हृषिकेश सुलभ के उपन्यास पर केतन यादव की समीक्षा 'दातापीर : कब्रिस्तान से झाँकता एक नया संसार'

 




अत्याधुनिक तकनीकी दौर में अब किताबों के पढ़ने की संस्कृति पर खतरे मंडराने लगे हैं। इस बात को स्वीकार कर पाना हमारे लिए आज भी कठिन है लेकिन सच को भला कैसे झुठलाया जा सकता है। बहरहाल ऐसे दौर में ही जब कोई ऐसा उपन्यास आता है जो पाठकों को सहज ही अपनी तरफ आकर्षित करता है, तो यह आश्वस्त करता है कि किताबों के पढ़ने की संस्कृति जिंदा रहेगी। हृषिकेश सुलभ का नया उपन्यास 'दातापीर' ऐसा ही उपन्यास है जो ऐसे वर्ग पर लिखा गया है जो अल्पसंख्यक होने के साथ साथ उपेक्षित भी रहा है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि राजनीतिक दुनिया में अल्पसंख्यक वर्ग एक ऐसे हथियार की तरह होते हैं जिनका उपयोग राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए किया करते हैं। लेकिन साहित्यकार के लिए यह मुद्दा संवेदनशील होता है। बहरहाल जैसे पत्थरों के बीच हरियाली पनप आया करती है वैसे ही विकट परिस्थितियों के बीच ही प्रेम पनप आता है। सुलभ जैसे सामर्थ्यवान रचनाकार ने इसे अपनी दास्तानगोई के बीच ही संभव कर दिखाया है। युवा कवि केतन यादव ने 'दातापीर' उपन्यास को डूब कर पढ़ा है और इस पर को लिखा है उसे खुद वे 'एक पाठक के नोट्स भर' कहते हैं।इस उपन्यास को अपनी पाठकीय कसौटी पर कसते हुए केतन लिखते हैं उपन्यासकार ने 'शास्त्र की जगह लोक को चुना है और पुन: लोक सफल रहा है। क्यूँ कि उसमें व्यापक जन-सरोकार हैं, उनमें व्यापक जन-जीवन है।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हृषिकेश सुलभ के उपन्यास 'दातापीर' पर केतन यादव की समीक्षा 'दातापीर : कब्रिस्तान से झाँकता एक नया संसार'।


'दातापीर : कब्रिस्तान से झाँकता एक नया संसार'


केतन यादव 


उपन्यास के लगभग अंत में अमीना कहती है, “यह कबरगाह है साबिर। यहाँ आने के बाद सिरफ़ मुर्दे रुक जाते हैं। दूसरे लोग रुकने के लिए नहीं आते। वे लौट जाने के लिए आते हैं।” यह उपन्यास एक ऐसी जगह की गाथा है जहाँ से हम गुज़रते तो हैं पर कल्पना नहीं कर पाते कि मुर्दों के बीच भी कोई जिंदगी पल सकती है। ऐसी जगह पर हृषिकेश सुलभ ठहरते हैं और हिंदी को इस नये संसार से परिचित कराते हैं। मुझे याद नहीं है कि इस तरह की पृष्ठभूमि पर हिंदी में अन्य कोई उपन्यास लिखा गया है। आज हम जिस कठिन समय में जी रहे हैं जब लगातार देश का एक अल्पसंख्यक समुदाय टार्गेट पर, वह किसी राजनीति साध्य का दशकों से प्रिय साधन बना हुआ है, उसका चरित्र वर्षों से आक्रांत उन्मादी दंगा-फसाद वाला ही लगभग दिखाया गया है ऐसे समय हृषिकेश जी उनके जीवन की प्रेम कहानी चुनते हैं। वास्तव में प्रेम हिंसा के विरुद्ध सबसे सशक्त कार्रवाई है। जो स्थान उपन्यास में वर्णित है वही लेखक का वास्तविक पता भी है - पीरमुहानी, मुस्लिम कब्रिस्तान के पास, कदमकुआँ। मानो लेखक ने वहीं पड़ोस से एक कहानी चुन लिया। उपन्यास पढ़ कर लगता है कि यह सारे पात्र लेखक के आस-पास के हैं और शायद ही इसमें से कोई घटना कल्पित हो। हिंदी साहित्य में लेखक अमूमन उच्च वर्ग और मध्य वर्ग की कहानी तक ही ठहर जाते हैं। एक अलग तरह की आभिजात्यता और एक मध्यवर्गीय जीवन, मध्यवर्गीय संघर्ष ही दिखता है हर जगह। मज़े की बात यह है कि अक्सर निम्न वर्ग की कहानी भी उनके मध्यवर्गीय जीवन पर आ कर खत्म होते दिखाई देती है। 'दातापीर' एक अति निम्नवर्गीय जीवन के संघर्ष, प्रेम, वियोग, धोखे आदि की महागाथा है। एक जीवन उनके यहाँ भी घटित होता है जिससे हम अपरिचित रह जाते हैं। वरिष्ठ कथा समीक्षक वीरेंद्र यादव ने 'दातापीर' के मुस्लिम पात्रों की पड़ताल एक पसमांदा मुसलमान के रूप में की है जिनकी जिंदगी वर्तमान में राजनीतिक विमर्श के मुख्य केंद्र में है। आज जब बहुसंख्यकवाद के इस समय में अल्पसंख्यक जीवन एक प्रश्न के रूप में हमारे सामने है उस समय लेखक ने उस समुदाय के लोगों के बारे में कहने के लिए ऐतिहासिक कथा नहीं रची बल्कि एक आम कहानी के माध्यम से उनके संपूर्ण जीवन संघर्ष को दिखा दिया। शास्त्र की जगह लोक को चुना है और पुन: लोक सफल रहा है। क्यूँ कि उसमें व्यापक जन-सरोकार हैं, उनमें व्यापक जन-जीवन है।

                     

कथाकार एवं सफल रंग निर्देशक, नाट्य समीक्षक हृषिकेश सुलभ हिंदी से जिस अछूते संसार का परिचय करा रहे हैं वह बहुत मामलों में अलग एवं महत्वपूर्ण है। बहुत ही सामान्य कविता जैसी भाषा में रचा गया यह गद्य बहुत सहज एवं तीक्ष्ण है। यह बात मुझे स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि यह उपन्यास पढ़ते समय मैं दो बार रोया। एक तो समद और ज़ूबी के प्रेम के त्रासद अंत के वृतांत में और दूसरी बार अमीना के वियोग वर्णन के समय उपन्यास खत्म करने के साथ एक रिक्तता मन में भर जाती है। उपन्यास के सारे पात्र अपने से लगने लगते हैं। एक ऐसा साधारणीकरण होता है कि उन पात्रों सा जीवन न होते हुए भी उनका जीवन हमारा जीवन हो जाता है, उनकी वेदना उनकी त्रासदी हमारी अपनी हो जाती है। वेब सीरीज और सॉर्ट वीडियोज के इस दौर में जब अच्छी कहानी सुनने के लिए ऑडियो स्टोरी और पढ़ने के किंडल जैसे ई प्लेटफॉर्म हैं ऐसे तकनीकी और भागते हुए समय में ढाई सौ पेज का यह उपन्यास व्यवस्थित साहित्य का महत्व भी बता रहा है। क्यूँ कि चाह कर भी उन शॉर्ट वीडियोज और वेब सीरीज में इतनी सघनता से यह सब कुछ नहीं दिखाया जा सका है । दूसरी बात यह कि फिल्म और सीरीज ऐसी पटकथा पर बनी भी है तो श्मशान की कब्रिस्तान की नहीं। 'मसान' मूवी के माध्यम से जिस तरह हाशिए पर पड़े अछूत लाश फूँकने वाले इंसानों की जिंदगी दिखाई गयी है वैसे ही 'दातापीर' उपन्यास से प्रेरणा ले कर कब्रिस्तान के जीवन पर फिल्म बनाई जा सकती है। 'दातापीर' उपन्यास नाटक के रूप में भी सफल होगा अपनी बुनावट और कसावट के कारण। 


हृषिकेश सुलभ



कब्रों के मध्य बसे इस उपन्यास में बेवा रसीदन की लाचारी है, अमीना को प्रेम मिला धोखा है उसकी टीस है, साबिर के निर्णयहीनता की मजबूरी है, मुँहफट चुन्नी के नखरे हैं, चुन्नी के आशिक बबलू की आवारागर्दी है, फजलू के सीमित जीवन का अंत है, सत्तार मियाँ की ढीठाई है, समद और जूबी के प्रेम कहानी की त्रासदी है, पैसे रोटी की जुगत है, गांजा और पाउच है, चोरी-चमारी, खस्सी खाल का व्यापार, माँस गोदाम की दुर्गंध, पीरमुहानी कब्रिस्तान से गांधी मैदान और वहाँ सुल्तानगंज के इलाके, पीर मजार मंगता फकीरी, राधे का टी स्टाल, बबीता की बहादुरी, रसीदन के नाना की फ़कीरी, सुर्खी चूने के झरे हुए किराए के मकान हैं, शहनाई है और एक शहनाई बजाने वालों के खानदानी पेशे आदि दृश्यों संदर्भों के व्यापक चित्र हैं।

            

उपन्यास में जगह-जगह मीर और खुसरो की पंक्तियाँ हैं। हज़रत 'दातापीर' मनिहारी थे। घूम-घूम कर चूड़ियाँ पहनाते थे। बहुत अच्छा गाते थे। 'दातापीर' अक्सर ब्याह के गीत गाते थे। उपन्यास में खुसरो के लोकगीत का जिक्र है (हरे हरे बाँस कटावो मोरे अंगना...) जिसे शारदा सिन्हा ने भोजपुरी लोकगीत के रूप में आवाज़ दिया है उसके बोल कुछ बदल कर यूँ हैं ‘हरे हरे हरे बाबा बँसवा कटहईया, ऊँचे ऊँचे मड़वा छवईहा हो।’ उपन्यास में बिहार के लोकगीतों और लोकप्रतीकों की भी छुटपुट मगर गहरी पड़ताल है। बिहार में शराबबंदी और उसकी अवैध तस्करी का भी जिक्र आता है। रसीदन के पति नसीर मियाँ की मौत के बाद सत्तार मियाँ पहले रसीदन पर डोरे डालता है और छद्म सुरक्षा महसूस करवाता है फिर उनकी दोनों बेटियों विशेषकर उपन्यास में बार-बार बड़ी बेटी अमीना पर गंदी नज़र डालता है। विडंबना यह है कि समद और ज़ूबी का प्रेम सफल नहीं होता, साबिर और अमीना नहीं मिल पाते, बेवा रसीदन और साबिर की दो खालाओं का अकेलापन है पर ठरकी सत्तार की अंत में फिर शादी हो जाती है। उपन्यास में एक ओर हिंदु-मुस्लिम सौहार्द कौमी एकता का चित्रण है जैसे - “आज भी इस मोहल्ले में उसे बेटी-बहिन की हैसियत मिली हुई थी। लोगों के घर में उसका आना-जाना था। होली-दीवाली में कई घरों से उसके लिए पूआ-पूरी और मिठाई मिलती थी। छठ के पहले इस सड़क की सफ़ाई और सजावट का ज़िम्मा फजलू और साबिर के ऊपर ही रहता।” तो दूसरी तरफ बबलू और चुन्नी के प्रेम संबंध के प्रकरण के माध्यम से साम्प्रदायिक धार्मिक तनाव का चित्रण है - “...आजकल दिन-रात साला हिंदू-मुसलमान लगा हुआ है, सो हम समझा रहे हैं । हमको तो डर है कि किसी दिन पकड़ा गया बबलुआ तो भारी तूफ़ान मचेगा।”

       

उपन्यास में ज़ूबी और समद के प्रेम का अलग वर्णन है। समद का मीर की शाइरी पर पीएचडी करना, प्रेमी समद की सफलता के लिए ज़ूबी का दरगाह-दरगाह मिन्नतें पूरा करना, ज़ूबी के पिता द्वारा उसकी जबरन शादी, निकाह के समय ज़ूबी का निकाह कुबूल न करना और जुझलाए पिता द्वारा पुत्री की हत्या और इस कथा की परिणति समद का समदू फ़कीर बन जाना सब कुछ बहुत हृदयभेदी लगा। “ज़ूबी ने ख़ामोश नज़रों से समद को देखा। सुबह के साफ़-शफ़्फ़ाफ़ आसमान में मानो किसी हीरक तारे ने एक पतली लकीर खींच दी × × × × × ×  ज़ूबी को समद हमेशा एक उदास नज़्म की तरह लगते। ऐसी नज़्म जिसमें पाने से ज़्यादा खोने की हक़ीक़त दर्ज हो।” रसीदन अपने मृत नाना से बहुत प्रेम करती है। मृत फ़कीर नाना बार-बार संकट के समय उसके स्वप्न में प्रगट होते हैं और वह उनसे बात करने लगती है। दूसरी तरफ समदू फ़कीर का प्रेमोपदेश रसीदन सहित चुन्नी की जिंदगी पर भी प्रभाव डाल देता - “मुहब्बत बड़ी शै है बाजी... सबको नसीब नहीं होती। ... अल्ला ताला की रहमत है मुहब्बत। नसीबों वाली है लड़की। ...कोसो मत उसे।.. बाजी, उसे पैदा करने की क़ीमत मत वसूलो उससे।”


साबिर की माँ की मौत साबिर के पैदा होते ही हो गई थी। अपने मृत माँ-बाप की तस्वीर लेने ननिहाल जाता है और वहाँ से उसके जीवन में एक अप्रत्याशित परिवर्तन शुरू हो जाता है। साबिर ननिहाल जा कर काम की बोझ तले वह बन जाता है जो वह नहीं बनना चाहता है। धीरे-धीरे अमीना से उसकी दूरी बढ़ जाती है। यहाँ यह घटना बिल्कुल 'आषाढ़ के एक दिन' की तरह सी कुछ-कुछ हो जाती है। खुद्दार अमीना अपनी मजबूरी और अपनी दशा दिनों बाद लौटे साबिर से नहीं कहती है। दुःख में वह सूख कर काँटा हो जाती है। जिस तरह 'आषाढ़ के एक दिन' में मल्लिका अपनी माँ का जीवन दुहराती है ऐसे ही यहाँ अमीना रसीदन का जीवन जीने लगती है। रसीदन का फजलू के इलाज में व्यस्त होने के कारण अमीना कब्र खोदने और मैय्यत के व्यवस्था तक का काम करने को मजबूर हो जाती है। रसीदन और अमीना के आँखों के सामने फजलू  बुरी तरह प्राण त्यागता है और उन दोनों को अपने बेटे-भाई की कब्र खोदनी पड़ती। यह हृदयविदारक त्रासदी स्तब्ध कर देती है। इस प्रकार 'दातापीर' प्रेम की त्रासद परिणति भी है। आम मुस्लिम पात्रों की जीवन से बुनी हुई कहानी प्रेमचंद के 'ईदगाह' की तरह गैर मुसलमान पाठकों को उनके करीब ले आती है उनके प्रति संवेदनशील बनाती है। 'दातापीर' पढ़ कर मन और नम होता है, उदार होता है और एक गहरे रिक्तता से भर जाता है। मन होता है साबिर को खींच कर अमीना के सामने ला कर खड़ा कर दिया जाए और उसके साथ पाठक ही न्याय कर दे।                                                                                


उपन्यास - दातापीर (2022) 

लेखक - हृषिकेश सुलभ

प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली   

मूल्य - रु 250






सम्पर्क

केतन यादव

मोबाइल : 8840450668


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