प्रणय कृष्ण का आलेख 'जीवन-विवेक की उदात्त रागिनी'

शेखर जोशी 



अक्सर यह होता है कि एक लेखक एक साथ कई विधाओं में लेखन करता है। कहानी, कविता, उपन्यास, आलोचना, संस्मरण आदि विधाओं में परस्पर आवाजाही होती रहती है। इसका कोई एक सुनिश्चित कारण तो नहीं है। हां, यह कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति की सहजता की अनुभूति जिस विधा में भी होती है, लेखक अपना लेखन उसी विधा में करता है। शेखर जोशी हिन्दी साहित्य के चर्चित कथाकार हैं। लेकिन कहानी के अलावा उन्होंने कविताएं और संस्मरण भी लिखे हैं। जब उनका कहानी लिखना बन्द हो गया, तब उन्होंने कविताएं लिखी। शेखर जी की ये कविताएं परिपक्व कविताएं हैं। उनके कविता संग्रह 'न रोको उन्हें शुभा' का प्रकाशन तब हुआ जब वे अस्सी वर्ष की उम्र पूरी कर चुके थे। प्रख्यात आलोचक प्रणय कृष्ण ने शेखर जी के इस संग्रह के बहाने शेखर जी के काव्य मर्म की गहन पड़ताल की है। यह आलेख अनहद के जनवरी 2014 अंक से आभार लिया गया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रणय कृष्ण का आलेख 'जीवन-विवेक की उदात्त रागिनी'।




'जीवन-विवेक की उदात्त रागिनी'


प्रणय कृष्ण


अस्सी साल की उम्र में यदि किसी कवि का पहला कविता-संग्रह आए, वह भी ऐसे कवि का जो दशकों से हिन्दी का शीर्ष कहानीकार हो और जो लगभग आधी सदी से चुपचाप कविता लिखता रहा हो, तो यह सामान्य घटना नहीं है। संग्रह को पढ़ कर मन पर जीवन- विवेक की उदात्त रागिनी सा असर होता है जिसे जीवन-संघर्ष के स्वरों के उतार-चढ़ाव को समेट कर, किन्तु मद्धिम सुरों में खूब डूब कर गाया गया है। डूब कर जीने और रचने की आकांक्षा इस संग्रह की 'पुनर्जन्म एक प्रार्थना' शीर्षक कविता में मछली के रूप में पुनर्जन्म की इच्छा में व्यक्त हुई एहै-


मेरी चिर इच्छा है

कि डूब कर पानी पीऊँ

जब तक जीना है प्रभो

मस्ती में जीऊं


इस संग्रह की कविताएँ जीवन-जगत के प्रति कवि की संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं का सम्प्रेषण नहीं, बल्कि सुदीर्घ जीवनानुभव के कवि के अन्तःकरण में रच-पच कर जीवन- विवेक (विज़डम) में ढल जाने का सम्प्रेषण करती हैं। जीवनानुभवों की विविधता, मुखरता, उद्वेग और उत्ताप जीवन-विवेक की प्रशमित, संयमित, गम्भीर भाषा और टोन की गहरी, तटस्थ छाप और रंगत लिए यहाँ उपस्थित हैं। यह शेखर जोशी के अपने कवि-स्वभाव या कवि-व्यक्तित्व की विशेषता है। शेखर जोशी का कविता संग्रह 'न रोको उन्हें शुभा' का प्रकाशन सिर्फ 'स्मृति को दोबारा जीने की इच्छा' का परिणाम नहीं है, जैसा कि शेखर जी ने विनयवश 'अपनी ओर से लिखा है, बल्कि अगली पीढ़ियों के प्रति गहरे दायित्वबोध से प्रेरित है। संग्रह की शीर्षक पंक्ति जिस कविता से ली गयी है, वह इसका प्रमाण है। यह रोज़मर्रा में खर्च हो रही पीढ़ी द्वारा अपनी सृजनशीलता, अपने सपने, सुन्दर दुनिया की उम्मीदें जो पूरी न हो सकीं, उन्हें भावी पीढ़ी में साकार देखने की इच्छा है जो इस कविता में व्यक्त हो रही है-


शुभा अभिशप्त हैं पीढ़ियाँ

लिखने को कविताएँ

बुनने को सपने

और अंकित करने को सतरंगी दुनिया

न रोको उन्हें

लिखने दो शुभा

दीवारों पर नारे ही सही 

अंकित होने दो उनके सपनों का इतिहास


अपूर्ण सपनों और आकांक्षाओं को भावी पीढ़ी में साकार देखने की इच्छा पीढ़ियों से भली आती इच्छा है। जो उत्तराधिकार में पाया गया है उसे ही आगे की पीढ़ियों को सौंपा जा रहा है। लेकिन उत्तराधिकार में क्या पाया जा रहा है और क्या हस्तानांतरित किया जा रहा है, यह चुनने की चीज़ है और यह चुनाव मूल्यगत है, विवेकगत है, स्वचालित नहीं। 'उत्तराधिकार' कविता में बड़े बेटे को 'जीवन की सीमित सफलताओं के सारे अनुभव' और मँझले को 'जीवन भर की विवश नम्रता' देने की माँग पिता से करने के उपरान्त छोटे बेटे के लिए उस पथ की माँग की गयी है 'जीवन भर जिसमें तुमने कांटे बीने हैं' लेकिन अपने भाइयों के लिए यह सब माँगने के बाद खुद को 'अयोग्य' सम्बोधित करने वाला अन्तिम बेटा पिता से उस अँधियारे कमरे की कुंजी मांगता है जिसमें सपनों, विश्वासों और आकांक्षाओं की पूंजी है, जिसकी कीमत पिता ने जीवन भर चुकायी है। यही कमरा पिता को भी सबसे प्रिय है और इस अन्तिम बेटे को भी। यही वो सरमाया है जिसका वह उत्तराधिकारी होना चाहता है। 'उत्तराधिकार' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखें-


क्रुद्ध न होना पिता

तुम्हारे पीछे-पीछे मैं भी उस कमरे में आया हूँ 

जब जब तुमने उस कमरे में संचित 

स्वप्नों, विश्वासों, आकांक्षाओं को 

अपने आँसू से नहलाया है

मैने भी तब तब 

अपनी आस्था से उनको सहलाया है।"


संग्रह को प्रकाशित करने के पीछे अपने जीवन-बोध, अपने अनुभवों के निचोड़ को अन्तरंग, आत्मीय ढंग से आगे के लोगों को हस्तान्तरित करने की चाह भी शामिल है क्योंकि उत्तर-पूँजी की स्मृतिहीन संस्कृति में यह अनायास ही न हो जाएगा। कविता यो भी स्मृतियों के आह्नान के लिए अधिक अनुकूल विधा है।


कोई रचनाकार यदि एकाधिक विधाओं में लिखता है तो ज़रूर कोई रचनात्मक विवशता उसके पीछे होती होगी। संवेदना के कुछ रेशे ऐसे होते होंगे जो किसी एक विघा में अलग-थलग से रह जाते होंगे और किसी अन्य विधा में अपना सम्पूर्ण रचाव माँगते होंगे। या, जैसा कि इस संग्रह के भूमिका लेखक ने लिखा है, 'गोया कविता गुठली की तरह उनकी कहानी के बीचों-बीच छिपी है!' जिसे प्लाट या घटना-विस्तार से छूट कर अपना स्वायत्त विन्यास चाहिए होगा। शेखर जोशी की कहानियाँ लम्बी नहीं होतीं, कम से कम में कहना उनके कथाकार की आदत और कौशल है। शायद कविता लिखना इसी मितभाषिता की चरम पर पहुंची मांग भी हो।


अपनापन और परायापन

नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित शेखर जोशी की संकलित कहानियों की भूमिका में संजीव कुमार ने लिखा है, 'वे वाचक के तौर पर अपनी कहानियों के भीतर और कहानीकार के रूप में कहानियों के बाहर भी अधिक नहीं बोलते।' दरअसल कभी कभी कहानी का विडम्बनात्मक यथार्थ किन्ही गहन अनुभूतियों को सघन विस्तार देने से रोक देता है और वे अनुभूतियाँ यथार्थ की विडम्बना को उभारने के एक साधन की हद तक ही अभिव्यक्त हो पाती हैं। कविताओं में वे पूर्णतर अभिव्यक्ति प्राप्त करती हैं। 'दाज्यू' कहानी का वाचक अपनी ओर से कहानी के शुरू में ही बोलता है, आगे नहीं। वह कहता है, 'मनुष्य की भावनाएं बड़ी विचित्र होती हैं। निर्जन, एकान्त स्थान में निस्संग होने पर भी कभी-कभी आदमी एकाकी अनुभव नहीं करता। लगता है, इस एकाकीपन में भी सब कुछ कितना निकट है, कितना अपना है, परन्तु इसके विपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर-नारियों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति होती है। लगता है, जो कुछ है वह पराया है, कितना अपनत्वहीन! पर यह अकारण ही नहीं होता। इस एकाकीपन की अनुभूति, इस अलगाव की जड़ें होती हैं—विछोह या विरक्ति की किसी कथा के मूल में। यह वक्तव्य कहानी के शुरू में जगदीश बाबू और मदन दोनों की मनःस्थिति के समान तत्त्व बताने के लिए पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। लेकिन कहानी का कथ्य इसके आगे का है। जब जगदीश बाबू का नए शहर में परायापन दूर हुआ तो उन्हें मदन जैसे होटल बाय का अपने लिए 'दाज्यू' (बड़ा भाई) सम्बोधन खलने लगा। एक शहरी मध्यवर्गीय बाबू होटल के किसी बेयरे का बड़ा भाई भला कैसे हो सकता है? उनकी 'प्रेस्टीज हर्ट' होती है। कथाकार के 'शब्दों में, 'जगदीश बाबू के मध्यवर्गीय संस्कार जाग उठे। अपनत्व की पतली डोर 'अहं' की तेज़ धार के आगे न टिक सकी।'


परायी जगह में एक ही देस के होने का अपनापा अल्पस्थायी साबित होता है, वर्गीय संस्कार उसे एक क्रूर झटके से तोड़ देते हैं। यही कहानी का कथ्य है। यहाँ वाचक के पहले उद्धृत किए गए आरम्भिक वक्तव्य के विस्तार की गुंजाइश नहीं है। लेकिन उक्त वक्तव्य में 'निर्जन, एकान्त स्थान में निस्संग होने पर भी एकाकी अनुभव न करना, 'जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति, इस अलगाव के पीछे की 'बिछोह या विरक्ति' की कथा का विस्तार इस संग्रह की अनेक कविताओं में हुआ है। निर्जन, एकान्त स्थान में भी अकेला न अनुभव करने की भावस्थिति की सुन्दर अभिव्यक्ति है 'मुझे अपने में समेटे' शीर्षक छोटी सी कविता-


'चुप्प सोया ताल

दूर तक फैला नीला आइना

हमवार

देख अपना बिम्ब

मैं मगन

पर गहरे और गहरे

मुझे अपने में समेटे 

पहाड़ों का यह गहन विस्तार।"


'जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति किसी कविता में सीधे व्यक्त नहीं होती, बल्कि छूट चुके घर, गाँव, पहाड़, खेत और जन तक वापस पहुँच जाने के स्वप्न का रूप ले लेती है। अपने तात्कालिक निकट तुमुलमय परिवेश के भीतर परायेपन की अनुभूति का परिहार होता है अपने विरहित गाँव देस में लौट जाने के सपने से' 


लौट कर जाऊंगा वर्षों बाद 

नदी किनारे मिलेगा वह विशाल शिलाखण्ड

उफनती भादों की वेगवती धारा में उस साल 

अचानक आ कर बैठ गया था हमारे गाँव में 

अभी यही जमे हो गुरु 

मन रम गया है 

उन नंग-धड़ंग बच्चों की संगत में 

जो स्कूली बस्ते पटक 

दुपहरिया में तुम्हारी पीठ पर चढ़ कर 

कूदते हैं पानी में?'


(प्रवासी का स्वप्न) 


जो काम 'प्रवासी का स्वप्न, शीर्षक कविता में स्वप्न का है, वही 'स्मृति में रहें वे' शीर्षक कविता में स्मृति का, यानी अलगाव या परायेपन की क्षतिपूर्ति। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी को समर्पित कविता 'स्मृति में रहें वें, त्रिपाठी जी के गाँव को देख कर कवि के अपने पहाड़ी गाँव की स्मृति के जाग उठने की कविता है। ज्ञातव्य है कि स्वयं त्रिपाठी जी ने 'नंगातलाई का गाँव' शीर्षक से अपने गाँव का जो मार्मिक संस्मरण लिखा है, वह अप्रतिम है। मातृभूमि से बिछोह, विस्थापित होने की अनुभूति की कई मार्मिक कविताएँ इस संग्रह में हैं। 'विदा की बेला' शीर्षक ऐसी ही एक कविता है जिसमें हिन्दी के सतत प्रवासी, घुमक्कड़ कवि नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता 'सिन्दूर तिलकित भाल' की अनुगूँज समायी हुई है। 'नैनीताल के प्रति' कविता में वो अभिशाप व्यक्त हुआ है जो हर विस्थापित व्यक्ति का है जो अपनी मातृभूमि में ही यात्री सा बन जाता है, वहाँ कुछ समय जा कर जो लौट आने को विवश है, जिसके लिए अपनी मातृभूमि, उसके सहज परिवेश में रहना बसना मृगतृष्णा सा बन गया हो।


कवि के लिए अपनापा एक ज़रूरी मानव मूल्य है, अलगाव (एलिनिएशन) का प्रतिकार भी। 'एक अनुनय' शीर्षक कविता में बाज़ार में मिल गए किसी व्यक्ति से हाल-चाल पूछने पर उसके द्वारा अपरिचय का भाव दर्शाना कवि को व्यथित करता है। वह अपरिचित हो, तब भी हर मनुष्य की तरह उसके पास भी मन है जो अन्य के भी मन से जुड़ा हुआ ही तो है। ‘गायक' शीर्षक कविता में जिस गायक को सुन कर कभी आँखें भर आयी थी, उसे दोबारा सुनने पर वैसी अनुभूति नहीं हुई, क्योंकि इस बार के गायन में अपनापा नहीं था, महज औपचारिकता थी। कवि के शब्दों में 'लगता है तुमने केवल धर्म निबाहा'। यह टिप्पणी शायद उन सभी कलावन्तों पर है जो अपनी कला में आपसदारी और साझेपन को नहीं निभाते और तब कला का धर्म नहीं निभाते, तादात्म्य नहीं पैदा कर पाते। 




घर और शिशुता

शेखर जी के बोध में 'घर' केवल अपने पुरखों की माटी ही नहीं, बल्कि वह ईंट पत्थर का घर भी है जो भूगोल के लिहाज से कहीं भी हो सकता है, लेकिन स्मृति में उसकी जगह इसलिए सदैव बनी रहती है क्योंकि वहाँ बचपन बीता होता है। उस स्मृति में बचपन की कोमलता और स्नेह भी लिपटे होते हैं। बड़े होने पर, वर्ग बदलने पर या अन्य कारण से बचपन का घर छूटता है, भले ही उससे भी भव्य कोई दूसरा घर बन जाए। उस छूटे घर से अपनापा फिर भी नहीं छूटता। बड़े होने पर उस घर में वापस जा कर उसे देखने की इच्छा दर-असल कुछ समय अपने बचपन में लौट जाने की ही इच्छा है। 'पुराना घर' शीर्षक शेखर जी की एक कहानी है जिसमें एक अमीर परिवार अपना पुराना घर जब देख कर लौटता है, तो पाता है कि उसकी कोठी के परिसर में नीम के पेड़ के पास तीन छोटे-छोटे बच्चे चौकीदार के होने के बावजूद न जाने कहाँ से घुस आए हैं। बाद में पता चलता है कि वे उस राजगीर के बच्चे हैं जो उस कोठी को बनाने वालों में था और नीम के पेड़ तले बनी एक कच्ची कोठरी में वे बच्चे पले थे। कुछ सालों बाद उसी मोहल्ले में आने पर बड़ी बच्ची अपने दो छोटे भाइयों को नीम तले का 'अपना पुराना घर' दिखाने लायी थी। वे कुसूरवार न थे, जैसा उन्हें समझा जा रहा था। आखिर वे 'अपना घर देखने' आए थे। बच्चे थे सो नहीं समझते थे कि उनका 'अपना घर' तब भी 'अपना' न था जब वे वहाँ पले-बढ़े थे। वे निजी सम्पत्ति की भाषा और संवेदना से अछूते थे। अगर आप ध्यान से शेखर जोशी के इस संग्रह को पढ़ें तो आप को बार-बार वह बच्चा मन अपनी धरती को लौटता मिलेगा जो उसका घर है, जिसे उसने बनाया है और जिसने उसे बनाया है, लेकिन जो उसकी नहीं रह गयी है क्योंकि स्वामित्व दूसरों का है। सम्पत्ति वालों और सम्पत्तिहीनों के लिए घर की संकल्पना एक ही नहीं होती, धरती की संकल्पना एक ही नहीं होती। 'धान रोपाई' जैसी कविता का दृष्टान्त देते हुए पूरे संग्रह के बारे में भूमिका-लेखक ने उचित ही लिखा है कि, 'प्रकृति, प्रवास, लोकजीवन, उम्र, रिश्ते और प्रेम-सभी इस दुनिया में रिल-मिल गए हैं और एक विलक्षण रसायन रच रहे हैं।' यह विलक्षण रसायन धरती के ऐश्वर्य पर निजी सम्पत्ति के कब्ज़े का प्रतिरोधी है जहाँ खेतों के हलवाहों, बैलों के जोड़े, अन्नचोर चूहों, मेड़ों पर बैठे किलकारी मारते बच्चों, झबरे कुत्ते- सबका प्रकृति की सुन्दर लय में साझा है। यहाँ भी शिशु सुलभ भोली तन्मयता का राग है जो निजी सम्पत्ति के छल-छन्द का प्रतिकार है, जो अपने से बाहर किसी को नहीं समझता, एक ऐसी चेतना जो परायेपन के बर-अक्स अपनापे को मूल्य मानती है। संग्रह की भूमिका में कहा गया है कि 'धान रोपाई' शीर्षक कविता का आखिरी हिस्सा रोपनी के एक पहाड़ी लोकगीत के साथ पूरा होता है-


'धरती माँ है

देगी, पालेगी, पोसेगी उन्हीं को

जो उसकी सेवा में जाँगर धन्य करेंगे 

ऋतुएं पलटेंगी

घाम ताप, वर्षा बूंदी, हिम तुषार

अपनी गति से आएंगे जाएंगे 

रहना सुख से, रहो जहाँ भी 

होगी सबसे भेंट पुनः 

जीवित यदि अगले वर्ष रहीं"


यह गीत कविता में भी एक बच्ची ही सुनाती है ('बुवा की बेटी ने अन्तिम जोड़ सुनाये')। कविता की आखिरी पंक्ति हमारे आज के समय में आसन्न खतरे की घण्टी सी सुनायी देती है, जब मुनाफाखोरों ने धरती के पर्यावरण को इस कदर रौंद डाला है कि उसके जीवित बचे रहने में ही सन्देह उत्पन्न हो चला है।


पूरे संग्रह में बच्चों और बचपने के कई चित्र और उपमाएँ हैं। 'भूखा शिशु सा चीख उठा था/ मिल का सायरन' जैसी उपमाएँ एक ओर हैं, तो दूसरी ओर अकाल मृत्यु का शिकार जगतार कभी मिल्खा सिंह का नाम ले 'नए बछड़े सा' दौड़ता था, 'बकरी के छौने सा खिलन्दड़ा' था। कहीं प्रेम में छले गए 'रोगी शिशु सरीखे मन की बात कवि कहता है जो (तिरस्कार के) सत्य के तिक्त आसव की शीशी को मुँह से बार-बार हटा देता है, तो कहीं अस्पताल में कोई बुजुर्ग खेतों में बेहन की ऊंचाई एक हथेली पर दूसरी हथेली की छाँव कर यों बता रहे है 'जैसे किसी बढ़वार बच्चे के कद को नाप रहे हो'। कई जगह बच्चे उपमा के बतौर नहीं, बल्कि स्वतन्त्र संज्ञाएँ हैं। जहाँ वनस्पति जगत के 'शिशु पादप सीढ़ी-दर- सीढ़ी फैले' हैं, वहीं 'चीड़ों के झबरीले शावक' भी हैं। और भोली-भाली पाखी (कवि की पौत्री) तो है ही। शेखर जोशी की कविता में शैशव सिर्फ वय या अवस्था नहीं है, बल्कि पूँजी की सत्ता के छल-छन्द, चालाकी, स्वार्थ, उसके शिकार लोगों में पराएपन के अहसास का प्रतिकार है। यह प्रतिकार सकारात्मक निषेध के जरिए होता है जो शिशुता की निर्मल, निश्छल दृष्टि से रची स्मृतियों और बेहतर, सुन्दर दुनिया के सपनों के बतौर कविता में उतरता है। 'अस्पताल डायरी 5', बच्चे' शीर्षक कविता में अस्पताल जैसी जगह में भी वे अपनी अलग ही दुनिया बना ले रहे हैं। यह शिशुता की दुर्निवार सृजन जिजीविषा है, जो उन्हें सतत अन्वेषी, हरदम नया कुछ देखने-सीखने में सक्षम बनाती है-


अस्पताल के लम्बे बरामदों में

खम्भों, बेंचों, गठरियों और थैलों के बीच 

तीमारदारों की अस्थायी दुनिया में

सयानों की झिड़कियों, वर्जनाओं के बावजूद

उस सीमित भू-खण्ड में

वे खेल रहे हैं अपने ईजाद किए खेल- 

छुपा-छुपाई, कैचम-कैच, कट्टम-कट्टा से ले कर फ़िल्मी अन्ताक्षरी तक


***.    ***.    ***


बहुत कुछ नया देख रहे हैं वे 

बहुत कुछ नया सीख रहे हैं वे

जिन्दगी के सफर में दुःख और विपदा के पहाड़ झेलते लोग

उन्हें असमय वयस्क बना दे रहे हैं

बरामदों में सिमटी वे दुनिया उन्हें 

एक बड़े परिवार से जोड़ रही है

स्वस्थ होकर घर लौट रहे अंकल के परिवार की खुशी में शामिल

वे पोर्टिको तक उन्हें विदा देने जाते हैं 

अपनी उदासी छिपाते हुए।

पर कोने-अंतरे में छिप जाते हैं

अभागे साथियों से नज़रे चुराते हुए 

जो हताश लौट रहे हैं अपने किसी सगे को खो कर।


जिन्दगी के सफर में दुःख और विपदा के पहाड़ झेलते लोग उन्हें बना दे रहे हैं।


भूमिका लेखक ने प्रौढ़ और परिपक्व होते जाने के साथ बहुतेरे कथाकारों में 'अपने भीतर की कविता का परिष्करण न कर पाने और यहाँ तक कि उससे वंचित हो जाने की बात कही है और शेखर जोशी को उसका अपवाद पाया है। भूमिका लेखक की ही बात को आगे बढाएँ तो कह सकते हैं कि शेखर जी ने 'अपने यशस्वी रचनाक्रम के सुदीर्घ अन्तराल में भी अपने जिस कवि को बचा कर रखा है, उसका गहरा सम्बन्ध उस शैशव से भी है जिसकी ऊपर चर्चा हुई है।





हादसे जिन्दगी के

जोशी जी के इस संग्रह में समकालीन भारतीय जीवन के हादसों के मर्माघात अर्थसघन सांकेतिकता में व्यक्त हुए हैं। जीवन में कुछ हादसे ऐसे होते हैं जिनके साथ हम हर वक्त ऐसे रहते हैं, मानों वे हादसे हो ही नहीं। वे दबे पाँव ज़िन्दगी के रोजमर्रे में दाखिल हो जाते हैं और बहुत वक्त बीत जाने के बाद हादसे के बतौर उनका अहसास होता है। इस संग्रह का शीर्षक जिस कविता की एक पंक्ति से लिया गया है, उसकी शुरुआती पंक्तियों में ऐसा ही हादसा दर्ज है-


मैं कभी कविताएं लिखता था शुभा! 

और तुम अल्पना!

चाँद तारे

फूल-पत्तियाँ 

और शंखमुद्री लताएँ चित्रित करते। 

न जाने कब

कविताओं की डायरी में

मैं हिसाब लिखने लगा।

कभी खत्म न होने वाला हिसाब 

अल्ल सुबह टूटी चप्पल से शुरू हो कर

देर रात में फटी मसहरी के सर्गों तक फैला 

अबूझ अंकों का महाकाव्य।


यह कविता जिससे संग्रह का शीर्षक लिया गया है, पुरानी पीढ़ी को बरज रही है कि अगली पीढ़ियों को उनके सपनों, कविताओं और नारों की सतरंगी दुनिया में रमने से न रोकें। उन्हें दुनियादार बनाने के चक्कर में उनकी रचनाशील और स्वप्नमय दुनिया से बेदखली उन्हें बेमकसद खर्च होती, हादसे जैसी जिन्दगी जीने को अभिशप्त बना देगी। यदि ऐसा होना इस पूँजी की दुनिया में उनकी नियति हो, तो भी जीवन तो उतना ही सार्थक है जितना नया रचने और स्वप्नों के साथ व्यतीत हुआ। संग्रह की पहली तीन कविताएँ जो कारखाने के श्रमिक जीवन पर केन्द्रित हैं, उनमें भी यन्त्र में तब्दील कर दिया गया श्रमिकों का जीवन किसी हादसे से कम नहीं। कारखाना खुद इस हादसे का रूपक है। हादसा यहाँ जिन्दगी की सामान्यता का हिस्सा हो गया है। हादसे को सामान्य और सहनीय बनाने में श्रमिक की जिन्दगी खुद ड्रामा हो गयी है-


मन में नफरत हो पर मुँह से राम राम कहो

तीन कौड़ी के आदमी को 'माई-बाप सलाम' कहो

पुर्जों की जिन्दगी का इतना ही परिचय है

पुर्जों की ज़िन्दगी भी अभिनय ही अभिनय है


लेकिन इस संग्रह में ऐसे भी हादसे हैं, जिनका फलक राष्ट्रीय है। वे रोज़मर्रे में दबे पाँव दाखिल हुए हादसे नहीं, बल्कि अचानक कुछ समुदायों पर बिजली से टूट पड़े हैं। ऐसी कविताओं में घटनात्मकता और विवरण नहीं के बराबर हैं। बावजूद इसके 'मुज़फ्फरनगर '94' शीर्षक कविता वेदना के विद्रोह में बदलने की पूरी कथा है, जो संकेतो में पूरी ही कह दी गयी है, बगैर किसी वर्णन विस्तार के। क्या शेखर जोशी ने इस पूरी घटना पर कहानी लिखने की बात न सोची होगी? हमें मालूम नहीं। जो मालूम है, वह यह कि 'मुख्यधारा' करार दिए गए और वैसा ही समझे जाने वाले हिन्दी साहित्य के संस्करण में इस घटना पर ऐसी न कोई दूसरी कविता है, न कहानी। मुजफ्फरनगर में रामपुर तिराहे पर 1994 में अलग उत्तराखण्ड राज्य की माँग को ले कर दिल्ली कूच कर रहे हजारों लोगों पर बाकायदा सरकारी उकसावे पर पुलिस ने गोली ही नहीं चलायी, बल्कि सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया। उस दौर में स्त्री-विमर्श के स्वयम्भू प्रोत्साहको और खुद मुख्तार सम्पादकों ने क्या किया अपनी पत्रिकाओं में, उन सैकड़ों स्त्रियों की चीखों और चोटों का? वे बेचारे शायद 'आईडेंटिटी' से 'आईडेंटिटी' को लड़ाना नहीं चाहते थे। एक सरकार थी दलित-पिछड़ा गठजोड़ की, वह भी पहली, उस उत्तर-प्रदेश में, जिसके तब के मुखिया आज जानी दुश्मन बने हुए हैं। इन्हीं की तब की दोस्ती उत्तराखण्डी स्त्रियों पर कहर बन कर टूटी थी। शेखर जोशी की इस एक कविता ने 'मुख्यधारा के साहित्य के इन सुनसान पन्नों की राजनीतिक खामोशी के बीचों-बीच एक स्त्री की कहानी इंसानियत की मातृभाषा में रच दी। है। कविता में उस स्त्री की न जाति का पता चलता है, न धर्म का यहाँ उसके स्त्रीत्व पर जो हमला हुआ है, कवि की संवेदना और मर्म पर आघात उसी का है, जबकि तब (घटना के समय) के विमर्श का हाल यह था कि राजनीतिक हलकों में बहस पीड़िताओं और अपराधियों की जातियों पर चलायी जा रही थी। मुजफ्फरनगर '94 की घटना को समाचार माध्यमों से सभी जानते हैं। उसे दोबारा बताना कवि का ध्येय नहीं है। उसे तो बताना है हादसे से लौटी स्त्री के भीतर तकलीफ के उमड़ते हुए समन्दर ने क्या कुछ बदल डाला है, एक व्यक्तित्वान्तरण हुआ है जो 'आग' दे आने तक जाता है। कविता खुलती है इन पंक्तियों से-


हादसे से लौट कर आयी वह औरत 

माचिस माँगने हुई है पड़ोसन से

दरवाज़े पर खड़ी खड़ी

बतिया रही है दोनों। 

नहीं सुनायी देती उनकी आवाज़

नहीं स्पष्ट होता आशय 

पर लगता है

चूल्हे चौके से हट कर

कुछ और ही मुद्दा है बातों का।


वैसे तो यह आस-पड़ोस की दो स्त्रियों के बीच वार्तालाप का सामान्य दृश्य है और दूर से यह वार्तालाप सुनायी भी नहीं पड़ रहा, लेकिन दूर से देखने वाले कविता के वाचक को उनकी भंगिमाओं से इतना स्पष्ट हो रहा है कि बात चूल्हे चौके से हट कर है, असाधारण हैं। आगे की पंक्तियों में उस असाधारण बात की तर्जुमानी करती हैं फटी और जलती आँखें, तनी भँवें, नाचती अँगुलियाँ, मटियाये कपड़ों की गन्ध, चेहरे के दाग और सूख चुके आँसुओं के निशान-


फटी आँखों, रोम-रोम उद्वेलित है श्रोता

नाचती अंगुलियाँ 

तनी हुई भौंहें

जलती आँखें

और मटियाये कपड़ों की गन्ध।

न जाने क्या कुछ कह रहे हैं 

न जाने क्या कुछ कह रहे हैं

चेहरे के दाग

फड़कते नथुने

सूखे आँशुओं के निशान 

आहत मर्म

और रौंदी हुई देह


कवि ने बातचीत की इन भंगिमाओं को देख कर जो अनुभव किया है, उसे सार रूप में यों रखा है-


माचिस लेने गयी थी औरत 

आग दे आयी है।


मितभाषी कवि का कुल इतना ही बयान है, सारे दृश्य बन्ध की अन्तिम फलश्रुति। कविता कहाँ है? दृश्य में? दृश्य के बखान में? या अन्तिम बयान में? तीनों को क्या बांधता है कोई तर्क-विधान, कोई कवि-कौशल या कोई विचार? ये सब रेशे हैं, धागे हैं-जो कविता को बन्ध बनाते हैं, लेकिन इन सब से गझिन है यह वास्तविकता जिसे प्रत्यक्ष तो स्त्रियों ने झेला, लेकिन जिसके मर्माघात ने कवि के संवेदन-तन्त्र पर जो निशानात छोडे, वे ही कविता बन गए। जो घटना 1994 में मुजफ्फरनगर में घटी, वह बार-बार हमारी शासक जमातों द्वारा अंजाम दी जाती है कभी कश्मीर, कभी आसाम, कभी दिल्ली, कभी गुजरात- हर कहीं। इस वास्तविकता के बगैर न यह दृश्य होता, न उसका बखान और न कवि का बयान। माचिस देने गयी औरत जिस आग को दे आयी है, वह कविता से बाहर आततायी वास्तविकता को जला दे, कवि की यह आकांक्षा वेदना के साथ मिल कर कही नहीं गयी, व्यंजित हो उठी है।


संग्रह में ऊपर उद्धृत कविता के ठीक बाद जो कविता आती है, उसका भी सन्दर्भ मुजफ्फरनगर की उक्त घटना ही है। इस कविता का शीर्षक है 'पहाड़ों की बर्फ'। कविता लिखे जाने की तिथि (1994) और क्रम ही कविता के अर्थ का प्राथमिक दिशा-निर्देश करते हैं। तिथि और क्रम पर ध्यान न देने से उसका अर्थ नहीं खुलेगा। कविता की शुरुआत है-


फ्रिज से निकाल कर

गिलासों में डाल लेते हैं जिसे

रंगीन पानी के साथ

चुभला भी लेते हैं कभी-कभी 

खूब ठण्डी- ठण्डी होती है

यही शायद आप समझते हैं बर्फ है।


ज़ाहिर है कि यहाँ बर्फ उन लोगों के लिए आनन्द और आमोद-प्रमोद का साधन है। जो उसकी वास्तविकता को नहीं जानते। रामपुर तिराहे की घटना के बाद वहाँ के जिलाधिकारी का जो वक्तव्य आया, वह इसी की तस्दीक करता है। जिलाधिकारी का आशय यह था कि भागती हुई पहाड़ी स्त्रियों के दृश्य ने पुलिस बल को उत्तेजित किया। काव्य में पहाड़ी जीवन के सौन्दर्य और भीषणता, दोनों का प्रतीक है बर्फ। लेकिन जो इसे सिर्फ दूर से बैठ कर ऐय्याशी का साधन समझते हैं, वे ही उस तरह की शर्मनाक हरकत कर सकते हैं, जिसका औचित्य-स्थापन जिलाधिकारी कर रहा था। कवि चेतावनी देता है। ऐसे तत्त्वों को-


बर्फ जला भी देती है

गला देती है नाक, कान, अंगुलियाँ 

पहाड़ों की बर्फ बहुत निर्मम होती हैं

बहुत सावधानी चाहिए इस बर्फ के साथ 


दरअसल मुलायम-मायावती की पुलिस ने बर्फ की इसी आग को नहीं समझा था। प्रसंगवश यह जिक्र कर देना अनधिकार न होगा कि इस घटना की जाँच के लिए तब के जे. एन. यू. छात्रसंघ के उपाध्यक्ष चन्द्रशेखर के नेतृत्व में छात्र-छात्राओं का जो दल गया था, उसने यह नोट किया था कि हादसे की शिकार स्त्रियों को जिन गाँवों में शरण मिली, वे दलितों के गाँव थे, जहाँ उनकी मरहम पट्टी करने से ले कर उन्हें भोजन, वस्त्र, और सहानुभूति देने वाले दलित स्त्री-पुरुषों की चेतना में सिर्फ इन्सानियत के दर्द का रिश्ता ही था, और कुछ भी नहीं उन साधारण इन्सानों की महानता से सत्ता की बेशर्मी ऐसी घबरायी कि घटना के बाद प्रदेश की सबसे बड़ी दलित नेत्री ने इन गाँवों का दौरा किया और इन गाँववासियों को चेताया कि उन्होंने इंसानियत की खातिर जो भी किया, उसे कहीं बताएँ नहीं। ये अलग बात है कि यह बात भी उन गांववासियों ने दबी जुबान छात्रों के जाँच दल को बता ही दी। जो उस दलित नेत्री ने कहा और किया, यह 'बेपर्दा' आँखों की ही नुमाइंदगी है, जबकि वे नुमाइंदा उन साधारण दलित स्त्री-पुरुषों की समझी जाती थीं जिन्होंने इन कुकृत्य की शिकार स्त्रियों को शरण दी थी मानों इन्हीं बेपर्दा आँखों को पहाड़ की बर्फ की चेतावनी देते हुए कवि कहता है—


अक्सर देखा है

बेपर्दा आँखों को अन्धा कर देती है

पहाड़ों की चमकती बर्फ


मुजफ्फरनगर काण्ड से सम्बन्धित कविताओं के अलावा किन्तु बनावट में भित्र 'अखबार की सुर्खियों में चला गया जगतार' शीर्षक कविता का विषय भी ऐसा ही हादसा है। इसे भूमिका- लेखक ने '1988 में, पंजाब के आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर लिखी भारतीय लोकतन्त्र की शोकगाथा की मार्मिक अभिव्यक्ति बताया है। यह कविता 'मुज़फ्फरनगर '94' की तरह मार्मिक संकेतों में ही नहीं, बल्कि जगतार के बचपन और युवावस्था की संक्षिप्त झाँकी प्रस्तुत करके एक शोकगीत रचती है। भूमिका लेखक ने 'मुज़फ्फरनगर '94' को भी ऐसी ही कविता बताया है, जो सही है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये सामाजिक या राष्ट्रीय हादसे कविता में 'शोकगाथा की मार्मिक अभिव्यक्ति' कैसे बने, वह भी तब जबकि ये दोनों घटनाएँ कवि ने व्यक्तिगत स्तर पर तो नहीं भोगी थीं 'अखबार की सुर्खियों में चला गया जगतार' कविता के शीर्षक के बाद कोष्ठक में लिखा है 'टेलीविजन पर एक अकाल मृत्यु देख कर। आखिर टेलीविज़न जैसे सूचना संचार माध्यम से पायी गयी अकाल मौत की एक खबर जो 'अखबार की सुर्ख़ियों में एक अनाम गिनती बन जाने को अभिशप्त थीं, कविता में एक गहरे ट्रेजिक-बोध में कैसे ढलती है? जगतार के बचपन, यौवन की मासूम हरकतों और कोमल जीवनस्वप्नों की मार्मिक छवियाँ ही उसकी अकाल और दर्दनाक मौत के सामने प्रत्यक्ष हो कर शोक का मार्मिक वितान रचती हैं। दरअसल ये कविताएँ बताती हैं कि 'स्वानुभूति' और 'सहानुभूति' में अलगा कर रचना-प्रक्रिया को देखना एक सीमित सन्दर्भ से आगे कोई महत्त्व नहीं रखता, बल्कि सामाजिक जीवन से गहरे जुड़ाव से पाए गए ज्ञानात्मक संवेदन स्व पर ही घटित होते हैं, इसीलिए उनकी रचनात्मक परिणति एक प्रत्यक्षता प्राप्त करती है, जो वैयक्तिक भोक्तृत्व का विशेषाधिकार नहीं है। सच तो यह है कि आज भी हमारे समाज में मुसीबतों को झेलने वाले विराट तबके के पास अपनी जिन्दगी के हाहाकार को रचनात्मक सम्प्रेषण में बदल देने के साधन नहीं हैं। उनके जीवन को रचनात्मक वाणी देना समाजचेतस कलाकारों का दायित्व भी है। लेकिन यह दायित्व यह माँग करता है कि कलाकार खुद को इस जीवन के मर्माघात के लिए खुला रखे।


कृतज्ञता

उत्तर पूँजी के इस युग में जिन मनोभावों का व्यापक संहार हुआ है, उनमें से एक है 'कृतज्ञता'। जिन्दगी आज भी सहयोग सहकार के बिना नहीं चलती। लेकिन सहयोग-सहकार के भी बहीखाते तैयार रखे जाते हैं। कृतज्ञता की जगह 'धन्यवाद' के सतहीपन ने ले ली है, शेष सब कुछ लेन-देन और हिसाब-किताब के खाते डाला जाता है। जिस विराट श्रमजीवी वर्ग के बूते संसार चला करता है, उसका तो हिसाब भी साफ नहीं रखा जाता। लूट और झूठ की मालिकान संस्कृति उनके श्रम को हड़प कर बदले में उन्हें जलालत और हिकारत ही देती है। श्रम के कुछ प्रकार तो ऐसे हैं जिनका हिसाब भी नहीं रखा जाता, जैसे स्त्रियों का घरेलू श्रम और जिनका हिसाब नहीं रखा जाता वे सारे ही श्रम, कौशल, ज्ञान और उनके फलों को अस्तित्वहीन मान लिया जाता है। प्रकृति के बगैर न मानव जीवन सम्भव है, न कोई श्रम सम्भव है न श्रम-फल, लेकिन पूँजी की दुनिया ने उसे हमारे किसी भी भाव का विषय नहीं रहने दिया है। पूँजी का इतिहास प्रकृति के अनवरत 'वस्तुकरण' का ही इतिहास है। शेखर जोशी के इस काव्य-संग्रह में 'कृतज्ञता' एक बड़े मानवीय मूल्य के रूप में विराजमान है— मेहनतकशों के प्रति, स्त्रियों के प्रति और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की पात्र 'अत्रप्रसवा धरती' तो है ही, 'बुरांशों की अरुणमुखी बेटियाँ भी हैं। 'यदि दे सकें हम' शीर्षक कविता में नील आलोक से घिरी, उज्ज्वल सेज पर सद्यःप्रसवा स्त्री के आस पास पुरस्कृत होने जुटी नर्सों के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकृति के प्रति कृतज्ञता में संक्रमित हो जाता है। प्रकृति और मेहनतकश धरती पुत्रों पुत्रियों के प्रति कृतज्ञता शाब्दिक औपचारिकता में नहीं, बल्कि 'सृष्टा अँगुलियों को चूमने और नयन-माथे लगा लेने की आत्मीय भंगिमाओं में व्यक्त होती है, क्योंकि वे सिर्फ 'उत्पादन' नहीं कर रहे, सृजन कर रहे हैं, सुन्दरता रच रहे हैं-


डूबता रवि

घिर रही है साँझ 

चित्रित गगन-आंगन। 

किन अदीखी अंगुलियों ने वर्तुल सप्तरंगी अल्पना लिख दी! 

कहाँ हैं वे हाथ

कितने सुघड़ होंगे?


(अल्पना के रंग साक्षी)


***.   ***.      ***


जो धरा पर सप्तवर्णी बीज-रंगों अल्पना लिखते 

जो धरा पर सप्तरंगी फूल-रंगों अल्पना लिखते 

जो धरा पर सप्तगन्धी अन्न रंगों अल्पना लिखते 

आह! कितने सुघड़ होंगे पात-पल्लव-अन्न साक्षी 

नयन माथे से लगा लूं

उन सृष्टा अंगुलियों को चूम लूँ। 


आकाश में सप्तरंगी अल्पना लिखने वाले अदीखे कलाकार के प्रति कृतज्ञता धरती पर रूप-रस-गन्ध-स्पर्शमय अल्पना लिखने वालों के प्रति कृतज्ञता में पर्यवसित है। 'स्मृति में रहें वे', 'धानरोपाई' जैसी कविताओं में कृतज्ञता का यही भाव अनेकानेक भंगिमाओं में व्यक्त हुआ है। 'अस्पताल डायरी-3, आभार अप्रसवा!' में धरती के प्रति आभार का कारण ये हैं कि वार्ड में चुपचाप पड़े दो मरीजों के बीच संवाद तब गति पकड़ता है जब धरती, खेती-किसानी की बातें चल निकलती हैं-


आभार, हमारी अप्रसवा धरती! 

माध्यम बनी तुम

हमारे बीच पसरा मनहूस सन्नाटा टूटा।


कृतज्ञता शेखर जी की कविता में कभी सीधे या अकेले भाव की तरह नहीं आती। वह सदैव प्रकृति, मनुष्य और श्रम के सौन्दर्य, सृजन के सौन्दर्य के बीच हमारे होने के बोध से उपजी भाव-संवेदना है, जो इन सब से लिपटी हुई ही कविता में आती है। वह उन तमाम जीवन स्थितियों के बीच घिरे होने के बावजूद आता है, जो हमें तकलीफ देती हैं। 'अस्पताल डायरी 2 : ओ एलोकेशी' में मूक-बधिर दुखियारी मरीज़ ने नर्स द्वारा संवारे गए अपने खूब लम्बे, काले केशों की सम्पदा की तारीफ सुन कर कराहना बन्द कर मुस्कुराना शुरू कर दिया। पौरुषपूर्ण आखों के लिए यह एक विरल दृश्य ही नहीं, एक विरल संवेदना भी है। अपने रूप की प्रशंसा सुन कर स्त्री का गर्वित और प्रसन्न होना लम्बे समय से चली आयी धारणा है, समाज की भी और काव्य की भी। लेकिन यहाँ परिपाटी का निर्वाह नहीं है. एक अलग यथार्थ का स्फुरण है—रुग्ण, मूक-बधिर, कराहती दुखियारिन भी सुन्दर है। इस सुन्दरता को देखने सराहने वाली आँखें भी हैं—यह अहसास ही उसके दुखों पर मरहम लगाता है और वह सहज रूपगर्विता होती जाती है। कराहों में बिसरी खुद की सुन्दरता का जब दूसरों ने अन्वेषण किया, तभी उस सुन्दरता का उस दुखिया स्त्री के सामने भी पुनरावतरण हुआ। पहले अपनी ही सुन्दरता भूली हुई थी, अब दुख भूल गया। उसके गर्वित और प्रसन्न होने में उसकी सुन्दरता को सराहने वाली आँखों के प्रति कृतज्ञता भी शामिल है। यही कृतज्ञता दुःख की परिस्थिति में भी सुन्दरता के अवतरण के इस प्रसंग को आँकने बाली कवि-दृष्टि में है। 





पाठ-विचलन

एक पूरा साहित्य सिद्धान्त ही सदियों से थोड़े-थोड़े अन्तराल पर कहता आया है कि कालजयी (क्लासिक) कृतियों का अनुकरण ही किया जा सकता है क्योंकि उनमें देश-काल से परे सार्वभौम मनुष्यता और उसकी नियति का आख्यान रच दिया गया है। लेकिन हर युग के अदीब क्लासिक पाठों को सायास विचलित किए बगैर अपने समय के इंसानी सच से उनका सम्बन्ध जोड़ नहीं पाते। आज भी हमारे देश में नए की नवता का स्वीकार नहीं है। पुरानी क्लासिक उपमाएँ नए का अर्थ नहीं बता सकतीं, बल्कि उन्हें परम्पराजन्य पुराने अर्थों मैं आत्मसात कर उनके अर्थ को विचलित, भ्रमित ही करती हैं। दिल्ली प्रवास के दौरान 1951 से 1955 के बीच लिखी शेखर जी की कविताओं में एक है 'नयी पीढ़ी का स्वर इस कविता की आरम्भिक पंक्ति ही पारम्परिकता में नवता को डुबो कर उसके अन्यकरण का प्रतिकार हैं-


और,

कोई और उपमा दो

इतिहासों के पुरातन ग्रन्थ 

स्मृतियों के रूद्ध-द्वार खोल कर

कोई और उपमा दो

कि हमारा मूल्यांकन हो सके। 


यहाँ सम्भव है कि जिस दौर में यह कविता लिखी गयी, उस दौर में कविता और आलोचना में परम्परा के साथ सम्बन्ध के बारे में संचालित विमर्शो ने भी कवि को प्रेरित किया हो कि वह परम्परित अर्थों से अलग अपने समय की युवा पीढ़ी की रचनाशीलता को रेखांकित करे। इस कविता में महाभारत के अभिमन्यु के चक्रव्यूह भेदन का पाठ विचलित कर नयी पीढ़ी द्वारा भिन्न प्रकार के व्यूहों को भेदने को रेखांकित किया गया है-


शत्रुओं ने जो व्यूह रचे 

उन्हें तोड़ना यदि वीरता है

तो निश्चय ही वह वीर था।


पर,

शत्रुओं ने जो व्यूह रचे

उन्हें तोड़ने से पहले

हमने वे व्यूह भी तोड़े हैं 

जो मार्ग में खड़े थे 

जिनके निर्माता

हमारे ही संगी थे, हमारे ही सहोदर थे

अच्छे अनुभवी थे 

हमसे कुछ बड़े थे।


रामायण और महाभारत हमारे देश के महान महाकाव्य है। आधुनिक समय में तमाम रचनाकारों ने उनके अनेक आख्यानों का रूपकात्मक उपयोग किया है। शेखर जी ने अपनी दो छोटी कविताओं में महाभारत के दो पात्रों का अलग समकालीन पाठ रचा है। एक की चर्चा ऊपर हो चुकी है। दूसरी कविता 'गान्धारी की समवेदना' में 'समवेदना' का अलग स्त्री-पाठ रचा गया है। गान्धारी की समवेदना अपनी आँख पर पट्टी बाँध कर धूतराष्ट्र के अन्धेपन में साझीदार बनने में नहीं, बल्कि अपनी ज्योति में धृतराष्ट्र को साझीदार बना कर उसे सम्बल देने में व्यक्त होती है-


मैंने ज्योति पाई है 

आओ, यह बांह गहो 

संबलहीन चल पाया है कौन यहाँ, कब कहो


सम-वेदना सम-बल में बदलती है, समान लाचारी में नहीं, पुरुष के बरअक्श स्त्री ने खुद की पहल पर अपनी भूमिका बदली।


परम्परा के अलग आलोचनात्मक पाठ प्रस्तुत करने वाली कुछ अन्य कविताएँ भी इस संग्रह में हैं। 'द्विज' कविता में 'द्विजता' का पारम्परिक अर्थ व्यंग्य की मार खा बदल गया है। इस नए अर्थ में द्विजता का अर्थ है 'सर्गान्तरण', अपने से ऊँचे वर्ग में दाखिला, अपने संगी-साथियों और परिवेश से विच्छिन्न हो जाना और उपरले वर्ग के स्वार्थों से बंध जाना। परम्परा में भी द्विजता का अर्थ था प्राकृत अवस्था से उठ कर संस्कृत अवस्था में प्रवेश कर जाना। यही दोबारा जनमना होता था, लेकिन इसका अवसर सब को नहीं दिया जाता था, अधिकांश लोग द्विज नहीं हो सकते थे। 'सुसंस्कृत' और 'सुसभ्य' होना थोड़े से लोगों का विशेषाधिकार था। आज के द्विज वे हैं जिन्हें 'सम्पत्ति और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग में दाखिल होने की सुविधा है। आज की सभ्यता (पूँजी की सभ्यता) के ये ही द्विज हैं।


गिन रहा अब नोट

परखता सूत के कपडे, घड़ियाँ 

और भी कितनी अनोखी वस्तुएँ 

झोली में पड़ी जो। 

मुनुवा मगन है

आज मुनुवा दिज हो गया है। 

पर साथ छूटा हमजोलियों का

अब बीती बात होगी 

वे ताल-पोखर

वे अमराइयाँ 

जूठी-कच्ची कैरियाँ 

अब सीधे संवाद होगा

अग्नि, सविता औ' वरुण से।


वर्चस्वशाली 'कामनसेंस' या 'सामान्यबोध' को समकालीन यथार्थ के निर्देश से विचलित करने की कवि की भंगिमा 1950 के दशक में लिखी उनकी सोचती सी कविताओं में भी है। 'स्वार्थ' और 'स्वप्नगाया' ऐसी ही कविताएं हैं। 'स्वार्थ' कविता में कवि सोचता है कि लगातार बन्दूक, तलवार और बारूद की भाषा में अन्य मनुष्यों से बात करने वाला मनुष्य क्यों कर अपने स्वजनों की मौत पर रोता है। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही इतनी कल्तो-गारत देश-दुनिया के पैमाने पर हो चुकी थी कि मनुष्य की निःस्वार्थता में भोला विश्वास डिग चुका था। वह सोचते-सोचते इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि मनुष्यों में जो पहला मनुष्य मरा होगा, अन्य उसके लिए नहीं, बल्कि इसलिए रोए होंगे कि मृतक तो तारों के देश में जा कर सुखी होगा, जबकि हम दुःख भोगने को धरा पर रह गए, और तभी से यह परिपाटी बन गयी होगी-


एक वृद्धा ने किया इंगित नील-निःशेष में

और रो दिए सब सोच कर 

कि वे रह गए धरा ही पर

और मृतक होगा सुखी जा कर तारकों के देश में।

और तब से चल रहा है यह अनोखा क्रम

और तब से पल रहा है यहाँ अनोखा भ्रम 

सभी रोते क्योंकि उनके रो दिए थे पूर्वजन


1954 में लिखी कविता 'स्वप्नगाथा' अनुमानतः भारत की आजादी की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी है और तब वह शासक वर्ग द्वारा निर्मित उस 'कामनसेंस' के खिलाफ है कि आज़ादी के साथ ही वे सारे सपने, सारे उद्देश्य पूरे हो गए जिनके लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी। 'स्वप्नगाथा' शीर्षक भी 'व्यंजक' है। एक ओर तो कविता सपने में चल रही है जहाँ अचेतन मन एक गुत्थी सुलझा रहा है-


ग्रन्थि है वह

कौन सी होगी ध्वजा जिसके तले अन्तिम शरण

लेंगे, प्रगति पथ पर चल रहे अगणित चरण?


पढ़ते हुए मन में कहीं फैज़ की वह पंक्ति गूंज जाती है— 'चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आयी'। दूसरी ओर यह 'स्वप्नगाथा' इस अर्थ में भी है कि आज़ादी खुद सपना हो गयी, वह वास्तविक आकार ले ही नहीं पायी। एक ओर यह देखे गए स्वप्न की गाथा है, दूसरी ओर उन स्वप्नों (आज़ादी, प्रगति, जीवन-तृप्ति) की गाथा हैं, जो पूरे न हुए। कविता का विषय भी यही है जहाँ अनेक रंग के झण्डे लिए पथिक (भारतीय जनता के विभिन्न तबके) जब कथित मंजिल तक पहुँचे, तो उनके पाँव थकन से चूर और डगमग थे, सारे झण्डों के रंग खो चुके थे और सब धूल धूसरित थे। 


पर अरे विस्मय!

कहाँ है रंग वह

चित्रित कहाँ वह चाँद-तारक,

चक्र या नक्षत्र

कहाँ हैं प्रबलतम मुष्टि

हो रही थी पुष्टि जिससे दल-बल की 

यहाँ तो मात्र पथ की धूलि में रंगी पताका

पताका मेरी औं' तुम्हारी भी अन्य दल की

मात्र धूमिल रंग भू का

नहीं श्यामल, श्वेत, स्वर्णिम, हरित गाड़ी लाल या हलकी 


यह कविता साहित्य में भी एक समय तक छाए रहे इस बोध को पलटती है जिसमें आज़ादी से मोहभंग को '1962 के चीनी आक्रमण' से जोड़ा जाता रहा है और इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती है कि जब मोह ही नहीं था, तो मोहभंग भला कैसा? किन्तु कविता की मूल ग्रन्थि (जिसे अचेतन मन सुलझा रहा है), यह नहीं है कि आज़ादी पूरी है या अधूरी, बल्कि यह प्रश्न उसके आगे का है, अर्थात अन्ततः आज़ादी या जनता के जीवन की खुशहाली किस रास्ते आएगी। कवि उस रास्ते की उम्मीद धूल-धूसरित ध्वजाओं में अभी भी चमकती उस निशानी से करता है जो कि विगत संघर्ष के बल की याद दिलाती है-


और धूमिल ध्वजाओं में चमकती 

लाल तारक ज्योति

जिसे कह लें हम निशानी

विजय या हर्ष या उल्लास या बल की।


कोई समकालीन कवि आज के दौर में शब्द-कर्म की विडम्बना पर न सोचे, यह सम्भव नहीं। इस कविता संग्रह में आज की दुनिया में शब्द के अवमूल्यन पर भी कवि की चिन्ता दिखायी देती है ('कभी-कभी लगता है'  शीर्षक कविता), जहाँ शब्दों की पहचान भूल गयी है और दोस्त और दुश्मन, भिक्षु और क्रान्तिदूत, बच्चे और बूढ़े, वेश्याएँ और शरीफजादियों के शब्द एक ही तरह के हो गए हैं। वास्तव में, शब्दों को अपने अर्थों या सार्थक कर्म से काट देना, उनका अन्यथाकरण करना, लोगों की चेतना को भरमाने में उनका इस्तेमाल करना, विराट स्वार्थ प्रेरित बाजारू जीवन-पद्धति के फैलने का परिणाम है जिसमें जीने को लोग अभिशप्त हैं। शब्दों के साथ स्वैराचार वस्तुतः स्वार्थ का व्यापार हैं जहाँ शब्द भी सिक्के हैं, वस्तु हैं, जिनका चरम अर्थ उनके विनिमय से होने वाला फायदा है, स्वार्थोपलब्धि है, सामाजिक प्रतीक-श्रेणियों का निजीकरण है। 'पाखी के लिए' एक कविता में कवि एक छोटी बच्ची के एक ही शब्द 'अम्मै' के बहुअर्थमय, किन्तु पारदर्शी आशय को समझने का उपक्रम करते हुए उस भोले-भाले बाल्योचित शब्द-व्यवहार को अपने समय के चतुर शब्द-व्यापार के सामने खड़ा कर देता है-


बातूनी लोगों से भरी इस दुनिया में 

तुम्हारे पास एक ही शब्द है पाखी! 

केवल एक ही शब्द। 

'पानी के लिए 'अम्मै' 

तो अपनी मम्मी के लिए भी 'अम्मै' 

बाहर डोलने के लिए 'अम्मै' 

तो छत पर कब्बू देखने के लिए भी 'अम्मै'

हमारा ही ठेका है.

कि हम हर बार तुम्हारी 'अम्मै' का अर्थ खोजें। 

बहुत मुश्किल है पाखी

लोगों के शब्दों का सही अर्थ खोजना


***.   ***.   ***


पाखी! मुश्किल है उन लोगों के शब्दों का आशय समझना

जो बातें तो मीरघाट की करते हैं

पर जिन्हें तीरघाट जाना होता है।


शेखर जी का यह संग्रह इस अर्थ में भी विशिष्ट है कि वह एक लगभग बीत चली 'काव्य-संस्कृति' - प्रकृति और मनुष्य के बीच भावनात्मक सम्बन्ध की याद दिलाता है। यह काव्य-संस्कृति नयी कविता और प्रगतिवाद तक भी प्रखरता के साथ स्थापित थी। इसे छायावाद या किसी भी काव्य-शैली तक महदूद रख कर अथवा किसी काव्य-सिद्धान्त के अर्थ में नहीं समझा जा सकता। प्रकृति के साथ मुनाफे की सभ्यता के अतिचार ने भले ही अनेक विभीषिकाओं को जन्म दिया हो, लेकिन प्रकृति का मनुष्य के साथ होना, मनुष्य का प्रकृति के बीच होना, अभी भी वास्तविकता है। आज का मनुष्य भले ही अपनी ही चिन्ता में प्रकृति को भूल बैठे, प्रकृति उसे नहीं भूलती।


अपनी सज्जा की चिन्ता ही मुझे रही

खड़ा रहा मैं तट पर

जल प्रवाह से थोड़ा हट कर।

पर, घर की बिल्ली सा लाड़ दिखाती

चली गयी वह लहर अभी मुझसे यों सट कर।


इस काव्य संग्रह में ‘ग्रीष्मावसान', 'विदा की बेला', 'नदी किनारे', 'मुझे अपने में लपेटे', 'नैनीताल के प्रति', 'प्रवासी का स्वप्न', 'वसन्ताभास', 'धानरोपाई', 'स्मृति में रहें वे' आदि कितनी ही कविताएँ आज के जीवन की विडम्बनाओं से बिद्ध मनुष्य और प्रकृति के बहुविध भावनात्मक सम्बन्धों की साक्षी हैं। 'पहली वर्षा के बाद' शीर्षक कविता के 'बूढ़े पुरखों से चार पहाड़' कठिन पहाड़ी ज़िन्दगी के ही रूपक हैं। एक ही बिम्ब में एक पूरी जीवन-स्थिति उभर आए, ऐसे कमाल कविता में भी कम ही देखे जाते हैं-


भूरी मटमैली चादर ओढ़े

बूढ़े पुरखों से चार पहाड़

मिलजुल बैठे

ऊंघते  ऊंघते ऊंघते

घाटी के ओठों से कुहरा उठाता

मन मारे, थके-हारे बेचारे

दिन-दिन भर

चिलम फूंकते-फूंकते-फूंकते।


हमने इस लेख के आरम्भ में ही लिखा था कि इस संग्रह की कविताएँ प्रथमतया जीवन-विवेक को सम्प्रेषित करती हैं। काव्य-विवेक इसी जीवन-विवेक का अंग है। इस संग्रह में कवि ने अपने अग्रज कवियों को भी याद करते हुए अपने जीवन-विवेक और काव्य-विवेक को एक साथ सम्प्रेषित किया है निराला की कविताओं का गहन अन्धकार अभी भी गहरा है। निराला की याद कवि के अपने समय की गहरी कालिमा से जुड़ी हुई है, जो महाकवि और उन जैसे तमाम योद्धाओं की आत्माहूति के बाद भी धनी है। निराला की याद एक कचोट है-


शेष हुआ वह शंखनाद अब

पूजा बीती।

इन्दीवर की कथा रही 

तुम तो अर्पित हुए स्वयं ही

ओ महाप्राण!

इस कालरात्रि की गहन तमिस्रा

किन्तु न रीती 

किन्तु न रीती।


बाबा नाजार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के प्रति समर्पित कविता 'मोती : आबदार' इन दो अग्रजों की उस दृष्टि से कवि का जुड़ाव व्यक्त करती है, जो देशज है, जो अपने आस-पड़ोस के जन-जीवन, प्रकृति और परिवेश से सच्चाई और सुन्दरता को सहजतः उपलब्ध करती है। इन्हें पाने के लिए सातों समुद्रों की परिक्रमा नहीं करनी पड़ती। अपनी निजता में सुरक्षित और अपने आस-पास के जन-जीवन के साथ लगाव से वंचित कवि ही किन्हीं ऐसे गूढ़ काव्य-सत्यों की तलाश में अपनों से दूर और अकेले, रहस्यमय गहराईयों में उतरा करते हैं। उनकी साहसी और कुशल गोताखोरी जनता से उनकी दूरी और उनकी अहमवादिता की पर्देदारी करती है। यही उनकी चतुराई है। जिन्हें अज्ञेय की कविता 'यह दीप अकेला' का स्मरण हो, वे शेखर जी की इस कविता का व्यंग्य बखूबी समझेंगे-


वे जो चतुर सुजान थे 

साहसी कुशल गोताखोर थे 

सातों समुद्रों की परिक्रमा कर 

जुटा लाए

ढेरों मूंगे, शंख, सीपियां 

तुम तो यहीं

अपने ही अंचल से

उन्मत्त बागमती

और चंचल केन के ताल से

खोज लाए मोती

टटके

ताजे

आवदार! 

सदाबहार

सदाबहार !!


केन और बागमती वे नदियाँ हैं जिनसे उन अंचलों के तमाम सामान्य लोगों का रोज़ का रिश्ता है जो केदार और नागार्जुन के अंचल हैं। बागमती और केन खूब परिचित हैं, जाने समझे देश-काल में स्थित हैं। इनके जाने-समझेपन में, इनके रोज़मर्रापन में सत्य और सुन्दर की सार्वभौम उपलब्धि इन कवियों के लिए सम्भव है। दूसरी ओर दूरस्थ, अनाम, अपरिचित सागरों की यात्रा और उनमें गोताखोरी करने वाले कवियों का जो हासिल है, वह आत्मवद्धता से परे नहीं। 'न रोको उन्हें शुभा' शीर्षक संग्रह निश्चय ही समकालीन कविता में एक अलग सम्बोधन है।



प्रणय कृष्ण 

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