रूसी कवि बरीस सदअवस्कोय (Борис Садовской) की कविताएँ


बरीस सदअवस्कोय


बरीस सदअवस्कोय (1881—1952) रूसी साहित्य में रुपहले युग के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। हालाँकि बरीस सदअवस्कोय का नाम प्रमुख कवियों में नहीं लिया जाता, लेकिन उन्हें अपने युग का एक उल्लेखनीय कवि माना जाता है। ज़ारकालीन रूस में वे मध्यवर्ग के प्रतिनिधि थे और 1917 तक इनके आठ कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। उस समय रूसी कविता में प्रतीकवादी आन्दोलन चल रहा था और इस आन्दोलन से जुड़े सभी प्रमुख कवि बरीस सदअवस्कोय के मित्र थे, लेकिन बरीस सदअवस्कोय ने ख़ुद को इस आन्दोलन से अलग रखा और पुराने रूसी ढर्रे पर कविताएँ लिखते रहे। रूसी क्रान्ति होने के बाद सदअवस्कोय ने कविताएँ लिखना बन्द कर दिया और आलोचना व गद्य रचनाएँ लिखनी शुरू कर दीं। दो-तीन वर्ष में ही लोहे का जंगला शीर्षक से इनका एक कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ। इसके बाद इन्होंने एक बड़ा उपन्यास लिखा, जो 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद ही प्रकाशित हुआ।





मरीना स्विताएवा की बहुत-सी कविताओं को आज के समय तक सुरक्षित पहुँचाने में भी बरीस सदअवस्कोय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1939 में चेकोस्लोवाकिया से वापिस लौट कर मरीना ने अपनी रचनाओं की डायरियाँ सदअवस्कोय के पास ही छोड़ दी थीं। द्वितीय विश्व युद्ध के पूरे दौर में उन्होंने उन डायरियों को सुरक्षित रखा जो स्तालिन की मृत्यु के बाद प्रकाशित हुईं। पहली बार में और हिन्दी में पहली बार बरीस सदअवस्कोय की कविताएँ प्रकाशित हो रही हैं। आज लग रहा है कि पहली बार वेब पत्रिका अपना नाम सार्थक कर रही है। इन कविताओं का मूल रूसी भाषा से अनुवाद किया है — अनिल जनविजय ने।



रूसी कवि बरीस सदअवस्कोय (Борис Садовской) की कविताएँ


चन्दा के लिए

चन्दा, मेरी चन्दा! ज़रा देख मुझे सनम
डूबा हुआ हूँ मैं गहरे प्यार में तेरे
लेकिन इस रात को हुआ हमारा मिलन
ख़ूबसूरत, अजनबी संसार में मेरे


शान्त-नीले समुद्र पर उभरी तेरी छवि
और समुद्र की विशालता जैसे कहीं खो गई
किसी मौन एकान्त में भटके तेरी भवि
चुपचाप लहर को लहर की चपलता धो गई


गहरी नीली इस जलसतह के ऊपर
तेरी रूपहली चान्दनी छाया-सी हिल रही है
और वहाँ दूर आकाश के क्षितिज पर
चन्दा मेरी, तेरी स्वर्ण आभा खिल रही है।

(1908)   

 
बरीस सदअवस्कोय


जलरंगों से बनी तस्वीर


तेरी नज़रों में छाई है शाम की थकान
तेरी आवाज़ जैसे एक कोमल बाँसुरी है
तू जैसे पारिवारिक एल्बम से निकली है
पानी-सी पारदर्शी तस्वीर कोई माधुरी है


रचता हूँ किसी खुरदुरे-सुरमई कागज़ पर
तेरे चेहरे की चमकती बारीक़ रेखाएँ
फलों की दमक और चिड़ियों की रंगज हर
पानी की सतह पर झुके फूलों की आभाएँ


मैं क्यों नहीं रह सकता हलके जलरंगों पर
चाहता हूँ जीना मैं तेरे साथ हमेशा
कभी हरिण-मृग, कभी सारंग-कुरंग बन
कभी धर नीलवर्ण जलपक्षी का वेषा।

(1935)

बरीस सदअवस्कोय


क्या प्यार ने हमको भरमाया था

क्या प्यार ने हमको भरमाया था,
हम स्लेज पे चढ़ कर घूम रहे थे?
चारों तरफ़ नीला कोहरा छाया था,
सोए हुए बूढ़े मसक्वा में झूम रहे थे।


कोचवान को हमारे जैसे पंख लगे थे,
घोड़ा भी था पंखों वाला।
पूरा मसक्वा सो रहा था तब
क्या चिन्ताओं पर पड़ा था पाला?


आकाश ढका था तारों से जब,
हम तरुपथ से गुज़र रहे थे।
और काली टोपी की गर्मी से
तेरे होंठ फैल कर बिखर रहे थे।


वहाँ चौराहे पर देवालय के पास
फीकी रोशनी मन खरोंच रही थी।
पूश्किन की मूर्ति बर्फ़ ढकी थी
वो चेहरा हिला कुछ सोच रही थी।
और वहाँ गली के नुक्कड़ पर
गेट खुला पड़ा था इन्तज़ार में।
तभी गुज़री ट्राम भड़-भड़ कर
तारों की आँखें नम थीं प्यार में।


बर्फ़ीला तूफ़ान चल पड़ा भयानक
मसक्वा पर चान्दनी पसर गई थी।
यह स्वप्न नहीं था कोई अचानक
सच्चाई थी, जो बिखर गई थी।

(1911)  

बरीस सदअवस्कोय


जब तट पर सब जम जाता है

जब तट पर सब जम जाता है,
और चाँद भी बढ़ता जाता है,
मैं घसियल मैदानों में घूमूँ,
जहाँ कोहरा मन भरमाता है।


वहाँ सपन काँपते-छलकते हैं,
वहाँ भूत छवि से झलकते हैं,
वहाँ चाँदनी झर-झर झरती है,
उल्लुओं की चीख़ें बिखरती हैं।


वहाँ घास भी सपने देखा करे,
और मेरे बिछोह-सी सर्र-सर्र करे,
वहाँ नज़र चाँद की, उल्लू की चीख़ें,
और रात भी थर-थर काँपा करे।

(1905)



उदास उल्लू ...

उदास है उल्लू,
अकेला है उल्लू
क़ब्र पर बनी मीनार पर रोता है,
शाम को जब वह उदास होता है,
जब घास उग रही होती है।


अन्धे हैं फूल,
मृत हो चुके हैं फूल
अन्तिम संस्कार में दुख सहन करते हैं,
शाम के समय निराशा वहन करते हैं,
जब अन्धेरा छा रहा होता है।


दीवाने हैं शब्द,
अबोले हैं शब्द
ठण्डी छाती को फाड़ कर निकलते हैं,
शाम को विफल हो बिखरते हैं,
जब उल्लू चीख़ रहा होता है।

(1906)  

मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय


अनिल जनविजय







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टिप्पणियाँ

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (08-06-2020) को 'कुछ किताबों के सफेद पन्नों पर' (चर्चा अंक-3733) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

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