महाराज कृष्ण संतोषी के काव्य संग्रह की मनोज शर्मा द्वारा की गई समीक्षा 'गणतंत्र में गौरया: जीने की नई वर्णमाला की इच्छा'

महाराज कृष्ण संतोषी 



कश्मीर का नाम लेते ही हमारे जेहन में अजीबोगरीब खयालात उभर आते हैं। जिसे कभी पृथ्वी का स्वर्ग कहा गया वह फिलहाल आतंकवाद, अराजकता, खून खराबे के जंजाल में उलझ कर रह गया है। वहां के मूल बाशिंदों को अपनी जन्मभूमि छोड़ कर निर्वासन में जीवन बिताने के लिए बाध्य होना पड़ा। महाराज कृष्ण संतोषी ऐसे ही कवि हैं जिनका जन्म तो कश्मीर में हुआ लेकिन निर्वासन में जम्मू का रुख करना पड़ा। जन्मभूमि से निर्वासित होना एक भयावह त्रासदी की तरह है। हालांकि अपनी कविताओं में वे इस त्रासदी पर विलाप नहीं करते बल्कि उस जद्दोजहद की बात करते हैं जो आमतौर पर एक व्यक्ति के हिस्से में ही होता है। संतोषी जी का अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद से हाल ही में एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है 'गणतंत्र में गौरैया'। इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है कवि मनोज शर्मा ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं महाराज कृष्ण संतोषी के कविता संग्रह गणतंत्र में गौरैया' की मनोज शर्मा द्वारा की गई समीक्षा 'गणतंत्र में गौरया: जीने की नई वर्णमाला की इच्छा'।




गणतंत्र में गौरया: जीने की नई वर्णमाला की इच्छा


मनोज शर्मा



'मैं जहाँ खड़ा हूँ
वही है मेरी पृथ्वी का केंद्र
यहीं मैं दिखूँगा लहराते हुए
जीवन की पताका
ओ मेरी पृथ्वी !
मेरे आकाश का विस्तार करते रहना...'


महाराज कृष्ण संतोषी, मूलतः कश्मीर से हैं। उनके पाँच कविता-संग्रह आ चुके हैं। कई पुरस्कार भी खाते में हैं। मौजूदा दौर में जब पुरस्कारों की कोई प्रासंगिकता नहीं बची, हमें किसी भी कवि को उसके रचना-कर्म से ही जानना होगा। संतोषी जी का सद्य:प्रकाशित कविता-संग्रह 'गणतंत्र में गौरेया' हाथ में है। इसी बहाने से कुछ बात चलाते हैं।


संतोषी हमारे वरिष्ठ कवि हैं। कश्मीर से विस्थापित हो कर जम्मू में रह रहे हैं। उनके व्यक्तित्व में ख़ास तरह का ठहराव है और बातचीत में विटी स्वभाव के हैं। उनके चरित्र की यही बात उनकी रचनाओं में बेहिचक उतरती है। अपनी कविताओं में वे किसी भी तरह से, किसी भी पक्ष से बड़बोले नहीं हैं।



गहराई से देखें तो वे अस्मिता और प्रतिरोध के कवि के रूप में सामने आते हैं। यह प्रतिरोध किसी राजनैतिक-जुमले की मानिंद नहीं खुलता। इसमें जहाँ एक ओर कश्मीर की जड़ों में स्थापित मिथक हैं, ग़र्क होता ' धरती का स्वर्ग ' है,  तो वहीं एक सामुदायिक चेतना भी है। निर्वासन हालांकि उनके यहाँ किसी मेटाफर की तरह आता है, किंतु वे निर्वासन पर बेतहाशा विलाप करते नज़र नहीं आते। संतोषी की कविताओं में रची-बसी स्मृतियां दरअसल ऐसी चेतना उत्पन्न करतीं हैं, जिसमें लोक व प्रकृति का चौतरफा जीवंत होता है। जैसा कि ' लोर्का' ने कहा है, "हमारे घर के आंगन में कुछ चिनार के पेड़ थे एक दोपहर मुझे लगा कि वे गा रहे हैं..." (संदर्भ : खिड़की के पास कवि)


संग्रह की इन कविताओं में 'बुद्ध' व्याप्त हैं।


'मैं क्या करूँ
मेरी इच्छाएँ
मुझे आकार देती हैं...'

०००

'बुद्ध !
तुम्हारी नश्वरता से अधिक
मैं अपनी नश्वरता से डरता हूँ...'

०००

'बारिश में भीग रही स्त्री थी
और मैं खिड़की से देख रहा था
उसका बदन
बुद्ध
मैं क्या करता
खिड़की बंद कर देता
तो भी वह स्त्री
मुझसे ओझल नहीं होती।'


इस गड्डमड्ड होते समय में, जब स्वप्न से ले कर यथार्थ तक, उम्मीद से लेकर धैर्य तक, परिचय से ले कर, भाईचारा तक टूट रहे हों, उस समय एक कवि, जो अपनी पीठ पर छूट चुकी ज़मीन का भार उठाए है ('शरणार्थी शिविर में दीपोत्सव', 'निमंत्रण') आपसे संवाद साधता है। इस संवाद में कवि आप पर कुछ थोपता नहीं, वह अपनी बात कह कर पाठक पर छोड़ देता है कि वह अपनी तरह से इस कहे में जाए, इसे परखे और यदि चाहे तो इसमें उतरे। संतोषी कहीं भी अंतिम पूर्णविराम नहीं लगाते। उनकी यही एप्रोच उन्हें अलग धरातल पर स्थापित करती है। उनकी 'युद्ध और तितलियां', 'मिट्टी के हिरण', 'पढ़-पशु' कविताएँ इसकी गवाही देती हैं।


इस संग्रह का आमुख लिखते हुए स्वप्निल श्रीवास्तव कहते है, "संतोषी उन कवियों में नहीं हैं जो हमेशा क्रांति मुद्रा में रहते हैं और कविता उनकी पकड़ से छूट जाती है।" कहना न होगा कि गहरे अर्थों में वे ज़िम्मेदार राजनैतिक कविता ही लिख रहे हैं। यहाँ उनकी कविताएँ, 'ऐनक', 'नादिम का कोट' और 'माँ, उपन्यास दोबारा पढ़ते हुए' विशेष रूप में चिन्हित की जा सकती हैं। और यह कविता-पंक्तियां देखें :


'मेरा दुर्भाग्य यह नहीं
कि मुझे वह सब कुछ नहीं मिला
जो मुझे चाहिए था
मेरा दुर्भाग्य यह है
मैंने हमेशा अपना लोहा
आग से बचाए रखा...' 

(स्वीकारोक्ति)



एक शाश्वत उदासी अलग से उनके साथ रहती है। उनकी कविताओं में बार-बार व विविध रूपों में 'चाँद' उतरता है। वे मौलिक सौंदर्य-बोध के कवि हैं। जहाँ प्रचलित बिंबावली नकार दी जाती है तथा यहीं ही भाषाई करामात आकार पाती है। वे दो काव्य-पंक्तियों के बीच भी कविता कहते मिलते हैं, जैसे :


'यहाँ तक कि कुछ लोग
चाँद पर भी उँगली उठाएंगे
और उसे नक्सलियों का समर्थक मान कर
उसके भूमिगत होने की अफवाह उड़ाएँगे...'

(चाँद के बहाने)

०००

'तारों को बूढ़ों का खाँसना अच्छा नहीं लगता
और बूढ़ों को तारों का टिमटिमाना नहीं भाता
पर अजीब बात है
बूढ़ों की संसद में
इस विषय पर कभी कोई चर्चा नहीं होती ...' 

(बूढ़ों की संसद)






इस संग्रह की कविताओं में दृश्य गतिमान होते हैं, कि यहाँ कहीं भी परम्परागत अर्थछायाएँ उत्पन्न नहीं ही होंती। वे अलग तरह की फैंटेसी का निर्माण भी करते हैं :


'लेकिन तुम अगर
रखवाली की जगह
परिंदों को कविताएं सुनाओगे
और जानवरों से दोस्ती करोगे
तो न बचेंगे खेत और न ही तुम...' 

(बिजूका)


ये कविताएँ परिस्थितियों के बीच से बिंब व रूपक उभारती हैं:


'सच कहूँ
तुम कहीं भी रहो कुछ भी करो
मेरे लिए तुम हो बांस का वह टुकड़ा
जिसने बांसुरी बनने का सपना देखा...' 

(ख़ुद को सम्बोधित कविता)।


इस संग्रह की कविताओं में अक्सर कवि मिथक को टूल बना कर ध्वस्त होती सभ्यता व धुंधलाती जा रही संस्कृति को प्रकृति, परिंदों व मनुष्य के गुंफन सहित स्थापित करते हैं। इन कविताओं में अंतर्निहित दर्शन-बोध, दरहकीकत इन कविताओं को समझने की कुंजी है, जो संग्रह की 'मिनी कविताएं' में मूर्त हुआ है :


'मिट्टी के देवता
कितने भी पूजे जाएँ
पर वे डरते हैं बारिश से...'

०००

'यहाँ जो जितने सभ्य हैं
वह उतना डरपोक क्यों है
यह सोचते हुए अक्सर
मैं इस दुविधा में पड़ जाता हूँ
पहले क्या हूँ
सभ्य या डरपोक ...'


यह संग्रह विविधवर्णी, विविधार्थी, विविधायामी है और पढ़े जाने की माँग करता है। मैं निजी तौर पर इसका हार्दिक स्वागत करता हुआ, निर्वासन जीते कवि के पक्ष में प्रसिद्ध फिलिस्तीनी, निर्वासित कवि 'महमूद दरवेश' की ये काव्य-पंक्तियां (अनुवाद : विजय कुमार) रखता हूँ :


'ऐसे मुल्क में जहाँ लोग तमतमा रहे हैं
मैं सब्र से भरा हुआ
मेरी जड़ें धंसी हुई हैं
वहीं अनादि काल से
युगों से पहले
देवदार और जैतून के दरख़्तों पहले
और घास के उगने से भी पहले ...' 

 

'गणतंत्र में गौरेया', महाराज कृष्ण संतोषी, अनामिका प्रकाशन, 15/2, तुलाराम बाग, प्रयागराज-211006, मूल्य : 199/-




महाराज कृष्ण संतोषी :

जन्म: 1954 (कश्मीर में)

कवि, कहानीकार और अनुवादक। 1974 में लिखना शुरू किया। पहला कविता संग्रह 1980 में प्रकाशित हुआ था। अब तक उनके पाँच कविता संग्रह- 'इस बार शायद', 'बर्फ पर नंगे पाँव', 'यह समय कविता का नहीं', 'वितस्ता का तीसरा किनारा', 'आत्मा की निगरानी में' और एक कहानी संग्रह- 'हमारे ईश्वर को तैरना नहीं आता'; प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कविताओं के अनुवाद अंग्रेज़ी, तेलगू, डोगरी, पंजाबी और गुजराती में हो चुके हैं। 

सम्पर्क:
फोन नम्बर- 9419020190




मनोज शर्मा

मनोज शर्मा जी का जन्म 24 अगस्त, 1961, को गाँव कितना (गढ़शंकर, पंजाब) में हुआ। उनके लेखन-कर्म के लगभग तीन दशक जम्मू में बीते हैं। वे स्वतंत्र पत्रकारिता, अनुवाद, रंगमंच, नुक्कड़, पोस्टर-कविता आदि क्षेत्रों में सक्रिय रहे हैं। इन्होंने ‘संस्कृति मंच जम्मू' की स्थापना की, और इस बैनर तले अनेक आयोजन करवाए। वे ‘दैनिक कश्मीर टाइम’ में फिलहाल नामक स्तम्भ भी लिखते रहे हैं। इसके अलावा इन्होंने हिन्दी से पंजाबी और पंजाबी से हिन्दी अनुवाद (साहित्यिक) भी किए हैं।  बैंक से सेवानिवृत्त हो कर वे अब होशियारपुर पंजाब में रह रहे हैं। उनके कविता संग्रह इस प्रकार हैं: 

यथार्थ के घेरे में, यकीन  मानो मैं आऊँगा, बीता लौटता है, ऐसे समय में, मील पत्थर बुला रहा, आवाज़ की खनक, यह दीयों में तेल डालने का समय है। 




सम्पर्क:

मेल आई. डी.- smjmanoj.sharma@gmail.com
मोबाईल : 7889474880

टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूबसूरत कविताएँ व खूबसूरत समीक्षा मनोज की। दोनों को साधुवाद ।

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