संजीव कौशल की कविताएं


संजीव कौशल

धर्म जिसे लोगों को सद्विचारों की तरफ मोड़ने का दायित्व निभाना चाहिए, अक्सर दो विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच मतभेद की स्थिति पैदा कर देते हैं। दुनिया का कोई भी धर्म वहीं संकीर्ण दिखायी देने लगता है जहाँ उसके सम्मुख कोई दूसरा धर्म आ खड़ा होता है। सभी धर्म अपनी कमीज को अधिक सफेद और दूसरे को गंदला बताने की पुरजोर कोशिश करते हैं। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि धर्मों के आपसी मतभेदों और युद्धों में जितने लोग मारे गए उतना और किसी वजह से नहीं। ऐसी स्थिति में ही एक रचनाकार अपना दायित्व निभाने के लिए सामने आता है। किसी भी रचनाकार के लिए सबसे प्रमुख होता है मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना। रचनाकार के लिए धर्म, जाति, वर्ग के अंतर गौड़ होते हैं। संजीव कौशल हमारे समय के उन महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक हैं जिन्हें हम मनुष्यता के प्रति प्रतिबद्ध पाते हैं।  उनकी कविताएं इसका उदाहरण हैं। 'कबूतर' कविता हो या 'कैसी जमीन' संजीव एक शाइस्तगी के साथ दिखायी पड़ते हैं। जूड़ा बांधती स्त्री को ले कर लिखी गयी कविता 'हुनर' वही कवि लिख सकता है जिसके पास सूक्ष्म दृश्यों को देखने की दृष्टि हो। आज पहली बार पर प्रस्तुत है संजीव कौशल की कविताएँ


संजीव कौशल की कविताएं   


चीख

सूखने के बाद 
उधड़ जाती है नदी 
फटी सीवनों से झांकने लगती है मृत्यु 
भिंची दरारों में तड़पती रहती हैं प्यासी मछलियाँ 
वीराने में कोई नहीं सुनता उनकी चीख


घरों की राह ढूँढते 
बच्चों के तलवे चटक कर नदी हो गये हैं 
पपड़ियाँ छिल रही हैं 
सड़क ने छीन ली है सारी नमी
बहते खून के कतरे
सूख कर काले पड़ गए हैं
जिनमें मछलियों सी तड़प रही है बच्चों की हँसी


कबूतर


मस्जिद से उड़ उड़ कर 
मंदिर के कंगूरों पर बैठ रहे हैं कबूतर
अपने पंखों में नमाज़ की आयतें भर
बिखेर रहे हैं उन्हें 
भजनों के छंदों पर 
मंदिर की घंटियों से घंटो बतियाते हैं
और भजनों के बोलों से 
मस्जिद की सफेद दीवारें रंग आते हैं


21वीं सदी में भी इन्हें
मंदिर मस्जिद का फर्क नहीं मालूम
बेवकूफों को
नमाज़ और भजन का अंतर नहीं मालूम
कभी मस्जिद पर 
कभी मंदिर पर 
अपनी गुटर गूँ करते रहते हैं 
कोई इन्हें रोको  
भगाओ
मारो 
कम्बख्त धर्मों को भ्रष्ट किए देते हैं




तमन्ना 

हमारा मौहल्ला लगभग एक ही था 
गली में एक टेढ़ थी बस
जिसमें उसका घर छुप जाता था 
मगर छत से 
सीधी हो जाती थी टेढ़
और खुल जाता था रास्ता 


गाँव में 
लड़के लड़कियाँ दूर ही रहते थे उन दिनों 
मगर मानती नहीं थीं उसकी आँखें कोई आदेश 
और झुठलाती रहती थी उसकी हँसी सारी बंदिशें
उससे कभी कोई बात की
याद नहीं
फिर भी न जाने कितनी बातें याद हैं उसकी
स्मृति की खाँच में धसी है उसकी आवाज़
उसकी शादी याद है
और बहुत पहले उसके भाई की बताई
ससुराल में उसकी मौत की खबर भी


अब भी 
जब तब 
किसी चिड़िया की तरह
पेड़ के झुरमुट से
फुर्र हो जाती है उसकी हँसी 


कितनी पागल थी वो लड़की
जीने की उसे कितनी तमन्ना थी


परीक्षा कक्ष

सवालों से खामोश हैं कुछ बच्चे 
कुछ जवाबों से नाराज़ 
कुछ को काँटों सी चुभ रही हैं घड़ी की सुइयाँ 
कुछ के हाथों से मेंढ़क की तरह फिसल रहा है वक़्त
किसी का वक़्त छिपकली सा चढ़ गया है दीवार पर
और टकटकी बाँधे घूर रहा है उसे
उत्तरपुस्तिका में ही गिर गया है किसी का उत्तर
वह हैरान है
नज़रों से मछली की तरह खींच रहा है उसे
कुछ दार्शनिक हो गए हैं जैसे कि पेड़
पत्तियों की तरह फड़फड़ा रहे हैं कुछ
इस अनहोनी आँधी में 
आज सब सबके दोस्त हैं 
मदद की ज़रा सी उम्मीद से चमक उठते हैं बेरंग चेहरे
गर्दनें उचक कर कहीं भी पहुँच जाती हैं
आंखों ने ले लिया है कानों का काम 
आवाज़ नहीं होठों के हिलने से ही सुन ली जाती है बात
इशारे टहल रहे हैं जैसे सुबह की सैर पर निकले हुए पड़ोसी
कागज़ों पर सरपट दौड़ रहा है ज्ञान
किसी को प्यास लगती है
किसी की प्यास अटक गयी है हलक में
किसी को पानी तक नहीं पच रहा है आज
न जाने कितने जबाब उठते हैं
और तोड़ देते हैं दम
यमराज सा खड़ा है शिक्षक 
आँखें गड़ाये हुए




हुनर

उंगलियों से समेट कर 
दो बार ऐंठ कर
गोल गोल घेरा बना 
बट लेती है वह बालों का जूड़ा 
और उंगली के एक इशारे से 
पिरो लेती है 
खुले बालों के सिरे 
जूड़े के भीतर से 


बिना बंधन के 
रुके रहते हैं वे


बंधे भी और खुले भी 


बाँधने का यह हुनर
कैसे सीखती है स्त्री


बैग

दो बैग 
एक तुम्हारा एक मेरा 
दोनों मगन हैं 
गुपचुप गुफ्तगू में 


घर से बाहर
इतने दिनों बाद
आज मिली है फुर्सत
जी भर बतियाने की


दोनों में 
अलग अलग रखे हैं हम 
अपने-अपने 
तौलियों में लिपटे 
अपनी अपनी महकों में महकते 


कितना अजीब है 
भीड़ में भी ढूँढ ली इन्होंने 
मिलने की जगह
और हम 
घर के बाहर भी वैसे ही हैं!





कैसी ज़मीन 

'आप नाश्ता नहीं कर रहे
'जी मेरा रोज़ा है
चुनाव ड्यूटी पर तैनात ज़की खान के लिए 
यह अजब स्थिति थी 
उन्हें छोड़ पोलिंग बूथ पर सभी हिंदू थे 
रमज़ान का जिन्होंने नाम तो सुना था 
मगर पता कुछ नहीं था 
'तब खाना कब खाएंगे' सरपंच ने पूछा 
'शाम को
शाम को बताए वक्त पर सारे इन्तज़ाम हो गए


मगर ज़की खान की चिंता 
सुबह के खाने की थी 
जिसे बिना कहे
वहाँ तैनात एक स्त्री भांप गई
'आप चिंता मत करो मैं खाना भेज दूंगी
'खाना बहुत सुबह खाया जाता है आप परेशान मत होना'
मगर वह नहीं मानी 
और सुबह 3:30 बजे 
उसका पति ताज़ा खाना ले कर हाज़िर था 
घी लगी रोटियाँ, भिंडी की सब्जी, आम का अचार
तली हुई मिर्चें, कटे हुए फल, ताज़ा दही, ठंडा पानी 


यह क्या है
ज़की खान सन्न थे 
इतनी सुबह
दो किलोमीटर दूर 
दूसरे गाँव से कोई खाना ले कर आया है 
दूसरे धर्म के व्यक्ति के लिए 


जो चुनाव 
धर्मों को बांट कर लड़ा जा रहा था 
वहां लोगों के बीच 
बँटवारे के कोई निशान नहीं थे


वह सोचते रहे कि आख़िर
शाम को ड्यूटी के बाद 
वह कब घर गई होगी 
कब जाकर रात का खाना बनाया होगा 
कब सोयी होगी 
उठकर कब उनके लिए खाना बनाया होगा 
यह क्या है 
कैसे रिश्ते हैं 
कैसी ज़मीन 
कितना भी सूखा पड़े
यह चटकती नहीं


दुख

उसने कहा 
जान ही नहीं पायी 
कब आप इतना जरूरी हो गए
लड़कियाँ पागल होती हैं लड़के ने सोचा
उसने यह भी सोचा 
कि लड़के नहीं होते इतने पागल
और पागल न होने के दुख ने उसे घेर लिया

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

सम्पर्क

मोबाइल : 09958596170

टिप्पणियाँ

  1. कविताएं अच्छी लगीं।
    ' कबूतर ' कविता का पहला आधा हिस्सा ही अपने आप में मुकम्मिल है।
    बाद में जो कहा गया है , वह सब इन्हीं पंक्तियों में शामिल है। कविता का अंतिम आधा हिस्सा जैसे कविता के समग्र प्रभाव को कुछ कम सा कर रहा है।
    कवि को शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  2. अगर हिन्दी में कविता की नई पौद ऐसी है, तो कविता को लेकर किसी भी तरह की चिन्ता करने की कोई ज़रूरत नहीं।
    संजीव कौशल, सचमुच, अच्छे कवि हैं। ’कबूतर’ अच्छी कविता है और जैसाकि विजय प्रताप जी ने कहा है, कविता का पहला आधा हिस्सा ही अपने आप में मुकम्मल है। ’कैसी ज़मीन’ भी बेहद अच्छी कविता है। ’तमन्ना’ मार्मिक है, बेहद मार्मिक ! संजीव जी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १२ जून २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  4. कई विधाओं से चली विजेन्द्र जी की तूलिका से सजे वेव-पन्नों पर संजीव कौशल जी की रचना/विचार को पढ़ कर ब्रह्माण्ड में अंतरिक्ष यान में सफ़र करने जैसा अनुभव करा गया .. युवा पीढ़ी को सीखने के लिए एक अलग कलेवर, अलग फ्लेवर (स्वाद) ...
    "जो चुनाव
    धर्मों को बांट कर लड़ा जा रहा था
    वहां लोगों के बीच
    बँटवारे के कोई निशान नहीं थे"...
    "कोई इन्हें रोको
    भगाओ
    मारो
    कम्बख्त धर्मों को भ्रष्ट किए देते हैं"...
    "और पागल न होने के दुख ने उसे घेर लिया"... ने तो अंत में सच में पागल कर दिया ...

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  5. गहरे भाव समेटे हैं कवि ने
    बहुत अच्छी लगी सभी कविताएं
    हार्दिक शुभकामनाएं

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