शैलेन्द्र चौहान की कविताएं

 

शैलेन्द्र चौहान 


जीवन की यही खूबसूरती है कि वह सतत चलता रहता है। यानी कि जीवन चलने का नाम है। कहीं थमता नहीं है। थमना एक तरह से मौत होती है। हम जन्म लेते हैं। आजीवन जीवन के कारोबार में व्यस्त रहते हैं। हमें पता तक नहीं चलता और धीरे-धीरे जीवन बीत जाता है। तुलसीदास ने लिखा है : 'दिवस जात नहीं लागहि ही बारा' जबकि गालिब ने लिखा है 'सुब्ह होती है शाम होती है। उम्र यूं ही तमाम होती है।।' मुक्तिबोध तो जीवन के व्यर्थता बोध पर बात करते हुए लिखते हैं 'अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया।' हर कवि जीवन को अपने नजरिए से देखता और रेखांकित करता है। कवि शैलेंद्र चौहान अपनी कविता में जीवन को कुछ अपने नजरिए से रेखांकित करते हुए लिखते हैं : 'छुपाने की कला आती नहीं/ जो सच था कह दिया/ जीवन जैसा भी था// जी लिया।' यही जीवन की खूबसूरती भी है। तमाम मौकों पर मृत्यु को चकमा देती है। विलोम होने के बावजूद अन्ततः यह मृत्यु का वरण करती है और उसे अपना ही हिस्सा बना लेती है। शैलेन्द्र चौहान हमारे समय के प्रतिष्ठित कवि हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शैलेन्द्र चौहान की कविताएं।



शैलेन्द्र चौहान की कविताएं



बिहार

जब नहीं गया था बिहार
तब भी विचरता था बिहार में


इलाहाबाद और बनारस के आगे
नहीं बढ़े थे कदम
पर मौजूद थे दर्जनों लेखक
'धरती' के पृष्ठों पर


नागार्जुन, कुमारेन्द्र, हरिहर प्रसाद, मधुकर सिंह,
जितेन्द्र राठौर, राम निहाल गुंजन, चंद्रेश्वर कर्ण, कर्मेंदु शिशिर
और अनेकों कवि उस धरती की सुगंध बिखेरते थे
हिंदी जगत में


सुनता था सुंदर संगीत
अरुण कमल, आलोक धन्वा, मदन कश्यप, नचिकेता की काव्यात्मक अभिव्यक्ति में


अनगिनत पोस्टकार्ड, रचनाएं और पत्रिकाएं मिलती दर रोज
पहुंचते कभी-कभी लेखक मित्र इलाहाबाद
उनकी ऊर्जा, विश्वास और मित्रता उष्म और सुखद
बिहार पैठता गया मुझमें और मैं बिहार में


कितनी उर्वरा है बिहार की धरती
'धरती' के पृष्ठों पर फैली हुई
बिखेरती कई रंग
स्नेह और अपनत्व से सराबोर




एम आई रोड कॉफी हाउस

छह बाइ आठ का कमरा था
एक सिंगल बेड और किनारे पर छोटी सी सेंटर टेबल
सर्वेंट क्वार्टर था वह जो गेस्ट रूम में तब्दील हुआ था
सोता था शिफ्ट ड्यूटी से लौट कर 
कभी दिन में कभी रात कभी दोपहर में


नीचे ऑफिस था
आसपास रिहायसी मकान
सुबह नाश्ते में कभी कभी गणेश मंदिर के सामने खाता गरम कचौरी और मिर्चीबड़ा
एक वक्त का खाना बना देता गार्ड सुखदेव
प्रेम रखता था निश्छल
दिन में हनुमान ढाबे से पैक कराता दो रोटियां और दाल
निश्चित नहीं थी दिनचर्या


शाम जब अवकाश होता तो पहुंचता एम आई रोड
कॉफी हाऊस
खूब गहमा गहमी रहती वहां
एक टेबल पर गोविंद माथुर, सत्यनारायण, अशोक राही, राजाराम भादू, प्रेमचंद गांधी होते तो कभी कोई और अदल बदल कर
पास की टेबलों पर राम शास्त्री, साबिर खान, अशोक शास्त्री और राजेन्द्र साईंवाल
कुछ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, व्यापारी


कॉफी के एकाधिक दौर और
साहित्य, कला, संस्कृति, राजनीति की बातें
एक अंतरंगता स्नेह गर्मजोशी दिखती थी वहां


मुझे याद आता इलाहाबाद
जहां सिविल लाइंस कॉफी हाउस में होती उत्तेजनापूर्ण बहसें
मार्कंडेय, भैरव प्रसाद गुप्त, विजयदेव नारायण शाही, ओंकार शरद, मत्स्येंद्र शुक्ल, नीलकांत, दूधनाथ सिंह, विद्याधर शुक्ल बैठते से आसपास टेबलों पर
नहीं दिखते थे अमरकांत और शेखर जोशी


गेस्ट रूम से शिफ्ट हुआ किराये के मकान में
परिवार था साथ
बीतते रहे दिन मास वर्ष
न पहुंचने पर बहुत खाली लगता दिन


जब जयपुर से हुआ स्थानांतरित
अक्सर याद आती वे शामें
आना होता जब जयपुर
पहुंच जाता कॉफी हाउस


कई वर्षों रहा बाहर
सेवामुक्त हो वापस लौटा बहुत उत्साह से
पर बदल गया था कॉफी हाउस
माहौल जुदा था
बदल गए थे लोग


समय के साथ परिवर्तित होता है बहुत कुछ
यह स्वीकार करने में कुछ समय लगा



दिल्‍ली

दुर्गंध है कोहरा है
गंदगी के ऊंचे पहाड़ हैं यहां
जल्दबाजी में हर शख्स है
किसी को ठहरने की फुरसत कहां


बेहिसाब गाड़ियां हैं
रेहड़ी-पटरियां हैं
माल हैं दफ्तर-दुकानें हैं
गजब की भीड़-भाड़ है यहां


गरीब-गुरबे हैं, बनिये-वक्काल हैं
नौकरीपेशा मुलाजिम हैं
हाकिम-हुक्काम हैं
जरायमपेशा हैं
हर जुगाड़ है यहां


खुले घूमते हैं चोर, डकैत, हत्यारे, बलात्कारी
कहने को एक तिहाड़ है यहां


कहते हैं दिल्‍ली दिल वालों की है
होगी!
दिखता ज्यादातर कबाड़ है यहां







विषाद

जीवन जीना था
जी लिया


न दिल खोल कर खुशियां लुटाईं
न गम साझा किया
ज्यादा अपना ही सोचा
थोड़ा औरों को बूझा
कुछ को दुख दिया
कुछ को तसल्ली
किया कम खुश ज्यादा हुआ
खास कुछ न किया


इस तरह बीत गये उनहत्तर बरस
निरर्थक बेसबब
व्यवस्था बदली न जीवन
न दिखती आगे उम्मीद


हासिल कुछ भी नहीं
बस व्यग्रता और विषाद
आलस्य अस्पष्टता प्रमाद
साथ चलते रहे
चलते रहे साथ-साथ


बात अपनी कह रहा हूँ
कर्मवीरों की नहीं
सतत संघर्षरत कर्मठ मनुष्यों की नहीं
जुझारू प्रतिरोधकर्मियों की नहीं
क्रांतिकारियों की बिल्कुल भी नहीं
न उनसे कोई तुलना न साम्य


छुपाने की कला आती नहीं
जो सच था कह दिया
जीवन जैसा भी था
जी लिया


मृत्यु

निस्पंद निर्जीव देह
मुख खुला
पुतलियां स्थिर
सांसें बंद
भूमि पर पड़ा सीधा


वह अब
न चलेगा
न बोलेगा
न कुछ खा-पी सकेगा


बोलता था अब तक खूब
हंसता था हंसाता था गाता था सितार बजाता था
साथ चलता था
गाड़ी में घुमाता था
व्यंजन खिलाता था


जड़ हो गया
हो गया निश्चेष्ट
कुछ ही देर में रख दिया गया अर्थी पर
पहुंचा दिया श्मशान
हुए कुछ कर्मकांड
चिता में लगाई आग
बची सिर्फ राख थी


लौट लिए लोग
आंखें सूनी थीं
रिक्त हुआ पृथ्वी का एक अंश
सूना है मन का कोई कोना


कभी-कभी छाया डोलती है बोलती है
बात तौलती है
साथ होती है
ताजा होती हैं यादें


धीरे-धीरे सिमट जाएगी छाया
बिछड़ते हैं सभी
कभी न कभी
यही है जीवन चक्र
कौन किसके साथ जाता है!






मारण मोहन उच्चाटन


कविताओं ने विराम ले लिया है
हर तरफ अपराध कथाएं लहलहा रही हैं


अंकुरित होते बीज को देख कर हर्षमिश्रित उत्तेजना हो रही हैं
किसान मुरझाए चेहरे लिए लौट रहे हैं गल्ला मंडी से
कितनी कीमत रही फसल की दूनी या आधी
खिला चेहरा होता तो .....


मकड़ी ने जाल बुना है
छोटे-छोटे दो एक कीड़े गिरफ्त में हैं
बहुत कुछ हो रहा है विकास के बाड़े में
झूठ जलेबी की तरह रसीला और गोल है
अचार की तरह बढ़ाता है खाने का स्वाद भी


जंतर मंतर पर बैठे धरने वालों की खबर कहीं नहीं है
उनके मंसूबों पर पानी फिर चुका है
लोकतंत्र और संविधान हो चुके हैं जुमलों में परिवर्तित
तिलिस्म गहरा रहा है
जादूगर ने सूरज पर पानी डाल दिया है


भाप ही भाप
कुहासा हर तरफ
धरती कांप रही है
कैसा विरोधाभास है?


आंदोलन में दोलन है विकट
थरथराहट है
घबराहट है
निराशा है
उपदेश हैं
प्रवचन हैं
सीख है


मैं पत्थर का पुतला हूं
काला ग्रेनाईट
यह अहिल्या की अकथ कथा है
कविता यहीं खो गई है
भेड़़िये कहकहे लगा रहे हैं
शार्दूल कांप रहे हैं




समदर्शी

वे हर पोस्ट लाईक करते हैं
किसी में किंचित भेद नहीं करते


वह इतिहास से संबंधित हो
वर्तमान की दुर्दशा पर हो
या भविष्य की चिंता में लिखी हो


जन्मदिन पर हो
मृत्यु शोक में हो
झरबेरी पर हो, पीपल पर या आम पर हो
हरियाली पर हो या सूखे पर


वह धर्म पर फिदा हो या धर्म से जुदा हो
राजनीति पर हो या अपराध पर


उन्हें न वाम से कुछ लेना है न दक्षिण से
क्या फर्क पड़ता है


वे प्रगतिशील भी हैं और भक्त भी
न विज्ञान से उन्हें कोई परेशानी न अंधविश्वास से


साहित्य हो या नृतत्व शास्त्र
कला हो या किसी औघड़ पर लिखा वाकया
वे सब को समभाव से देखते हैं


किसी के बारे में कोई राय नहीं बनाते
वे किसी को नाराज नहीं करते
किसी बात पर विचार नहीं करते
वे चतुर हैं, परम प्नसन्‍न हैं


सब सुख सुविधाएं हैं
किसी चीज की कोई कमी नहीं
यंत्रवत लाईक पर उंगली रखते हैं
यही है नीर-क्षीर विवेक
अतः सर्वप्रिय हैं


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


संपर्क : 

34/242, सेक्‍टर-3, 
प्रतापनगर, 
जयपुर-302033



मोबाइल : 7838897877






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