नील कमल की कविताएँ



नील कमल

दुनिया के महान वैज्ञानिकों में से एक न्यूटन से उनके जीवन काल के उतरार्द्ध में जब किसी ने कहा कि आप तो दुनिया के सबसे ज्ञानी व्यक्ति हैं तो न्यूटन का विनम्रतापूर्ण जवाब था - 'ज्ञान का महासागर इतना बड़ा है कि मैं उस तरफ गया तो जरुर, लेकिन उसके किनारे बिखरी शंख-सीपियों को देखने बटोरने में ही मैं इतना मशगूल हो गया कि उस महासागर में एक कदम तक नहीं रख पाया' वाकई सच्चा ज्ञान हमें विनम्र बनाता है जबकि उथला ज्ञान अहंकारी और कूढ़मगज ऐसे लोग अपने को परम विद्वान और दूसरों को मूर्ख कहने-ठहराने से तनिक भी नहीं हिचकते ऐसे लोगों की मुख-मुद्रा से हमेशा ज्ञान टपकता रहता है लेकिन हकीकत तो यही है कि यह दुनिया इतनी विविध और इतने रंगों, आवाजों से गुंजायमान है कि इसे देखते हुए लगता है कि हम कुछ भी तो नहीं जान पाए आज जब लोग-बाग़ अपने ज्ञान-विद्वता और महानता का फूहड़ प्रदर्शन करने लगे हैं ऐसे में एक कवि की यह विनम्र स्वीकारोक्ति बहुत मायने रखती है - 'बहुत कम नदियों को/ उनके उद्गम से जानता हूँ।/बहुत कम जंगलों को/ जानता हूँ वनस्पतियों से/ बहुत कम मरुथलों को/ उनकी रेत से जानता हूँ।/बहुत कम जानता हूँ मैं/ स्त्रियों को उनके घावों से/ पुरुषों को उनके अभावों से/ और शिशुओं को उनके भावों से।' कवि नीलकमल हमारे समय के उन युवा कवियों में से हैं जिनमें बडबोलापन नहीं दीखता वे जो भी कहते हैं अपने अनुभव और तर्क के साथ इसके लिए वे प्रकृति के पास जाते हैं वह प्रकृति जो आज के अधिकाँश कवियों के यहाँ से या तो नदारद है या बनावटी स्वरुप में दिखाई पड़ती है उनके पास अपना एक शिल्प है जिसमें लयात्मकता है वह लयात्मकता जो प्रकृति की तरह ही प्राकृतिक है यह लय शाब्दिक ही नहीं बल्कि उस जीवनानुभव की लय है जिसे कविता में साध पाना बहुत मुश्किल होता है आज पहली बार पर हम युवा कवि नीलकमल की कविताओं से रु-ब-रु हो रहे हैं तो आइए आज पढ़ते हैं नील कमल की कुछ नयी कविताएँ             


नीलकमल की कविताएँ 

मौसम..

जब कदम्ब के फूलों का हरापन बदलने लगता है ज़र्द नारंगी रंग में धीरे-धीरे,
जब उमस भरी दुपहरिया का इंतज़ार शाम की औचक बारिश में ख़त्म होता है,
जब कटहल पड़े होते हैं चारों खाने चित और मह-मह करते हैं उसके कोए ठेलों पर,
जब नीम के पेड़ों पर गुच्छों में पक कर झूलने लगती हैं निमौलियाँ,
बताओ कौन सा मौसम होता है वह तुम्हारे कैलेण्डर में
इसी मौसम में फूलों वाली टहनी तोड़ लाता हूँ मैं छातिम की डाली से तुम्हारे लिए।
इसी मौसम में तो साँवले बादलों के केश में खोंसती हो तुम एक नीला लिफाफा।


 
जानना..

बहुत कम फूलों को जानता हूँ उनके नाम से बहुत कम लोगों को उनके काम से जानता हूँ।
बहुत कम शहरों को जानता हूँ उनकी गलियों से बहुत कम नदियों को उनके उद्गम से जानता हूँ।
बहुत कम जंगलों को जानता हूँ वनस्पतियों से बहुत कम मरुथलों को उनकी रेत से जानता हूँ।
बहुत कम जानता हूँ मैं स्त्रियों को उनके घावों से पुरुषों को उनके अभावों से और शिशुओं को उनके भावों से।




निवारण बाबू का दुःख..

◆◆

दुःखी हैं निवारण बाबू
नहीं बना आधार कार्ड
एस्बेस्टस की छत इस साल
झेल नहीं पाएगी एक और बरसात
बेटे को खैर नहीं मिला कोई रोजगार।

दुःखी हैं निवारण बाबू पेंशन में नहीं आता महीने भर का राशन
700 ग्राम चावल और 500 ग्राम आलू में
बड़ी मुश्किल से भरता है पेट यह परिवार फिर भी देखिए किस मुँह से विकास की बात करती है सरकार।।

◆◆
  दुःखी हैं निवारण बाबू, एक गिन्नी है पकी उम्र की जिसे दमे की बीमारी है लम्बे समय से, एक कन्या है जिसे शराबी पति ने छोड़ दिया दो छोटे बच्चों के साथ,
घर बैठे पुत्र को, अब तक नहीं मिली प्राइमरी स्कूल की मास्टरी, योग्यता के बावजूद
सुनिए ओ निवारण बाबू, कहता है मुहल्ले का नेता नवेन्दु पार्टी को चाहिए योग्य कार्यकर्ता मीटिंग-मिछिल का काम संभालेगा वेतन पाँच हजार रुपए खोकन पाएगा।।

◆◆
  निवारण बाबू के दुःखों में एक बड़ा दुःख रहा यह कि सन् 67 से करते रहे मतदान बमबाजी के बीच भी हर बार गए बूथ पर और लगाई मुहर देखते ही रहे नए युग की डगर
न बदला युग, न बदले फिर सितारे वो बदला सिर्फ झंडा, बदले सिर्फ नारे।।

◆◆
  निवारण बाबू दुःखी हो कर बोले पार्टी करता है खोकन चाकरी अब है भी कहाँ कल कारखाने बंद हो चुके दो जून के लिए भात तो चाहिए चाहिए बीमार के लिए दवाई भी
पाँच हजार पाता है खोकन हर माह और हफ्ते में दो दिन भात के साथ थाली में आता है आध पाव का रोहू
क्या करें इस दुःख का कि जिन दीवारों पर बनाते रहे थे वे हँसिया और हथौड़ा उन्हीं दीवारों पर खोकन आँकता है फूल।।

◆◆
  दुःखी हैं निवारण बाबू कि पुश्तैनी घर टूट जाएगा उनका खोकन खुद ही किसी बिल्डर से कर आया है करार
कि अब खड़ी होगी यहाँ जी-प्लस-फ़ोर एक इमारत अब सात सौ पचास स्क्वायर फुट की साइज़ में बिकेंगे सपनों के संसार।।



कविता में तकिए की भूमिका..

32 की उम्र का एक कवि मिला मुझे अरविंद रोड पर उसने अभी-अभी मोल ली थी सेमल की रुई वाली एक तकिया
64 की उम्र के एक कवि के वास्ते

अरविंद रोड के बारे में बस इतना कि यह एक छोटे कस्बे का बड़ा बाज़ार है ज़रूरत की हर मुख़्तलिफ़ चीज़ है यहाँ
48 की उम्र में उस दिन मैं भी गुज़रा था उसी रास्ते और घर लौट कर हिसाब लगाया तो पाया कि 32 और 64 का औसत 48 होता है गणित में कमज़ोर होने के बावजूद मैं खूब हँसा
32 की उम्र के कवि ने मुझे देखा तो कहा हँसते हुए कि आ रहे हैं 64 की उम्र के कवि और ठहरेंगे उसके डेरे पर ही लम्बी यात्रा के बाद अपना बिस्तर छोड़ वह सो रहेगा नीचे एक रात बड़े कवि की नींद के लिए जरूरी थी नई तकिया
चलते-चलते देखा मैंने साईकिल के पीछे बँधी थी सेमल की रुई के नर्म फाहों वाली सुन्दर तकिया उतने ही सुंदर गिलाफ़ के साथ जिसके भीतर से आ रही थीं बच्चों के खिलखिलाने की आवाज़ें
दोस्तो मेरी नींदों में नहीं रही कोई भूमिका किसी तकिए की पर गवाह रहा मैं आज के दिन कि कविता में निश्चित ही तय है भूमिका सेमल के नर्म तकियों की।
______________________


सम्पर्क - 

मोबाईल - 9433123379


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)  

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सुंदर भावों के साथ लिखी हुई लाजवाब कवितायेँ ,शुभकामनायें |

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी कविताएं । जानना तो स्मृति में दर्ज़ हुई । निवारण बाबू के बहाने क्या कुछ नहीं कह दिया कवि ने । बंगाल के सामाजिक राजनीतिक जीवन का रिपोर्ताज़ हों जैसे । पहली बार का आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  3. घर बैठे पुत्र को, अब तक नहीं मिली प्राइमरी स्कूल की मास्टरी, योग्यता के बावजूद

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही अच्छी कविताएँ है।हृदय को छू गयी।

    जवाब देंहटाएं
  5. चाराें कविताएँ दिल में उतर गई ... बहुत अच्छी !!भाई नीलकमल जी काे सलाम !! पहलीबार काे धन्यवाद !!
    - कमल जीत चाैधरी .

    जवाब देंहटाएं
  6. अत्यंत प्रभावी कविताएँ ।

    जवाब देंहटाएं
  7. अत्यंत प्रभावी कविताएँ ।

    जवाब देंहटाएं
  8. 21 वी सदी में दस्तक देनेवाले कवियों में मुझे नील परम प्रिय है .उनकी कविता की भाषा और कथ्य अलग है . कविता सीधे दिल को छूती है मौसम- जानना और निवारण बाबू का कोई जबाब नही ..

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'