बैर्तोल्त ब्रेष्त की लम्बी कविता 'नगरवासियों के लिए पाठ्यपुस्तक'

Bertolt Brecht


बैर्तोल्त ब्रेष्त (मूल जर्मन भाषा में ठीक यही उच्चारण है) ने सोलह वर्ष की उम्र में कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था। अपनी उच्च शिक्षा समाप्त करने के बाद ब्रेष्त अपने शहर आउसबर्ग से बर्लिन आ गए, जहाँ उनकी मुलाक़ात नाट्य-निर्देशक एरविन पिसकातर से हुई। दोनों ने मिल कर राजनैतिक नाटक थियेटर की स्थापना की। ब्रेष्त और पिसकातर दोनों ही नाज़ी विरोधी थे, इसलिए अपने थियेटर के लिए ब्रेष्ट ने जो भी नाटक लिखे, वे सभी फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ थे और उनकी भाषा व्यंग्य से भरपूर होती थी। जर्मनी की सरकार को इन दोनों की गतिविधियाँ पसन्द नहीं आईं, इसलिए सरकार ने राजनैतिक नाट्य थियेटर पर प्रतिबन्ध लगा दिया। ब्रेष्त पर भी रोक लगा दी गई। ब्रेष्त पहले जर्मनी छोड़ कर फ़िनलैण्ड चले गए और इसके बाद वहाँ से अमेरिका चले गए। द्वितीय विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद ही वे फिर से यूरोप वापिस लौटे। अपने जीवन काल में ही बैर्तोल्त ब्रेष्त बेहद लोकप्रिय लेखक बन चुके थे। उनका कहना था कि वे कवि नहीं हैं, जितनी भी कविताएँ उन्होंने लिखी हैं, वे उनके नाटकों का ही हिस्सा हैं। पहली बार के पाठकों के लिए आज पेश है ब्रेष्ट की एक लम्बी कविता, जिसका हिन्दी में पहली बार मूल जर्मन भाषा से अनुवाद किया है  उज्ज्वल भट्टाचार्य  ने।



नगरवासियों के लिए पाठ्यपुस्तक


बैर्तोल्त ब्रेष्त की लम्बी कविता   

मूल जर्मन से अनुवाद   -  उज्ज्वल भट्टाचार्य  



एक

विदा लो अपने साथियों से स्टेशन पर
सुबह शहर जाओ गलाबन्द जैकेट पहन कर
कोई कमरा ढूँढ़ो और फिर अगर तुम्हारा साथी खटखटाए
मत खोलो दरवाज़ा, मत खोलो,
बल्कि
सारे निशान मिटा डालो!


अगर माँ-बाप मिल जाएँ हैम्बर्ग या किसी दूसरे शहर में
बग़लें झाँको, घूम जाओ मोड़ पर, पहचानो मत उन्हें
चेहरा ढक लो टोपी से, जो उनसे तोहफ़े में मिला था
मत दिखाओ, अपना चेहरा मत दिखाओ
बल्कि
सारे निशान मिटा डालो!



खाओ गोश्त, जो मौजूद है! बचाना नहीं है!
पानी बरसे, तो किसी भी घर में घुस जाओ,
बैठ जाओ किसी भी कुर्सी पर, जो मौजूद हो
पर बैठे मत रह जाना! और अपनी टोपी मत छोड़ जाना!
मैं कहता हूं तुमसे :
सारे निशान मिटा डालो!



कुछ भी कहना हो, दो बार मत कहना
अगर अपने विचार दूसरों के मुँह से सुनाई दे : नकार जाओ
जिसने दस्तख़त न किया हो, जो अपनी तस्वीर न छोड़ गया हो
जो मौजूद ही न था, जिसने कुछ कहा ही नहीं
कैसे वह किसी की पकड़ में आ सकता है !
सारे निशान मिटा डालो!



ख़याल रखना, अगर मौत की सोचते हो
क़ब्र पर कोई पत्थर न लगे जो बता दे कि तुम वहाँ पड़े हो
साफ़-साफ़ अक्षरों में, जो तुम्हें दिखा दे
तुम्हारी मौत की तारीख़ बता दे और तुम्हें पकड़वा दे!
फिर कहता हूँ :
सारे निशान मिटा डालो!

(
ऐसा मुझसे कहा गया था)

1926




दो

हम तुम्हारे पास हैं ऐसी एक घड़ी में, जब तुम्हें पता चलता है
कि तुम पाँचवें पहिए हो
और तुम्हारी उम्मीद तुम्हें छोड़ जाती है।
हमें लेकिन
अभी तक इसका पता नहीं है।



हम देखते हैं
कि तुम बात करने में हड़बड़ाने लगते हो
तुम कोई लफ़्ज़ ढूँढ़ते हो, जिसे ले कर
भागा जा सके
क्योंकि तुम चाहते हो
कोई सनसनी न पैदा की जाए।



बातों के बीच तुम उठ खड़े होते हो
तुम भुनभुनाने लगते हो, जाना चाहते हो
हम कहते हैं : ठहरो! और हमें पता चल जाता है
कि तुम पाँचवें पहिए हो~



लेकिन तुम बैठ जाते हो।
यानी कि तुम बैठे रहते हो हमारे पास ऐसी एक घड़ी में
जब हमें पता चल जाता है कि तुम पाँचवें पहिए हो
तुम्हें लेकिन
इसका पता नहीं रहता है~



हमारी सुनो : तुम
पाँचवें पहिए हो
यह मत सोच लेना कि मैं, चूंकि मैं ऐसा कहता हूँ,
बदमाश हूँ
गँड़ासे की ओर हाथ मत बढ़ाओ, बल्कि
एक गिलास पानी पी लो।
मुझे पता है, तुम अब सुन नहीं रहे हो
लेकिन
चीख़ो मत कि दुनिया खराब है
इसे धीरे से कहो।



क्योंकि चार पहिए बहुत अधिक नहीं हैं
बल्कि पाँचवाँ पहिया
और दुनिया ख़राब नहीं है
बल्कि
मर चुकी है।

(
यह तुम सुन चुके हो !)

1926




तीन


हम तुम्हारे घर से जाना नहीं चाहते हैं
हम चूल्हे को तोड़ना नहीं चाहते हैं
हम हँड़िया को चूल्हे पर रखना चाहते हैं.
घर, चूल्हा और हँड़िया रह सकते हैं
और तुम्हें गायब होना है आसमान में धुएँ की तरह
जिसे कोई नहीं रोकता।



अगर तुम हमसे चिपके रहते हो, हम दूर चले जाएँगे
अगर तुम्हारी औरत रोती है, हम टोपियों से चेहरे ढक लेंगे
पर अगर वे तुम्हें पकड़ ले जाते हैं, हम तुम्हारी ओर इशारा करेंगे
और कहेंगे : यही रहा होगा।



हमें पता नहीं, क्या आने वाला है, और हमारा कोई सुझाव भी नहीं
पर तुम्हें हम कतई नहीं चाहते हैं।
जब तक तुम गायब न हो जाओ
खिड़कियों का पर्दा गिरा हुआ रखा जाए, ताकि कहीं सुबह न हो जाए।



शहरों को बदलने की इजाज़त दी जाएगी
लेकिन तुम्हें नहीं।
पत्थरों से बातें की जाएँगी
पर तुम्हें हम ख़त्म करना चाहते हैं
तुम्हें जीना नहीं है।
किन्हीं भी झूठों पर हमें यक़ीन करना पड़े :
तुम्हें नहीं होना है।



(
ऐसे ही बोलते हैं हम अपने पुरखों से)


1926



चार

मुझे पता है, मुझे किस चीज़ की ज़रूरत है.
मैं, बस, यूँ ही शीशे में झाँकती हूँ
और देखती हूँ कि मुझे
अधिक नींद की ज़रूरत है, वो मर्द
जो मेरा है, नुकसान पहुँचाता है मुझे।



जब मैं ख़ुद को गुनगुनाते पाती हूँ, कहती हूँ मैं :
आज मैं ख़ुशदिल हूँ, यह अच्छा है
मेरी चमड़ी के लिए।



मैं कोशिश करती हूँ
कि दुरुस्त और तन्दुरुस्त रहा जाए, लेकिन
जान मैं नहीं लड़ाऊँगी, इससे
चेहरे पर झुर्रियाँ आने लगती हैं।



बाँटने लायक मेरे पास कुछ नहीं है, लेकिन
अपना हिस्सा मेरे लिए काफ़ी है.
सावधानी से खाती हूँ मैं, जीती हूँ
धीमी चाल से, मैं तरफ़दार हूँ
बीच के रास्ते की।

(
उनको मैंने इसी तरह कोशिश करते देखा है)

1927




पाँच

मैं गर्द हूँ। अपने-आपसे
मुझे कोई उम्मीद नहीं है, सिवाय
कमज़ोरी, बेईमानी और सड़न के
पर अचानक एक दिन मुझे लगता है :
चीज़ें सुधरेंगी, हवा से तन चुका है
मेरा पाल, आ चुका है वक़्त मेरा, मैं
गर्द के बजाय कुछ बेहतर बन सकती हूँ
तुरन्त मैं उसमें जुट गई।



चूँकि मैं गर्द थी, देखा मैंने
जब मैं पी कर मस्त हुआ करती थी, पड़ी रहती थी
बस यूँ ही कहीं और मुझे पता नहीं होता था
कौन मुझ पर सवार है, अब मैं पीती नहीं हूँ
मैं तुरन्त इससे बाज़ आई।



अफ़सोस कि मुझे
महज़ ज़िन्दा भर रहने के लिए
करना पड़ा काफ़ी कुछ जो मुझे महँगा पड़ा,
ज़हर तो इस कदर लिया, जो
चार बैलों के लिए काफ़ी होता, लेकिन
सिर्फ़ इसी तरीके से
ज़िन्दा रह पाना मुमकिन था; कभी-कभी तो मैं
अफ़ीम भी लेती रही, और मेरा चेहरा
मुरझाए पत्ते सा रह गया
लेकिन फिर मैंने शीशे में झाँक कर देखा
और तुरन्त मैं इससे बाज़ आई।



ज़ाहिर है कि उन्होंने कोशिश की, मुझे सिफ़िलिस का रोगी
बनाने की, लेकिन उनसे यह
हो नहीं पाया; सिर्फ़ वे मुझे
सँखिया ही दे पाए : मेरे
आगे-पीछे नालियाँ थीं, जिनमें से
मवाद निकलता गया दिन रात। किसने
सोचा होगा कि इस क़िस्म की औरत



फिर कभी मर्दों का दिमाग फेर सकती है ? –
मैंने तुरन्त इसका बीड़ा उठाया।



ऐसा मर्द मुझे मंजूर न था, जिसने
मेरे लिए कुछ किया नहीं, और लिया मैंने
हर किसी को जिसकी मुझे ज़रूरत थी मुझमें
शायद ही कोई अहसास रह गया है, मेरे अन्दर सूखा ही रह जाता है
लेकिन
अक्सर मुझे लगता है, पलड़ा कभी ऊपर है कभी नीचे, लेकिन
कुल मिला कर ऊपर ही।



अभी तक ऐसा है कि मैं अपने दुश्मन उस औरत को
कुतिया कहा करती हूँ और उसे दुश्मन समझती हूँ, क्योंकि
कोई मर्द उसकी ओर ताकता है।
लेकिन एक साल के अन्दर
मेरी यह आदत छूट जाएगी
मैं इसका बीड़ा उठा चुकी हूँ।



मैं गर्द हूँ, लेकिन
हर चीज़ मेरे काम आनी चाहिए, मैं
ऊपर चढ़ती जा रही हूँ, मेरे बिना
काम नहीं चलेगा, मैं आने वाले कल की योनि हूँ
जल्द ही मैं गर्द नहीं रह जाऊँगी, बल्कि
बन जाऊँगी मज़बूत कंक्रीट, जिससे
शहर बनाए जाते हैं।

(
एक औरत को मैंने ऐसा कहते सुना)

1927



छह

वह सड़क से गुज़रता गया, टोपी गर्दन पर लटकी थी !
वह हर इन्सान की ओर ताकता गया और गर्दन हिलाता गया
वह हर शो केस के सामने खड़ा रह गया
(
और हर किसी को पता है कि वह ख़त्म हो चुका है !)



उन्हें उसकी बात सुननी चाहिए थी, उसने कहा था कि वो
अपने दुश्मन के साथ संजीदगी से बातें करेगा
अपने मकान मालिक का रवैया उसे पसन्द नहीं है
सड़क भी ठीक से साफ़ नहीं की गई है
(
दोस्तों को उससे कोई उम्मीद नहीं रह गई है)



बहरहाल वह अभी एक मकान बनवाएगा
बहरहाल वह अभी सोच कर देखेगा
बहरहाल वह फ़ैसला देने में जल्दबाज़ी नहीं करेगा
(
वह ख़त्म हो चुका है, उसके अन्दर कुछ नहीं रह गया है)

(
मैंने लोगों को ऐसा कहते सुना है)

1926




सात

ख़तरे की बात मत कीजिए.
झँझरी से हो कर आप यूँ भी टँकी तक नहीं पहुँच सकते :
आपको बाहर आना पड़ेगा।
बेहतर होगा कि अपनी केतली आप छोड़ जाइए
आपको देखना है कि आप ख़ुद बच निकल सकें।



पैसे तो आपके पास होने ही चाहिए
मैं पूछूँगा नहीं, वे आपको मिले कहाँ से
लेकिन पैसों के बिना आपको आने की ज़रूरत ही नहीं।



और यहाँ आप रह नहीं सकते, महाशय!
यहाँ लोग आपको जानते हैं।
अगर मैं आपको ठीक से समझ सका हूँ
इससे पहले कि आप आसरा छोड़ दें
कुछ एक कबाब तो आप खाना ही चाहेंगे।



अपनी बीवी को रहने दीजिए, जहाँ वो है !
उसकी ख़ुद दो बाँहें हैं
इसके अलावा उसकी दो जाँघें हैं
(
जिनसे आपको अब कोई मतलब नहीं, महाशय !)

देखिए कि आप ख़ुद बच निकल सकें!
अगर आपको अभी और कुछ कहना है, फिर
मुझे कह डालिए, मैं उसे भूल जाऊँगा।



अब आपको अपने नज़रिए की हिफ़ाज़त नहीं करनी है :
कोई नहीं रह गया है, जो आपको देखे।
अगर आप बच कर निकल सकें
फिर आप उससे कहीं अधिक कर चुके होंगे
जितना एक इन्सान को करना होता है।
धन्यवाद देने की कोई ज़रूरत नहीं।

1926



आठ

अपने उन सपनों को भूल जाओ कि तुम्हारे साथ
अलग ही सा बर्ताव किया जाएगा।
तुम लोगों की माँ ने तुमसे जो कहा था
ज़रूरी नहीं कि वो सच हो!



अपने करार जेब में ही रखे रहो
उन पर यहाँ अमल नहीं किया जाएगा।
अपनी इन उम्मीदों को भूल जाओ
कि तुम्हें सदर चुनने की सोची गई है।
पर क़ायदे से अपनी तैयारी जारी रखो
तुम्हें बिल्कुल दूसरे तरीके से पेश आना है
ताकि तुम्हें रसोई में बर्दाश्त कर लिया जाय।



तुम्हें अपना कखग अभी सीखना है.
और यह कखग है :
तुमसे निबट लिया जाएगा।

सोचने की ज़रूरत नहीं, कि तुम्हें कहना क्या है :
तुमसे कुछ भी पूछा नहीं जाएगा।
खाने वाले सब आ चुके हैं
ज़रूरत है, तो सिर्फ़ कीमे की।
लेकिन इसकी वजह से
तुम्हें हिम्मत नहीं हारनी है !

1926

 


नौ


एक इनसान से चार माँगें
अलग-अलग दिशाओं से अलग-अलग वक़्त में
यहाँ तुम्हारा घर है
यहाँ तुम्हारी चीज़ों के लिए जगह है
अपने असबाब को पसन्द के मुताबिक रख लो
कहो, तुम्हें किस चीज़ की ज़रूरत है
यहाँ चाभी है
यहाँ रह जाओ।



यहाँ हम सबके लिए जगह है
और तुम्हारे लिए एक कमरा बिस्तर के साथ
तुम काम कर सकते हो अहाते में
तुम्हारी अपनी अलग थाली है
हमारे पास रहो
यहाँ सोने की तुम्हारी जगह है
बिस्तर तरोताज़ा है
अभी उसमें कोई सोया हुआ था।



अगर तुम छिद्रान्वेषी हो
फिर गमले के पानी में जस्ते का चम्मच धो लो
फिर वह साफ़ हो जाएगा
कोई बात नहीं, यहाँ रहो।



यह है कमरा
जल्दी करो, नहीं तो वहाँ भी रह सकते हो
रात भर के लिए, पर उसके पैसे अलग से देने पड़ेंगे
तुम्हें परेशान नहीं करूँगा
और हाँ, मैं नाराज़ नहीं हूँ।



यहाँ तुम उतने ही क़ायदे से हो, जितना कि और कहीं।
यानी कि यहाँ रह सकते हो।


1926




दस

अगर मैं बेजान तरीके से
तुमसे बातें करता हूँ
बिल्कुल सूखे अल्फ़ाज़ में
तुम्हारी ओर देखे बिना
(
लगता है मैं तुम्हें पहचानता नहीं
तुम्हारी ख़ास बनावट और परेशानियों को)



फिर मैं वैसे ही बातें करता हूँ
जैसी कि सच्चाई है
(
कड़वी सच्चाई, तुम्हारी बनावट के ज़रिये बेहद ईमानदार
जिसे तुम्हारी परेशानियों की परवाह नहीं)
और मुझे लगता है कि तुम इसे जानते नहीं


1927



मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य 

उज्ज्वल भट्टाचार्य पिछले बत्तीस साल से जर्मनी में रह रहे हिन्दी के कवि हैं। यह पूरा भारतीय कवि अब आधा जर्मन हो चुका है। उनकी पत्नी और बिटिया भी जर्मन हैं। उज्ज्वल भट्टाचार्य को कविता की दुनिया में आमतौर पर एक शानदार अनुवादक के रूप में जाना जाता है। एरिष फ्रीड, बैर्तोल्त ब्रेष्ट, हान्स माग्नुष एन्त्सेबर्गर और गोएठे की कविताओं के उनके द्वारा किए गए अनुवाद पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने लगातार राजनैतिक कविताएँ भी लिखी हैं।


 
उज्ज्वल भट्टाचार्य



सम्पर्क 





टिप्पणियाँ

  1. बेहद अच्छी कविता का बेहद शानदार अनुवाद और भारत के सन्दर्भ में तो यह लम्बी कविता एकदम समसामयिक लगती है, जैसे आज के भारत पर ही लिखी गई हो। उज्ज्वल भट्टाचार्य बेहद अच्छे अनुवादक हैं। उन्हें सलाम !

    जवाब देंहटाएं
  2. विचलित करती कविता श्रृंखला, जानदार अनुवाद. 👌👌

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11.6.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3729 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छी कविता। लगा ही नहीं कोई अनुवाद पढ़ रहा हूं। इस लंबी कविता से परिचय कराने के लिए ब्लॉगर और अनुवादक दोनों का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज गुरुवार (11-06-2020) को     "बाँटो कुछ उपहार"      पर भी है।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं