चैतन्य नागर का आलेख 'योग का दुरुपयोग'

चैतन्य नागर



प्राचीन काल से ही मनुष्य ने अपने को स्वस्थ रखने के लिए उपाय करने शुरू कर दिये थे। इसी क्रम में उसने कसरत करना शरू किया। भारत की प्राचीनतम संस्कृति हड़प्पा संस्कृति (3300ई. पू.-1700 ई. पू.) के अंतर्गत कई ऐसी मूर्तियाँ मिलती हैं जिनको देख कर अनुमान लगाया जाता है कि ये योग मुद्रा को प्रदर्शित कर रही हैं। पुरातत्त्वविद ग्रेगरी पोस्सेह्ल का मानना है कि ये मूर्तियाँ "योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती हैं। यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक विद्वानों की राय है कि सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में कोई न कोई सम्बन्ध है। भारतीय दर्शन में योग को बहुत अधिक महत्ता दी गयी है। भारतीय षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है। पतंजलि द्वारा व्याख्यायित योग संप्रदाय सांख्य मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करता है। आमतौर पर पतंजलि को ही योग दर्शन का संस्थापक माना जाता है। पतंजलि का योग, बुद्धि का नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है जिसे राज योग के रूप में जाना जाता है। पतंजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द का परिभाषित करते है, जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है।

अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रति वर्ष 21 जून को मनाया जाता है। यह दिन वर्ष का सबसे लम्बा दिन होता है और योग भी मनुष्य को दीर्घ जीवन प्रदान करता है। पहली बार यह दिवस 21 जून 2015 को पूरी दुनिया में मनाया गया। आज विश्व योग दिवस के अवसर पर पहली बार पर प्रस्तुत है चैतन्य नागर का आलेख 'योग का दुरुपयोग'।


योग का दुरुपयोग

चैतन्य नागर



पिछले कुछ सालों से जून का महीना आते आते योग की इतनी चर्चा होने लगती है कि जो नियमित योगाभ्यास नहीं करता उसके भीतर एक अपराध बोध पैदा होने लगता है। इस साल तो महामारी ने चर्चाओं का बड़ा हिस्सा झटक लिया है। पर आपदा को अवसरमें बदलने के नाम पर योग को भी भुनवाने का मौका नहीं चूकेगी देश विदेश में फलती-फूलती तथाकथित योग गुरुओं की पलटनें।





योग को ले कर सब से बड़े आपत्ति तो उन लोगों से है जो इसे आध्यात्मिक प्रगति का एक माध्यम बता कर प्रचारित करते हैं और बेचते हैं। स्वामी विवेकानंद ने बड़ी ही तर्कसंगतबातें कही थीं। उनका कहना था कि योग की दैहिकता हमें एक स्वस्थ पशु भर बना सकती है, उससे आध्यात्मिकता का कोई सम्बन्ध नहीं। विवेकानंद ने इस बात की ओर भी इशारा किया था कि योगाभ्यास के कारण लोगों का अपनी देह केप्रति मोह बढ़ता है और ऐसे में यह आध्यात्मिकता सेठीक  विपरीत दिशा में ले जाता है। सिर्फ देह के व्याधिग्रस्त न होने की चिंता करना और इस उद्येश्य से तरह तरह के आसन वगैरह करना कोई खास महत्त्व का नहीं। उनका कहना था कि बरगद का वृक्ष कभी कभी 5000 साल तक जीता है पर वह सिर्फ बरगद का एक वृक्ष ही होता है, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं। इसलिए हठ योग वगैरह से कोई व्यक्ति दीर्घजीवी तो हो सकता है, पर वह एक स्वस्थ पशु भर बना रहेगा।





गौरतलब है कि शारीरिक स्वास्थ्य की बहुत अधिक चिंता भी एक रोग ही है। एनोरेक्सिया नर्वोसा और बुलिमिया ऐसे दो गम्भीर रोग हैं जिन्हे लोग सुन्दर और स्वस्थ दिखने के चक्कर में आमंत्रित कर लेते हैं। यदि हम योग को कोई सरल नाम दे सकते, मसलन कसरत या व्यायाम, और इसका उपयोग स्पष्ट और शुद्ध रूप से अपनी शारीरिक सेहत बनाने या सुधारने के लिए करते, तो बेहतर होता। योग शब्द ही एक समस्या पैदा करता है, इससे कहीं न कहीं धार्मिकता का भान होता है और वह भी एक विशेष धर्म की परंपरा से जुडी धार्मिकता यह एक धंधा भी बन गया है और इसने कई गुरुओं को जन्म दे डाला है। योग की दुनिया कई तरह की गुरुबाजी का अखाड़ा बन कर रह गई है। एक योग गुरु को अधिक से अधिक एक फिजिकल ट्रेनर की तरह देखा जाना चाहिए। योग गुरु न कह कर उसे एक प्रशिक्षक कहा जाना चाहिए। गुरु शब्द अपने आप में ही आपत्तिजनक है, अहंकार और श्रेष्ठता की भावना से भरा हुआ। योग को आध्यात्मिकता के साथ बिलकुल भी नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इससे लोग गुमराह होते हैं और बाजार, पूँजीवाद और आध्यात्मिक दुकानदारी करने वालों के हाथ में शोषण का एक माध्यम बन जाता है। योग का सबसे अधिक दुरुपयोग यदि किसी ने किया है तो उन गुरुओं ने जिन्होंने इसे तथाकथित आध्यात्मिक प्रगति के साथ जोड़ दिया। जिस उच्चतर ऊर्जा, कुण्डलिनी वगैरह को जगाने का दावा योग में किया जाता है, वह एक कपोल कल्पित बात है जिसके नाम पर योग गुरुओं का धंधा चलता है। योग को वैसे ही देखा जाना चाहिए जैसे कि सेहत के लिए सैर करने, या तैरने या किसी और तरह के व्यायाम को देखा जाता है।





पतंजलि ने चित्त की वृतियों के निरोध को योग कहा था। इस बात को थोडा करीब से और बड़ी गंभीरता से देखने की आवश्यकता है। जीवन चित्त-केन्द्रित है और यह चित्त की आड़ी-तिरछी रेखाओं पर ही चलता है। ये रेखाएं निर्मित होती हैं समाज, शिक्षा और संस्कारों से। ये सभी मिल कर इन रेखाओं की  दिशा और दशा तय करते हैं। चित्त की इन वृत्तियों का निषेध करना या उनका दमन करना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से न ही उचित है और न ही संभव है। चित्त की वृत्तियों को समझा जा सकता है, और आधुनिक मनोविज्ञान यह बताता है कि उनकी समेकित समझ में ही उनका अंत है। वृत्तियों का निषेध या दमन उम्र के किसी न किसी पड़ाव पर जा कर उन्हें और अधिक विकृत बना देता है और बाद में उनकी अभिव्यक्ति ऐसे माध्यम से और ऐसे ढंग से होती है कि उन्हें समझ पाना मुश्किल हो जाता है। दमित वृत्तियाँ अचेतन का हिस्सा बन जाती हैं, वे पूरी तरह समाप्त नहीं होतीं, और फिर कभी न कभी गलत जगह, गलत समय पर अनुचित तरीके से व्यक्त हो जाती हैं, ऐसे ढंग से कि उन्हें समझना मुश्किल हो जाता है। गाँधी जी इसका बहुत बड़ा उदाहरण हैं। उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद एक गहरे अपराध बोध के कारण सेक्स से दूर रहने की ठान ली थी, और फिर करीब पैंसठ साल की उम्र में भी उन्होंने स्वीकार किया कि वे अपनी अतृप्त यौनेच्छाओं से मुक्त नहीं हुए हैं। दमन का यही परिणाम होता है।





वास्तविक योग ईमानदारी से यह जानने में है कि आप योग करना क्यों चाहते हैं। कुछ लोग व्यापार में ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए, कॉर्पोरेट जगत में अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए या फिर एक बड़ा राजनीतिज्ञ बनने के लिए भी योग शुरू कर देते हैं। यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें यह स्वीकारना चाहिए। स्वयं को आध्यात्मिक नहीं समझना चाहिए। अपने छिपे हुए उद्देश्य को साफ साफ देख पाना और उसे ले कर खुद को और दूसरों को मुगालते में न रखना भी योग का हिस्सा है।


यदि लोग उच्चतर ऊर्जा और कुण्डलिनी जैसी बेतुकी बातों को त्याग कर एक व्यायाम के रूप में योग का अभ्यास करे तो उन्हें इसके बेहतर फल मिलेंगे, कुंठा भी कम होगी और सेहत तो बेहतर होगी ही। यदि आप आवश्यकता से अधिक नहीं खाते, अपने शरीर को लचीला बनाये रखते हैं, रोज एकाध घंटे के लिए कोई सहज सा व्यायाम करते हैं, संवेदनशील हैं, घृणा, क्रोध जैसे नकारात्मक भाव ज्यादा समय तक पाल कर नहीं रखते, तो यह सब भी आप को वही फल देगा जिसका दावा योग के तथाकथित विशेषज्ञ करते हैं। सहज रूप से जीने में एक विशेष तरह की संवेदनशीलता है जो किसी योग गुरु को पैसे दे कर आसन, प्राणायाम सीख कर प्राप्त नहीं की जा सकती। गलत जीवन शैली की हानियों को समझ कर ही उसे खत्म किया जा सकता है, और यही योग है। यह सिर्फ शरीर को मजबूत और सुंदर बनाने से नहीं जुड़ा, इसका गहरा सम्बन्ध मन और पूरे जीवन के साथ है। योग वही है जो हमें जोड़ सके, पूरी दुनिया के साथ, प्रकृति के साथ, पेड़ पौधों और पशुओं के साथ। योग का अर्थ सिर्फ अपनी देह पर काम करना और उसे सुन्दर बनाना नहीं, यह मन पर और उससे भी गहरे अवचेतन और अचेतन तलों पर काम करने से सम्बंधित है। सही सोच में योग है, तर्ककुशलता में योग है, जीवन को बगैर किसी कलह के जीने में योग है, योग है शोषण की प्रवित्ति के बिना प्रकृति और बाकी मनुष्यों के साथ जीने में, और यह सब बहुत अधिक परिश्रम की मांग करता है। यह हाट में किसी गुरु के हाथों बिकने वाली चीज नहीं।




सिर्फ हाथ, पैर या पूरे शरीर को भी दायें-बाएं मोड़ने से कोई आतंरिक विकास नहीं हो सकता। मुमकिन ही नहीं। जेन बौद्ध की एक कथा आपके साथ साझा की जानी चाहिए। एक शिष्य अपने गुरु के पास ध्यान वगैरह सीखने गया। वह आध्यात्मिकता में रूचि रखता था और यह मानता था कि योग, ध्यान वगैरह के अभ्यास से वह अपना लक्ष्य पा लेगा। वह अपनी इच्छा व्यक्त करने के बाद वह शिक्षक के सामने पालथी मार कर, आँखे बंद करके बैठ गया। जब उसने थोड़ी देर बाद आँखें खोलीं तो देखा कि उसके शिक्षक दो पत्थरों को दोनो हाथों में पकडे हुए आपस में घिस रहे थे। शिष्य ने पूछा कि वह कर क्या रहे हैं? शिक्षक ने जवाब दिया, कि वह उन पत्थरों को घिस कर एक दर्पण बनाना चाहते हैं। शिष्य बोला कि यह तो मुमकिन ही नहीं। शिक्षक ने कहा ठीक उसी तरह जैसे ध्यान और सही आसन वगैरह से कोई आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं।



  
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टिप्पणियाँ

  1. अच्छा आलेख। योग के बारे में एक नया दृष्टकोण मिला। कई बाते स्पष्ट हुईं।

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