कमलजीत चौधरी के कविता संग्रह पर रश्मि भारद्वाज की समीक्षा ‘‘भूख और कलम अब भी मेरे पास है’ : भाषा का सौम्य औज़ार लिए अपने समय से जूझती कविताएँ।
रश्मि भारद्वाज |
अपनी प्रारम्भिक कविताओं से ही ध्यान आकर्षित करने वाले युवा कवि कमलजीत चौधरी का पहला कविता संग्रह
दखल प्रकाशन से छप कर आया है – ‘हिन्दी का नमक।’ इधर के छपे कविता संग्रहों में यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है
क्योंकि कमलजीत ने अपने इस पहले संग्रह में ही अपनी भाषा और शिल्प को परम्परागत
प्रतिमानों से अलग रखते हुए बेहतर कविताएँ हिन्दी साहित्य समाज को देने की कोशिश की हैं। इस कवि के बिम्ब भी बिल्कुल अपने हैं - ताजगी का अहसास कराने वाले। इसीलिए कमलजीत की कविताओं से गुजरते हुए वह टटकापन महसूस होता है जो हमें सहज ही आकर्षित करता है। वह प्रकृति से तो जुड़ा ही है लेकिन आज की समस्याओं पर भी उसकी पैनी नजर है। कमलजीत
के इस नए संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है कवयित्री रश्मि भारद्वाज ने। तो आइए पढ़ते हैं रश्मि
भारद्वाज की यह समीक्षा ‘‘भूख और कलम अब भी मेरे पास है’ :
भाषा का सौम्य औज़ार लिए अपने समय से जूझती कविताएँ।
‘भूख और कलम अब भी मेरे पास है’ :
भाषा का सौम्य औज़ार
लिए अपने समय से जूझती कविताएँ
रश्मि भारद्वाज
‘कवि
ने कहा
बची रहे घास
एक आस
घास ने कहा
बची रहे कविता
सब बचा रहेगा’।
छब्बीस की उम्र में अपनी
पहली कविता रचने वाला कवि जब यह कहता है कि सिर्फ़ कविता के बचे रहने से सब कुछ बचा
रहेगा तो उसके पीछे जीवन का सघन अनुभव, लंबे संघर्ष और
हर तरह की परिस्थियों से गुजरने के बाद पायी गयी सघन अंतर्दृष्टि और परिपक्व
संवेदनशीलता होती है जो जानती है कि कविता की तरलता ही हमारे आस पास की शुष्क होती
जा रही मानवता को सहेज सकती है। कविता अधिक कुछ नहीं कर सकती बस इंसान को इंसान
बनाए रखने का प्रयत्न करती है जो पृथ्वी के पृथ्वी बने रहने के लिए जरूरी है। 2016
के ‘अनुनाद सम्मान’ से सम्मानित संग्रह
‘हिन्दी का नमक’ में युवा कवि कमलजीत
चौधरी ने अपनी संवेदनशील लेखनी द्वारा उसी
पृथ्वी को सहजेने के सपने बुने हैं। यहाँ हमारे समय का सशक्त चित्रण मिलता है तो
उसकी विसंगतियों पर करारा प्रहार भी लेकिन उस प्रहार में भी एक सजग चिंता है, एक दूरदृष्टि है और है आकर्षक, तरल भाषा जो अपने
प्रवाह में हमें दूर तक ले जाती है और कविताओं से गुजरने के बाद उसका प्रभाव हृदय
पर बना रहता है। एक सार्थक कविता का
उद्देश्य भी यही है कि वह दिलोदिमाग को छूए और अपने आस पास के वातावरण को
देखने-परखने के लिए एक सम्यक, संतुलित दृष्टि दे। सिर्फ़ भाषाई
चमत्कार में नहीं उलझाए बल्कि जीवन के ठोस धरातल पर मजबूती से खड़ी हो और मानवता के
पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करे, एक कर्णकटु चीख की तरह नहीं
बल्कि निरंतर किए गए सौम्य और दृढ़ प्रतिकार के रूप में। कमलजीत की कविताओं का स्वर
और उद्देश्य उसी परिवर्तन के आगाज़ के लिए प्रतिबद्ध है।
कवि कमलजीत चौधरी |
हम एक लहूलुहान समय में जी
रहे हैं, जहां हर मानवीय भावना पर बाज़ार हावी है, विकास की
अंध दौड़ में जो कदमताल नहीं कर पाते, बुरी तरह कुचल दिये
जाते हैं और ‘दुनिया एक छोटा गाँव तो हो गयी है’ लेकिन दिलों की दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं, ऐसे में
एक कवि ही यह कह सकता है:
‘तुम रखती हो हाथ पर हाथ
नदी पर पुल बन जाता है....
मेरा विश्वास है
एक सुबह तुम्हारी पीठ पीछे से सूर्य निकलेगा
तुम पाँव रखोगी मेरे भीतर
और मैं दुनिया का राशिफल बदल दूंगा’। (कविता के लिए)।
यह कविताएँ सपने देखती हैं, यहाँ उम्मीदों की उड़ानें हैं लेकिन अपने कठोर,
खुरदुरे यथार्थ की सतह को कभी नहीं छोडने का संकल्प भी है। यहाँ लोक की सुगंध है, अपनी मिट्टी, अपनी भाषा, अपनी
संस्कृति के लिए गहन लगाव है और उसके लिए कुछ कर गुजरने का उत्साह और अदम्य इच्छा
है। यही भाषा और संस्कृति के लिए प्रेम ‘लार्ड मैकाले तेरा
मुंह काला हो’ जैसी कविताओं में परिलक्षित होता है जहां कवि
इस बदलते दौर से चिंतित भी नज़र आता है जब उसका बच्चा अपनी बारहखड़ी की शुरुआत अपनी
मातृभाषा में नहीं करके एक उधार की भाषा में करता है लेकिन उसे अपनी जड़ों और अपनी
संस्कृति पर भरोसा है:
‘बच्चे! रो क्यों रहे हो
तुम आश्वस्त रहो
मैं दौर और दौड़ के फ़र्क को जानता हूँ
फिलहाल तुम कछुआ औए खरगोश की कहानी सुनो और सो
जाओ
सामूहिक सुबह तक जाने के लिए जो पुल बन रहा है
उसमें तुम्हारे हिस्से की ईंटें मैं और मेरे
दोस्त लगा रहे हैं...’।
रसूल हमज़ातोव ‘मेरा दागिस्तान’ में लिखते हैं ‘विचार वह पानी नहीं है, जो शोर मचाता हुआ पत्थरों पर
दौड़ लगाता है, छींटें उड़ाता है, बल्कि
वह पानी है जो अदृश्य रूप से मिट्टी को नाम करता है और पेड़ पौधों की जड़ों को
सींचता है’। कविताएँ भी ऐसी ही होनी चाहिए। यहाँ शब्दों के
भीतर बड़ी ही सफाई और कलाकारी से विचारों को बुनना पड़ता है ताकि वहाँ कविता का एक
आवश्यक बहाव उपस्थित रहे। कमलजीत अपनी कविताओं में यह काम बहुत दक्षता से करते
हैं। विचार यहाँ नमक की तरह हैं, बिलकुल अपनी सही मात्रा में
सूझ बूझ से डाला गया। मसलन यह कविता देखिए:
‘जीवन
में एक न एक बार हर आदमी को खिड़की से ज़रूर देखना चाहिए
खिड़की से देखना होता है अलग तरह का देखना
चौकोना देखना
थोड़ा देखना
एक ईमानदार कवि प्रकृति के
विभिन्न तत्वों के साथ अपने अस्तित्व को एकाकार करता है क्योंकि वह यह भलीभांति
जानता है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाने और उसकी अस्मिता के सम्मान से ही पृथ्वी
पर जीवन का सामान्य रह पाना संभव है। इन कविताओं से गुजरते आपको क़दम क़दम पर बोलते
चिनार, तितली और मधुमक्खी की व्यथाएँ, ओस में भीगा सुच्चा
सच्चा लाल एक फूल, पहाड़, नदी, पेड़, मछली जैसे प्रतीक मिलते हैं जिनकी ख़ुशबू से मन
एकाएक तरोताज़ा हो उठता है, वहीं एक आशंका भी मन में आकार
लेने लगती है, जब कवि चेतावनी देते हुए कहता है:
‘पक्षी, मछली और सांप को भून कर
घोंसले, सीपी और बाम्बी पर तुम
अत्याधुनिक घर बना रहे हो
पेड़ नदी और पत्थर से तुमने युद्ध छेड़ दिया है
पाताल, धरती और अंबर से-
तुम्हारा यह अश्वमेधी घोडा पानी कहाँ पीएगा’
कमलजीत बहुत रूमानी प्रेम
कविताएँ नहीं लिखते। यह कहा जा सकता है कि प्रेम यहाँ अंडरटोन लिए है लेकिन वह
अपनी पूरी शिद्दत के साथ मौज़ूद भी है। प्रेम यहाँ विश्वास है, वह आश्वस्ति है जो हर विपरीत परिस्थिति में भी आपके साथ अविचल खड़ा रहता
है, आपकी उँगलियाँ थामे दुरूह रास्तों पर भी हँसते-हँसते
गुजर जाता है। कवि आश्चर्य करता है कि
‘वे कहते हैं,
प्रेम कविताएँ लिखने के लिए प्रेम कविताएँ पढ़ो
कवि का प्रेम तो कुछ ऐसा
है जो आगे बढ़ते जाने के लिए संबल देता है, जो मैं–तुम का
फ़र्क भूलकर सर्वस्व समर्पण की बात करता है, जो दर्द को समझता
है और उसको अभिव्यक्त कर सकने की हिम्मत देता है:
‘मैं घाव था तुमने सहलाया भाषा हो गया
मैं क्या था क्या हो गया
मैं मैं था तुमको सोचा, तुम हो गया’।
स्त्री मन की अद्भुत समझ
है कवि के पास। स्त्री हृदय की, उसके अबूझ संसार की बहुत ही
संवेदनशील झलक इन कविताओं में मिलती है और उनसे गुजरते जहां एक ओर मन कहीं कराह भी
उठता है तो कहीं एक दर्द भरी वाह भी होंठों से अनायास ही निकलती है। हालांकि कवि
ने पारंपरिक स्त्री की उस सदियों से गढ़ी गयी छवि को तोड़ने की कोई उत्सुकता नहीं
दिखाई है और ना ही आधुनिक नारी का प्रतिबिंब यहाँ मिलता है लेकिन इन्हें पढ़ते हुये
यह जरूर आभास होता है कि ये शब्द लिखने वाला कवि कहीं मन से ख़ुद स्त्री हो उठा
होगा, तभी लिख पाया होगा ऐसा:
‘औरत के रास्ते को कोई खींचकर लंबा कर देता है
सीधे साधे रास्ते का सिर पकड़ उसे तीखे मोड़ देता
है
जिसे वह उंगली थमाती है, वह बांह थम लेता है
जिसे वह पूरा सौंपती है, वह उंगली छोड़ देता है
औरत की चप्पल की तनी अक्सर बीच रास्ते में टूटती
है
मरम्मत के बाद उसी के पाँव तले कील छुटती है
वह चप्पल नहीं बदल पाती, पाँव बदल लेती है.....
इरेज़र से डरती पर ब्लेड से प्रेम करती है औरत
....’
आज़ के इस भागते हुए समय
में जो कुछ भी हाशिये पर छूट रहा, जिसकी आवाज़ तकनीकी और विकास के तेज़ शोर में दब गयी है, ये कविताएँ उनकी आवाज़ बन जाने के लिए बेचैन दिखती हैं। उनके दर्द यहाँ
पंक्तियों के बीच से कराह उठते हैं, उनका भय यहाँ मुखर हो
उठता है। हमारे समय की यह विडम्बना है कि हम आँखें बंद किए बस आगे भागते जाना
चाहते हैं और हमारी इस दौड़ में किनका हाथ हमारे हाथों से छूटा जा रहा, कौन हमारे साथ भाग नहीं सकने के कारण घिसट कर गिर पड़ा है, कौन हमारे महत्वाकांक्षी पैरों के नीचे कुचला जा रहा, हमें इसकी जरा भी सुध नहीं। यूं कहें कि इस आत्मकेंद्रित समय में जो कुछ
भी हमारी स्वार्थ लिप्सा की राह में आ रहा, हम उसे मिटा देने
को कटिबद्ध हैं। ‘आते हुये लोग,
डिस्कित आंगमो, राजा नामग्याल, लद्दाख, पहाड़ के पाँव, सीमा जैसी कविताओं में उन्हीं छूट
रही उँगलियों को मज़बूती से थामे रखने की कामना है, उनके
अनसुने दर्द को दुनिया के सामने लाने का संकल्प है। यह इच्छा है कि अब भी बचे रह
पाएँ, ‘किताब, डायरियाँ
और कलम’, पिता के उगाये आम के पेड़, माँ
के कंधे और दादी का मिट्टी का घड़ा। और कवि के अंदर यह संकल्पशक्ति, यह जिजीविषा बची है तो वह इसलिए कि उसकी जीभ किसी मिठास के व्यापारी का
उपनिवेश नहीं, वह हिन्दी का नमक चाटती है’।
(साभार-बाखली)
सम्पर्क -
ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com
ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-09-2016) को "खूब फूलो और फलो बेटा नितिन!" (चर्चा अंक-2464)) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दोस्त रश्मि जी , संतोष जी और गिरीश जी ; संपादक बाखली समेत अपने सभी पाठकों का दिल से आभार व्यक्त करता हूँ . साथियो सलाम और शुभकामनाएँ !!
जवाब देंहटाएं- कमल जीत चौधरी .
Bahut sunder kavitao ka sanklan
जवाब देंहटाएंBahut sunder kavitao ka sanklan
जवाब देंहटाएंBahut sunder kavitao ka sanklan
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर संकलन, है मेरे पास
जवाब देंहटाएंउतनी ही सच्ची समीक्षा रश्मि की.........