा अपना एक विचार होगा। इसलिए संतति-निरोध के जो कृत्रिम उपाय चलते हैं, उनको मैं मातृत्व की विडम्बना कहता हूँ”।[19]


मार्ग्रेट सेंगर



जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर मार्ग्रेट सेंगर के साथ जो इस आंदोलन की प्रणेता थीं, गांधी जी की भी कई असहमतियां थीं जो हमारे ऐतिहासिक दस्तावेजों में दर्ज है। मार्ग्रेट गांधी जी को अपने तर्कों से सहमत करने में विफल रहीं। वे गर्भ निरोधक उपायों को गर्भ नियंत्रण की तकनीक के रूप में पेश कर रही थीं जबकि महात्मा गांधी यह मानते थे कि पुरुषों और महिलाओं दोनों को आत्मसंयम का पालन करना चाहिए और केवल संतानोत्पत्ति के लिए ही यौन संबंध बनाना चाहिए। वे कहते हैं कि :



मुझे लगता है कि यह मानना ​​अज्ञानता की पराकाष्ठा है कि यौन क्रिया एक स्वतंत्र कार्य है, जो सोने या खाने की तरह आवश्यक है। संसार अपने अस्तित्व के लिए पीढ़ी पर निर्भर करता है। दुनिया भगवान के खेल का मैदान और उनकी महिमा का प्रतिबिंब है। दुनिया के विकास के लिए प्रत्येक पीढ़ी को स्वयं को नियंत्रित करना चाहिए। जो इसे समझ लेता है वह किसी भी कीमत पर अपनी वासना को वश में कर लेता है,अपनी संतान के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए आवश्यक ज्ञान से स्वयं को सुसज्जित कर लेता है और भावी पीढ़ी को उस ज्ञान का लाभ देता है”।[20]



महिला आंदोलन के विरोध के बावजूद महात्मा गांधी ने जन्म नियंत्रण गर्भ निरोधकों का विरोध किया। इसका मतलब यह नहीं है कि बार-बार बच्चा पैदा करने वाली महिलाओं की पीड़ा के प्रति उनमें सहानुभूति नहीं थी लेकिन क्योंकि वे उन्हें जीवन के उच्च मार्ग की ओर निर्देशित करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि जननांगों का उपयोग केवल प्रजनन के लिए किया जाना चाहिए अन्य किसी भी तरह का उपयोग इसका दुरुपयोग है। आत्मनियंत्रित रहना स्त्री और पुरुष दोनों का कर्तव्य है जो संतति निरोध का सबसे उपयुक्त विकल्प है। यंग इंडिया में वह लिखते हैं :



जन्म-नियंत्रण प्रविधि की आवश्यकता के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती। लेकिन युगों से चली आ रही एकमात्र विधि आत्म-नियंत्रण या ब्रह्मचर्य है। यह एक अचूक, संप्रभु उपाय है जो उन लोगों का भला करता है जो इसका अभ्यास करते हैं। पुरुष मानव जाति का आभार हासिल करेंगे, यदि वे जन्म-नियंत्रण के कृत्रिम साधनों को ईजाद करने के बजाय आत्म-नियंत्रण के साधनों का पता लगा लेंगे। कृत्रिम तरीके पाप के समान हैं। वे स्त्री और पुरुष को लापरवाह बनाते हैं। इन तरीकों को अनावश्यक सम्मान दिया जा रहा है, उसे रोका जाना चाहिए। कृत्रिम तरीकों को अपनाने से मूढ़ता और स्नायविक शिथिलता का परिणाम प्राप्त होगा। यह कृत्रिम उपाय किसी रोग से अधिक भयावह होगा[21]



परिवार में स्त्रियां जो काम करती है, उनका मूल्यांकन आर्थिक दृष्टि से करना उचित नहीं होगा। विनोबा मानते हैं कि मां के रूप में उसके द्वारा परिवार की गई सेवा में सर्वोदय की भावना निहित होती है। माता अपने बच्चे की सेवा रात दिन करती है, यद्यपि उस सेवा करने में उसे कष्ट सहने पड़े हैं, वे कष्ट उसे मालूम नहीं हुए। अपने पास कम खाना है, तो वह पहले बच्चे को खिलाएगी, खुद भूखी रहेगी, फिर भी वह आंतरिक सुख अनुभव करेगी। यही माता का मातृत्व है। इसका मतलब यह हुआ कि माता की वह भावना बच्चों के साथ सर्वोदय की भावना है। निःसंदेह उसकी भावना अपने बच्चे तक ही मर्यादित है, इसलिए उसकी सर्वोदय भावना भी मर्यादित है।



विनोबा कहते हैं कि :

जहाँ तक स्त्रियों की शिक्षा का सवाल है, उसमें अध्यात्म ज्ञान पहले दिया जाए। शिक्षा में लड़के-लड़कियों के पाठ्य विषयों में कई को विनोबा अनुचित मानते हैं। आज लड़के लड़कियों की अभिरूचि और शालेय-विषयों के चुनाव में जो फर्क दिखाई देता है, उसका कारण है सामाजिक उपाधियां। रसोई, सीना-पिरोना इत्यादि विषय लड़कियों को अधिक पसंद होते हैं, ऐसा कहना गौण ही हैं। मैंने ऐसी कई लड़कियाँ देखी हैं, जिनको गणित में रूचि है और रसोई बनाने का शौक रखने वाला पुरूष तो मैं खुद ही हूँ।आज के कृत्रिम वातावरण को यदि हटा दे और बेमतलब के निष्क्रिय बौद्धिक विषयों की पढ़ाई बंद कर दी जाय, तो मेरे समान सभी को सब विषय उनके अपने लगेंगे और पढ़ाई में स्त्री-पुरूष का भेद भी नहीं रहेगा।[22]



विनोबा मानते थे कि स्त्रियों में पुरूषों के मुकाबले अधिक एकाग्रता होती है। इसे वे एक कुदरती देन मानते हैं। ऐसे काम, जिसमें अधिक एकाग्रता की जरूरत हो, स्त्रियां कुशलतापूर्वक कर सकती हैं। इसलिए उनका कहना था कि स्त्रियों को वे सारे क्षेत्रों का दायित्व अपने हाथ में लेना चाहिए, जो सांस्कृतिक माने जाते हैं। साहित्य, तालीम, धर्म का आयोजन आदि क्षेत्रों में स्त्रियों को स्थान मिलना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्त्रियों को विशेष काम यह करना चाहिए कि वे आश्रमों की रचना करें। गांधी जी, श्री अरविंद आदि ने आश्रम खोले, जिनमें स्त्री-पुरूष दोनों रहते थे। परन्तु किसी स्त्री ने ऐसा आश्रम नहीं खोली, जिसमें दोनो रहते हों। देश पर असर डालने के काम को स्त्रियां उठाएंगी, तो बहुत बड़ा काम होगा। उनके कार्य का बड़ा भारी प्रभाव, स्थाई प्रभाव, सांस्कृतिक प्रभाव पड़ेगा।



कोई भी विचार तभी मूल्यवान् माना जा सकता है, जो समयांतराल में भी अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता बनाए रखता है। देश और समाज की जीवन स्थितियाँ के प्रति गहरे जुड़ाव से उत्पन्न विचार हीं युगान्तर में भी टिके रहते हैं। ऐसे विचार चिंतन के कुछ शाश्वत सूत्रों के सहारे ही स्वयं को अद्यतन से जोड़ पाते है। आचार्य विनोबा भावे भारतीय ऋषि-परम्परा के साधक और विचारक थे। विभिन्न आर्षग्रंथों में प्रतिपादित आदर्शों को मार्गदर्शक तत्व मान कर इन्होंने आधुनिक भारत के नवनिर्माण हेतु विचारों का सूत्रण किया। सत्य, अहिंसा, प्रेम, त्याग, करूणा, दया जैसे शाश्वत मानवीय मूल्यों के सहारे ही विनोबा ने अपने सिद्धांतों का निरूपण किया।


विनोबा का आविर्भाव तब होता है, जब भारतीय जनजीवन गांधी के विचारों और रचनात्मक कार्यक्रमों के आभामण्डल से पूर्णतः आच्छादित हो गया था। राजनीतिक दासता तथा उत्पीड़न के विरूद्ध हिंसक विद्रोह के स्थान पर गांधीजी लोगों के समक्ष सत्याग्रह और असहयोग का मार्ग प्रस्तुत कर चुके थे। गांधी-युग के रूप में विदित इस दौर में देश के लोगों को कोई अन्य मार्ग स्वीकार्य न था। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही था कि विनोबा ने उसी मार्ग का अनुसरण किया, साथ ही सर्वोदय, अंत्योदय, भू-दान यज्ञ जैसे लोकव्यापी रचनात्मक कार्यक्रमों को ले कर वे लोगों के बीच गए तथा राजनीतिक क्षेत्र से इतर दार्शनिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। वे कहते हैं कि स्त्री-पुरूष भेद मानने की मेरी वृत्ति नहीं है। मैं तो मानता हूँ कि स्त्रियों के सामाजिक, कौटुंबिक और राजनैतिक अधिकार और कर्त्तव्य वही हैं, जो पुरूषों के हैं। दोनों का आर्थिक अधिकार, सामाजिक दर्जा समान है और दोनों की नैतिक योग्यता भी एक है। मानसिक भाव, गुणोत्कर्ष, शिक्षण, ये सारी बातें दोनों में समान होती हैं। इसलिए स्त्री-पुरूष में जो बाह्य भेद दिखाई देता है, वह मूलभूत नहीं है। उसको महत्व देने की जरूरत नहीं है।



स्त्री-पुरूष दोनों के परिपूर्ण विकास के संदर्भ में विनोबा गांधी से अपना पार्थक्य इस प्रकार प्रदर्शित करते हैं:

प्रकृति-पुरूष तत्व स्त्री-पुरूष में समान भाव से मौजूद है, वैसे ही दोनों की संसार शक्ति और संसार-बंधन भी समान हैं और मोक्ष का अधिकार भी दोनों को समान है। दोनों को जीवन का उद्देश्य भी एक ही है परिपूर्णता प्राप्त करना [23]



विनोबा की मान्यता है कि पुरूषों की तरह स्त्रियों को, ब्रह्म विद्या में पारंगत होना चाहिए। तभी सामाजिक जीवन में संतुलन आ सकता है। वे कहते हैं, “आज-तक सारी ब्रह्मविद्या पुरूषों द्वारा आगे आई है। बड़े-बड़े आचार्य, महापुरूष अधिकतर पुरूष ही हुए। ब्रह्मविद्या की गर्जना करने वाली स्त्री इस जमाने में निकलीं नहीं। कुछ भक्त स्त्रियाँ निकलीं। लेकिन भक्त होना एक बात है और दुनिया में जा कर अपनी आचारनिष्ठा से शेर के समान गर्जना करना दूसरी बात है। भक्त के मन में भावना बहुत होती हैं। उसे दर्शन भी हो सकता है। लेकिन उसमें क्रांति की शक्ति होती ही है, ऐसा नहीं। मीराबाई कवि थीं, इसलिए समाज पर उनका असर हुआ। अन्यथा आम तौर पर ये लोग एकांतप्रिय होते हैं, समाज से दूर रहनेवाले होते हैं। होना चाहिए, सूर्य नारायण की तरह। सूर्य नारायण को कहीं भी डर नहीं। गुफा में प्रवेश करने से वह डरेगा नहीं और उसके सामने अँधेरा टिकेगा नहीं। सामाजिक आक्रमण का सामना करने की शक्ति स्त्रियों में जगनी चाहिए और आज जग भी रही हैं। लेकिन ब्रह्मविद्या की लगन से बहने सामने भाई हैं; ऐसा अभी तक बना नहीं है।



इसलिए मैं कहता हूँ कि भारत की स्त्रियों को आत्मशक्ति का मान रख कर सामने आएं। जबतक आत्म-शक्ति का भान नहीं होता तब तक हमलोग, अपनी मूल शक्ति को छोड़कर उसके प्रतिबिंब को ही पकड़ रखते हैं। हाथ, पांव, आंख, कान में जो शक्ति है, वह तो अंदर की किसी चीज के साथ उसका संबंध होने से है। वह चीज केवल शरीरनहीं है। वह चीज तो है आत्मा की शक्ति। वही इंद्रियों के द्वारा प्रकट होती हैं। इसलिए जब आत्मशक्ति का भान होता है, तब न किसी प्रकार का मोह होता है, न भय रहता हैं। आत्मशक्ति का भान होते ही मनुष्य पर और कोई सत्ता चल नहीं सकती। उसको परिपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होती है।”[24]


स्त्रियों में यह आध्यात्मिक विकास विनोबा जी इसलिए भी आवश्यक मानते थे कि भविष्य में समाज-संचालन का काम स्त्रियों के हाथ में ही आनेवाला है। उनके शब्दों में :



भविष्य में स्त्रियों के हाथ में समाज का अंकुश आने वाला है। उसके लिए स्त्रियों को तैयार होना पड़ेगा। ज्ञान-वैराग्य संपन्न, भक्तिमान और निष्ठावान स्त्रियां निकलेंगी, जो पुरूष निर्मित एकांगी शास्त्र को बदलेंगी और स्त्री-पुरूष भेद रहित मानवता का नया शास्त्र बनाएंगी, तभी स्त्री का तथा मानवधर्म का भी उद्धार हो सकेगा।”[25]



दहेज-प्रथा और परदा-प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों के मामले में विनोबा और गांधी के विचार लगभग समान हैं। विनोबा दहेज-प्रथा की कठोर निंदा करते हैं और इसके स्थान पर एक आदर्श विकल्प प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं, कि शादी में दहेज दिया जाता है। यानी आपने जहाँ लड़की दी, वहाँ उसके साथ थोड़ा-सा सुवर्ण आदि देते हैं। उस पर अन्य किसी का हक नहीं माना जाता, ‘स्त्री-धनके तौर पर वह माना जाता है। मैं उस दहेज के खिलाफ नहीं हूँ। मैं लहेज के खिलाफ हूँ। लड़के ने एम.ए की परीक्षा पास की, डॉक्टर हुआ, उसमें इतना खर्च आया, वह लड़की वालों से लेते हैं, वह दहेज है। हमारे एक साथी व्यापारी हैं। उनके घर में उनकी लड़की की शादी थी। मेरे पास आशीर्वाद मांगने आए थे। मैंने उसने पूछा, शादी में कितना खर्च करोगे? उन्होंने पांच उंगलियां बतलाईं। मैंने पूछा, पांच हजार? बोले, नहीं पांच लाख। अब क्या कहा जाय? कहाँ रहेगी स्त्री-शक्ति इसमें? यह सोचने की बात है।



इसके स्थान पर एक आदर्श विकल्प का प्रस्ताव करते हुए विनोबा कहते हैं, कि मेरा तो सुझाव है कि शादी में तिलक-दहेज न दिया जाय, बल्कि उसके बदले गांव में एक कुआं खोदा जाय। एक शादी एक कुंआ, यह सिलसिला चला तो चालीस-पचास साल में 18 करोड़ कुंए खुद जाएंगे। यानी पचास साल में इंच-इंच जमीन तरी की बन जाएगी। भगीरथ तो स्वर्ग से गंगा उतार लाए। आप लोग पाताल से सरस्वती लाओ। कुँआ खोदना शादी का एक हिस्सा समझो। जब तक कुँआ खोदने को तैयार न हो, उतना पैसा जमा न हो, तो शादी मत करो। शादी के समय इस तरह कूपदान करने की प्रथा शुरू हो जाय, तो वर-वधू को कितनी सहानुभूति और कितने आशीर्वाद मिलेंगे। यह एक धर्म का कार्य हो जाएगा।



दहेज-प्रथा के संबंध में गांधी जी के विचार और कठोर हैं। वे कहते हैं यह प्रथा नष्ट होनी चाहिए। विवाह लड़के-लड़की के माता-पिताओं द्वारा पैसे ले-दे कर किया हुआ सौदा नहीं होना चाहिए। इस प्रथा का जाति-प्रथा से गहरा संबंध है। जब तक चुनाव का क्षेत्र अमुक जाति के इने-गिने लड़को या लड़कियों तक मर्यादित रहेगा, तबतक यह प्रथा भी रहेगी, भले इसके खिलाफ जो भी कहा जाय। यदि इस बुराई का उच्छेद करना हो तो, लड़कियों का या लड़कों का या उनके माता-पिताओं को जाति के बंधन तोड़ने पड़ेंगे। इस सबका मतलब हैं चरित्र की ऐसी शिक्षा, जो देश के युवकों और युवतियों के मानस में आमूल-परिवर्तन कर दें।



दहेज-प्रथा के प्रति युवकों के दृष्टिकोण को गांधी जी आपत्तिजनक मानते हैं। उनका मानना है कि कोई भी ऐसा युवक जो दहेज को विवाह की शर्त्त बनाता है, अपनी शिक्षा को कलंकित करता है, अपने देश को कलंकित करता है और नारी जाति का अपमान करता है। देश में आजकल बहुतेरे युवक-आंदोलन चल रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि ये आंदोलन इस किस्म के सवालों को आने हाथों में लें। ऐसे संघटनों को किसी ठोस सुधार-कार्य का प्रतिनिधि होना चाहिए और यह सुधार-कार्य उन्हें अपने अंदर से ही शुरू करना चाहिए। लेकिन देखा गया है कि इस तरह के सुधार कार्य को प्रतिनिधि होना चाहिए और यह सुधार कार्य उन्हें अपने अंदर से ही शुरू करना चाहिए। लेकिन देखा गया है कि इस तरह के सुधार-कार्य के प्रतिनिधि होने के बजाय के अक्सर आत्म-प्रशंसा करनेवाली समितियों का रूप ले लेते हैं। दहेज की इस नीचे गिराने वाली प्रथा के खिलाफ बलवान लोकमत पैदा करना चाहिए और जो युवक इस पाप के सोने से अपने हाथ गंदे करते हैं, उनका समाज से बहिष्कार किया जाना चाहिए। लड़कियों के माता-पिताओं को अंग्रेजी डिग्रियों का मोह छोड़ देना चाहिए और अपनी कन्याओं के लिए सच्चे और स्त्री-जाति के प्रति सम्मान की भावना रखने वाले सुयोग्य वरों की खोज में अपनी जाति या प्रांत के भी तंग दायरे के बाहर जाने में संकोच नहीं करना चाहिए।



परदा-प्रथा को विनोबा जी एक सभ्य समाज के लिए सर्वदा अवांछनीय समझते हैं। उनके अनुसार, विदेशों में स्त्री-पुरूष साथ-साथ काम करते हैं। ऐसा अगर न हो तो पुरूषों की ताकत आधी रह जाएगी और इस तरह आधी ताकत से कब तक काम चल सकता है ? स्त्री-शक्ति जागृति के संबंध में हिन्दुस्तान पिछड़ा हुआ है। उत्तर भारत में तो बहनों को घर में दबाकर रखते हैं। यह कैसे हुआ? पहले अपने देश में परदा नहीं था। वह मुसलमानों के साथ आया। मुसलमानों का डर और उनका अनुकरण ये दो कारण थे। मुसमलान लोग स्त्रियों को जनानखाना के अंदर रखते हैं, बाहर नहीं जाने देते। मुझे याद है कि जब मैं दिल्ली में डॉ. जाकिर हुसैन साहब से मिलने गया, जो लगभग मेरी ही उम्र के थे, तब उनकी पत्नी का दर्शन मुझे नहीं हुआ था। यद्यपि मेरे लिए उनको बहुत प्रेम था। अब यह डॉ. जाकिर हुसैन साहब और विनोबा की बात है, तो दूसरे पुरूषों के बारे में क्या कहा जाय? परदे का दूसरा कारण डर था कि परधर्मियों का स्त्रियों पर हमला हो सकता है। लेकिन यदि इस तरह समाज बरतेगा तो आजादी टिकेगी नहीं। मुसलमानों को भी अब परदा छोड़ना होगा। मैंने अजमेर के दरगाह शरीफ में मुसलमानों की सभा में कहा था कि यहां पर कोई स्त्री दिखाई नहीं देती। अल्लाह की मस्जिद में भी स्त्री-पुरूष का भेद क्यों? आपको पर्दा छोड़ना ही पड़ेगा। जिस समाज में बहनें परदे में रहेंगी, वह समाज कभी प्रगति नहीं करेगा। उन्होंने मेरा कथन प्रेम से सुन लिया, क्योंकि यह सत्य विचार है। इराक, मिस्र आदि देशों में अब परदा हट रहा है।



भारतीय समाज, खासकर हिन्दू-समुदाय में परदा प्रथा की कठोरता और स्त्रियों के सामाजिक-व्यकितगत जीवन पर उसके दुष्प्रभावों की आलोचना करते हुए विनोबा कहते हैं कि स्त्रियों को यदि शक्तिशाली बनना है तो उनको परदे से बाहर लाना चाहिए। परदा उनकी शक्ति को बहुत ज्यादा रोकनेवाली चीज है। खास करके राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार में स्त्रियों की भयंकर हालत है। इतनी शोचनीय हालत हैं कि एक बार शादी हो गई, और घर के अंदर बैठ गई, फिर स्त्री घर के आंगन में भी नहीं आ सकती। आखिर उसकी अर्थी ही घर के बाहर निकलेगी। वे केवल एक ही किताब तुलसी-रामायण पढ़ती हैं। संतोष से रहती हैं और घर का काम करती रहती हैं। सवाई अरविंद है। अरविंद घोष पचीस-तीस साल एक ही कोठरी में रहे थे। ये स्त्रियां तो जिन्दगी भर एक कोठरी में रहती हैं, तो वे सवाई अरविंद हैं। उनको बाहर लाना हो तो परदा हटाना होगा।



तलाक विवाह-संस्था से जुड़ी एक महत्वपूर्ण अवस्था है। विनोबा इसके प्रति उदारता बरते जाने के पक्षधर हैं। वे कहते हैं कि पति-पत्नी में अन्याय, अत्याचार और परस्पर द्वेष होता है, तो उससे बच्चों को तकलीफ होती है। इस हालत में उन्हें तलाक का हक हो तो कोई हर्ज नहीं। सारा धर्म स्वेच्छा पर खड़ा है, कानून पर नहीं। धर्म आज्ञा देने वाला नहीं, अनुज्ञा देने वाला है। इसलिए विशेष परिस्थितियों में तलाक का अधिकार देना उचित माना जाएगा। इसपर यदि कोई कहे कि इससे तो बहुत-सारे लोग तलाक लेने लग जाएंगे, तो यह मानना धर्म के लिए ठीक नहीं। स्पष्ट है कि विनोबा तलाक के प्रति अपनी अतिशय उदारता का परिचय देते हैं। यह उनकी ब्रह्मविद्या विषयक मान्यताओं के कारण भी हो सकता है जबकि गांधी जी इसे जीवन-धर्म की आवश्यकताओं के साथ जोड़कर देखते हैं और केवल नैतिक होने पर ही उसकी इजाजत देते हैं।



गांधीजी सामान्य विवाह-संबंधों की विफलता की स्थिति में तलाक को आवश्यक मानते हैं। विवाह-संबंधों के प्रति उभयपक्षों की इच्छा समाप्त हो जाने की स्थिति में इसे जबरन जारी रखना वे अनुचित और अनैतिक मानते हैं। उनके शब्दों में,


विवाह विवाह-सूत्र से बँधे हुए दोनों साथियों को एक-दूसरे के साथ शरीर-संबंध का अधिकार देता है। लेकिन इस अधिकार की एक मर्यादा है। इस अधिकार का उपयोग तभी हो जब दोनों साथी इस संबंध की इच्छा रखते हों। एक साथी दूसरे से उसकी अनिच्छा होते हुए संबंध की मांग करें, ऐसा अधिकार विवाह नहीं देता। जब इनमें से कोई भी एक साथी नैतिक अथवा अन्य किसी कारण से दूसरे की ऐसी इच्छा का पालन करने में असमर्थ हो, तब क्या करना चाहिए, यह एक अलग सवाल है। व्यक्तिगत तौर पर यदि तलाक ही इस सवाल का एकमात्र उपाय हो, तो अपनी नैतिक प्रगति को रोकने के बजाय मैं इस उपाय को ही स्वीकार कर लूंगा-बशर्त्ते कि मेरे संयम का कारण नैतिक ही हो।”[26]



तथापि गांधी जी तलाक के मामले में किसी प्रकार की स्वच्छन्दता का समर्थन नहीं करते। वे कहते हैं कि मैं विवाहित अवस्था को भी जीवन के दूसरे हिस्सों की तरह साधना की ही अवस्था मानता हूँ। जीवन कर्त्तव्य-पालन है, एक लगातार चलने वाली परीक्षा है। विवाहित जीवन का लक्ष्य दोनों साथियों की पारस्परिक कल्याण-साधना है-भले इस जीवन में और इस जीवन के बाद भी। यह संस्था मानव-हित के लिए है। दो में से कोई एक साथी विवाह के अनुशासन को तोड़े तो दूसरे को विवाह-संबंध को भंग करने का अधिकार हो जाता है। यहां विवाह-संबंध का भंग नैतिक है, शारीरिक नहीं, लेकिन इसमें तलाक की बात नहीं है। स्त्री या पुरूष अपने साथी से अलग हो जाएगा लेकिन उसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए, जिसके लिए वे विवाह-सूत्र में बँधे थे। हिन्दू धर्म स्त्री-पुरूष दोनों को एक-दूसरे का समकक्ष मानता है, कोई किसी से न तो कम है, न ज्यादा। बेशक, न जाने कब से स्त्री को छोटा और पुरूष को बड़ा मानने वाला एक भिन्न रिवाज चल पड़ा है। लेकिन ऐसी तो और कितनी ही बुराइयां समाज में घुस आई हैं। जो भी हो, मैं यह जरूर जानता हूँ कि हिन्दू धर्म व्यक्ति को इस बात की पूरी आजादी देता है कि वह आत्मसाक्षात्कार के लिए जो करना आवश्यक हो, करे, क्योंकि वही मानव-जन्म का सच्चा उद्देश्य है।



विनोबा की दृष्टि में शिक्षा का संबंध हमारी आत्मिक उन्नति से है। और चूंकि आत्मा के स्तर पर स्त्री-पुरूष दोनों एक हैं अतः उनकी शिक्षा में कोई अंतर नहीं होना चाहिए। वे कहते हैं कि जहाँ तक स्त्रियों की शिक्षा का सवाल है, उनकी तालीम का सारा आधार आत्मा का ज्ञान हो। हम देह से अलग अविनाशी, आत्मरूप हैं। परमेश्वर हमारे अंदर विराजमान हैं, उसके दर्शन इसी जन्म में हो सकते हैं, ये सारे जीव हमारे ही रूप हैं इस आध्यात्मिक विचार में बहनें प्रवीण हों। स्त्री-शिक्षण में सत्य निष्ठा और तपस्या की सख्त जरूरत है, ताकि स्त्री में मौजूदा समाज के खिलाफ बगावत करने की हिम्मत आए। जिसके अंदर अध्यात्म विद्या है, उसे सारी दुनिया भी नहीं दबा सकती। मेरा विश्वास है कि अध्यात्म-विद्या से जबरदस्त क्रांति की जा सकती है।


‘‘स्त्री और पुरूष दोनों की आत्मा समान संस्कारवान् होती हैं। क्षुधा, तृष्णा आदि वासनाएं भी दोनों में समान होता हैं। दोनों का सृष्टि के साथ का संबंध, यानी विज्ञान का संबंध भी समान हैं। इससे स्पष्ट है कि दोनों की शिक्षा के अधिकतर अंश समान ही होंगे। गुण-विकास के नियम भी दोनों पर समान ही लागू होते हैं। इसे ध्यान में लेकर मैं कहता हूँ कि स्त्री-पुरूष को समान शिक्षा मिलनी चाहिए और एकसाथ ही मिलनी चाहिए।[27]



शारीरिक श्रम के कुछ काम ऐसे होंगे, जो स्त्रियों और पुरूषों के भिन्न रहेंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आजकल जिस प्रकार चल रहा है, उस प्रकार, हर एक काम अलग-अलग निश्चित हो। उदाहरण के लिए लीजिए रसोई का काम। सामान्यतः स्त्रियां ही रसोई बनाती हैं। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि वह स्त्रियों का ही काम माना जाए। पुरूषों को भी इसमें प्रवीण बनना चाहिए। मैंने कहा कि रसोई एक उत्पादक क्रिया है और गेहूँ के उत्पादन से लेकर सोचना होगा, तो रोटी बनाना आखिरी क्रिया होगी। उसमें गलती नहीं चल सकती। शुरू की क्रिया में गलती हो तो कम नुकसान होता है, आखिरी क्रिया में गलती हो तो ज्यादा नुकसान होता है। ऐसे सुसंस्कृत निर्दोष उत्पादक कार्य से हम लड़कों को कैसे वंचित रख सकते हैं ? यह तो उनपर अन्याय होगा। इस प्रकार अगर हम लड़के और लड़कियों के कार्य को अलग बना देंगे, तो समाज के टुकड़े हो जाएंगे और उसका एक अंग बोझ रूप बन जाएगा। हालांकि मैं यह मानता हूँ कि रसोई की प्रधान जिम्मेवारी स्त्री की रहेगी, लेकिन वह उन्हीं का काम न समझा जाय। रसोई की तो केवल एक मिसाल दी। घर के सभी कार्यों में पुरूषों को अवश्य हिस्सा लेना चाहिए।



स्त्री-पुरूष के बीच व्याप्त वैषम्य के विपरीत विनोबा स्त्री-पुरूष के बीच एक नए संबंध तथा संतुलन की प्रस्तावना करते हैं। उनका मानना है कि स्त्री की अपनी एक स्वतंत्र सत्ता है और उसे पुरूष की दासी के रूप में देखना गलत हैं। दोनों के बीच में जो विभेद अथवा असमानता दिखाई पड़ती है उसे सभ्यता की विडम्बना मानते हुए वे उनमें अन्योन्याश्रम संबंध का विश्वास व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं, :

‘‘कुछ लोग चूड़ी आदि गहनों को पातिव्रत्य का प्रतीक मानते हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या पातिव्रत्य एकांगी वस्तु है? क्या पुरूष को भी पत्नीव्रती नहीं होना चाहिए? पत्नीव्रत के लिए यदि प्रतीक की जरूरत नहीं है, तो पतिव्रत्य के लिए जरूरत क्यों होनी चाहिए ? इसमें सवाल पातिव्रत्य का नहीं है। सवाल यह है कि स्त्री पुरूष की दासी है या नहीं ? उसे दासी बनना बिल्कुल गलत है। स्त्री एक स्वतंत्र व्यक्ति हैं, उसका स्वतंत्र अस्तित्व है। सारांश पत्नी पतिव्रता और पति पत्नीव्रत होना चाहिए। अर्थात् एक-दूसरे के जीवन-व्रतों के साथ एक रूप होने की कोशिश करना गृहस्थाश्रम की खूबी है”[28]



विनोबा कहते हैं कि हमारे देश में स्त्रियों के प्रति लोगों की धारणा अत्यन्त विकृत है। वे मानते हैं कि स्त्रियों में पुरूषवर्ग की अपेक्षा काम भावना अधिक होती है, अतएव यौन-शुचिता संबंधी हमारे सारे नियम स्त्रियों पर आरोपित हैं, पुरूषों पर नहीं। हमारी यह धारणा इतनी गहरी हो चुकी है कि स्वयं स्त्रियां भी इस विषय को इसी नजरिए से देखती हैं और प्रश्न उठाए जाने पर यथार्थ को स्वीकार करने अथवा उसका प्रतिकार करने के स्थान पर वे स्वयं पुरूषों का बचाव करने लगती हैं: ‘‘अक्सर यह माना जाता है कि स्त्रियों में काम वासना ज्यादा होती है, लेकिन यह ख्याल गलत है। स्त्री को प्रसूति के परिणाम भोगने पड़ते हैं और बच्चों के लिए बड़ी तकलीफें उठानी पड़ती हैं, इसलिए उसके मन में अधिक वासना हो, यह संभव नहीं दीखता। लेकिन माना जाता है कि स्त्री को संतान की इच्छा रहती है। स्त्री में मातृप्रेरणा हैं। इसलिए यह हो सकता हैं कि स्त्री को प्रथम संतान की इच्छा हो। बिल्कुल ही संतान-विरहित रहने का आदर्श शायद पुरूष की अपेक्षा स्त्री को अधिक कठिन मालूम पड़ता हो। परन्तु एक संतान हो जाने के बाद स्त्री को वासना नहीं रहती होगी। क्योंकि फिर से तकलीफ उठाना वह नहीं चाहेगी, यह मेरा अपना विश्लेषण है। मैं नहीं जानता कि यह कहाँ तक सही है।



‘‘तात्पर्य यह कि स्त्री के बारे में यह गलत-फहमी फैलाई गई है कि उसे काम- वासना अधिक होती है। इस गलतफहमी का परिणाम है कि स्त्री पर अंकुश रखा जाता है। इसका नतीजा हिन्दुस्तान में यह हुआ कि अत्याचार होता हैं, तो स्त्रियां भी पुरूषों का बचाव करती हैं, जरा गहराई से देखें तो मालूम होगा कि इसका मतलब यह है कि स्त्री के मन में पुरूष के लिए अनादर है। पुरूष कोई गलत काम करता हैं, तो कोई बहुत बड़ी बात हैं, ऐसा उसे नहीं लगता। हम इसको स्त्री का सुपरिचरिटी कॉम्प्लेक्सकह सकते हैं। लेकिन स्त्रियों के लिए जो गलत मान्यता हुई है, उसे हटाना चाहिए। उसे हटाए बिना समाज का उद्धार नहीं होगा।[29]



विनोबा के अनुसार स्त्रियों को नैतिक और आध्यात्मिक गुणों की दृष्टि से शंकराचार्य के टक्कर की होनी चाहिए और उन्हें चाहिए कि वे समाज में व्याप्त स्त्रियों के प्रति भेद-भावना के प्रति विद्रोह करें। वे कहते हैं कि जबतक ऐसी शंकराचार्य के समान प्रखर वैराग्य संयम और ज्ञानी स्त्री पैदा नहीं होती, तब तक स्त्रियों का उद्धार श्रीकृष्ण, महाबीर और गांधी जैसे पुरूष भी नहीं कर सकते। कुछ हद तक सहायता की जा सकती है। परन्तु स्त्रियों का उद्धार स्त्रियों से ही होनेवाला है। वैराग्य शील और ज्ञान का प्रचार करने वाली बहनें, जिनसे शास्त्र बन सकता है, धर्म बदल सकता है, क्यों न निकलें, यह मेरी समझ में नहीं आता। अगर मैं स्त्री होता तो न जाने कितनी बगावत करता ! मैं तो चाहता हूँ कि स्त्रियों की तरफ से बगावत हो। लेकिन बगावत तो वह स्त्री कर सकेगी जो वैराग्य की मूर्त्ति होगी। वैराग्य कृति होगी, तभी तो मातृत्व भी सिद्ध होगा। इसलिए मैं मानता हूँ कि शंकराचार्य जैसी तेजस्वी स्त्री प्रकट होगी, तभी स्त्रियों का उद्धार होगा। स्त्रियां स्वतंत्रता चाहती है, तो उन्हें वासना के बहाव में बहना नहीं चाहिए।विनोबा आज की महिलाओं के लिए ब्रह्मविद्या के मार्ग पर चलने का प्रस्ताव करते हैं,



‘‘इस वास्ते हमें स्त्री-शक्ति जागरण करनी है, यह दृष्टि लेकर धर्म-संस्थापना का बुनियादी काम करने के लिए स्त्रियों को आगे आना चाहिए। इसलिए हमने बहनों की भारत यात्रा की बात सामने रखी है। और बहनों की टोली इस तरह ब्रह्मचर्य की प्रेरणा लेकर अखिल भारत की पदयात्रा के लिए निकले, तो वह बड़ी बात होगी। उससे बहुत लाभ होगा। देश की एकात्मता का लाभ, व्यापक दर्शन का लाभ, परस्पर आदान-प्रदान का लाभ। तो बारह साल तक यह अखंड यात्रा चले।[30]’’



विनोबा कहते हैं कि स्त्रियों को हिन्दू धर्म ने संन्यास और ब्रह्मचर्य का अधिकार नहीं दिया है। यह जो आध्यात्मिक अपात्रता है, उससे स्त्रियों में स्थाई हीन भावना आ गई है। हिन्दू समाज ने उसे मिटाने के लिए गृहस्थाश्रम को महत्व दे कर सहस्वं तु पितृन माता गौरवेणारिच्यते’ - हजार पिता की अपेक्षा एक माता श्रेष्ठ हैं, ऐसा गौरव किया है। लेकिन स्त्री की एक स्वतंत्र हस्ती है, इसे मान्यता नही दी। मुझे बार-बार यही लगता है कि बिना आत्म ज्ञान के महिलाएं अपनी शक्ति को महसूस नहीं करेंगी। मातृत्व का स्थान हिन्दुस्तान में काफी ऊँचा रहा। लेकिन उससे भी ऊँची कोई परमोच्च चीज है, यह दृष्टि-ओझल नहीं होनी चाहिए। स्त्रियों को उससे वंचित रखने की कोशिश की गई हैं, ऐसा मेरे मन पर असर है।



एक गांधीवादी विचारक के साथ अपनी मौलिकताओं के कारण विनोबा के विचारों का पृथक् महत्व है। गांधी की मान्यताओं के साथ-साथ आधुनिक भारत के अन्य विचारकों के विचारों के परिप्रेक्ष्य में विनोबा के विचारों का तुलनात्मक अनुशीलन आवश्यक है।



गांधी जी और विनोबा समान धरातल पर अवस्थित होते हुए भी दृष्टियों की भिन्नता के कारण स्त्रियों के प्रति भिन्न-भिन्न सोच रखते थे। गांधीजी जागरूकता, शिक्षा और सामाजिक सहभागिता की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं, वहाँ विनोबा दार्शनिक रूप से स्त्रियों को समृद्ध बनाकर उनमें आध्यात्मिक, नैतिक एवं चारित्रिक गुणों का विकास करना चाहते हैं। विनोबा स्त्रियों को ब्रह्मविद्या में विशारद और ब्रह्मवादिनी के रूप में देखना चाहते हैं तथा उन पर पूरे देश के नैतिक उत्थान की जिम्मेवारी डालना चाहते हैं। जबकि गांधी जी स्त्रियों को स्वतंत्रता एवं समानता संबंधी अधिकारों से लैस करके उन्हें देश स्वातंन्न्य-संग्राम तथा स्वतंत्र भारत के नवनिर्माण हेतु यथोचित योगदान के योग्य बनाना चाहते हैं।



सत्य और अहिंसा गांधीजी के प्रमुख मार्गदर्शक तत्व हैं और विनोबा का संपूर्ण दर्शन ब्रह्मचर्य और अहिंसा पर आधारित है। गांधीजी एक अहिंसक समाज-व्यवस्था में पुरूष और स्त्री दोनों की परस्पर सहयोगात्मक भूमिका पर जोर देते हुए कहते हैं कि पुरूषों को स्वयं को उनका स्वामी न मानकर मित्र या साथी मानना चाहिए। यद्यपि कुछ हद तक ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में स्त्रियों को काफी अधिकार प्राप्त हैं; वे कई क्षेत्रों में उनकी बराबरी पर अथवा उनसे आगे होती हैं, परन्तु निकट से और गहराईपूर्वक देखने पर यह स्पष्ट हो जाता हैं कि हमारे समूचे समाज में कानून और रूढ़ि के स्तर पर औरतों को जो दरजा मिला है, उसमें कई खामियां हैं और उन्हें जड़ मूल से सुधारने की जरूरत है ।

 

 

 सन्दर्भ 



[1] वर्मा, महादेवी, 2007. पुण्य स्मरण, महादेवी साहित्य (संकलन- निर्मला जैन), नयी दिल्ली : वाणी प्रकाशन.

[2]Suruchi Thapar, Women as Activists; Women as Symbols: A Study of the Indian Nationalist Movement, Feminist Review, Summer, 1993, Nationalisms and National Identities pp.81-96. Sage Publications.

[3] Aloo J. Dastoor and Usha Mehta, Gandhi’s Contribution to the Emancipation of women,p.18 ( Quotations from Gandhi 1916)

[4] Norvell L. Gandhi and the Indian women's movement. British Library Journal, 23 (1997).

[5] Edib Halid’e, Inside India, London, Allen and Unwin, 1937

[6] वही.  

[7] Polak millie Graham, 1993. Gandhi: in the eye of the world, in Anand T. Hingorani (ed.) Gandhi on Nehru, New Delhi: Anand T. Hingorani.  

[8] Kaur Amrit, Foreward to M.K. Gandhi in Bharatan Kumarappa(ed.) Women and Social Justice, Ahmedabad: Navjivan Publishing House, 1949.

[9] Mahaatmaa Gandhi, The collected work of Mahatma Gandhi, vol xliii, Ahmedabad: Navjivan press

[10] Ibid pp. 181

[11] Lahori, Taj sahiba, 2013, ‘Charkha’ in Purwa Bharadwaj (ed.) kalame niswan, New Delhi, Nirantar.  

[12] मोरे चरखा का न टूटे तार... लोकगीतों में रचे-बसे हैं बापू और उनके किसान आंदोलन, प्रशांत श्रीवास्तव, timesnowhindi.com/india/article/presence-of-mahatma-gandhi-in-folk-songs-and-farmer-protest.

[13] Suruchi Thaper, Women as Activist: Women as symbol: A Study of the Indian National Movement, 1993, Feminist review, no. 44 pp. 88.

[14] विनोवा, (1999). स्त्री शक्ति जागरण, संकलन-संपादन- शीला, वर्धा: परमधाम आश्रम, पृ.7.

[15] वही,

[16] वही, पृ.28.

[17] वही, पृ..33.

[18] वही,

[19] वही,

[20] महात्मा गांधी , यंग इंडिया, 12-3-1925, पृष्ठ संख्या, 88

[21] वही,

[22] विनोवा, (1999). स्त्री शक्ति जागरण, संकलन-संपादन- शीला, वर्धा: परमधाम आश्रम,

[23] वही,

[24] वही,

[25] वही,

[26] वही,

[28] वही,

[29] वही,

[30] वही,



सम्पर्क 


सह आचार्य, स्त्री अध्ययन विभाग

महत्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

क्षेत्रीय केंद्र, प्रयागराज


ईमेल : womenstudieswardha@gmail.com



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