महाश्वेता देवी की कहानी (मूल बांग्ला से चयन एवं अनुवाद - मीता दास)
विगत 28 जुलाई 2016 ई. को बांग्ला की महान कथाकार महाश्वेता देवी का 90 वर्ष की उम्र में कोलकाता में निधन हो गया। 'पहली बार' परिवार की तरफ से हम उनके प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी ही एक कहानी 'भात'। इस कहानी का रचना काल 1983 है। महाश्वेता देवी की इस बांग्ला कहानी का पहली बार के लिए विशेष चयन और हिन्दी रूपान्तरण किया है कवि मीता दास ने। तो आइए पढ़ते हैं यह कहानी।
भात
महाश्वेता देवी
(मूल बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - मीता दास)
उस आदमी की निहारने की आदत बड़े घर की बड़ी बहु को जरा भी नही सुहाया। पता नही कैसी उग्र आँखें थीं। और उसकी कमर पर लपेटा हुआ लुंगी भी अत्यंत छोटा और गन्दा था। चेहरा भी कैसा जंगली-जंगली सा। पर ब्राहमण
महाराज ने बताया की वह यहाँ भात खायेगा और उसके बदले में यहाँ काम भी
करेगा।
---- कहाँ से पकड़ लाये?
इस घर में सब कुछ यानि नियम-कानून बड़ी बुआ
के ही इशारों पर चलता है। बड़ी बुआ असल में इस घर की बड़ी बहु की बुआ सास हैं। यह बड़े ही अचम्भे की बात है, यह बुआ सास अनब्याही है।
सभी बातें बनाते हैं की इस घर भर का भार ढोने के लिए ही किसीने इस बुआ का
ब्याह होने ही नही दिया, जबकि वे लोग बड़े पैसे वाले हैं। उसी वक़्त बीबी के मर जाने पर बूढ़े कर्ता {बूढ़े मालिक} को काफी झंझटों का सामना पड़ रहा था।
बड़े कोठी वाले कहा करते थे कि बुआ का ब्याह
ठाकुर जी के संग हो चूका है। वे हैं देवता की सेविका। बड़ी कोठी में एक शिव मंदिर भी बना हुआ है। बड़े मालिक ने उस रास्ते के सभी ओर कई घर बनाये और
सभी का नामकरण उन्होंने शिव, महेश्वर, त्रिलोचन, उमापति कर रखा है। सभी नाम शिव के ही नाम पर। वे बड़े ही दूरदर्शी थे और इसलिए सब खा पी कर जी रहे हैं। कहते हैं कि बड़ी बुआ ने कह रखा था की शिव ही मेरे पति देवता
हैं, इसलिए किसी मनुष्य के संग उनका ब्याह न रचाया जाये।
यह सब बातें सत्य हैं या झूठी कौन जाने। इस संसार
में उन्होंने हमेशा रसोई का भर सम्हाला, भाड़े के मकानों की मरम्मतें करवाई और
बूढ़े पिता की सेवा की।
बड़ी बहू की बातें सुन कर बड़ी बुआ बोलीं
.... कहाँ से लाई का क्या मतलब? आंधी-तूफ़ान और बाढ़ में उसके देश में उसका सब बह गया वह हमारे
बासिनी का कोई सगा लगता है, वही बुला लाई है।
कैसा अजीब सा है दिखने में ....! बड़ी बहू
ने कहा।
बगैर मयूर क्या कोई कार्तिक यहाँ फटकेगा? जी खोल कर तुम लोगों से तो
दस पैसे भी नही दिए जायेंगे। चौदह दफे खटेगा तब
जा कर दो दाने खायेगा, किताब नही है, ख़रीदा चांवल भी नही है, आसानी से उगता है ऐसे ही खेत का चांवल है। उसे खाने को देने को देने में भी उँगलियाँ
टेड़ी हो रही हैं?
बड़ी बहु चुप हो जाती है , बड़ी बुआ आजकल बगैर व्यंग्य कसे बिना कोई बात नही करती। तुम लोग कहने का क्या अर्थ है ? बड़ी बुआ क्या किसी और घर में रहती है?
बड़ी बुआ आखिर में
व्यंग्य सा कसती हुई कहती है तुम्हारे ससुर कब्र में पैर
लटकाये बैठे हैं, इसलिए होम {यज्ञ} होगा और इसलिए एक व्यक्ति खाना खायेगा.....
बड़ी बहू कोई बात आगे नहीं बढ़ाती, उसे पता है उसके ससुर मृत्यु शय्या में
हैं, बयासी साल की उम्र कोई काम नहीं होती।
वे काफी जुझारु थे पर कैंसर ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। लीवर का भी कैंसर होता है यह बात बड़ी बहू नही जानती थी। बड़ी बहू अचानक उठ खड़ी होती है
उसे याद हो आता है की ढेरों काम पड़े हैं अभी करने को। मझली बहू तो चूल्हे के पास ही बैठी है उसे पता है अगर ससुर परलोक गमन करते हैं तो सास का
मांसाहारी भोजन में पाबन्दी लग जाएगी उनके घर के प्रथा अनुसार। इसलिए नाना प्रकार के भोजन बनाने में उसकी कमर टूट रही है। इसलिए कुछ दिनों से रसोई में बड़ा
हिल्सा मछली, पका हुआ रोहू, चीतल मछली की पेटी, अंडा युक्त टैंगरा मछली, बड़ी भेटकी मछली, सभी जैसे यज्ञ की आहुति सा चूल्हे पर पक रहा है और इसका जिम्मा मझली पर है।
ससुर की देखभाल के लिए नर्स है पर बड़ी बहू
उनके कमरे में आकर बैठे तब ही तो नर्स चाय पानी पी। तीसरे नंबर वाला बेटा विदेश में रहता है पर वह अभी भी आने का कोई समाचार नहीं दे पाया है। छोटा, बड़ा और मझला बेटा अभी भी गहरी नींद में हैं उनके उठने का समय दिन के ग्यारह
बजे है। इस वास्ते वे कभी भी नौकरी नहीं कर पाए। अट्ठारह मंदिर {देवालय} और आसानी से उपजने वाली उपजाऊ जमीन की खेती से मिले अनाज मिलने पर भला किसे जरूरत
पड़ी है नौकरी करने की? ससुर के कमरे में बैठे-बैठे बड़ी बहू सोच रही थी अगर कल को ससुर जिन्दा न रहें तब भी क्या चाँद-सूरज अपने समय पर उगेगा। उसके लिए ससुर देवता सामान ही हैं। कैंसर का
पता भी तो अब आखरी वक़्त पर पता चला। ससुर के लिए उसे दही में ईसबगुल घोल कर रखना होता था उनके सोने से पहले ही पिलाना भी पड़ता था। कहना खाने बैठने
से पहले गरमा गरम रोटी या पूड़ी निकालनी होती है और खुद को ही परोसना होता है। बिस्तर लगाना होता था और सोने से पहले उनके हाथ- पाँव दबाने होते
हैं। कितने काम करती रही है वह आजीवन। पर क्या यह सब उसे अब और नही करना पड़ेगा?
डॉक्टरों जवाब दे ही दिया है इसलिए ही तो इतना ताम-झाम हो रहा है। छोटी बहू के पिता एक तांत्रिक पकड़ लाये हैं उन्ही के कहने पर ही बेल, वट, पीपल, ईमली की लकड़ियां इकट्ठी की जा रही हैं आधा-आधा मन। उन सभी को एक ही आकार में काटी जाएँगी। काली बिल्ली के रोएँ ढूंढने नौकर भजन गया है, शमशान की रेत, वैश्यालय से हाथ से पकड़ने वाला आइना और
पता नही क्या- क्या सामान जुगाड़ना बाकी है अभी। इसलिए ही उस आदमी को बुला कर लाया गया है उन
लकड़ियों को समान आकार में काटने के लिए। सुना
है वह कई दिनों का भूखा है। वासिनी कहीं से पकड़ लाई है उसे। बादा {जहाँ आसानी से खेती होती है} में रहता है फिर भी भात के लिए उसकी जंग जारी है। यह भी कैसी बेवकूफी है क्या बादा में चाँवल का अभाव है? जा कर देखो जरा पहली मंजिल पर टोकरियों में कितना चाँवल भरा हुआ है।
नर्स इस बीच कमरे में
आ बैठी। बड़ी बहू नीचे की मंजिल में लौट आती है । सोचती है कि आज सभी को जल्द ही भोजन कर लेना पड़ेगा, तांत्रिक के हवन पर बैठने से
पहले। हवन करने के उपरांत तांत्रिक ससुर महाशय की जान को उस हाथ आईने में पकड़ कर
रख छोड़ेंगे। तांत्रिक नीचे के कमरे में इंतजार कर रहा है।
बड़ी बुआ बोली ... उतर आईं? क्या चाँवल निकाल दोगी?
... अभी देती हूँ।
झींगेंशाल चाँवल का
भात निरामिष दाल -तरकारी संग भाता है। रामशाल चांवल का भात माछ संग भाता है। बड़े
बाबू कनकपानी चाँवल न मिले तो खाना खाते ही नहीं। मझले और छोटे को बारह महीने
पद्मजलि चाँवल चाहिए। ब्राम्हण महराज -नौकर और नौकरानियों के लिए मोटा -चपटा
चांवल।
बादा में रहने वाला
वह आदमी एक बार लकड़ी काटते-काटते अपना चेहरा उठा कर देखता है ऐसा लगता है
जैसे उसकी आँखे अभी बाहर निकल आएँगी।
---- हाँ वासिनी क्या यहां रंग-रंग के चाँवल हैं ?
----बाबू लोग खाते हैं।
---- और क्या इसी तरह से सभी चाँवल अलग-अलग
एक ही दिन में बनता है?
---- नहीं बनेगा क्या? बादा जाने कितने बीघे जमीन हैं। चाँवल ला-ला कर पहाड़ बना
चुके हैं। बड़ी बुआ ने चुन-चुन कर सम्हाल भी दिया है। मैंने भी न जाने कितना चाँवल चुन कर दिया है।
---- बादा में इन लोगों का इतना चाँवल उपजता
है, दे तो जरा एक मुट्ठी चाँवल, दे न चाँवल मुँह में डाल पानी पी लूंगा। कितने दिन हो गए आंदा {राँधा} भात नहीं खाया, दे-दे न वासिनी,
तेरे पैर पड़ता हूँ।
---- अरे-अरे! क्या करते हो उत्तछ्ब {उत्सव} दादा! गाँव के रिश्ते से तुम मेरे दादा
लगते हो न, क्यों इस तरह पाप चढ़ाते हो। बुआ ने देख
लिया तो सर्वनाश ही समझो। मैं समय से पहले आकर तुम्हे भात दे जाउंगी। तुम
अपना हाथ चलाये जाओ, बाप रे मैं इनपर बलिहारी जाऊं। एक आदमी इतनी सारी लकड़ियां बगैर खाये
कैसे काट पायेगा जब कि वे जानते हैं कि तुमने कई दिनों से कुछ खाया नहीं है। कहाँ पहले थोड़ा खाने को दें ... वह तो किया नहीं। वासिनी चाँवल का पसरा
थामे सर हिलाती हुई आगे बढ़ जाती है। उस आदमी का नाम उत्सव है पर सभी उसे उत्छ्ब
नइया ही कहते हैं। सच उसने पिछले कई दिनों से खाना ही नहीं खाया। किस्मत ही खोटी है उसकी, सचमुच खोटी है। इतने दिनों तक रोज खिचड़ी बन रहा था तब वासिनी उसे नहीं जा पाई थी
बुलाने। ... ओ चुन्नी की माँ ...ओ चुन्नी रे ... कोई कुछ बोलेगा भी ...
कहाँ चले गए तुम सभी? वस्तुतः यह सब थे कि वह अपना घर अपनी
पत्नी और अपने बच्चों को याद कर रहा था जब उसका घर
बाढ़ के पानी में पत्ते सा ढह गया था। तब जा कर
उसकी बुद्धि खुली और अपने बीवी बच्चों को आंधी तूफ़ान में घिर कर डर से जब कांपते
देखा तो उसमे घर के मध्य के बांस के खूंटे को जोर लगा कर जमीन में धंसा कर खड़ा रहा।
पर खूँटा तेज मतवाली हवा के दबाव से हिल रहा था। और धनुषटंकार के रोगी की तरह टेढ़ा होकर काँप रहा था। उत्छ्ब {उत्सव} भगमान-भगमान {भगवान-भगवान}
पुकार रहा था। उसने
महसूस किया कि भगवान कम्बल ओढ़ कर सो रहा है।
पर आँधी-तूफ़ान का
पानी, बढ़ का पानी थमने का नाम ही नहीं ले रहा
था और जब सैलाब थम तो उत्छ्ब की पूरी गृहस्थी उजड़ चुकी थी। सब मिट्टी में मिल चुका
था।
सुबह जब उठा तो समझ
आया कि सब कुछ बाढ़ और आँधी की भेंट चढ़ चुका है, सर्वत्र
सर्वनाश ही सर्वनाश। अब कई दिनों तक वह अपने घर के छप्पर के नीचे से किसी भी तरह
के आहट के लिए राह ताकता रहता। पागल सा हो गया था वह कौन और कहाँ है कोई पर न जाने
क्यों वह उन्हें अकारण ही आवाज देता और आवाज सुनने के लिए व्याकुल सा रहता। साधन
दास की बातें उसे नहीं सुहाती वह कहता बाढ़ तो तुझे भी खींचे लिए जा रहा था वह तो
तेरी खुश किस्मती थी कि तू पेड़ पर अटक गया और बच गया। उत्सव फिर पुकारता है ....कुछ
तो बोल चुन्नी की माँ! वह अब घर के सामने से हटना ही नहीं चाहता और हाँ उसके घर
में एक मुँह बंद डिब्बा था उसमे एक महत्वपूर्ण कागज था, जो निभई उत्सव के जमीन के लिए किये गए कागजात का नक़ल था। उसमे लिखा था उत्सव नइया / पि० हरिचरण नइया ... पर वह डिब्बा अब है
कहाँ? जा .. अब नहीं बचा वह भी, आँधी-तूफ़ान और बाढ़ के चपेट में आ गया है। उसे ढूंढ-ढूंढ कर ही उत्सव पागल हुआ जा रहा है। इसलिए उसे न तो बनी हुई
खिचड़ी खाने को मिली और न ही कागजात वाला डिब्बा। जब उसे होश आया खिचड़ी बननी बंद हो
गई थी। खाली पेट, तब कच्चे चाँवल मुट्ठी भर मुँह में डाल कर
पानी पी लिया करता था। कुछ दिन ऐसे ही बीते एक दिन उसे गांव के लोग कहने लगे अब तो मरे लोगों
का श्राद्ध कर दो, करना ही पड़ता है। तब वह महानाम सत्पथी
को खबर करता है पर हमनाम व्यस्त है उसे अभी एक-दो और भी गांव के श्राद्ध कर्म
निपटाने हैं। गांव वाले सभी मछली,
घोंघे, केंकड़े जो भी मिले पकड़ कर खा रहे थे। साधन कहने लगा क्या बात
है उत्छ्ब {उत्सव} तुम
अचानक कलकत्ते जाने का क्यों मन बना लिया?
इधर सरकार दोबारा
मकान बनाने के लिए खर्चा देने का एलान किया है। तुमने
नहीं सुना क्या?
उत्छ्ब अचानक बड़े
बुद्धिमान की तरह कह उठता है ... ऐसी बात है क्या?
इधर आंधी-तूफ़ान और
बाढ़ में किसका कितना और क्या-क्या नुकसान हुआ यह देखने आने की
फुरसत ही नहीं मिली वासिनी को। उसकी बहन और भाभी कलकत्ते जा रही हैं। वे वहां ठेके
में काम करने का मन बना चुकी हैं। उत्सव भी एक बार गया था वहां। वासिनी जहाँ काम
करती है उसे वह बाहर ही बाहर से देख आया था। बड़े रूप में ठाकुर जी का स्थान है, मंदिर के बुर्ज के ऊपर पीतल का त्रिशूल
भी वह देख आया था। वासिनी के मालिक के यहाँ ढेर-ढेर
भात के पहाड़ हैं यह गांव वाले सभी ने सुन रखा है। अचानक उत्सव का मन कर उठता है कि
वह भी कलकत्ता जाए ओट ढेर सारा भात सान-सून कर खा आये। ऐसा उसका क्यों मन किया यह वह जान सका। उपवास कर और एक
ही रात में घर, बीवी-बच्चे और घर के उजड़ जाने से न जाने
कैसा हो गया था। उसके माथे के भीतर जाने क्यों झन-झन करता रहता और कोई भी बात वह
ठीक तरह से नहीं सोच पाता। बहू त सोचता रहता है पर नहीं-नहीं
अब सही तरीके से उसे सोचना होगा। कुछ ऐसे ही ख़यालात उसके मन में चलने लगते, उसे लगता कि जैसे ही धान के खेर में धान पकने लगता धान के
पेड़ों से हरापन गायब होने लगता है। और कार्तिक के महीने में धान सूख कर सूखे घास में बदल गया। यह सब देख कर उत्सव में सर
पकड़ लिया। सतीश मिस्त्री के हरकुल, पटनई, मोटा और तीन प्रकार के धान पूरे तौर पर चौपट हो गए थे। उत्सव तो हमेशा सतीश बाबू के ही खेत
पर काम कर कुछ माह जिन्दा रहता था। ओ उत्सव ...उत्सव
रे ... मालिक का धान जब - जब उठकर मंडी जाता है तू रोता क्यों
है? क्यों नहीं रोउंगा भाई, लक्ष्मी घर आने से पहले ही ऐसा
लगता है सारे अनाज का विसर्जन किया जा रहा है। ऐसे में क्या
मैं रोउंगा भी नहीं बचता भी क्या है और हम खाएंगे क्या? इन सभी बातों को वह तरीके से सोचने लगता
है तो उसे याद आता है खेत में आग लगने की बात फिर याद हो आता है बाढ़ और आंधी में
नष्ट हुए घर और अनाज की बातें उसी दिन
शाम को ही उसने पेट भर भात खाया था। उबला हुआ हींचे साग, उबले घोंघे, जलाई
हुई मिर्ची और नमक संग सभी गांव वालों ने पेट भर भात खाया था। खाना खाते हुए
चुन्नी की माँ ने चेताया था देखो देवता की इच्छा मुझे ठीक नहीं लग रही देखो जो लोग
नौकाएं लेकर निकले हैं लगता है उनकी नौकाएं लौटेंगी नहीं। यह सब बातें एक-एक कर
उसे याद आने लगती हैं और यह भी याद आता है कि वह किस तरह घर के बीच की खूंटे
को वह कितनी मजबूती और जोर लगा कर जमीन में धंसा रखा था पर उसे यह भी प्रतीत हो
रहा था की माँ बसुमती की जरा भी इच्छा नहीं है भगवन हे भगवन... लगता है इसलिए आपने खूँटा उखाड़
फैंका। और जरा सी देर में बिजली की चमक पर दिखा मतवाली हवा और पानी किस तरहबढ़ा आ रहा था। बस फिर क्या था सब उलट-पुलट, कौन कहाँ और किधर गया पता नहीं। कहाँ तुम और
कहाँ मैं? उत्सव नाइया / पि० हरिचरण नाइया/ कागज वाला वह डिब्बा भी न
जाने है कहाँ? बहू त ही सुन्दर था वह डिब्बा, अगर भगवां चुन्नी ले जाता तो उत्सव के शरीर में सौ हाथियों सा
बल रहता। तब वह उसी डिब्बे को ले कर भीख मांग सकता। सतीश बाबू का पोता फ़ूड खाता है न का खाली डिब्बा था। उत्सव डिब्बा उन लोगों से
मांग लाया था। अगर आज वह डिब्बा संग होता तो दो मुट्ठी भात पका लिया होता । बहुत ही
सुन्दर था वह डिब्बा।
----- क्या हुआ, साथ
चलो महाराज। उस तरफ मालिक मृत्यु से जूझ रहे हैं, हवन होगा उसके लिए लकड़ियां चाहिए और तुम खड़े हो कर लकड़ियों की
ओर क्या देख रहे हो? बड़ी बुआ में ऊँचे सुर में उत्सव से कहा।
----- बड़ी भूख लगी है माँ जी!
----- अरे सुनो जरा इसकी बात, अरे अगर भात बन भी जाए तब भी अभी किसी को खाना नहीं मिलेगा। तांत्रिक के नए नियमानुसार सभी तरह के
भोजन राँध रखो और हवन पूरा होने पर ही खाना खाया जायेगा। तुम तो
अपना हाथ चलाये जाओ, जल्दी-जल्दी। उत्सव फिर अपना हाथ चलाने
लगता है। हर लकड़ी एक ही नाप के,
सब डेढ़ हाथ लंबे। तेज
धार वाली आरी सिर्फ तेज-तेज ऊपर नीचे चलता रहता है। भात की सौंधी महक उसे मतवाला
बना रही थी। टोकरी भर साग लिए धोने आते वक़्त वासिनी एक बार इधर और एक बार उधर तकती
है फिर झप्प से एक लिफाफा उत्सव के निकट धर देती है और चुपके से कहती है इसमें जरा
सा सत्तू है, इसे खा कर पानी पी लेना। पानी का नल रास्ते के किनारे है। जल्द लौट आना देखो देर न
करना। यह पिशाचों का घर है तुम नहीं जानते
इन्हें गरीबों की मेहनत खूब सस्ती लगती है।
----- कौन मर रहा है वासिनी?
----- अरे वही इस घर का सबसे बूढ़ा, घर का मालिक! नहीं मरेगा क्या? शराब, शबाब और भी कई
करस्तानियाँ हैं। हवन के लिए जो नौकरानी सारी तैयारियां कर रही है, अरे वो मुटल्ली! जिस दिन मालिक मरेंगे उस दिन
मैंने अगर उसे सात बार लात नहीं मारा तो मेरा नाम वासिनी
नहीं। बूढ़ा मरने को है इसलिए हो रहा है हवन!
मुट्ठी भर सत्तू लेकर
उत्सव नल के पास चला जाता है। बाप रे, इतना चाँवल, इतनी तरकारियाँ इतनी मछलियां इतना बड़ा
यज्ञ? सब कुछ उसी बादा के जमीन के ही बदौलत।
यह कौन सा बादा {जमीन} है? उत्सव के बादा खेत में तो सिर्फ घोंघे, अरबी का साग, करमत्ता
भाजी ही पाया जाता है। उत्सव सत्तू फांक कर मिठाई के दुकान से एक कुल्हड़ मांग कर
पानी पी लेता है। उसने सुन रखा था की सत्तू खा कर पानी पी लेने से सत्तू पेट में
फूल जाता है। सोचता है चलो अच्छा ही हुआ पेट का भीतरी हिस्सा तो भरा-भरा लगेगा। पर
उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे समंदर में एक बूँद पानी। वह लौट आता है।
------ कहाँ गए थे?
------ जरा बाहर गया था माँ! सोचता है लकड़ियां
कटेंगी तब जा कर हवन होगा और फिर तब भात। उत्सव जल्दी-जल्दी हाथ चलाता है। मझली
बहू आवाज तेज कर कहती है
-----
------ खाने के कमरे को पोंछा मार चुकी हो क्या
वासिनी? सभी भोजन रखना पड़ेगा न!
------ हाँ पोंछ दिया है। वासिनी कहती है।
------ सब हो चुका क्या? मछली वाले रसोई में भी क्या सब पक चुका? बड़ी
बहू ने हांक लगाई।
यह सब सुन उत्सव के
जान में जान आई। भात खायेगा वह भात ...भात। पहले वह भात खायेगा ...अपनी जीभ में वह पहले
भात का स्वाद लेगा। जब वह गाँव छोड़ कर आ रहा था तब उसके रिश्तेदार, कुनबे वालों ने हिदायत दे दी थी। जब कलकत्ते जा ही रहे हो तो
भैये तब काली घाट जाकर उनका श्राद्ध भी कर ही आना उन लोगों की मृत्यु अपघात से जो
हुई है। हाँ-हाँ उत्सव सोचता है कि वह यह सब अब जरूर करेगा। महानाम सतपथी तो आया
नहीं अगर आता तो नदी किनारे वह श्राद्ध
करता। पर अब वह काली घाट पर ही श्राद्ध करेगा। सतीश बाबू कहा है कि उत्छ्ब मति ऐसे
ही भ्रष्ट नहीं हुई, पत्नी, बेटा-बेटी
अपघात में मरे हैं इसलिए वह यह सदमा सह नहीं सका। ऐसे सदमे में मनुष्य पागल हो ही
जाता है। देख नहीं रहे उत्छ्ब कैसे भात ...भात कर रहा है। क्या समझोगे सतीश
बाबू न तो तुम नदी के किनारे रहते हो और न ही मिटटी के घर में रहते हो। पक्के मकान
क्या कहीं आँधी-तूफ़ान या बाढ़ में बह जाते हैं? तुमने
तो अपना धान-चाँवल भी पक्के मकान में सम्हाल कर रखा है, जिसे कोई चोर-डाकू हाथ भी नहीं लगा सकता। पूरे देश में बाढ़ का प्रकोप रहा पर
तम्हारे घर खाना पकता रहा। पर भात खाने को नहीं दिया उत्छ्ब को अगर दे देते तो वह
इस तरह भात के लिए पगलाया नहीं फिरता। यह
बात भी सही की अगर उत्छ्ब को अकेले देते भात तो पूरी पलटन आ जुटती है न! हे भगवन
यही तो है भगवन की मार। हाँ पर एक चोट से तुझे बचा सकती
हूँ ....पर तुमने उसे भात नहीं दिया,
देश {गांव} में भात है ही नहीं। और उस वक़्त जब धान
में कीड़े पड़े से ही उत्छ्ब का आधा पेट भात खाना बदा रहा। कितने दिन उपवास भी किये।
पेट में भात नहीं इसलिए उत्छ्ब प्रेत
बन गया है। अगर वह पेट भर भात खायेगा तो दोबारा मनुष्य बन जायेगा। तब पत्नी, बच्चों के लिए रोयेगा,
भात के लिए नहीं रोयेगा।
उसे दुखः तो हुआ ही नहीं सिर्फ पागलों की तरह कई दिनों तक पत्नी और बच्चों को पुकारता ही रहा। उसी
वक़्त उत्छ्ब प्रेत में बदल गया। अगर मनुष्य होता तो समझ जाता कि पानी के स्रोत में
पत्नी, बच्चे और सामान सभी बह गए हैं। कितने
गाय-भैस बह गए और चुन्नी की माँ की क्या बिसात। उत्सव की लकड़ी कटाई का काम ख़त्म हो
जाता है। अढ़ाई मन लकड़ियां काटी हैं उसने सिर्फ भात के लालच में, वरना उसकी देह में जरा सी भी ताकत नहीं थी।
पांच भागों में वह
लकड़ियों को सजाकर रख आता है आंगन में। आंगन में फैले सभी लकड़ियों के छोटे टुकड़े, छीलन को उठाकर एक टोकरी में उठाकर रखता है। और फिर पूरा अच्छे
से बुहारता है। फिर जैसे ही बड़ी बुआ को देखता है तो बोल उठता है ...क्या बाहर जाकर
बैठ जाऊं? बड़ी बुआ कोई जवाब नहीं देती। क्योंकि उसी वक़्त तांत्रिक जोर से मन्त्र
उच्चारित कर उठता है ....
------ ॐ ह्रींग ठंग ठंग भो भो रोग
श्रिनू श्रिनू कह कर गरज उठता है। रोगी को खड़ाकर काले बिल्ली के रोएं को
उनके शरीर में बांध कर हवन शुरू कर देते हैं। करीब-करीब एक
ही साथ बड़ा, मझला और छोटा बेटा नींद भरी आँखे मलते
हुए हवन वाले कमरे से बाहर आते हैं कारण ऊपर की मंजिल से उतरते ही वह बोली डॉक्टर
को कॉल करो। वासिनी उत्सव से कहती है ...दादा तुम जरा बाहर जाकर बैठो, देखा कैसे इधर जोरदार मंतर पढ़ा और उधर बीमारी शरीर को हिला-डुला कर बाहर निकल गया। इधर मंतर
पढ़ा और उधर मालिक का शरीर दुलक गया एक ओर।
----- देखो अगर तुम नहाना चाहो तो नहा लो।
----- इस वक़्त नहा लूँ? सर पर पानी पड़ते ही मैं रुक नहीं पाउँगा, पेट बिलकुल भी नहीं मानेगा। बाहर आ जाता है उत्सव और जाकर शिव, मंदिर
के आंगन में बने ऊँचे से चबूतरे में चढ़ कर बैठ जाता है। बाप रे ...कितना सुन्दर और कितना विशाल है! यह सब उस उपजाऊ खेतों की वजह से ही है। वह
बादा {उपजाऊ जमीन} आखिर है कहाँ,
वह एक बार अगर देख
पाता! भात मिल जाये तो खा कर वह एक बार उस बादा को ढूंढ ही निकलेगा। पेट में भात
पड़ने दो फिर वह देखना कितना ताक़तवर हो जायेगा और उपजाऊ जमीन ढूंढ ही लेगा। उत्सव की तरह और भी कई
लीग हैं गांव में वह उन्हें भी जाकर बताएगा।
उधर तीन लडके मंदिर
के चबूतरे में बैठ कर ताश पीट रहे थे ....उनमे से एक बोल उठा वे लोग उस बूढ़े को
बचाये रखने के लिए हवन हो रहा है न?
----- फ़ालतू है!
----- क्या फालतू है?
----- अगर बच भी गया तो कितने दिनों तक जिन्दा
रह पायेगा?
उत्सव आंखे मूँद लेता
है, ऐसा यज्ञ
किस काम का! यह यज्ञ होने पर भी यदि बूढ़े मालिक ज्यादा दिनों तक जिन्दा न रहें तब? बाप रे बाप क्या माजरा है यह? अगर
उस दी पगलाई सी नदी में बाढ़ न आता तो उत्सव की पत्नी, चुन्नी, छोटा
बेटा बहू त दिनों तक जिन्दा रहते। उत्सव के आँखों के कोरों से आंसू बाह निकलते हैं
.. वह आज भात खायेगा। इसी आशा में वह प्रेत उत्सव से मनुष्य उत्छ्ब हो उठा है ऐसा
ही प्रतीत हो रहा है। इसलिए शायद चुन्नी और छोटे बेटे को याद कर उसके नयन भीग गए। ...भात
ही शायद कारण हो! अन्न ही लक्ष्मी है,
अन्न ही लक्ष्मी है ....अन्न
के सिवाय और कोई भी लक्ष्मी नहीं। उसकी ठाग्मा {दादी} कहती थी अन्न ही है लक्ष्मी ... साक्षात् लक्ष्मी।
.... ... क्यों भाई रो क्यों रहे हो?
....... मुझे कह रहे हैं बाबू?
...... . हाँ रे।
.....खेतों से
आया हूँ बाबू! आँधी-तूफ़ान और बाढ़ में सब नाश हो गया यहाँ तक घर के लोग भी
...... ओह्ह!
ताश फैंटने वाले हाथ
चौंक कर रुक
गए, जरा ज्यादा उम्र वाले छोकरे ने कहा ....ठीक है भाई तुम लेटे रहो। उत्छ्ब सचमुच
गहरी नींद सो जाता है। देर तक सोया रहता है ....काफी वक़्त बीत जाता है अचानक न
जाने किसी के पैर के ठोकर से
जग जाता है।
..... .. अरे शाम हो गई पर यह है कौन जो धक्का दे रहा है उसे?
..... ... अरे उठो भाई , कौन हो तुम?
....... .. अरे बाबू मैं हूँ .....
....... ... चोरी के मतलब से पड़े हो?
........ ... नहीं बाबू , उस बड़े घर में काम कर रहा था।
........ .. चलो उठो, उठ
भी जाओ। उत्सव उठ खड़ा होता है,
उठते ही अत्यंत घबरा
जाता है, चारों तरफ गाड़ियों की कतार ही कतार। लोग
बाग छोटे-छोटे झुण्ड में बिखरे थे।
--------- क्या हुआ बाबू?
कोई उसकी किसी भी बात
का जवाब नहीं देता, उत्सव धीरे-धीरे आगे जा कर घर में
प्रवेश करता है। घुसते ही बड़ी बुआ का विलाप सुनाई देता है .......पता नहीं कहाँ से
समधी एक डकैत सन्यासी पकड़ कर ले आया दादा ....इधर यज्ञ हुआ और उधर तुम मर गए। दादा
.... ओ .... मेरे दादा {बड़ा भाई} तुम जो बयासी साल में ही मर जाओगे यह
किसे पता था .... बताओ जरा .... तुम्हे तो अँठ्यानवे साल तक जिन्दा रहने की
बात थी दादा .... ओ ... दादा।
वासिनी कहीं
नहीं दिखती उत्सव को, पर हर कोई काफी व्यस्त दिख रहे थे उसे। पर कोई बोल उठा कोई
नहीं आएगा तो निकालना मुश्किल है।
.... अरे खोखा कोई क्या बोल रहा है बहने, दीदी लोग सभी आएंगे न ... बड़ी बुआ बोल उठी।
....... किसी ने चन्दन पीसा है क्या जरा देखो?
......... पलंग का रूपया कौन लिया?
....... . बागबाजार में किसीने फोन किया क्या?
......... जरा सामान की लिस्ट कोई देखकर बताएगा
क्या? लाई, फूल, धोती ... शव का वस्त्र ....
उत्सव चारदीवारी से
टिककर खड़ा रहता है पता नहीं कितना समय गुजरता है ....और कितना काम-धाम होता
रहता है। मस्त सा खाट आता है,
रात में ही निकालना
पड़ेगा। शव दाह भी रात में ही करना पड़ेगा वरना दोष लगेगा। काफी जोड़-तोड़ चलता रहता
है। बेटियां भी आती हैं, काफी
रोना-धोना मचता है। पर हवन करने पर भी बूढ़े मालिक की जान नहीं बचा पाने की हताशा
जरा भी उस तांत्रिक के चेहरे पर नहीं
दीखता और न ही कोई कुंठा ही। पर बड़ी बुआ बुड़-बुड़ करती रहती है, यज्ञ छोड़ कर तीनो पुत्र क्यों चले गए क्या उन्हें पता नहीं कि
यज्ञ में कोई विघ्न नहीं होना चाहिए?
...... इन सभी कामो में कोई विघ्न नहीं पड़ना चाहिए, अगर
पड़ गया तो कोई बच पायेगा भला?
इन्ही बातों को लेकर
सभी मन्तव्य करने लगे, पूरे घर में एक गहमागहमी का माहौल बन
चुका था। अब यहाँ शोक जैसा कोई माहौल नहीं बचा था। घर पर चूल्हा नहीं जलेगा इसलिए
रोड के उसपर वाली दुकान से चाय मंगाई जा रही थी। आखिरकार रात के एक बजे बूढ़े मालिक
के शव को बम्बईया खाट पर लिटा कर नाचते-नाचते जाते हैं संग
में पेशे से शव वाहक और लोग दौड़ कर ही चलते है और संग-संग कीर्तन वालों का दल भी
दौड़ने को बाध्य हो जाते हैं। वासिनी से कहती है ... अरे वासिनी देख तो जरा
सभी कपड़े, खाना बगैरह रास्ते में फैंक आ। अब घर
द्वार मुक्त कर। जाओ बहू तुम सब भी जाओ,
यहाँ क्यों खड़ी हो?
अब उत्सव में दिमाग
में जितने बादल धीरे-धीरे छंटने लगे। अब उसकी समझ में आया कि ये लोग सब भात रास्ते में फैंकने जा रहे हैं। वासिनी
उससे कहती है ...जरा पकड़ना भैया।
------- इधर ला, पकड़ता
हूँ। अब तक उत्सव ने तय कर लिया की उसे आखिर करना क्या है? ...... दे मुझे भारी सामान। मोटे चाँवल वाले भात का बड़ा देगची लेकर वह वासिनी को
कहता है .... ..इसे फैंक आऊं क्या?
..... .. हाँ-हाँ फैंक आओ नहीं तो कुत्ते बिखरा
देंगे और सुबह-सुबह कौए चुग लेंगे ऐसा बाम्हन लोग कहते हैं।
बाहर आकर उत्सव तेज-तेज
कदमो से चलने लगता है देगची उठाये,
फिर लगभग दौड़ पड़ता है।
उसके हाथों में अब ढेर सारा भात है क्या इन्हें वह रास्ते में फैंक देगा? और क्या इन्हें कुत्ते और कौए खाएंगे?
.... दादा! अशुद्ध घर का भात नहीं खाया जाता .... लगभग दौड़ती हुई वासिनी दौड़ती हुई आई।
...... ... नहीं
खाते! अरे तू भी उनके संग रहते-रहते बाम्हन हो गई क्या?
......... . ओ दादा अनुरोध करती हूँ।
उत्सव रूक कर खड़ा हो
जाता है, उसकी आँखे ठीक खेतों के जहरीले
जंतु की तरह ही हिंश्र लग रहा था। दाँतों को बाहर निकाल कर वह हिंश्र की ही भांति
डराने लगा। वासिनी डरकर रुक जाती है। उत्सव दौड़ता रहता है, एक ही सांस में वह स्टेशन तक पहुँच जाता है।
वहां बैठ कर वह हाथ
भर-भर खाता है। जैसे ही वह भात के देगची में हाथ डालता है ,भात का स्पर्श पाकर
उसे स्वर्ग की
अनुभूति होती है। चुन्नी की माँ ने उसे ऐसा सुख कभी नहीं दिया। भात खाते-खाते पता
नहीं उसे क्या हो रहा था, वह देगची में मुँह घुसा कर खा रहा था। स्वर्ग सा आनंद .... भात सिर्फ भात।
उपजाऊ खेत का भात, उपजाऊ खेत के भात को खाने से शायद उसे उस उपजाऊ खेत का
संधान मिल जाये किसी दिन! है ...
जरूर है कहीं उपजाऊ
जमीन जिसे उसे ही खोज निकलना है ! और भात खा लेता हूँ ... वह सोचता है ।
चुन्नी ओ चुन्नी ले तू भी खा,
की माँ ले तू भी खा, छोटा खोखा ..
खा, मेरे भीतर बैठकर तुम सब खाओ! ....आह ...खाओ ....भात
...आह .....खाओ! अब पानी पी लूं! फिर और भात खाऊंगा।
सुबह के ही ट्रेन में बैठ जाऊंगा फिर सीधे कैंनिंग में ही जाकर उतरूंगा। भात पेट
में जाते ही दिमाग चलने लगा है मेरा,
मैं जान चुका हूँ कि
कैंनिंग होकर ही देश जा पाउँगा।
उत्सव देगची को जकड़ कर
पकड़े रहता है और ऊपर सर रख कर सो जाता है।
पीतल की देगची चोरी
के अपराध में उत्सव को लोग वहीँ धर लेते है। जैसे ही पेट में भात पड़ता है और उसके
भर से वह हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है,
और गहरी नींद में सोया रहता है। उसकी नींद टूटने का नाम ही
नहीं लेती।
लोग उसे मारते-मारते
थाने ले जाते हैं। उत्सव अब बादा की जमीन {उपजाऊ जमीन} को खोज नहीं पायेगा। और अब वह घर पर ही अचल हो कर
पड़ा रहेगा।
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रचना काल : ------ १९८३
मीता दास |
सम्पर्क -
मोबाईल - 08871649748
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