मधु कांकरिया की कहानी 'रेशे'

मधु कांकरिया 



स्त्री पुरुष के आपसी सम्बन्ध मानवीय सम्बन्धों में सबसे जटिल और नाजुक सम्बन्ध माने जाते हैं। खासकर वैवाहिक सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में आज भी कई बार इसे पुनर्व्याख्यायित करने की कोशिश की जाती है। इस सन्दर्भ में सबसे जटिल पहलू संतान पैदा करने के सन्दर्भ में स्त्री की स्वतन्त्रता को ले कर है। पति का दावा होता है कि संतानोत्पत्ति में उसकी भी भूमिका होने के कारण बिना उसके स्त्री कोई स्वतन्त्र निर्णय नहीं ले सकती। घर परिवार को आगे बढ़ाने के क्रम में भी स्त्रियों की इस स्वतंत्रता को प्रश्नांकित किया जाता है। दूसरी तरफ स्त्री गर्भधारण की तमाम समस्याओं को शारीरिक मानसिक रूप से झेलने के कारण इस निर्णय के सन्दर्भ में अपनी स्वतन्त्रता चाहती है और इस निर्णय पर अपना हक भी समझती है। 

मधु कांकरिया हमारे समय की बेहतरीन कथाकार है। अपनी उम्दा कहानी 'रेशे' में उन्होंने न केवल इस विषय को उठाया है बल्कि बखूबी निर्वाह भी किया है। मधु जी को हाल ही में इफको सम्मान से सम्मानित भी किया गया है। पहली बार की तरफ से उन्हें बधाई एवम शुभकामनाएं। वे इस सम्मान की इस समय वाजिब हकदार भी हैं। उनका नाम किसी भी तरह के विवादों से रहित है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मधु कांकरिया की उम्दा कहानी 'रेशे'।


'रेशे'


मधु कांकरिया


इन दिनों अपने दूसरे ‘मैं' के क्षितिजों को विस्तार देने के लिए कुछ क्लासिक फ़िल्में देख रहे हैं अभिषेक। पिछले सप्ताह देखी थी उन्होंने ‘दि बकेट लिस्ट'- जिसमें जिंदगी की संध्या में मौत के करीब आए दो व्यक्ति अपनी अधबनी लालसाओं की एक लिस्ट बनाते हैं। जीवन और सौंदर्य का रिश्ता खोलती इस फिल्म ने  जहाँ उन्हें उच्च अनुभूतियों का आस्वादन दिया वहीँ उनके मन और आत्मा को उजास से भर दिया था इस कदर कि उन्हें अनायास ही अमरनाथ की उस आदिम मिथकीय गुफा की याद आ गयी जिसमें बैठ कर कभी पार्वती ने शिव को सृष्टि के रहस्य और अमरता की कहानी सुनाई थी। फ़िल्म का तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि उस सांझ उन सात्विक लम्हों डूबते सूर्य की डबडबाती आँखों में देखते-देखते उन्होंने पहले खुद से अपनी जिंदगी का पहला दार्शनिक सवाल किया - क्या मेरे कारण किसी की दुनिया सुन्दर बनी है? जवाब पाने के लिए उन्होंने अपने जीवन की पहली कविता ‘यह मैं हूँ' रच डाली। यह अलग बात है कि जब पूरी चेतना से भोर की सात्विक ख़ामोशी में दुबारा पढ़ी वह कविता तो अपनी भाषा के कच्चेपन से इस कदर विरक्त हुए वे कि कविता को चिंदी-चिंदी  कर हवाओं के हवाले कर दिया।

          

सप्ताह भर बाद फिर उन्होंने दूसरी फिल्म देखी - 'दी साइलेंट स्क्रीम' जिसमें दिखाया गया था कि किस प्रकार गर्भपात के दौरान औजार से बच्ची का सर कुचल दिया जाता है क्योंकि तीन महीने के भूर्ण का सर भी इतना बड़ा हो जाता है कि उसे साबुत नहीं  निकाला  जा सकता है। उन्होंने देखा कि नन्ही भ्रूण औजार की मार से इतनी भयभीत हो गयी कि उसकी हार्ट बीटिंग 80 से एकदम 200 तक पहुँच गयी और औजार से बचने के लिए वह ऊपर उठ गयी। इस फिल्म को देख उनकी आत्मा इस कदर झुलस गयी कि उनकी बॉडी का तापमान कई डिग्री बढ़ गया। तापमान को सामान्य करने के लिए वे दो घंटे छब्बीस मिनट तक नहाते रहे पर न तापमान नीचे उतरा न आत्मा पर लगा समय का कीचड ही धुला। क्योंकि जो कीचड लगा था वह सामान्य कीचड न था। वह कीचड जिंदगी के बेहतरीन लम्हों और स्मृतियों से लिपटा हुआ था जिसे मिटाने का मतलब खुद मिट जाना था। स्मरण और मरण में अधिक अंतर भी तो नहीं…. सोचा उन्होंने।  बहरहाल इतने विचलित हुए इस फिल्म को देख कर वे कि उनकी आँख से आंसू नहीं लहू टपका था। देर तक गुनगुनाते रहे वे।


‘ सुकूत-ए-शाम मिटाओ, बहुत अँधेरा है 

  सुखं की शमा जलाओ बहुत अँधेरा है।'

          

और इस सुखन की शमा को जलाने के लिए उन्होंने अपनी भूतपूर्व पत्नी को डायल किया जो कभी उनके लिए अभूतपूर्व थी। पर डायल करते-करते जाने किस काले कौए ने काट लिया कि डायल करते करते अंगुलियां थम गयीं। अंगुलियों के रुकते ही दिमाग चलने लगा, मन मचलने लगा, इतना सोचना भी क्या है, हैमलेट की तरह सोचा उन्होंने - 'टू बी ओर नॉट टू बी', बात होगी या नहीं होगी। चंचल मन पर लगाम कसने के लिए इस बार उन्होंने अपने मोबाइल के स्क्रीन पर पत्नी के नाम पर अंगुली रखने की बजाय पूरे नौ नंबर टाइप किये जिससे उतावलेपन से अपने को बचा सकें और अंतिम के भी अंतिम पल अपना निर्णय बदलने की गुंजाइश बची रह सके। और हुआ भी यही। हर बार अंतिम नंबर टाइप करते करते हिम्मत जवाब दे देती, मन पलटी मार देता और दूरभाष अपने गंतव्य तक नहीं पंहुच पाता। 

                

ऊफ! अजीब है मन की माया भी। एक मन कहता, बात की जाए  महुआ से, बताया जाए, इस फिल्म के बारे में तो शायद अब वह समझ पाए उन्हें, उनकी उस समय की मानसिकता को, जो उस समय वह समझ नहीं पायी थी क्योंकि उस समय वह स्त्री नहीं खौलती नदी थी। 

            

दूसरा मन कहता - वह न समझी थी, न समझी है, न समझेगी।


दोनों मन के ऊपर भी था एक दार्शनिक मन था जिसका ईजाद अभिषेक ने हाल के दिनों में ही किया था, उसने भी आनाकानी की - क्या होगा फोन घुमा कर और बुझी बोरसी में फूंक मार कर क्योंकि कुछ कहानियां कभी पूरी नहीं होती क्योंकि कुछ सवालों के जवाब कभी नहीं देती जिंदगी।  


बहरहाल दिमाग में बंदर की तरह उछल कूद करती उन दो तीन विपरीत भावनाओं से त्रस्त और पस्त  हो वे बैठ गए वहीँ कलेजा थाम। 


पर बाघ की तरह झप्पटा मारती स्मृतियाँ कब पीछा छोड़ने वाली थी? उड़ने लगे स्मृतियों के परिंदे, कुछ हाथ आते, कुछ हो जाते फुर्र। 





***         


वह साल 2014 का कोई महीना था। देश ‘अच्छे दिन आएँगे' के खुमार में तिर-तिर तैर रहा था। इतिहास करवट बदल रहा था। देश की पटकथा कुछ कोरपोरेट घराने लिख रहे थे और देश की नौजवान प्रतिभाओं को सरहद पार उड़ान भरने का स्वप्न आँखों में डाल रहे थे। ऐसे स्वप्निल समय में देश का युवा सपनों, उमंगों और कामनाओं से भरा भूमंडलीकरण और उदारीकरण से जन्में उस नए नवेले आसमान की और ताक रहा था जहाँ उसके सपने झिलमिला रहे थे। महत्वाकांक्षाएं उड़ान भर रही थीं। बड़े सपनों के लिए देश छोटा पड़ रहा था। उन्हीं खुसनसीब दिनों किसी जोशीले पल कागज का एक टुकड़ा अभिषेक के लिए भी एक खुशखबरी ले कर आया था - उसकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने  उसका तबादला स्विट्ज़रलैंड के बाजल शहर में कर दिया था। 

       

उसकी चिरसंचित मुराद पूरी हुई थी। नवविवाहिता पत्नी महुआ के साथ अब वह दुनिया के सबसे सम्प्पन्न, आधुनिक और खूबसूरत शहर बाजल  में था जहाँ जिंदगी उस युवा जोड़े के लिए पूरी उदारता के साथ यौवन, उन्माद, आवेग, मादकता, स्वप्न और राग की चाँदनी बिखेर रही थी। दोनों दोनों के सम्मोहन की अतल गहराइयों में डूबे रहते और उस जाम को छक-छक कर पीते रहते जो जिंदगी उनके प्यालों में परोस रही थी। दिन को सोना और रात को चांदी बना रही थीं। 

            

लेकिन सत्य यह भी कि आरोह की अनिवार्य परिणति अवरोह है। अत्यधिक सौंदर्य और सुख जीवन के प्रति राग पैदा करता है तो वैराग्य भी, विशेषकर भारतीय आत्मा को। बहरहाल धीरे-धीरे बेखुदी, तल्लीनता और तन्मयता के कुछ सुखी सालों से गुजरने के बाद वह समय भी आया जब जादू टूट गया और जिंदगी के चटक रंगों के इंद्रजाल से मन भर गया उन दोनों भारतीय आत्माओं का। ऐसे में उनका काल-बोध जागृत हुआ - हो गए शादी को चार साल अब परिवार बढ़ाने की सोचा जाए। मीठी खबर के इन्तजार में पलक पाँवड़े बिछाए अम्मा को अब और न सताया जाए। महुआ को उन दिनों पीरियड भी कुछ ऊपर नीचे हो रहे थे  तो अगली अलबेली सुबह, टापुर टुपुर बारिश के आनंद में भींगते, विदेश और समकालीन रीति के अनुसार डॉक्टर से परामर्श लेने गए तो डॉक्टर ने कुछ टेस्ट करवाए। टेस्ट में कुछ समझ न आया तो डॉक्टर ने अल्ट्रासाउंड भी करवाया। 


               

अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट देख गाइनोकोलौजिस्ट डॉक्टर मार्टिन के चौड़े माथे पर तीन नीली सिलवटें उभरी और उनकी हरी नीली आँखों का रंग देखते-देखते बदल गया। झुंझलाते हुए कहा - सॉरी, गर्भधारण की संभावनाएं न्यूनतम है, पिछली बार आपने जब गर्भपात करवाया तो डी एन सी (सफाई) ठीक से नहीं हुई थी, रेशे रह गए थे। दुबारा डी एन सी करवा लें तो भी अब गर्भधारण खतरे से खाली नहीं। बच्चा हो भी गया तो असामान्य होने की सभावना बहुत अधिक है। अभिषेक आसमान से गिरा जैसे बिजली का नंगा तार छू लिया हो। हकलाते हुए किसी प्रकार रुक रुक कर शब्दों को बाहर धकेला, कक…  क्या कह रहे हैं डॉक्टर? वह तो गर्भवती ही नहीं हुई तो गर्भपात कैसा?


भोली पत्नी गच्चा खा गयी। सोच नहीं पायी कि शहरों की तरह देह का भी होता है अपना भूगोल और इतिहास कि विशेषज्ञ आखें उन्हें बांचने में कोई भूल नहीं करती।  

         

गर्म रेत पर पड़ी मछली सा छटपटाया अभिषेक। यह विश्वासघात? चाँद काला कैसे हो गया? हेत में रेत कैसे पड़ गयी? देहरी पर रखे जलते दीवड़े सा प्यार था उनका। फिर कब करवाया यह गर्भपात? सर घूमने लगा। सर पकड़ बैठ गए वहीँ। 


नहीं, यह झूठ है…। कलेजे को चीरती निकली एक आर्तनाद। जवाब पाने की उम्मीद में पत्नी की ओर ताका तो ठंडी उदासीनता से ख़ामोशी की बर्फ तोड़ते हुए कहा उसने धीमे से, यह सत्य है!

ओह नो!

  

इतना बड़ा राज मुझसे छिपाया गया? या इलाही माज़रा क्या है? वह वहीँ जम गया जैसे किसी अदृश्य रिमोट ने फ्रीज़ कर दिया हो उसे। 

सघन सन्नाटा! टिक टिक टिक .....!


कुछ पलों बाद चैतन्य हुआ तो वेदना की गहरी झील झिलमिलाई उनकी फटी फटी  विस्फारित आँखों में। 


आखिर जो सत्य सामने आया वह यह था कि शादी के छह महीने के भीतर ही पति की लापरवाही या सास के दादी बनने के ख़्वाब को चोखा रंग देने के लिए पति के धोखे के चलते (?) वह गर्भवती हो गयी थी। दो महीने बाद ही दोनों दूसरा हनीमून मनाने मुरक्का जाने वाले थे कि उसे पता चला कि उसे दो महीने का गर्भ है। उसने अपने मैके अजमेर जाने का प्रोग्राम बनाया, प्रोग्राम बनते-बनते पंद्रह दिन और निकल गए। वहां पहुंचते ही पंद्रह दिन के भीतर गर्भपात करवा वापस आ गयी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। 

           

भौंचक्क, स्तब्ध और प्रवंचित अभिषेक! कुछ दिन पूर्व पढ़ा था टोक्यो में आए भूकंप के बारे में, लगा उतना ही तीव्र भूचाल आ गया है जीवन में। सर चकरघिन्नी सा लगा घूमने। सब कुछ घूमने लगा, सोफा, टेबल, सामने की दीवार पर लगी बड़ी सी घडी, कार्नर टेबल पर पड़ी वीनस की छोटी सी कांसे की प्रतिमा, दीवार पर टंगी गोल गुदने से बच्चे की पैन्टिन्ग  … सब गोल-गोल घूमने लगी। कुर्सी के हत्थे को कस कर पकड़ लिया और आँखें मूँद ली उन्होंने।  

ओह नो!

          

वह रात नहीं ढली। आसमान और पहाड़ की रहस्यमयता और विराटता में खोया पछाड़े खाता मन ढल गया। तारों भरी रात के कमाल के बीच खोजते रहे अपने होने का अर्थ? राइम नदी किनारे भींगी-भींगी आँखों से देखते रहे  - तटों से टकराती, बिलखती नदी की शांत लहरों को। सदियों से चले आ रहे सैलानियों के रेलों को। ऊफ कितनी अबूझ है मानव प्रकृति! कितने उलझे सुलझे धागों से बुनी हुई ! कितना कुछ छिपा हुआ है जो दृश्य के बाहर है !

बाहर सन्नाटा झरता रहा भीतर नि :शब्द आंसू!


गहराती रात घर लौटे पर तब तक काफी कुछ दरक चुका था उनके भीतर। उफ़! अपने जैन संस्कार के चलते जिसने कभी एक चींटी तक नहीं मारी कि जीने का उन्हें भी अधिकार है उसी के बच्चे की भ्रूण हत्या? सुकुनदायी बिस्तर हल्दीघाटी का मैदान था। 


    

सुबह वीरतापूर्वक अपने पर काबू पाते हुए बेहद संयत स्वर में पूछा उन्होंने, ’क्यों? क्यों किया तुमने यह विश्वासघात? जानती हो कैसे मरता है भ्रूण भीतर? तीन महीने के भ्रूण के तो अंग तक बन जाते हैं। जानती हो गर्भ के भीतर कितनी बेरहमी से मारा जाता है उसे। उफ़! क्यों? क्यों किया ऐसा? क्यों छिपाया मुझसे? उनकी जलती और सवालिया आँखों में आँख डालते हुए जवाब दिया पत्नी ने, यदि मैं पूछती भी तो क्या आप मुझे करवाने देते अबॉर्शन? आप नहीं करवाने देते क्योंकि आपके गले में तो माँ का पट्टा पड़ा हुआ था। सोचो, क्या वह प्रेम और भरोसे वाला रिश्ता बन पाया था हमारे बीच? मैंने चाहा भी था कि आपको बता दूँ पर मेरे भीतर यह डर था कि आप नहीं करवाने दोगे मुझे गर्भपात। और अम्माजी? उनके तो बंद, एकाकी और उबाऊ जीवन के दो ही सपने थे - परमात्मा और पोता। वे तो मातम मनाना ही शुरू कर देती और यदि वैसा होता तो मैं उस समय जो महज 22 साल की थी, सिर्फ मुहब्बत थी, स्वप्नों और कामनाओं से भरी हुई थी, आसमान में उड़ना चाहती थी, दुनिया के सारे समुद्र के पानी का स्वाद चखना चाहती थी, क्या रेत सी नहीं बिखर जाती? मुझे लगा माँ तो मैं बाद में कभी भी बन जाऊंगी, माँ बनना मेरे लिए नियामत नहीं थी, मेरे लिए नियामत थी आपकी मुहब्बत और आपके साथ दुनिया घूमने का वह दुर्लभ अवसर जो मेरी सात पीढियों में सिर्फ मुझे ही नसीब हुआ था। मेरी सात पीढ़ियों में कोई भी अभी तक दिल्ली के लाल किले, आगरा के ताजमहल और जयपुर के हवा महल से आगे नहीं गया था। मैं उतनी महान नहीं थी कि हाथ आए चाँद को डूब जाने देती। बच्चा और आपका परिवार मेरी डोर वापस खींच लेता मुझे हवाई जहाज से वापस खचर-खचर चलती लोकल ट्रैन में बैठा देता। इसलिए मेरी कच्ची बुद्धि ने यही सुझाया मुझे। आपको क्या लगता है कि अबॉर्शन करवाना उतना आसान था मेरे लिए?कोई हलुआ नहीं था अबॉर्शन। कल्पना कर सकते हो उस दौरान  जिस यातना, खतरे, अनसोयी रातों और डर से अकेले गुजर रही थी मैं? और कितने बदलावों से गुजर रही थी मेरी काया? कंधे उचकाते हुए कहा उसने। शब्द-शब्द आक्रोश से तरबतर, हमारे प्यार की पहली निशानी को ही तुमने कुचल डाला और कहती हो कि तुम केवल मुहब्बत थी? तुमने सिर्फ अपने लिए सोचा अपनों के लिए नहीं। क्या तुम्हे नहीं लगता कि इस प्रकार मुझसे छिपा कर जो किया तुमने उसने कितनी खरोंचें डाल दी है हमारी प्रेम भरी जिंदगी में? आग्नेय दृष्टि से ताका उन्होंने उसकी ओर। 


हुज़ूरे आला! कोई तोप नहीं है जिंदगी कि कोई जंग न लगे कि कोई खरोंच न पड़े। मेरा मरण तो दोनों ही तरफ था, नहीं करवाती तो असमय अनचाहा मातृत्व मुझे मार डालता और आपको बताती तो आप करवाने नहीं देते …बोलते-बोलते आवाज़ कंपकंपा गयी थी उसकी।

            

‘कोई तोप नहीं है जिंदगी' शब्द खंजर की तरह गड़े उसके सीने में। ऊफ! क्या यह वही मासूम महुआ है जिसे जानता था वह? जो रूह में नूर भरती थी आज कैसे वह आत्मा में धुंआ भर रही है? भीतर बेकाबू क्रोध का वह गोला उठा कि सामने रखे कांच के ग्लास को पूरी ताकत से जमीन पर दे मारा। छन! छन! छनाक की गूँज थम जाने के बाद हांफती और खुरदुरी जुबान से दिया जवाब, तोप नहीं जिंदगी तो कोई सिगरेट का टुकड़ा भी नहीं जिंदगी कि मनचाहा नहीं मिला तो बुझा दी। अरे! हमारी जोड़ी को राम मिलायी जोड़ी कहते थे लोग, कभी दो चादर नहीं ओढ़े हमने, जो दुनिया हम दोनों ने मिल कर बनायी थी उसमें इतनी तोड़-फोड़ बिना मुझसे पूछे कैसे कर सकती थी तुम? मुझे विश्वास में लिया होता तो मैं तुम्हे समझाता कि कोख चाहे औरत की हो या धरती की, उससे छेड़खानी ठीक नहीं, परिणाम घातक होंगे। निकल जाता वह समय भी परस्पर प्रेम और सहयोग से,  पर आत्मा पर बोझ तो न रहता। अब न मैं पिता बन पाऊंगा, न तुम माँ और न मेरी माँ कभी दादी बन पाएगी। भविष्य के सारे स्वप्न और दरवाज़े बंद …. बोलते-बोलते कच्चा पड़ लगभग सुबकने ही लगा था वह। 


बलिहारी आपके प्रेम और सहयोग की! माँ बनने का मोल सिर्फ औरत को चुकाना पड़ता है, रात-रात की नींद और दिन का चैन उसका जाता है। आप क्या कर लेते? हम एक सपने के भीतर रहते जरूर थे पर उन सपनों के सारे नाक नक्श आपकी कल्पनाओं के अनुसार बने हुए थे, वह सिर्फ हम दो का सपना नहीं था उस सपने में आपकी माँ का स्वप्न भी मिला हुआ था - दादी बनने का जिसने मुझे सचमुच डरा दिया था। अधूरापन किस जीवन में नहीं हैं? आपकी माँ अभी भी बन सकती है दादी, बस थोड़ा ऊंचा सोचिये, उदात्त बनिए, हम किसी अनाथ बच्चे को गोद लें लेंगे। हमारी बगिया में कुछ न ऊगा तो क्या हुआ, दुनिया तो मरुस्थल नहीं? हम अपने को बड़ी दुनिया से जोड़ेंगे इसी बहाने भला होगा हमारा भी और किसी बच्चे का भी! सोचिये, क्या संतान ही हमारा प्राप्य है? दुनिया में बेशक हमारा घर है पर हमारा घर ही दुनिया नहीं है। पर आपकी तकलीफ यह है कि आपके संज्ञान और आपकी अनुमति के बिना हुआ यह गर्भपात, यदि आपकी जानकारी में होता तो शायद आपको इतनी तकलीफ नहीं होती। सारी आफत की जड़ आपका ईगो है कि जिंदगी की स्टीयरिंग मैंने अपने हाथ में क्यों ले ली? प्यार है ही नहीं आप में। प्यार होता तो इतने सवाल नहीं होते। प्यार में सिर्फ प्यार होता है। प्यार सिर्फ स्वीकृति है, संशय और सवाल नहीं। वह भी क्या प्रेम जो एक चूक पर ही मुंह से झाग उगलने लगे! जिस के धागे इतने पतले हो कि एक प्रतिकूल धारा से ही दरक जाए? बीवी हूँ बबुआ नहीं कि बिना पूछे अपनी राह चल ही ना सकूं? कमरे का तापमान एकाएक बहुत बढ़ गया था, उसे लगा झुलस ही जाएगी वह। फ्रिज से बोतल निकाल कुछ घूँट गुटके उसने और आवेग से कमरे में ही चक्कर काटने लगी।    


आज से पहले जब बोलती थी महुआ तो झड़ते थे फूल महुआ के। पर आज? ये दूध के दांत काटने वाले दांत कब बन गए?कैसे बन गए? कुछ पल घूरता रहा अभिषेक उसे। तीर छोड़ना जारी रखा उसने भी, वाह! क्या बात! तब तो इसका मतलब यह हुआ कि प्यार में हर प्रेमी और पति को बैल हो जाना चाहिए। संवाद होने ही नहीं चाहिए … तब भी नहीं जब सपने साझा हो, जिंदगी झुलस जाए और परिणाम पूरे परिवार को भुगतना पड़े … बोलते बोलते विद्रूपता से हंस पड़ा था वह, धब्बे सी एक मलीन हंसी!   

सवाल ही सवाल थे अभिषेक के दिमाग में!


हर सवाल का जवाब था महुआ के पास। बिल्ली झोले से बाहर निकल चुकी थी। अबीर और गुलाल की तरह उड़ते महकते प्रेम से लबालब भरे प्याले पर पंजा मार चुकी थी। क्या बाजल की फिजा में पंख निकल आए उसके या सचमुच ही समझ नहीं पाया वह उस पहेली को, उस अभेद्य रहस्मय किला को, जिसका नाम है औरत!  

               

मन एकदम ही मर गया था अभिषेक का, जैसे हजार-हजार बिछुओं ने एक साथ डंक मारा हो। न अपराध बोध, न ग्लानि, न दुःख, न पछतावा और न ही पकडे जाने की कोई शर्मिंदगी। उस एक पल ने उतार दिया जिंदगी का छिलका। छिल गयी आत्मा!

जो रिश्ता दो  जिस्म एक जान था वह रूस और यूक्रेन बन गया। 

                    

ऊफ! जिस प्रकार पत्नी ने उसके होने को नकार दिया था। दुःख, आक्रोश, अपमान, विश्वासघात और निरर्थकता का बोध अंश अंश में इस कदर दंश मारने लगा कि तिलमिला गए वे। घुटने लगा दम। रात दिन एक ही सवाल टंगा रहता अवचेतन में - क्यों किया उसने ऐसा? क्या अम्मा के चलते या कोई और कारण था? लाख चाहा उन्होंने कि स्लेट पर लिखी अवांछित इबारत की तरह मिटा दे वह सारे आक्रोश और नफरत को, फिर से लिखे जिंदगी की इबारत को मुहब्बत के लफ़्जों से, पर संशय का कीड़ा जो जबरन घुस गया था रात दिन जी तोड़ मेहनत कर रहा था वह। कुतर रहा था उनकी आत्मा को चूहे की तरह।

                

ढेर सारा समय इकट्ठा होता जा रहा था स्मृतियों में। रात-रात वह उस ढेर सारे समय से तीन साल पहले का वह छोटा सा काल खंड छांटता रहता जब करवाया था महुआ ने अपना गर्भपात। वह समय जैसे इकट्ठा हो, दृश्य बन चक्रघिन्नी सा घूमता रहता था उसके मानस में। प्रेम पर भरोसा करने और न करने के बीच की जो झिलमिल थी वह पूरी तरह प्रेम को न उजड़ने देती न जमने देती। इसलिए घर न जमा न पूरी तरह उजड़ा, अधर में ही झूलता रहा। अनजाने ही हिसाब चलता रहता। किस-किस से मिलती थी वह उन दिनों। जो बच्चा गिराया गया क्या वह उसका ही बीज था? क्या इस गर्भपात के निर्णय में महुआ की माँ, बहन और पिता भी शामिल थे ?

शायद हाँ! शायद नहीं!


क्या करे? कैसे पता लगाए? कभी पढ़ा था 1943 के बंगाल के भयंकर अकाल के बारे में, लगता है वह तो सिर्फ खेत खलिहान और फसल का अकाल था पर यह जो पड़ा है आत्मा का, विचारों का, संवेदनाओं का रिश्तों का अकाल, कैसे मुक्ति मिलेगी इससे?जितना सोचता अँधेरा बढ़ता जाता। नहीं पत्नी वेबफ़ा नहीं। कडुवे जरूर है बोल उसके पर नीयत में झोल नहीं। तो फिर क्यों छिपाई इतनी बड़ी बात?


महज यह डर कि मैं तैयार नहीं होता गर्भपात के लिए और उसे जाना था मोरक्को? पर क्या सचमुच यह मेरी लापरवाही के चलते हुआ? माना हुआ पर उसके लिए क्या उस जीव को दुनिया में आने से ही रोक दिया जाए? कुचल दिया जाए? 

सवाल! सवाल! और सवाल!


पढ़ी लिखी पत्नी का एक ही जवाब, - इतना मच मच? अरे ऐसा भी क्या हो गया जनाब जो आप इतने उखड गए? आप रहते हैं बाजल  में और 21 वीं सदी में , पर दिमाग घुसा हुआ है मध्य काल में। माना मुझे आपसे नहीं छिपाना था यह सब पर जो भी किया मैंने अपने अधिकार क्षेत्र में रह कर ही किया। देश का संविधान यह अधिकार देता है मुझे कि कोख पर मेरा अधिकार है। मैंने कोई अपराध नहीं किया है। कानों में जैसे गर्म लावा उतर गया था अभिषेक के। महुआ के तेवर भरे सुर गले नहीं उत्तर पा रहे थे उसके। जिंदगी में पहली बार ऐसा हुआ कि लफ्जों से जद्दोजहद चली उसकी। सही लफ्जों का चयन करते हुए कहा उसने, ग्रेट! जोर से बोलने से सच बदल नहीं जाता। प्यार और भरोसे का एक इंद्रधनुष टूट गया और तुम कहती हो कि ऐसा क्या हो गया? अरे जान पर बन आती या आन पर बन आती तब होता गर्भपात तो भी बात समझ में आती। पर सिर्फ जीने और भोगने की हवस में कितनी बहुमूल्य चीज हाथों से रेत सी फिसल गयी क्या तुम्हे इल्म है? ज़माना 21वीं सदी का हो या मध्य काल का, हत्या तो हत्या ही है। अरे! कोख बेशक तुम्हारी थी पर बच्चा तो हम दोनों का था, सपने तो साझे थे। फिर इसका क्या प्रमाण कि बीज मेरा था? आँखें और पंजे निकालते हुए कहा उसने, प्रेम में सिर्फ प्रेम होता है जनाब! कोई प्रमाण-पत्र नहीं होता है। समस्या यह है कि आप दिल से नहीं आँख और दिमाग से देख रहे हैं इसलिए आप मुझ तक पहुंच ही नहीं पा रहे हैं। सवाल प्रमाण का नहीं विश्वास का है और व्यक्ति वही विश्वास करता है जो वह करना चाहता है। मैं जो हूँ सो हूँ ... सोचिए आप जो सोचना है आपको … गर्दन को एक विशेष कोण पर मोड़ कर अपनी बड़ी बड़ी आँखें टिका दी उसने उस पर। 


शब्द-शब्द तल्खी और आत्मविश्वास से तर!

सवालों की नोक पर टंगा रहा वह!

पत्नी है या पहेली!


सांध्यकालीन आसमान की तरह पल-पल रंग बदल रही है जिंदगी! किसी रहस्मयी गुफा के द्वार की तरह खुल रहा है पत्नी का व्यक्तित्व जिसे झेल नहीं पा रहा है वह आत्मा का फड़फड़ाता टुकड़ा थी जो, जिसके लिए अरमान था कि जमाने की धूप तक नहीं पड़ने दूंगा, क्यों किया उसने ऐसा? जैसे कंप्यूटर में एमिनेशन होता है और पलक झपकते ही इंसान, इंसान से नुकीले दांतों और पंजों वाले खूंखार हिंसक शेर में बदल जाता है, वैसे ही प्रेमिका पत्नी उस एक पल में ही हिंसक और बेगानी बन गयी थी। सृष्टि में जो भी अच्छा है - आनंद, सौंदर्य, धूप, हवा, चांदनी, प्यार… सबके दरवाजे बंद। सब उस पार। पता नहीं आने वाला कल कैसा होगा?


दिन-रात चलता रहता युद्ध!

काश मन की भी होती कोई छलनी जिससे छन जाता सब अप्रिय, असुंदर और रह जाता बस सुन्दर और प्रिय!

पहेली सी पत्नी छन जाती और रह जाती सिर्फ सहेली सी पत्नी। 

पर ऐसी कोई छलनी नहीं थी उसके पास।

                    

उफ़! किस पेड़ से लिपट कर कहे मन की वेदना? किस बोधिवृक्ष के नीचे बैठ पाए ज्ञान, शांति? आत्मा की खुरचन तक में घुल गया था जहर । दिन भर सोचता रहता - हिसाब मांगेगी जिंदगी तो क्या जवाब दूंगा कि किसी को बचा तो नहीं पाया पर एक बेजुबान अजन्मे नन्ही जान की जान जरूर ले ली। कैसे करुँ इस टूटी-फूटी जिंदगी की मरम्मत? कला, साहित्य, संगीत, मंदिर, ध्यान , पूजा, ईश्वर ….. दरवेश बना हर चौखट पर गया वह मत्था टेकने ! 

पर नहीं मिला मन को अमन!

आंसुओं की अपनी जिद्द। 

प्रेम की अपनी जिद्द!

जिंदगी की अपनी जिद्द! 

                     

ढलती सांझ घिर आती, बाहर का अँधेरा भीतर के अँधेरे से मिल जाता। मायूसी और बढ़ जाती, उदासी और गहरा जाती। रात आती पर नींद न आती। रातें पहले भी आती थीं पर वे छोटी होती थीं। नींद और बातें बड़ी होती थीं। पर इन दिनों? इन दिनों रात बड़ी थी। नींद छोटी थी।रात दिन से ज्यादा शोर मचाती। नींद की नदी में हल्के-हल्के हिचकोले आना शुरू होते कि दिखने लगता वह अजन्मा बच्चा, कभी सवाल, कभी ख्वाब तो कभी ख्याल बन कर। कई बार नींद में ही ताली बजा कर गाने लगते, जाने कब की स्कूल में पढ़ाई गयी सूरदास की पंक्तियाँ - घुटरुन चलत रेणु तनु मंडित , मुख दधि लेप किये… आगे की पंक्ति भूल जाते, दिमाग पर जोर डालते कि घबड़ा कर आँखें खुल जाती उनकी।   


क्यों आते हैं ऐसे सपने? आज से पहले शायद ही कभी सोचा हो उन्होंने  सपनों के बारे में, जीवन के बारे में। क्या है जीवन? क्या है इसकी सिद्धि? इसका प्राप्य? इसका अर्थ? इस घटना की चोट से जैसे सब-कुछ एकाएक दीप्त हो उठा। रात दिन वह बस अपने होने को देखते रहते जो धीरे-धीरे नहीं होता जा रहा था।                    

       

एक मन कहता भूल जाए इस घटना को एक दुःस्वप्न समझ कर, तैयार करें जीवन का दूसरा ड्राफ्ट, जुड़ें दूसरे बड़े संसार से। निजीकरण के दौर में यह स्त्री का निजी मामला है और जब देश दुनिया में ही  सिकुड़ रहा है लोकतंत्र तो उसका  घर अपवाद कैसे हो सकता है, समय के कीचड से बच सका है कोई? तो दूसरा मन कहता कैसे भूल जाए? इससे मेरी माँ, मेरे ख़्वाब, ख्याल और सरोकार भी जुड़े थे। प्यार, भरोसा, सहमति, सह निर्णय क्या सिर्फ शब्दों की मीनार हैं?


पहला मन फिर जिरह करता - भूल इंसान से ही होती है, क्षमा कर दो उसे। क्षमा मुक्ति देती है। 

दूसरा मन जवाब देता - पर उसमें तो अपराध भावना तक नहीं, उस अनर्थ का अहसास तक नहीं, उलटे वह तो मेरे प्रेम पर ही उठा रही है सवाल! पलट दिया है सत्य का चेहरा?

           

मानिनी पत्नी ने न क्षमा मांगी न अफ़सोस ही जताया। शब्दों की फिजूलखर्ची से भी शायद चिढ थी उसे। काश एक बार कह देती वह ‘सॉरी'!

पर नहीं कहा उसने ऐसा! क्यों?

मन की अपनी जिद्द!

रहस्य्मय मन! कौन पा सका है इसकी थाह! 

              

कानी आँख से देखते पत्नी की ओर। उसके स्थिरप्रज्ञ तेवर उनकी घुटन और हताशा को और बढ़ा देते। वे कुढ़ जाते, वितृष्णा से कलेजा फुंक जाता। मन धधकता लाक्षागृह बन जाता। पत्नी दूर हो या पास, धूप, हवा की तरह समायी रहती उनकी चेतना और चिंतन में। दिन भर ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाय तो क्या है  … का टेप कानों में बजता रहता। स्वस्थ होने के लिए कई बार वे लम्बी-लम्बी साँसे लेते पर ले नहीं पाते, सांस बीच में ही टूट जाती। ध्यान लगाने की कोशिश करते तो जीवन और नैतिकता के सवाल आ दबोचते। पाँखुरी-पाँखुरी बिखर जाता मन, छीजती जाती देह। कई बार किचन में अपने लिए कॉफी बनाने लगते तो जैसे महुआ की आवाज़ आती - अभि ‘मुड़ कर देखते तो नहीं नहीं-नहीं-नहीं। आँखों के नीचे इतनी कालिमा इकट्ठी होने लगी थी कि एक दिन दर्पण में अपना चेहरा देखा तो देखते  रह गए।   

                

बहता रहा समय किसी रुक रुक कर बहते नाले की तरह। थमते थमते थमा घात प्रतिघात का दौर, जिसके थमते ही शुरू हो गया अबोला का दौर जो खिंचता रहा द्रौपदी के चीर की तरह। मनों में किरचें बढ़ती रहीं। अपने खोल में ही बंद पोटली सी पड़ी रहती उनकी काया। नींद की गोली, विटामिन की गोली… सब बेकार। इस बीच इस साल का सामान्य प्रोमोशन तक न मिला। अपने भीतर ही इस कदर खोए रहते वे कि छोटी-मोटी चूक प्रायः होने लगती। एक बार तो इतने अन्यमनस्क हुए कि बिना मौजे पहने ही पहुंच गए ऑफिस। एक बार घर की चप्पल में ही पहुंच गए, जब कलीग ने ध्यान दिलाया तो अपने भीतर से बाहर लौटे वे। सुदीर्घ खींच-तान के चलते भीतर कुछ इतने जोर से टूटा कि उसकी आवाज़ आसमान में उड़ते परिंदे, डाल पर काँव-काँव करते कौओं से होते हुए हजारों मील दूर बैठी माँ तक पहुंच गयी। आकुल व्याकुल माँ जिद्द करने लगी लौट आने की। अभिषेक की बेचैन रूह को भी घर के बिस्तर, यार दोस्तों की दिल्ल्गी, चुगली, निंदा सुख, पड़ौसिन मीना आंटी की बालकनी में लगे मोगरा के फूल, बड़ा पाव, पानी पूरी, मुहल्ले की गलियों और परचून की दूकान वाले लाला की गालियों की याद सताने लगी। अंतत: अमन की तलाश में मन को मनाने के लिए स्वदेश लौट आए कि अपने देश की जीवनदायी हवा, माटी और परिवार शायद भर दे उनके रिसते टीसते घावों को। जोड़ दे उनकी टुकड़ा-टुकड़ा आत्मा को। 

                      

पर एक घर छोड़ दूसरे में लौटना? जिंदगी ने यूं तो बहुत कुछ दिया था उन्हें पर घर को उनके नाम लिखना भूल गयी थी शायद इसलिए लौट कर भी क्या सचमुच लौट पाए वे? तीन बट्टा चार तो अपने को वहीँ छोड़ आए थे वे। दिन गुजरे, महीने और बीतते बीतते बीत गया साल। दिन भर खुद को काम में झोंके रहते, काम से मुक्त होते ही मन फिर वर्तमान से अतीत में गमन कर जाता। गमन करते ही कलेजे से चिपका दर्द टीसने लगता। भींग जाती पलकों की झालर। खरपतवार की तरह हो गया था वह रिश्ता, जितना वह काटते जाते, उतना ही वह फिर फिर उग आता। पिता न बन पाने की हूक़ अलग से उठती कि भर भर आती अँखियाँ। कुत्ते बिल्ली तक को अपने बच्चों के साथ चिपके देख बिसूरने लगते - मेरे से ज्यादा तो ये सुखी हैं। अपने बच्चों के साथ हैं। आत्मा पर कोई बोझ तो नहीं इनके।   


फिर वही सवाल - क्यों किया ऐसा? कानों में गूंजता पत्नी का निस्संग जवाब - कोई तोप नहीं है जिंदगी कि कोई जंग न लगे कि खरोंच न पड़े। 


दुःख केवल यह नहीं था कि हादसा हुआ, दुःख यह भी था कि भरोसे वाले प्यार पर भरोसा ही खत्म हो गया था उनका। दुखों का दुःख यह भी कि पत्नी को क्यों इसका दुःख और मलाल न था। 


जाते-जाते भी ताका था उन्होंने महुआ की ओर कि कहे वह कुछ, और नहीं कहे तो रोक ही ले। 

पर नहीं नहीं, नहीं, नहीं, नहीं! 





******


बहरहाल कोई भी दुःख जीवन से बड़ा नहीं होता। बहते-बहते बह जाता है दर्द, रह जाता है जीवन। दुनिया एक तरह से नहीं कई तरह से चलती है। जिंदगी की लय ताल टूटती है तो टूट टूट कर जुड़ती भी है। यही हो रहा है अभिषेक के भी साथ। आज की अलबेली अनूठी शाम ने बदल दिया है बहुत कुछ। चित्त और चेतना पर छा रहे हैं फिल्म 'बकेट लिस्ट' के कुछ दृश्य। टाइम और स्पेस की सबसे ऊंची छोटी पर खड़े विगत को देख रहे हैं और सोच रहे हैं - न हो कर भी जो रह रही है उसके साथ अहर्निश और रच रही है खुद को उनके भीतर …क्या है वह?यथार्थ की परतों के नीचे अभी भी स्पंदन, खामोशी, स्पर्श, और  स्मृति का वह संसार क्यों साँसे ले रहा है? अपने भीतर लौकिक से अलौकिक हो गए हैं वे। खुद को तरोताजा महसूस कर रहे हैं, सृष्टि की पहली सुबह की तरह। हल्की-हल्की विचार तरंगे थपेड़ रही है मन को। अढ़ाई साल पूर्व नेपथ्य में गयी दाम्पत्य प्रेम कथा जाने किन-किन अदृश्य छिद्रों से आज फिर मानस में हलचल मचा रही है। वक़्त की समझदार हवाओं ने गर्द, धूल, धुंआ और कुहासे को छांट दिया है और भर दिया है भोले मन को उम्मीद से। बेख़वाब मन को ख्वाबों से।  दिलकश संभावनाओं से। भीतर से उठ रही है आवाज़ - अफसाना अभी खत्म नहीं हुआ है। 


रेशे रह गए हैं!


उम्मीद! उम्मीद! उम्मीद! 

इस पल अभिषेक के लिए दुनिया का सबसे मीठा शब्द है उम्मीद!


खांडव वन सा जलता मन आज शांत वृन्दावन बन चुका है। साफ़ महसूस कर रहे हैं वे कि उनकी सवेदना के अदृश्य तार अभी भी जुड़े हैं महुआ से तभी तो उनकी 'बकेट लिस्ट' अधूरी है बिना उसके, उनकी डाल का दूसरा पाखी। दोष महुआ का नहीं इस पूरी सभ्यता का ही है, कहीं-कहीं उनका भी है। उन्होंने उसकी देह को जाना पर क्या सचमुच जान सके थे उसके मन को? पढ़ सके थे उस बाइस वर्षीय युवती को जो उनकी ही नयी नवेली उगी कामनाओं के पानियों की मछली थी। इसीलिए बच्चा उसके लिए सांस लेता जीवित प्राणी नहीं, उसकी आत्मा का अंश नहीं बल्कि गहरा अँधेरा था। उसकी जत्न से संजोयी खुशियों, दुनिया को देखने और भोगने की बेकाबू कामनाओं पर पोंछा लगाने वाला डस्टर! पर क्या वे भी बन पाए एक भरोसेमंद पति? उस आधी अधूरी अधसमझी कहानी को पूरा समझने की बजाय घबड़ा कर उन्होंने तो उसे ही परे सरका दिया! पहली बार लगा जैसे वे अनफिट हैं और काँप रहे हैं इस सभ्यता के सामने, ऐसी सभ्यता जिसमें आग ने जलना, हवाओं ने बहना और असमय अवसान हुए मातृत्व ने शोक मनाना छोड़ दिया है। यूं भी जब नया कुछ भी नहीं होना है जिंदगी में तो जो कुछ भी बचा है, बचाने लायक है तो क्यों न बचाया जाए? लोग अपनी इच्छा शक्ति से जेल को घर बना लेते है पर उन दोनों ने तो अपनी नादानियों से घर को ही जेल बना डाला है। अधूरी है दोनों की ही कामनाओं की अधबनी लिस्ट! क्या पूरी कर पाएंगे वे इसे बिना महुआ के? नहीं, नहीं, नहीं, नहीं !


अब पहल की जाए युद्ध विराम की। 

खुद को समझ रहे हैं, समझा रहे हैं अभिषेक। आँखें अनायास ही उठ जाती है ऊपर - अबीरी आसमान पृथ्वी पर झुका हुआ था।



    

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

 

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Ph : +91 - 9167735950

 

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टिप्पणियाँ

  1. कल यह कहानी पढ़ी। हालांकि यह विषय ज्वलंत है परंतु मधु जी ने इसे नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। कथा नायक और नायिका के अंतर्द्वंद्व को जिस कुशलता से उभारा गया है,वह बेमिसाल है। वर्तमान स्त्री विमर्श के कोण से भी इसे देखा जा सकता है। अभिषेक का अंत में मौन समर्पण बहुत कुछ कह जाता है। वह इस काहनी का केन्द्र बिन्दु है। यह महसूस करने वाली कहानी है जो लंबे समय तक जेहन में घुलती रहती है।
    - ललन चतुर्वेदी

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