अमरेन्द्र कुमार शर्मा का आलेख 'वो : जो एक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे' : लव इन द टाइम ऑफ कालेरा





साहित्य और सिनेमा अपने आप में अलग अलग विधाएँ होते हुए भी कहीं न कहीं एक दूसरे से अन्तरसम्बन्धित लगते हैं। इसी क्रम में कई एक कालजयी साहित्यिक कृतियों पर उम्दा फिल्में बनीं जिसने व्यापक तौर पर लोगों को प्रभावित किया। गैब्रियल गार्सिया मार्क्वेज कोलम्बिया में जन्मे ऐसे अप्रतिम रचनाकार थे जिनकी कालजयी कृतियों ने वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता अर्जित की। उनकी एक महत्त्वपूर्ण कृति 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलेरा' पर इसी नाम से 2007 ई. में एक उम्दा फ़िल्म बनी। परदे पर 1900 ई. का दृश्यांकन है जो कालेरा महामारी का त्रासद दौर था। इस फ़िल्म में इतिहास और जीवन के साथ एक संगति दिखाई पड़ती है। कवि आलोचक अमरेन्द्र कुमार शर्मा ने इस फ़िल्म की अपने आलेख में एक गहन पड़ताल की है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अमरेन्द्र कुमार शर्मा का आलेख 'वो : जो एक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे' : लव इन द टाइम ऑफ कालेरा।


‘वो : जो एक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे’[i] : लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा


अमरेन्द्र कुमार शर्मा 

“उसने यह बड़ी ख़ुशी से खोज डाला था कि कोई अपने बच्चों से इसलिए प्रेम नहीं करता क्यूंकि वे उसके बच्चे हैं, बल्कि उस दोस्ती की वजह से जो परस्पर पनपती है उनको बड़ा करते हुए।
                
गैब्रियल गार्सिया मार्क्वेज उर्फ गाबो (6 मार्च 1927-17 अप्रैल 2014) का देश कोलम्बिया (दक्षिण अमेरिका) है। इंडीज पर्वत श्रृखंलाओं के पश्चिम ढलान पर बसा हुआ एक देश जो अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा प्रशांत महासागर में खोलता है और भारी बारिश के दिनों में पैदा होने वाली वनस्पतियों से आच्छादित रहता है । मार्क्वेज के उपन्यासों में यह स्थानीय वनस्पतियाँ अपने पात्रों के साथ सहचर के रूप में उपस्थित होती रहती हैं । 1967 में प्रकाशित विश्व प्रसिद्ध उपन्यास वन हंड्रेड ईयर ऑफ सोलिटीयूड जिस पर 1982 में उन्हें नोबल पुरस्कार मिला । जिस समय मार्क्वेज को नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया जा रहा था ठीक उसी समय वे ब्राज़ील के मशहूर फ़िल्मकर रॉय गुएर्रा की फिल्म इरेंदिरा की पट कथा लिख रहे थे। मार्क्वेज का फ़िल्मों से लगाव को इस आधार पर समझा जा सकता है कि विक्टोरिया दे सिका की फिल्म ‘द रूफ’ (1956) में सहायक निर्देशक के तौर पर शामिल रहे थे। मेक्सिको के लेखक जुआन रुल्फो के उपन्यास पर ‘द गोल्डन काक्रेल’ (1964) के लिए पटकथा लिख चुके थे, अपनी ही कहानी ‘ए टाइम टू डाई’ (1966) पर भी पटकथा लिखी। मार्क्वेज की कहानी ‘देयर आर नो थिव्ज इन दिस टाउन’ (1965) पर अल्बर्टो ईसाक ने स्पेनिश में एक फ़िल्म बनाई थी, इस फिल्म में स्वयं मार्क्वेज ने गाँव के सिनेमाघर में टिकट बेचने वाले वाले की छोटी सी भूमिका निभाई थी। 1985  में मार्क्वेज ने ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ की रचना की। 1994 में उन्होंने अपने आखिरी उपन्यास ‘ऑफ लव एंड द अदर देमोंस’ की रचना की । ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ उपन्यास के लगभग 348 पृष्ठों में समय का जो विन्यास उन्होंने रचा है वह  मूलतः उन्नीसवीं  शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के बीच करवट लेता दौर है । फ़िल्म में यह दौर कुछ बेहतरीन दृश्यों के माध्यम से करवट लेता हुआ दिखाया गया है। परदे पर 1900 ईस्वी का जश्न प्रतीकात्मक अर्थों में उभरता है। यह दौर कॉलेरा के महामारी का भी दौर रहा था। चिकित्सा  के क्षेत्र में तकनीक के विकास का स्तर अभी उन्नत नहीं हुआ था लेकिन टेलीग्राफ का आविष्कार (1794) हो गया था । एक टेलीग्राफ ऑफिस का वर्णन उपन्यास में और उपन्यास पर बनी फ़िल्म में दृश्यों के साथ घटित होना अनायास नहीं है। यह इतिहास और जीवन के साथ एक संगति भी है। मार्क्वेज के पिता टेलीग्राफ ऑफिस में कार्य करते थे। ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ उपन्यास के प्रकाशन के लगभग बीस बरस बाद इस उपन्यास पर फ़िल्म 2007 में ब्रिटिश फ़िल्मकार माइक न्यूवेल ने  निर्देशित किया है। परदे पर पसरते हुए ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ के चित्रों को देखना दरअसल अपने बोध में एक ऐसी दुनिया की कहानी को शामिल करना है जिसकी हमसे भौगोलिक दूरी तो है लेकिन उसमें निसृत होती हुई लोक धुन और लोक राग से हम गहरी निकटता महसूस करते हैं। यह उपन्यास मध्य वर्ग के आदिम राग की रवायत को व्यक्त करता है। सिनेमा के परदे पर यह राग 138 मिनट 36 सेकेंड तक अपने भूगोल के चटख और धूसर रंग में पसरा हुआ है। नीले और मटमैले समुद्र, वृक्षों से आच्छादित पहाड़, ऊँघता औपनिवेशिक अभिजात्य शहर, बारिश से भींगी, कीचड़ में सनी बस्ती और उसका स्थानीय बाज़ार, पानी का जहाज जिसपर कॉलेरा महामारी से मृत्य लाशें लदी हुई और इन सबके बीच प्रेम के लिए प्रतीक्षारत दुनिया का चित्र इस उपन्यास और फ़िल्म को पढ़ने और देखने के लिए आमंत्रित करता है। यह उपन्यास सामान्यतया रचनाकार के एक आत्मसजग उपक्रम के रूप में हमारे सामने आता है। दरअसल, उपन्यास केवल दिखाई पड़ने वाली वास्तविकता की बात नहीं करता बल्कि उसके भीतर के तत्वों को भी देखता है। इसलिए उपन्यास के साथ पाठकीय संबंध बनाना विभिन्न दृष्टिकोण से होना चाहिए और सिनेमा के साथ दर्शक का संबंध पूरे पर्दे के विन्यास के साथ होना चाहिए । फ़िल्म का प्रत्येक दृश्य जितनी गहराई से परदे पर उभरता है, उससे कहीं ज्यादा वह गहराई धारण किये हुए है और यह इस कारण से संभव हुआ है कि प्रत्येक दृश्य का एक अतीत बोध है और उसकी एक लोक रवायत भी। कहना होगा इस पर बनी फ़िल्म दर्शक के साथ उपन्यास के लगभग सभी वादे पूरे करती है।




‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ प्रेम के अनंत प्रतीक्षा का आख्यान है। यह आख्यान अपने पात्रों के माध्यम से हमारे सामने अपनी तन्मय लय के साथ उपस्थित होता है।  मार्क्वेज के इस बेहतरीन उपन्यास और इस पर बनी फिल्म को वो जो धड़कता है कहीं दिल से परेके संदर्भ से हम प्रेम की अनंत प्रतीक्षा की यात्रा पर निकलें इससे पूर्व हम उपन्यास और फिल्म में विन्यस्त पात्र  की संरचना और फिल्म की बुनावट से जुड़े लोगों की जानकरी से गुजरते हैं। इसके मुख्य पात्र हैं - फ्लोरेंतिना एरिजा जो नायक की और फर्मिना डाजा के प्रेमी की भूमिका में हैं। फर्मिना डाजा  इस उपन्यास की नायिका है। जुबेनाल उर्बिनो फर्मिना डाजा के पति के रूप में हैं। लोरेंजो डाजा फर्मिना डाजा के पिता और ट्रांजिरो एरिजा  फ्लोरेंतिना एरिजा की माँ  की भूमिका में हैं। अंकल लियो फ्लोरेंतिना एरिजा का चाचा  है। फिल्म में नायक फ्लोरेंतिना एरिजा का अभिनय जेवियर बारडेम (1मार्च1969,स्पेनिश) और नायिका फर्मिना डाजा का अभिनय जिवोना मेजोगिओर्नो (9 नवंबर1974, रोम) का है। डॉ. जुवेनाल उर्बीनो के रूप में बेंजामिन ब्राट (16 दिसंबर 1963, अमेरिकन) विविधधर्मी अभिनेता हैं। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा की माँ ट्रांसिटो अरीज़ा के रूप में ब्राज़ील की बेहतरीन अभिनेत्री फ़र्नांडा मोंटेनेग्रो (16 अक्तूबर1929, ब्राजीलियन) हैं।  इस फिल्म में  सिनेमेटोग्राफ़र के रूप में बेहतरीन काम एफ़ोंसो बीटो का है और लोक धुनों के आधार पर बेहतरीन संगीत अंतेनियो पिंटो (1967 ब्राजीलियन) ने रचा है जिसमें लैटिन अमेरिका की प्रसिद्ध गायिका शकीरा ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे गैब्रियल गार्सिया मार्क्वेज  की बहुत अच्छी दोस्त रहीं हैं, मार्क्वेज ने शकीरा के दैनिक जीवन के बारे में एक छोटा सा संस्मरण भी लिखा है। इस फिल्म के एक गाने की रचयिता और गायिका शकीरा हैं। फ़िल्म को संगीत देने में अंटोनिओ पिंटो का साथ शकीरा ने दिया है। लोक संगीत का रचाव और फ़िल्म के गहरे संवेदनात्मक अवसरों पर उसकी लंबी तान इस फ़िल्म को अर्थ की एक नई ऊँचाई तक ले जाता है केवल संगीत के पाठ के लिए भी इस फ़िल्म को देखा जा सकता है लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलराफ़िल्म का स्क्रीन प्ले रोनांड हार्वुड ने लिखा है और माइक औड्स्ले ने बेहतरीन एडीटिंग की है। बेहतरीन फोटोग्राफी अफोन्सो बैटो की है, वे फिल्म के भूगोल को उपन्यास के भूगोल से हु-ब-हु मिलाने का एक मेहनतकश कार्य करते हुए इस फिल्म में दिखलाई देते हैं। फ़िल्म में दृष्यांकित लोक धुनों पर थिरकती अश्वेत बस्ती और उसका स्थानीय बाज़ार, घोड़े और गले में घंटी बजाते हुए बैलों का झुंड हमें अपने भारतीय ग्रामीण बाजार के निकट ले आता है फिल्म का निर्देशन माईक न्यूवेल (जन्म 28 मार्च 1942) ने किया है जो ब्रिटिश फ़िल्मकार हैं, एक कामेडी फिल्म फोर वेडिंग एंड ए फ्यूनर्ल के लिए बेस्ट डाइरेक्शन का पुरस्कार वे प्राप्त कर चुके हैं। उनकी द प्रिंस ऑफ पर्सिया : द सैंडस ऑफ जाईंट एक और महत्वपूर्ण फिल्म है। उनकी एक हालिया फिल्म ग्रेट एस्पेक्तेसंसकाफी सराही गई है।  
  

“वह अपरिहार्य था।  कड़वे बादाम की खुशबू हमेशा उसे अप्रार्थित / अप्रदत / अव्यक्त प्यार के विश्वास की याद दिलाती थी।”


                                      
यह उपन्यास आरम्भ में ही अपनी बनावट से यह संकेत करता है कि ‘पाठ’ की ऐसी बहुत सी विशेषताओं के वावजूद इसे एक किस्से के रूप में जिसमें प्रेम की अनंत प्रतीक्षा का आख्यान सिरजा गया है , पढ़ा और समझा जाना उचित ही नहीं बल्कि आवश्यक है लेकिन इस पर बनी फ़िल्म और उसका ‘पाठ’ ऐसा कोई संकेत देने का आग्रह नहीं करती। फिल्म के पहले ही दृश्य में परदे पर एक पात्र की मृत्यु होती है और फिर फ़िल्म की पूरी कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है। उपन्यास और फ़िल्म की बनावट में कथा की केन्द्रियता से यह भी सूचित होता है कि इसके आस्वाद और मूल्यांकन के लिए कथा समीक्षा और फिल्म समीक्षा की भी बहुप्रचलित रुढियाँ एकदम से त्याज्य या एकदम से ग्रहणीय नहीं है।  कथा, चरित्र, देशकाल जैसे सूत्र इस उपन्यास को अधिक प्रखरता से खोलने वाले साबित हो सकते हैं अगर उसका कल्पनाशील उपयोग किया जा सके। मसलन, उपन्यास के प्रमुख पात्र एरिजा, उर्बिनो और फर्मिना डाजा के त्रिकोण के माध्यम से विकसित होनेवाले कथा रूप को पढ़ने हुए यह अनुभव होता है कि यह किस्सा समय के रुढ नियमों पर आधारित नहीं है। इस उपन्यास के प्रेमकथा में कल्पना की गति चक्रीय है, इसमें समय सीधे और आगे की तरफ ही हमेशा नहीं बढ़ता। अतीत और वर्तमान का क्रम उलटता-पलटता रहता है। कई बार अनुभव होता है कि फर्मिना डाजा के वार्धक्य का समय उसके बचपन के ठीक बीचोबीच खड़ा है। वास्तव में इस उपन्यास की कथा अपनी विचित्र बनावट से अपना ही एक अलहदा समय रचती है। एक ओर तो यह प्रेम में डूबे हुए नायक एरीजा का आत्मविस्मृत समय है, दूसरी ओर यह इतिहास का वास्तविक यथार्थ समय भी है। पूरी कथा में समय के इन दोनों ही रूपों को एक-दूसरे में घूला देने का आग्रह उपन्यासकार का एक प्रमुख आग्रह लगता है। कथा की शुरुआत में ही उपन्यास की नायिका तथा नायिका से सम्बन्धित दो प्रमुख चरित्रों (एरिजा और उर्बिनो) की वृद्धावस्था का चित्र है, जिससे यह मालूम पड़ता है कि कथा की शुरुआत कथा के अंत से किस कदर गुथी हुई है। इस उपन्यास में आदि और अंत के बीच के पूरे किस्से में उन्नीसवीं सदी से बीसवीं सदी तक की सभ्यता यात्रा के विशद संकेत भी मौजूद हैं। इसके वावजूद यह सौ वर्षों के इतिहास का तथ्यात्मक पूर्ण लेखन मात्र नहीं है। इसकी जड़ें लैटिन अमेरिका के लोक जीवन से गहरे में जुड़ी है। सियारा नेवादा की पर्वत शृंखलाओं में बसे कोलम्बिया के एक ग्रामीण क्षेत्र जहाँ से मेग्डलेना नदी बहती है में बसे कार्टाजेना  की लोक परम्पराओं का तथा उसके क्रमशः शहरीकृत होते जाने का जैसा आत्मीय चित्रण इस उपन्यास में मिलता है, वैसा चित्रण विशुद्ध यथार्थवादी वर्णनों की पद्धति से संभव नहीं हो सकती और इसी कारण मार्क्वेज के वर्णन पद्धति में ‘जादुई यथार्थवाद’ जैसे पदावली का प्रयोग किया जाता है। स्वयं मारक्वेज ने अपने भीतर निर्मित होते यथार्थ के बारे में अपने नोबल भाषण (8 दिसंबर  1982) में कहा है,  “यह यथार्थ सिर्फ कागजी नहीं है, बल्कि वह जो हमारे भीतर जीवित है और हमारी रोजाना की अनगिनत मौतों के हर पल को निर्धारित करता है, और उस कभी संतुष्ट न हो सकने वाली रचनात्मकता को पुष्ट करता है, जो संताप और सौंदर्य से लबरेज है, जिसमें भाग्य द्वारा अकेला किया गया यह घुमक्कड़ और नौस्टेल्जिक कोलम्बियाई महज एक और शून्य है। कवि और भिखारी, संगीतकार और भविष्यवक्ता, योद्धा और दुरात्मायें, उस उच्चश्रृंखल यथार्थ के तमाम प्राणी, उस संकल्प को जाना चाहते हैं, क्योंकि हमारी प्रमाणिक समस्या उन लौकिक साधनों को पाने की रही है जो हमारी जिंदगियों को विश्वसनीय बनाते हैं।” विश्वसनीयता के इसी निर्माण की प्रक्रिया में यथार्थ का वह स्वरूप नहीं रह जाता है जो प्रचलित है बल्कि यथार्थ एक दूसरा करवट लेता है जहाँ ही साथ ‘संताप और सौंदर्य’ अपनी ताप के साथ मौजूद हो जाया करती हैं। इसी का प्रभाव है कि इस उपन्यास में कथा की घटनाएँ चरित्रों के आंतरिक स्वभाव के साथ-साथ घटती है; जैसे एरिजा के पूरे जीवन को लिया जा सकता है, जिनमें सैकड़ों यौन-संबंधों  के अनुभवों के वावजूद एक अवसादग्रस्त रीतापन है, एकांत का एक एकालाप है साथ ही एक शिशु की ललक के साथ जो हर वक्त मानों अपनी प्रेमिका फर्मिना डाजा की प्रतीक्षा में ही रहता है। आशय यह कि सिर्फ यह नायक ही नहीं बल्कि उपन्यास के दूसरे प्रमुख पात्र व गौण चरित्र भी उपन्यास की कथा के प्रवाह और फ़िल्म की तरलता से अलग छिटके हुए नहीं लगते। तब यह भी महसूस होता है कि आदि, मध्य और अंत की कल्पना से भिन्न गल्प की एक चक्करदार यात्रा में लेखक और फ़िल्मकार द्वारा परिकल्पित चरित्र शायद ज्यादा महवपूर्ण है। वे ही उपन्यास की कथा की गति को आगे बढ़ाते हैं और सिनेमाई दृश्य में ढल जाते हैं।


गैब्रियल गार्सिया मार्क्वेज


इस उपन्यास में लेखक जिसे वाचक कहने में हर्ज नहीं है; इस तरह से मौजूद हैं जैसे वह सब कुछ इन चरित्रों के बारे में जानता हो, और इस तरह से भी मौजदू है कि जैसे इन चरित्रों  की एक भी हरकत उसके बस में नहीं है। और यही मारक्वेज की रचनात्मकता पर मर-मिटने वाली खूबसूरती है। फ़िल्म में चरित्रों के मध्य घटनाक्रम की तान उपन्यास से थोड़ी अलग है। एरिजा उपन्यास का मुख्य पात्र है, अगर उसके चरित्र के बारे में कोई सूचना केंद्रीय विशेषता के रूप में दी जाय तो यही कहना होगा कि वह अपने किशोर जीवन  के एक प्रेम के प्रति दीवानगी का प्रतीक है। फ़िल्म के एक दृश्य में जब वह नायिका डाजा के सामने अपने प्रेम का प्रस्ताव करते हुए कहता है कि, ‘क्या तुम मुझसे शादी करके मुझे सम्मानित कर सकती हो’ और डाजा थोड़ी देर रूक कर कहती है कि ‘बहुत अच्छा, मैं तुमसे शादी करुँगी, अगर तुम वादा करो कि मुझे बैगन नहीं खिलाओगे।’ यह दिलचस्प है कि न तो उपन्यास का और न ही फ़िल्म का यह नायक और न ही कोई दूसरा पात्र इतना सरल है जितना वह कथा के ऊपरी सतह पर दिखता है, वास्तव में सारे के सारे चरित्र लेखक के जीवन के व्यापक जीवनानुभव को भी तरह-तरह के रूपों में पेश करते हैं और साथ ही साथ वे यह भी बताते हैं कि नई सभ्यता के विकास के साथ-साथ आधुनिक मध्यवर्गीय नैतिकता के आडम्बरपूर्ण मूल्यों के वावजूद उनका भीतरी जीवन उनके बाहरी जीवन से कितना भिन्न है। इसलिए कई बार यह भी लगता है कि लेखक का उद्देश्य मानव स्वभाव की तह को  धीरे-धीरे और क्रमशः उभारना है। सभ्यता और नैतिकता के बीच अलक्षित खाई को वह संभवतः सामने लाना चाहता था इसलिए उसने इतने सारे विचित्र चरित्रों की सृष्टि की। बेशक, इन चरित्रों में ऐसा कुछ भी नहीं है कि इन्हें अस्वाभाविक कहा जा सके पर ऐसा जरूर है जिसे रोजमर्रा के औसतपन से भिन्न कहा जाना चाहिए , उदाहरण के तौर पर उपन्यास के नायक एरिजा को मासूम किशोर प्रेम के शुरूआती दौर में ही उसके चरित्र को लिया जा सकता है और यह फ़िल्म के दृश्य में हमें ज्यादा सघन दिखलाई देता है। इस समय वह पूरी भावुकता के साथ फर्मिना डाजा के स्वप्न में डूबा हुआ है, पर इसी समय वह लोरेतियत (टेलीग्राफ ऑफिस का कर्मचारी ) के होटल में रूमानी कविताएँ याद करता हुआ अपना समय गुजारता है और वह भी खालिस देह व्यापार करने वाली विभिन्न उम्र की लड़कियों के साथ, बेशक यह उसके चरित्र की असंगति नहीं है यह हम तब जानते हैं, जब वह फर्मिना डाजा द्वारा ठुकरा दिया जाता है और एरिजा, फर्मिना का इंतजार करते हुए अपने जीवन के रीतेपन को एरिजा की स्मृतियों को याद करते हुए भरता है। अपने रीतेपन को ‘अनेक दैहिक प्रेम’ से भरने की कोशिश करता है। 

उसने खुद को अपने निश्चय से प्रभावित होने दिया कि व्यक्ति हमेशा के लिए जन्म तब नहीं लेता जब उसकी माँ उसे जन्म देती है परन्तु जीवन हमेशा उस पर खुद को पैदा करने की बार-बार कृपा करता है।"
                                          
 वास्तव में उपन्यास के ढाँचे में और फिल्म के रूपाकार में भी चरित्र-चित्रण का मसला केवल गुणों और अवगुणों की सूचना देना नहीं है और न ही कोई विशिष्ट पद्धति से काट-छांट नहीं है। लेखक ने इन चरित्रों को इतनी कल्पनाशीलता के साथ गढा है कि वे अपनी साधारणता में भी असाधारण महसूस होते हैं। उदाहरण के लिए उपन्यास के गौण चरित्र हालाँकि सिनेमा में इसे प्रचलित अर्थों में गौण नहीं कहा जा सकता;  एरिजा की माँ ट्रांजिरो एरिजा को लिया जा सकता है सिनेमा में जिसका अभिनय ब्राज़ील की प्रसिद्ध अभिनेत्री फ़र्नांडा मोंटेनेग्रो ने निभाया है। ट्रांजिरो एरिजा में विशेषकर अपने पुत्र के प्रेम को ले कर अपने उत्साह और बेचैनी को तथा अपनी मृत्यु के समय उसके अपने आत्म-विस्मृति को ले कर एक खास किस्म का रूहानीपन है, जिसे उपन्यास को पढ़ते हुए और फिल्म को देखते हुए सघनता से महसूस किया जा सकता है। ट्रांजिरो एरिजा एक अत्यंत साधारण जीवन बिताने वाली पति के द्वारा न स्वीकार की गई स्त्री है। यह स्त्री मर्दाने समाज के विरुद्ध एक संघर्ष के प्रतीक की तरह उपन्यास और सिनेमा दोनों में उभरती है और एक वत्सला माँ की तरह भी, जो अपने बेटे के प्रेम में असफल हो जाने पर बेटे के लिए बेतरह परेशान और भावुक है। वह अपने बेटे एरिजा को दूसरी स्त्रियों की तरफ जाने के रास्ते जिसमें यौन-सबंध भी शामिल है, को आसान करती है। स्त्री संघर्षों और विमर्शों में इस तरह के उभार को अलग से संदर्भित किया जाना चाहिए। उपन्यास के सभी चरित्रों को देखते हुए कभी-कभी ऐसा लग सकता है कि इनको पढ़ना, जानना और पर्दे पर देखना उस प्रेमानुभव के जरिये ही संभव है जो प्रेमानुभव इस उपन्यास की रचना का केन्द्रीय कारक है, लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा संभव है?

इक्कावन वर्ष नौ महीने चार दिन : लड़की ने अपनी आँख उठा के देखा यह जानने के लिए की खिड़की के पास से कौन गुज़रा था, और वह एक बेपरवाह नज़र शुरुआत थी प्रेम के एक भयावह बाढ़ की जो अगले 50 सालों तक समाप्त नहीं हुई।”

उपन्यास के कथा-प्रसंग इसके चरित्रों से एकदम अविभाज्य है, किसी भी चरित्र के बारे में हमारी जानकारी कथा के प्रवाह द्वारा ही संभव होती है। तीन मुख्य चरित्र प्रेमानुभव की कथा तो गढ़ते ही हैं वे परिवेश के अन्य चरित्रों के साथ अन्तर्क्रिया भी लगातार करते रहते हैं। कथा को इन्हीं अंतर्क्रियाओं के संदर्भ में इसकी जटिल संकेतात्मकता के साथ पढ़ा जा सकता है, दृश्य में देखा जा सकता है। नायक एरिजा किशोर दिनों के अपने प्रेम के दीवाने अनुभव और असफलता के वावजूद अपने लगाव को बचाए रखने में सफल होता है। लगाव को लंबे समय तक बचाए रखना प्रेम के प्रचलित मुहावरों में कठिन होता है वह भी तब जब समय इक्कावन वर्ष नौ महीने चार दिन का हो। एरिजा इक्कावन वर्ष नौ महीने चार दिन की प्रतीक्षा में अनेक स्त्रियों से अल्पकालिक दैहिक प्रेम का अनुभव प्राप्त करता रहता है। इसके वावजूद वह अपने किशोर जीवन के लगभग रोमानी लगाव को जरा भी छीजने या टूटने नहीं देता। इस दौरान वह अपनी कल्पना में फर्मिना डाजा के पति की मृत्यु तक को आकार देता है, दरअसल, उपन्यास और फ़िल्म को एक साथ पढ़ने और देखने पर जिन घटनाओं के बीच से एरिजा के व्यक्तित्व का निर्माण होता हुआ दिखलाई देता है उन्हें केवल रोमानी कह सकना मुश्किल है। फर्मिना डाजा को प्राप्त करने के लिए या उसके योग्य  बनने के लिए वह जिन संघर्षों से गुजरता है, उससे पता चलता है कि उसमें असीम सहिष्णुता और धैर्य मौजूद है। फिल्म के 110 मिनट में जो दृश्य बंध उभरता है उसमें जब वह फर्मिना डाजा से कहता है कि मैं इक्कावन वर्ष नौ महीने चार दिन से तुम्हारे प्यार के इंतजार में हूँ, तब वह प्यार के लिए महज याचक की मुद्रा में नहीं होता बल्कि प्यार के लिए समर्पित योद्धा की तरह होता है। इसके अतिरिक्त यह भी कि वह तरह-तरह के स्त्रियों के साथ अपने विचित्र लगावों में किसी भी स्तर पर एक अनैतिक व्यक्ति के रूप में परिलक्षित नहीं होता न ही अपने आत्मावलोकन के दौरान इस वजह से कभी तीव्र आत्मभर्त्सना का शिकार ही होता है। सिवाय एक प्रसंग के, जब वह पति से दूर रह रही एक स्त्री के साथ प्रेम के क्षणों में स्त्री के पेट पर लाल रंग से कुछ आकृति बनाता है। स्त्री जब घर लौटती है जहाँ उसका पति अचानक आया होता है, वह स्त्री भयभीत होती है और जल्दी-जल्दी अपने पेट से रंग को पोंछती हैं, पति देख लेता है और क्रोधित होते हुए अपनी पत्नी को गोली मार देता है। एरिजा को जब स्त्री के मरने की सूचना मिलती है तब वह फूट-फूट कर रोता है। उपन्यास के दूसरे छोर पर, इसके विपरीत अगर इसी उपन्यास के चरित्र जुबेनाल उर्बिनों को लें तो यह महसूस होता है कि जैसे लेखक ने उसे एरिजा के विलोम की तरह रचा है। भारतीय संदर्भ में अगर देखें तो यू. आर. अनंतमूर्ति के प्रसिद्ध उपन्यास संस्कार के पात्र प्राणेशाचार्य के बरक्स नारणप्पा तथा मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक आषाढ़ का एक दिन के पात्र कालीदास के बरक्स विलोम को रखा गया है। मार्क्वेज के इस  उपन्यास के आरम्भ में वृद्ध उर्बिनो की मृत्यु के दृश्य के आसपास उर्बिनो के वार्धक्य  की जो कथा रची गई है, इससे उसके चरित्र के आभिजात्य होने का सहज अनुमान होता है। फर्मिना डाजा के प्रति उसका प्रेम एक गम्भीर, सतर्क और  शिष्ट व्यक्ति का प्रेम है, उसके लगाव  में उच्च वर्ग की नफासत और नजाकत  है। ऐसा महसूस होता है मानो वह अपने शहर के सामाजिक नव-निर्माण के उदेश्यों के संदर्भ में ही फर्मिना डाजा के साथ की कामना करता है, निरे प्रेम- उत्सव की तरह नहीं। बेशक, सुदीर्घ दाम्पत्य जीवन के अनुभवों से गुजरते हुए उसके चरित्र की इस सामाजिकता में वह आन्तरिकता भी आ जाती है जो उसके औपचारिक जीवन कर्म में नहीं दिखाई पड़ती। अधिकांशतः उसका चरित्र औपचारिक स्तर पर ही उकेरा गया है, वह भी उसके डॉक्टर के पेशे के कारण लेकिन इस औपचारिकता के पीछे छिपी उसकी मानवीय कोमलता को ओझल नहीं किया जा सकता उसे पूर्ण और दोषरहित मनुष्य के रूप में रचने की गलती मार्क्वेज  कर भी नहीं सकते थे क्योंकि यह पूरा किस्सा उन्होंने छोटे शहर, स्थानीय  बाजार के मनुष्यों के पक्ष में जीवन-उत्सव की तरह रचा है। एक स्तर पर यह भी अनुभव होता है कि तीनों प्रमुख पात्र एक-दूसरे के पूरक हैं। नायिका फर्मिना डाजा के लगाव के संदर्भ में तो यह बात लगभग जाहिर तौर पर उभरती है कि वह दोनों उर्बिनो और एरिजा को एक- दूसरे से बहुत भिन्न नहीं समझती (जबकि दोनों को अपने से भिन्न जरुर समझती है।); उदाहरण के लिए इस प्रसंग को लें कि उपन्यास के लगभग अंत में जब एरिजा के साथ अपने वृद्ध प्रेम के तन्मय दिन गुजार रही होती है तब वह अनुभव करती है, मानो जुबेनाल उर्बिनो ही उसके साथ है, “वह सुबह छह बजे उठी, उसके सर में दर्द हो रहा था, रात के शराब की खुमारी भी थी लेकिन उसका दिल यह सोच कर दहल गया कि उसके पति जुबेनाल उर्बिनो फिर से वापस आ गए हैं। पेड़ से गिरने के वक्त की तुलना में कहीं  ज्यादा युवा और थुलथुल हो कर और अपनी आरामकुर्सी पर बैठे हुए उसके घर में घुसने का इंतजार करते हुए।” फ़िल्म में उपन्यास के इस अंश को नहीं फ़िल्माया गया है। दरअसल फर्मिना और डाजा के बीच के प्रेम के घनत्व के लिए यह आवश्यक था कि उपन्यास के इस दृश्य को स्थगित रखा जाए, जबकि उपन्यास को पढ़ते हुए यह अंश कथानक के तनाव के घुमाव के लिए बेहद जरुरी लगता है। वास्तव में इस उपन्यास में आये सभी चरित्र निरे यथार्थवादी चरित्र नहीं है उन्हें उनकी स्वाभाविकता और अस्वाभाविकता की बाइनरी के आधार पर नहीं समझा जा सकता। एक स्तर पर तो यह तक अनुभव किया जा सकता है कि पूरा उपन्यास स्त्री-पुरुष के प्रेम के माध्यम से जीवन का उत्सव मनाता एक दस्तावेज है जो फ़िल्म में दृश्य के माध्यम से और प्रखरता से दिखलाई देता है, जैसे कि उपन्यास के एकदम प्रारम्भ में साठ की उम्र में आत्महत्या कर लेने वाले जेरेनिया के प्रेम के दृश्य में स्त्री- पुरुष के साथ की एकांतिक साहचर्य की गाथा का एक करूण संकेत है, वैसे ही उपन्यास के अंत में जहाज के कप्तान सोमिरितैनो के आदिम और उन्मत प्रेम के दृश्य में एक अद्भुत अनुभव का सौंदर्य है। ये दोनों ही उपन्यास के अत्यंत ही गौण चरित्र हैं, पर कथा की बुनावट और आदि तथा अंत के पूरे किस्से में वर्णित घटनाओं को ध्यान में रखें तो यह स्पष्ट होता है कि यह प्रेम और मृत्यु का संकेत करने वाले ऐसे प्रसंग है, जिन्हें उनकी घटनात्मक प्रासंगिकता में ही नहीं देखा जा सकता बल्कि इससे अलग भी अर्थवान हैं, फ़िल्म में ऐसे प्रसंग प्रमुखता से नहीं आ सके हैं उसकी वजह यह है कि फ़िल्म स्वयं को दार्शनिक संकेत या अर्थ के घटित होने से बरजती है।




जाहिर है कि सम्पूर्ण उपन्यास स्थान और काल की अपनी विशेषताओं के साथ-साथ ऐसे गुणों से सम्पन्न है जो सृजनात्मक कल्पना के विशिष्ट गुण हैं। क्या मार्क्वेज एक गहरे अर्थ में अपने आत्मकथात्मक अनुभवों को जिसमें उनके नाना-नानी का घर शामिल है इस उपन्यास के रूप में रच रहें हैं, यह सवाल मन में बार-बार आता है। वास्तव में इसे घटनाओं और चरित्रों के परम्परागत रूपों में ही देखना उचित नहीं है बल्कि उसके तत्कालीन और वर्तमान स्थानीय विशेषताओं और बदलते समय के निकष पर भी देखा जाना चाहिए । आदि से अंत तक प्रेम से व्याप्त इस उपन्यास में प्रेम के अनेक रूप हैं, फ़िल्म में यह दृश्य जो निरे यौन-संबंधों के दृश्य के रूप में घटित होती है और यह कई बार अलग-अलग स्थान और समय में दुहराए जाते हैं। वर्जनामुक्त भाषा में स्त्री पुरुष के संबंधों  को व्यक्त करते हुए मेरी जानकारी में सर्वप्रथम मार्क्वेज ने ही किशोर आयु की प्रेमकथा लिखी है, जो एक लम्बी प्रतीक्षा तक गतिमान रहती है, और इसी वर्जनामुक्त भाषा में फ़िल्म का रचाव दक्षिण अफ़्रीकी पटकथा लेखक रोनाल्ड हारवुड (1934) ने की है। रोनाल्ड हारवुड को प्रसिद्ध फिल्म ‘द पियानिस्ट’ के पटकथा लेखन के लिए 2003 का एकेडमी पुरस्कार मिल चुका है। इस किशोर उम्र की भावुकता जैसे / मानो उपन्यास और फ़िल्म के अंत तक एक आंतरिक लय सी बहती रहती है। इसमें एरिजा और डाजा के प्रेम की मासूमियत के अतिरिक्त उनके अपने समय की एक सहज सुदंर तस्वीर भी है। स्थान और समय की तार्किकता तथा तर्क से परे प्रेम की अटूट निरंतरता दोनों ही फर्मिना डाजा और एरिजा के वार्धक्य प्रेम प्रसंग में देखी जा सकती है। वयस्क नायक-नायिकाओं का प्रेम एक लंबे इंतजार के बाद संभव होता है। इसके चित्रण में उपन्यासकार ने न सिर्फ कौशल से काम लिया है बल्कि कई बार ऐसा लगता है कि पात्रों के भीतर उसने परकाया प्रवेश तक कर लिया है। यह भी एक रोचक तथ्य है कि वृद्धावस्था में अर्थात सत्तर की उम्र के बाद फर्मिना डाजा और एरिजा का जो प्रेम उपन्यास में चित्रित है वह उसके दाम्पत्य प्रेम से भिन्न नहीं हैं; फिल्म में प्रेम के सघन क्षण में एरिजा, फर्मिना से कहता है कि ‘मैं अब तक तुम्हारे लिए कुँवारा हूँ’। जबकि फिल्म के एक दृश्य में वह स्वयं स्वीकार कर चुका है कि 622 स्त्रियों से उसने संबंध बनाये हैं। दरअसल, इतनी स्त्रियों के साथ होते हुए भी वह फर्मिना के इंतजार में रहता है, इसलिए वह फर्मिना के लिए स्वयं को कुँवारा ही मानता है। फर्मिना डाजा उसी तरह एरिजा का ख्याल रखती है जैसे वृद्ध उर्बिनो का रखा करती थी यही नहीं वह एरिजा के टूटे बटन लगाते समय यह तक याद करती है कि कहीं वह यह न कहे कि आदमी की दो पत्नियाँ होनी चाहिए एक प्यार करने के लिए एक बटन लगाने के लिए। फ़िल्म में इस ग्राहस्थिक प्रेम दृश्य का न होना सिनेमाई आस्वाद के लिहाज से अखरता है। उपन्यास के बिलकुल पहले अध्याय में उर्बिनो और डाजा के संबंधों  का अत्यंत ही मार्मिक चित्र देते हुए मार्क्वेज  ने स्त्री के मातृत्व पूर्ण प्रेम का चित्रण किया है फ़िल्म में यह ममत्व दर्शक आसानी से वृद्ध डाजा के चेहरे पर महसूस कर सकते हैं। वृधावस्था का प्रेम किस तरह एन्द्रिक वासनाओं से अपने आप ही मुक्त हो जाता है इसका उदाहरण उर्बिनो और डाजा के प्रेम में ही देखने को मिलता है; और तब लगता है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धी नैतिकता का एक नया आयाम देते हुए मार्क्वेज  केवल एरिजा के खिलंदड़पन  की कथा नहीं लिख रहे थे बल्कि वे प्रेम की रोमानियत  के अतिरिक्त मानव संबंधों  की गहराई की गाथा भी लिख रहे थे। फ़िल्म में यह गाथा एरिजा के चेहरे पर उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में पढ़ी जा सकती है। प्रेम की गहराई का यही रूप एरिजा और उसकी माँ ट्रांजिरो एरिजा के बीच भी देखने को मिलता है। परिस्थितियों की मारी ट्रांजिरो एरिजा एक दयनीय चरित्र के रूप में नहीं उभरती बल्कि अपनी आर्थिक बदहाली के वावजूद वह पूरी तरह से कर्मठ बनी रहती है उसकी समय और समाज से शिकायतहीन कर्मठता की तरह ही अपने पुत्र के प्रति उसका गम्भीर और जिम्मेदार प्रेम है। अपने पुत्र के साथ अपनी ममता को लेकर वह वाचाल नहीं है लेकिन एकदम शुरू से ही अपने पुत्र की दीवानगी को उसने अपना आशीर्वाद दिया है। वह न सिर्फ अपने पुत्र की शारीरिक दुर्बलताओं से परिचित है बल्कि उसकी मानसिक रिक्तता से भी उसका गहरा सरोकार है, इसीलिए वह अपने बेटे के लिए डाजा से अलग स्त्री की खोज करती है और उसे अपने बेटे एरिजा तक पहुँचाती है। माँ-पुत्र के इस रिश्ते के बरक्स अगर उर्बिनो और उसकी माता के संबंध को देखा जाये तो वह वास्तव में दो भिन्न वर्गों के जीवन-व्यवहार का संकेत भी बन जाता है। बेशक, पारिवारिक प्रेम का यह प्रसंग उपन्यास में अधिक विस्तार के साथ वर्णित नहीं है और न ही फ़िल्म में यह आया है। संभवतः वह मार्क्वेज  का उद्देश्य भी नहीं रहा होगा। वह मूलतः स्त्री- पुरुष के यौन संबंधों  पर आधारित प्रेम की एक रोचक और काफी हद तक विचित्र कथा ही लिखना चाहते हों। इस विचित्र कथा में शायद कथा के अपने प्रवाह के चलते ही मातृत्व का प्रसंग भी उसी तरह आ गया हो  जिस तरह दाम्पत्य का प्रसंग अपनी विडम्बना, अपनी अंतरंगता और अपनी बेबाकी के साथ मौजूद है।


“पर जब एक औरत एक मर्द के साथ सोने का निश्चय करती है, ऐसी कोई दीवार नहीं है जिसे वो नहीं नापती, कोई किला नहीं है जिसे वो नष्ट नहीं करती, कोई नैतिक मान्यता नहीं है जिसे वो जड़ से ही अनदेखा नहीं करती, और न ही किसी ईश्वर की उसे चिंता होनी चाहिए।”

       
           

फर्मिना डाजा और उर्बिनो के दाम्पत्य से सम्बन्धित कथा के पाठ से यह सहज अनुभव होता है कि लैटिन अमेरिकी के  दाम्पत्य जीवन से भारतीय अनुभव बहुत दूर के नहीं कहे जा सकते हैं। दाम्पत्य में प्रेम की  गहरी पहचान वार्धक्य के संदर्भ में मिलती है। वास्तव में इस उपन्यास और फ़िल्म में बुढ़ापा एक केन्द्रीय अनुभव की तरह रचा हुआ है, फ़िल्म में जब-जब यह बुढ़ापा पर्दे पर चमकता है दर्शक उसमें अपनी छवि भी देख लेता है जैसे किसी मृत्यु की शोक-सभा में रखे हुए शव में अपने शव का दिख जाना होता है। अगर डाजा और एरिजा के किशोर प्रेम को छोड़ दिया जाय तो प्रेम की सारी कथाएँ वृधावस्था से ही सम्बन्धित हैं। उर्बिनो और डाजा के प्रेम में अधेड़ उम्र के बाद एक तरह की अनौपचारिकता है, वह लगभग पारिवारिक रूप लेता दिखलाई पड़ता है लेकिन उसमें गहरे वात्सल्य का भी स्वर है। स्त्री का मातृत्व पूर्ण सोच वहाँ मूर्त्त हो उठता है किन्तु इसके वावजूद इस संबंध में दाम्पत्य से इत्तर प्रेम के अनुभवों को जोड़ा गया है। उर्बिनो और बारबरा लिंच का प्रेम-प्रसंग इसी तथ्य का प्रमाण है। बारबरा एक एक अश्वेत स्त्री है और उर्बिनो सफेद। फिल्म में डाजा अपने पति उर्बिनो से कहती है कि, ‘यह जानना मेरा अधिकार है कि तुम किस स्त्री से मिलते हो, किस स्त्री से प्रेम करते हो’। डॉ. उर्बिनों डाजा से कहता है कि वह  (बारबरा लिंच) मेरी पेशेंट है। डाजा अपने पति से कहती है कि वह उस अश्वेत महिला से मिलना चाहती है। उर्बिनों उसे बारबरा लिंच से बिना परिचय दिए मिलाता है, उस छोटी से बस्ती में डाजा और बारबरा लिंच का मिलना सामान्य नहीं है। डाजा जो कि अपने किशोर जीवन के प्रेमी एरिजा को भूल कर उर्बिनो के पास आती है वहीँ उर्बिनों, डाजा के साथ रहते हुए भी बारबरा लिंच की तरफ आकर्षित होता है। मुलाकात के आखिरी क्षण में उर्बिनों बारबरा लिंच को उपहार में एक छोटा सा मुकुट देता है और उससे विदा लेता है, बारबरा लिंच की आँखों में आंसू भरे हैं, उर्बिनो का हाथ अपने हाथ से छूटता हुआ वह भीतर तक महसूस करती है, यह महसूसना ही उसके आँखों में बहता हुआ आँसू है। बारबरा लिंच की बस्ती से डाजा घोड़े पर बैठ कर निकलती हुई अपने गृहस्थी के किस्से अपनी सहेली को सुनाती जाती है। बस्ती के बैलों झुंड पीछे छूटता जाता है, बस्ती का लोक धुन धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है। इस फिल्म में एक अश्वेत स्त्री के साथ श्वेत पुरुष का प्रेम क्या संकेत करता है? क्या यह प्रसंग उपन्यास और इस कारण फ़िल्म में उन्नीसवीं सदी के उस विमर्श को हवा देती है जो विमर्श बीसवीं और इक्कीसवीं सदी तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। प्रेम की दरअसल एक भाषा होती है जो काले और गोरे में भेद नहीं करती बारबरा और उर्बिनो के संबंध में यह स्थापित होती है। इस प्रेमानुभव से गुजरते हुए यह अनुभव नहीं होता कि प्रेम की अनन्यता उर्बिनो में स्खलित हो रही है बल्कि यह अनुभव होता है कि चाहे ऊपर से कितना भी संयमित हो, मानवीय मन की कमजोरियों से उर्बिनो  मुक्त नहीं है। कोई भी मनुष्य कहाँ मुक्त होता है।

“शोर के बावजूद उसने उसे पहचान लिया, उसकी आँखे दुःख से भरी थीं, दुःख जो दोहराया नहीं जा सकता था, वह मृत्यु के करीब था उसके बिना, उसने उसकी तरफ आखरी बार देखा, आँखों में ज्यादा चमक के साथ, ज्यादा कृतज्ञता के साथ, जैसा वह इन पचास सालों में पहली बार दिखा था, और अपनी आखरी सांस के साथ उसने कहा-" केवल ईश्वर जानता है कि मैंने तुमसे कितना प्यार किया है।"

सच पूछा जाये तो यह समूचा उपन्यास स्त्री-पुरुष के पारस्परिक आदिम आकर्षण की स्वाभाविक चाह और उत्कट प्रेम की ताकत के आधार पर ही टिका है। कहा तो यहाँ तक जा सकता है कि आदिम आकर्षण का जश्न जीवन के जश्न के रूप में सम्पूर्ण उपन्यास में मनाया गया है, फ़िल्म में इसे नई भाषा और नई तराश मिली है। एरिजा के किशोर प्रेम की असफलता के बाद उसके जीवन का क्रम ही बदल जाता है। आरम्भिक अवसादग्रस्तता के बाद अपने को काबिल बनाने के प्रयत्नों में वह अपने चाचा की रिवर कम्पनी में नौकरी करता है। इस नौकरी के दौरान वह एकाधिक स्त्रियों के साथ यौन-संबंध बनाता है। दिलचस्प तो यह है कि लेखक ने बहुत सामान्य ढंग से इसके आंकड़े देते हुए इसकी संख्या सैकड़ों से अधिक में गिना है। फ़िल्म में एरिजा इसकी संख्या छह सौ बाईस बताता है। उससे भी ज्यादा रोचक तथ्य यह है कि उपन्यास के नायक के खिलंदड़पन की इन कथाओं में अधिकांश नायिकाएं विधवा या पति से दूर रहने वाली स्त्रियां है। कहना न होगा  कि जिस तरह वार्धक्य के संदर्भ में स्त्री-पुरुष का आंतरिक लगाव उपन्यास के मुख्य चित्रण के रूप में व्यक्त हुआ है, उसी तरह अधेड़ और वृद्ध विधवाओं, पति से दूर रहने वाली स्त्री की अव्यक्त कामनाओं के संसार को उनकी पूरी विविधता में मूर्त किया गया है।  फ़िल्म में यह दृश्य युवा स्त्रियों के माध्यम से चित्रित हुआ है। औसत सामाजिक नैतिकता की दृष्टि से ऐसे विषयों को मान्य नहीं ठहराया जा सकता लेकिन उपन्यास के ब्योरों से गुजरते हुए यह अनुभव होता है कि लेखक मुक्त यौन-संबंध के इन चित्रों को निपुण कलात्मक तटस्थता के साथ प्रस्तुत करता है और फ़िल्म में भी यह सारे दृश्य उत्तेजक बन कर नहीं आते हैं बल्कि सहजता की एक विलक्ष्ण तासीर के साथ पर्दे पर घटित होते हुए दिखलाई देते हैं। वह इस कारण भी कि खुद मार्क्वेज के जीवन में, मार्क्वेज के नाना के जीवन में और लैटिन अमेरिकी जीवन में भी प्रेम एक मुक्त कार्य-व्यापार की तरह रहा है जहां नैतिकता का वह मापदंड नहीं है जो आम भारतीय में होती है। 




परीक्षण के बाद पता चला के उसे कहीं दर्द नहीं था, न ही बुखार, और यह कि उसकी ठोस इच्छा केवल मृत्यु की थी। एक चपल पूछताछ से निर्धारित किया जा सकता था कि प्रेम और कॉलरा के लक्षण एक से ही थे।”

                               
फ़िल्म और उपन्यास का मुख्य विषय प्रेम है और कॉलरा एक प्रतीक के रूप में आया है। उन्नीसवीं सदी में कॉलरा एक महामारी के तौर पर पीले झंडे के साथ जीवित रहा है। डॉ. उर्बिनों पहली बार डाजा के पास एक चिकित्सक के रूप में उपस्थित होता है, संभावित कॉलेरा के लक्षण के परीक्षण के लिए। वह उसकी जाँच के बाद समझ जाता है कि डाजा को कॉलेरा नहीं है, दरअसल डाजा अभी भी एरिजा से बिछड़ कर दूसरे शहर में आ जाने के बाद भी उसके प्रेम की गिरफ्त में थी। प्रेम की पीर और कॉलेरा के लक्षण एक तरह के होते हैं, उर्बिनों डाजा को देखकर यह समझ गया था। उपन्यास के नायक के प्रेम प्रसंगों को सतही यथार्थवादी दृष्टि से देखना उचित नहीं है, मानव स्वभाव की विविधता को प्रकट करने के लिए भी इस प्रेम प्रसंग को निरे सामाजिक संबंध के रूप में नहीं देखा जा सकता बल्कि दो व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों  की ऊष्मा ही इन प्रेम संबंधों  की सबसे बड़ी खासियत है वह भी तब जब कॉलरा से मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हो। अपने किशोर दिनों से ही नायक अपने प्रेम को दूसरों पर नहीं बाँधता। पूरे उपन्यास और फ़िल्म के कई दृश्य में किये गए उसके यौनिक-प्रेम उसके वर्षों के अकेलेपन के साक्षी हैं। अपने किसी भी रिश्ते में वह हिंसक व आक्रामक नहीं है। अवधि की अल्पता के वावजूद उसके प्रेम-प्रसंगों में करुणा ही नहीं बल्कि नैतिकता की झलक भी मिल सकती है। बेशक भारतीय मध्यमवर्गीय धारणा के अनुसार उसके तमाम यौनिक प्रेम प्रसंगों को  नैतिक कहा जा सकना मुश्किल है लेकिन व्यक्ति के व्यक्तित्व व अधिकारों का सम्मान करने वाली दृष्टी इन प्रेम संबंधों  को जीवन के उत्सव और वरण की स्वतंत्रता के रूप में दिखती है, वह भी तब जबकि प्रेम तो वह एक ही से करता है, डाजा से प्रेम। जिस प्रेम को पाने की प्रतीक्षा वह इक्कावन साल नौ महीने चार दिन तक करता रहा है।




“जैसे कि वे दोनों दांपत्य की कठिन सेना को पार कर के सीधे प्रेम के ह्रदय तक जा पहुँचे थे। वे दोनों एक वृद्ध जोड़े की तरह शान्ति में साथ थे, चौकन्न, वासना के गड्ढों से परे, उम्मीद के क्रूर उपहास और भ्रम के भूतों से पर, प्रेम से परे। वो काफी समय साथ रह चुके थे जानने के लिए कि प्रेम हमेशा प्रेम रहता है, हर जगह, हर वक़्त, पर वह ठोस हो जाता है जैसे ही मृत्यु के करीब आता है।”

                
जीवन के उत्सव के रूप में इस उपन्यास को पढ़ते हुए और फ़िल्म में सघन प्रेम के दृश्य को सृजित होते, देखते हुए, यह एक रोचक तथ्य सामने आता है कि जीवन सिर्फ वार्धक्य के अनुभवों का नहीं बल्कि मृत्यु की सतत्त मौजूदगी की लय में जीवन के इस उत्सव को रचता है। डाजा और एरिजा दोनों ही सुदीर्घ इंतजार के बाद जब प्रेम का अवकाश फिल्म में और उपन्यास में भी रचते हैं तब वे अनुभव करते हैं कि वे मृत्यु के एकदम नजदीक हैं। स्वयं लेखक उनके प्रेम को मृत्यु के नजदीक चित्रित करता भी है। उपन्यास के लगभग अंत में वह उनके बारे में कहता है, ‘थके प्राचीन जोड़ों की तरह  वे अपनी ख़ामोशी में एक साथ थे। गोया, ख़ामोशी में मनुष्य एक-दूसरे से ज्यादा निकट का महसूस करता है। उम्मीद के बर्बर व्यंग या मजाकिया कामना के गर्त्त और मोहभंग की प्रेम छायाओं से परे और वास्तव में प्रेम से भी परे एक दूसरे के साथ क्योंकि वे किसी भी स्थान और किसी भी समय जो अधिक ठोस और अधिक नजदीक होता है; तब जबकि उसके पास मौत भी हो।’

             

                    
महज उपन्यास और फ़िल्म  के अंत में ही नहीं बल्कि औपनिवेशिक शोषण और नयी सभ्यता के आक्रमण के बीच उन्नीसवीं शताब्दी की महामारी कॉलरा को झेलता छोटे से देश के छोटे से शहर का समग्र जन जीवन प्रेम के उत्सव को प्रेम के सहज स्वीकार रूप में जानता, दिखाई देता है। नई सभ्यता के ऐतिहासिक प्रवेश के दौर में उन्नीसवीं सदी के कोलम्बिया के एक शहर को मार्क्वेज ने चरित्रों और कुछ प्रेम कहानियों के बहाने जीवित कर दिया है और जिसे पर्दे पर उत्तारने में फ़िल्म डायरेक्टर माईक न्यूवेल ने कोई गलती नहीं की है। हालांकि जब तक यह फिल्म पर्दे पर नहीं आई थी तब लोगों में इस फिल्म को ले कर गहरी उत्सुकता थी लेकिन प्रदर्शन के बाद यह कहा जाने लगा कि उपन्यास में जो ताजगी और रवानगी है फिल्म में नहीं। टाइम पत्रिका ने इस फिल्म की जम कर आलोचना की। इस फ़िल्म के दृश्यों में वह जहाज भी शामिल है जिसे कॉलेरा से पीड़ित व्यक्तियों सहित समुद्र में लावारिस छोड़ दिया जाता था। फ़िल्म के लगभग अंतिम दृश्य में जब डाजा, एरिजा के साथ शादी कर के हनीमून के लिए पानी वाले जहाज के एक सुईट में होती है तब वह एरिजा से अपने पहले पति उर्बिनों को याद करते हुए कहती है, ‘मैं नहीं जानती कि वह मुझसे कितना प्यार करता था, वह कितना बेतुकी बहस करता था, लेकिन वह एक अच्छा पति था।’ यह बोलते हुए डाजा के चहरे पर अतीत अपनी सघन उदासी की छाया के साथ पसर जाता है। डाजा अतीत के इस ताप को अकेले महसूस करना चाहती है। डाजा, एरिजा को जाने के लिए कहती है, एरिजा उठते हुए डाजा को चूमना चाहता है, डाजा मना कर देती है, एरिजा के साथ यौनिक प्रेम संबंध में होने से पूर्व वह उर्बिनों के साथ बिताये क्षण को एक बार फिर से जी लेना चाहती है। जहाज के पानी की काट, धीरे-धीरे डाजा की अतीत की स्मृति को पीछे छोड़ती जाती है। डाजा अगली सुबह स्वयं को सलीके से और नए सिरे से एरिजा के लिए तैयार तैयार होती है। एरिजा उसे पहली बार चूमता है, यह चुंबन 51 साल 9 महीने 4 दिन के इंतजार का चुंबन था। जहाज पर कॉलेरा का झंडा लहरा दिया जाता है। निर्बाध प्रेम की अनंत यात्रा पर जहाज समुद्र की छाती पर दौड़ता जाता है। समुद्र के अनंत विस्तार में लैटिन संगीत अपनी लोक धुनों के साथ ह्रदय में गहरे उतरता चला जाता है। फ़िल्म की दास्तान में मार्केज का उपन्यास कुछ ज्यादा ‘लिरिकल’ होता चला जाता है। उपन्यास के ‘पाठ’ और उसके बाद फिल्म के ‘पाठ’ के बाद हम थोड़े और संवेदनशील, थोड़े और तरल होते चले जाते हैं। युवा फर्मिना डाजा को एक वृद्ध फर्मिना डाजा में रूपायित होते हुए अभिनेत्री जिवोना मेजोगिओर्नो को देखना कई बार हैरान कर देता है। परदे पर युवा देह को वृद्ध देह में ढलते हुए देखना स्वयं की देह से गुजरने जैसा लगता है। बहरहाल, लगभग सौ वर्षों की अवधि में फैले इस आख्यान के नामकरण की जिंदादिली भी मार्क्वेज के लघु और वृहदकाय अन्य उपन्यासों की तुलना में अति कल्पना का तत्व उतना सक्रिय नहीं दिखाई पड़ता लेकिन फिर भी इस उपन्यास का  आख्यान इस तरह का असर जरूर पैदा करता है, जिसे कला के जादुई प्रभाव से सहज ही जोड़ा जा सकता है। मार्क्वेज के उपन्यासों के संबंध में जादुई यथार्थवाद जैसे पदावली का पाश्चात्य आलोचक उपयोग करते हैं। अकादमिक दुनिया ने तो जादुई यथार्थवाद व मार्क्वेज  के नाम दोनों को पर्याय तक बना दिया है। फ़िल्म में तो इस तरह का यथार्थ फ़िल्म के अपने शुरूआती इतिहास के समय से ही रहा है। इस उपन्यास को सामान्य जीवन के यथार्थ की कल्पना और प्रस्तुति की नाटकीयता के कारण एक असाधारण रूप दिया गया है, फ़िल्म में पर्दे पर तैरते हुए ऐसे सैकड़ों दृश्य इस बात की ताकीद करते हैं। लैटिन अमेरिका में लिखे जा रहे उपन्यासों और कविताओं से इसका जुड़ाव सहज ही हो जाता है। इसी सदी के दूसरे मशहूर लैटिन अमरीकी उपन्यासकार ‘मारियों वर्गंसा लोसा’ ने भी कल्पना की विलक्षणता के साथ आदिवासियों के जीवन पर ‘द स्टोरी टेलर : द ग्रीन हाउस’ जैसा उपन्यास लिखा है। जाहिर है, यूरोपियन जिस शैली को अजूबे की तरह देखते हैं वह इन लेखकों के लिए विरासत की तरह है फिर भी जादुई यथार्थवाद जैसे पद में इतनी सार्थकता तो है ही कि इस उपन्यास में चित्रित यथार्थ के असाधारण रूप की ओर संकेत करता है। फ़िल्म के दृश्यों में जादुई यथार्थवाद जैसे पदों का कोई स्वरूप घटित होता हुआ दिखलाई नहीं देता अलबत्ता स्मृतियों की बेआवाज टूट-फूट जरुर दिखलाई देती है।
   
                                         
यह कहा जा सकता है कि मार्क्वेज का यह उपन्यास हमें यह अंतर्दृष्टि देता है कि हम अपने समय को अपनी सभ्यताओं अपनी परम्पराओं और उत्सवों को, अपने जीवन व मृत्यु को एक नए ढंग से पहचान सकें और उस रसायन के सत्व को महसूस कर सकें जो हमारे भीतर मौजदू हुआ करती है और हमारे ‘होने’ ‘न होने’ को परिभाषित करती है। जीवन और मृत्यु के उत्सव की आंतरिक बुनावट और उसके रसायन में कोई बुनियादी अंतर नहीं होता है। जीवन और मृत्यु के दो ध्रुवों पर अपनी अपील में निश्चय ही यह उपन्यास क्लासिक कृतियों की तरह सार्वभौमिक व सार्वकालिक है जिसे तमाम सीमाओं के बाबजूद ब्रिटिश फ़िल्मकार माइक न्यूवेल ने अपनी इस फ़िल्म में एक नए तरीके से अर्थवान बनाया है।



नोट : हिंदी के प्रसिद्ध कवि, उपन्यासकार और मेरे अध्यापक रहे प्रभात त्रिपाठी का आभारी हूँ जिन्होंने इस उपन्यास तक जाने के रास्ते को आसान बनाया। इस आलेख में उनकी ताप है। शुक्रिया प्रभात सर। इस आलेख के लिए उपन्यास के चुने हुए छोटे-छोटे अंशों का अनुवाद मेरी साथी और कवियत्री सुश्री विजया कांडपाल ने मेरे अधिकारपूर्ण आग्रह पर किया है। शुक्रिया विजया।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी चित्र गूगल से साभार लिये गये हैं.)

 




सम्पर्क

अमरेन्द्र कुमार शर्मा 

महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,

 वर्धा




फोन – 875480535




[i] दर्द आएगा दबे पाँव , लिए सुर्ख चिराग़
वो: जो एक दर्द धड़कता हैं कहीं दिल से परे – फैज़ अहमद फैज़

टिप्पणियाँ

  1. मार्केस पर एक बेहतरीन लेख। बधाई ब्लॉग, मॉडरेटर और लेखक तीनों को।

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