हिन्दी दिवस पर कविताएं

 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 



प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिन्दी दिवस का आयोजन किया जाता है। अब तो यह केवल औपचारिकता मात्र ही रह गया है। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि अपने ही देश की राष्ट्र भाषा का दिवस मनाना पड़े। संसद हो, न्यायपालिका या फिर नौकरशाही, आज भी अंग्रेजी हमारे मन मस्तिष्क पर हावी है। अलग बात है कि हिन्दी ने स्वाभाविक रूप से अपनी जड़ें मजबूत की है और आज भी भारत में बोली जाने वाली यह बड़ी भाषा है। हिन्दी को ले कर हमारे कवियों ने कई महत्त्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं। हिन्दी दिवस के अवसर पर पहली बार पर हम कुछ महत्त्वपूर्ण कविताएं हम यहां पर प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हिन्दी दिवस पर कविताएं।



भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 


निज भाषा 


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,

बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।

अँग्रेजी बारपढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन,

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।

उन्नति पूरी है तबहिं, जब घर उन्नति होय,

निज शरीर उन्नति किए, रहत मूढ़ सब कोय ।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय,

लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग,

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात,

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय,

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार,

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात,

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।

सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय,

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।




गोपाल सिंह नेपाली 


गोपाल सिंह नेपाली


हिंदी है भारत की बोली


दो वर्तमान का सत्‍य सरल,

सुंदर भविष्‍य के सपने दो 

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो


यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,

लाखों मुखड़ों की भाषा है

थी अमर शहीदों की आशा,

अब जिंदों की अभिलाषा है

मेवा है इसकी सेवा में,

नयनों को कभी न झंपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो


क्‍यों काट रहे पर पंछी के,

पहुंची न अभी यह गांवों तक

क्‍यों रखते हो सीमित इसको

तुम सदियों से प्रस्‍तावों तक

औरों की भिक्षा से पहले,

तुम इसे सहारे अपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो


श्रृंगार न होगा भाषण से

सत्‍कार न होगा शासन से

यह सरस्‍वती है जनता की

पूजो, उतरो सिंहासन से

इसे शांति में खिलने दो

संघर्ष-काल में तपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो


जो युग-युग में रह गए अड़े

मत उन्‍हीं अक्षरों को काटो

यह जंगली झाड़ न, भाषा है,

मत हाथ पांव इसके छांटो

अपनी झोली से कुछ न लुटे

औरों का इसमें खपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो आपने आप पनपने दो


इसमें मस्‍ती पंजाबी की,

गुजराती की है कथा मधुर

रसधार देववाणी की है,

मंजुल बंगला की व्‍यथा मधुर

साहित्‍य फलेगा फूलेगा

पहले पीड़ा से कंपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो आपने आप पनपने दो


नादान नहीं थे हरिश्‍चंद्र,

मतिराम नहीं थे बुद्ध‍िहीन

जो कलम चला कर हिंदी में

रचना करते थे नित नवीन

इस भाषा में हर ‘मीरा’ को

मोहन की माल जपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो


प्रतिभा हो तो कुछ सृष्‍ट‍ि करो

सदियों की बनी बिगाड़ो मत

कवि सूर बिहारी तुलसी का

यह बिरुवा नरम उखाड़ो मत

भंडार भरो, जनमन की

हर हलचल पुस्‍तक में छपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो



अज्ञेय



सच्चिदानन हीरानन्द वात्सयायन अज्ञेय 


हिन्दी दिन


भटनागर भटनागरिन

चले मनाने हिन्दी दिन


सारे आए वी० आई० पी०

बोले देसी अँगरेज़ी

खा-खा लड्डू, पी-पी चाय

प्रस्तावों पर देकर राय


हुए मोटरों पर असवार

झण्डे फहरे बीच-बज़ार

आया टी०वी० पर प्रोग्राम

हुआ बहुत हिन्दी का नाम


हिन्दी-वाले और वालिन

नाचे सारे धिन्नाधिन ।


फिन-फिन आए हिन्दी दिन,

हिन्दी का हो बड़ा सुहाग

कर्मी उसके हों बड़भाग 

भटनागर भटनागरिन।





गिरिजा कुमार माथुर 


हिंदी सबकी संगम है


एक डोर में सबको जो है बांधती

वह हिंदी है

हर भाषा को सगी बहन जो मानती

वह हिंदी है।


भरी-पूरी हों सभी बोलियां

यही कामना हिंदी है,

गहरी हो पहचान आपसी

यही साधना हिंदी है,


सौत विदेशी रहे न रानी

यही भावना हिंदी है,

तत्सम, तद्भव, देशी, विदेशी

सब रंगों को अपनाती


जैसे आप बोलना चाहें

वही मधुर, वह मन भाती


नए अर्थ के रूप धारती

हर प्रदेश की माटी पर,

‘खाली-पीली बोम मारती’

मुंबई की चौपाटी पर,


चौरंगी से चली नवेली

प्रीती-पियासी हिंदी है,

बहुत बहुत तुम हमको लगती

‘भालो-बाशी’ हिंदी है।


उच्च वर्ग की प्रिय अंग्रेजी

हिंदी जन की बोली है,

वर्ग भेद को ख़त्म करेगी

हिंदी वह हमजोली है,


सागर में मिलती धाराएं

हिंदी सबकी संगम है,

शब्द, नाद, लिपि से भी आगे

एक भरोसा अनुपम है,


गंगा-कावेरी की धारा

साथ मिलाती हिंदी है.

पूरब-पश्चिम,कमल-पंखुड़ी

सेतु बनाती हिंदी है।


रघुवीर सहाय 



रघुवीर सहाय


हमारी हिन्दी 


हमारी हिन्दी एक दुहाजू की नई बीबी है

बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली


गहने गढ़ाते जाओ

सर पर चढ़ाते जाओ


वह मुटाती जाए

पसीने से गन्धाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए


पड़ोसिनों से जले

कचरा फेंकने को ले कर लड़े


घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता

औरतों को जो चाहिए घर ही में है


एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी

एक नागिन की स्टोरी बमय गाने

और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र

एक खूसट महरिन है परपँच के लिए

एक अधेड़ ख़सम है जिसके प्राण अकच्छ किए जा सकें

एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अन्दर एक

बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े

फ़र्श पर ढंनगते गिलास

खूँटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जाएँगी


घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए

सीलन भी और अन्दर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी

और सन्तान भी जिसका जिगर बढ़ गया है

जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है

और ज़मीन भी जिस पर हिन्दी भवन बनेगा


कहनेवाले चाहे कुछ कहें

हमारी हिन्दी सुहागिन है सती है ख़ुश है

उसकी साध यही है कि ख़सम से पहले मरे

और तो सब ठीक है पर पहले ख़सम उससे बचे

तब तो वह अपनी साध पूरी करे।



केदार नाथ सिंह



केदारनाथ सिंह


मातृ भाषा 


जैसे चींटियाँ लौटती हैं

बिलों में

कठफोड़वा लौटता है

काठ के पास

वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक लाल आसमान में डैने पसारे हुए हवाई अड्डे की ओर


ओ मेरी भाषा

मैं लौटता हूँ तुम में जब चुप रहते-रहते

अकड़ जाती है मेरी जीभ 

दुखने लगती है

मेरी आत्मा




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