प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का आलेख – ‘आओ अंबेडकर से प्यार करें’।
लाल बहादुर वर्मा |
प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा के
आलेखों का एक सिलसिला हमने पहली बार पर पिछले दिनों आरम्भ किया था। इस कड़ी में दो आलेख पहले ही प्रस्तुत
किये जा चुके हैं जिसे पाठकों के बीच अपार लोकप्रियता मिली। इसी कड़ी को आगे बढाते
हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रोफ़ेसर
लाल बहादुर वर्मा का
यह आलेख ‘आओ अम्बेडकर से प्यार करें।’ अपने इस आलेख में लाल बहादुर जी ने सरल सहज
भाषा में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के जीवन संघर्ष को उकेरते हुए आज के समय में उनकी
उपादेयता पर प्रकाश डाला है। तो आइए पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का यह आलेख – ‘आओ अंबेडकर से प्यार
करें’।
आओ अंबेडकर से प्यार करें
लाल बहादुर वर्मा
-हम किसे याद करते हैं?
-जिससे प्यार करते हैं?
-हम किससे प्यार करते हैं?
-जिससे अपनापन लगता है।
-हम सबसे अधिक किससे प्यार करते हैं?
-अपनी माँ से!
-क्योंकि उसने हमें जन्म दिया है, वह न होती तो हम भी नहीं होते।
-कुछ लोग धरती को, प्रकृति को, देश
को भी माँ कहते हैं।
-ठीक ही है धरती, प्रकृति और भी माँ जैसे ही तो हैं। हम ही नहीं, हमारी माँ भी उन्हीं के कारण हैं।
-इस तरह तो क्या कुछ विचार माँ जैसे नहीं होते? क्या डॉ. अम्बेडकर के विचार न होते तो
इस देश के दलित वैसे ही होते जैसे आज हैं? भले ही उनकी आर्थिक स्थिति न बदली हो पर क्या उनका नया जन्म नहीं हुआ
है? क्या उनमें आत्म-सम्मान नहीं पैदा हुआ? क्या वे अपनी स्थिति के लिए भाग्य को
जिम्मेदार मान अब चुप बैठने को तैयार हैं? क्या उनमें आजाद होने की अपनी स्थिति सुधारने की, अपनी परिस्थितियों से, अपने दुश्मनों से लड़ने की इच्छा और
हिम्मत नहीं पैदा हो गई है? क्या पहले ऐसा संभव था?
-नहीं,
निश्चित
ही नहीं। पहले अधिकांश लोग मान कर चलते थे’ ‘करम गति टारे नहीं टरी।’ अब जो किस्मत में लिखा है वह तो होगा ही। कोई शूद्र अपनी मेहनत से
कुछ कर भी लेता तो राज करने वाले लोग उसका जीना मुश्किल कर देते। कहते हैं जब राजा
राम थे तो एक शूद्र ने ज्ञान प्राप्त कर लिया। पुरोहितों ने बताया कि उसे ज्ञान
प्राप्त करने का हक नहीं है। उसके ज्ञान प्राप्त करने के कारण देश में अनर्थ हो
रहा है और राजा राम ने उस शूद्र शम्बूक को जान से मार दिया। कौन जाने वही अपने
जमाने का डॉ. अम्बेडकर हो जाता।
दलित ही खेती करते, घर और सड़क बनाते, मेहनत वाले सारे काम करते, पर वह समाज में सबसे नीचे रहते-यहां तक
कि अछूत माने जाते। उनका कोई सम्मान नहीं होता था। वह दूसरों के सामने बैठ भी नहीं
सकते थे। उनकी छाया से भी बचा जाता। अछूत औरतों से बलात्कार तो होता था - भला बिना
छुए बलात्कार कैसे होता होगा। पर राज करने वाले इसी तरह का पाखंड करते ही रहते
हैं।
यह सिलसिला हजारों साल तक चलता रहा।
फिर आज से डेढ़ सौ साल पहले हुए ज्योतिबा फुले। उन्होंने लिखा कि दलितों की ‘गुलाम गिरी’ नहीं चल सकती। फिर हुए डॉ. अम्बेडकर
उन्होंने शम्बूक की ही तरह अध्ययन किया। दुनिया बदल गई थी इसलिए उन्हें मारा नहीं
जा सका। और उन्होंने इतना पढ़ा-लिखा जितना कम ही सवर्ण भी कर पाये हैं। उन्होंने
जाति व्यवस्था को ही इस देश की मुख्य बुराई बताया और उसे उखाड़ने में जुट गए।
उन्होंने दलितों को बताया कि उनकी दुर्दशा का कारण भाग्य नहीं इस देश की सामाजिक
व्यवस्था है। उन्होंने दलितों को एक नई पहचान और एक तरह का नवजीवन दिया।
वह पूरे दलित समुदाय की सुयोग्य और
जिम्मेदार माँ जैसे थे। फिर तो उनके प्रति प्यार उमड़ना चाहिए। पर देखा क्या जा रहा
है ? उनसे प्यार करने के बजाय उनकी पूजा की
जा रही है - जहां भी संभव हो उनकी जैसी एक मूर्ति लगा दी। उन्हें दुनिया के सबसे
बड़े लोकतंत्र के संविधान निर्माता की तरह स्थापित कर खुद भी थोड़ा गौरवान्वित हो
लिए और 14 अप्रैल को उनकी मूर्ति पर फूल चढ़ा
दिया। क्या यह काफी है?
असल में जिसकी हम पूजा करते हैं उसे
अपने से बहुत बड़ा मानते हैं। मान कर चलते हैं कि हम तो उन जैसे बन नहीं सकते, जबकि जिससे हम प्यार करते हैं वह हमारे
जैसा ही होता है। हम भी उस जैसा कर सकते हैं। पूजा हमें निर्भर बनाती है, जबकि प्यार जिम्मेदार और आत्मनिर्भर
बनाता है।
भीमराव का जन्म म्हार परिवार में
इन्दौर के पास स्थित सैनिक छावनी (महू) में हुआ था। वहां उनके कबीरपंथी पिता रामजी
सकपाल सूबेदार थे। म्हार महाराष्ट्र में सबसे बड़ी अछूत जाति थी और भारत में
ब्रिटिश राज न होता तो उन्हें फौज में नौकरी करने और अपने बच्चों को पढ़ाने का कभी
मौका नहीं मिलता। दलित लोग अकारण ही ब्रिटिश राज के प्रति कृतज्ञता नहीं प्रकट
करते।
भीम राव अम्बेडकर |
उन्नीसवीं सदी में म्हारों ने हिन्दू
धर्म के अंतर्गत रहते हुए भी अपने उत्थान के लिए कई प्रयास किए थे। कबीर पंथ
स्वीकारना भी एक ऐसा ही प्रयास था। पर म्हारों के प्रति सवर्णों का नजरिया बदल
नहीं रहा था। बालक भीमराव को प्रतिभा के बावजूद बार-बार अपमानित होना पड़ता था।
बहरहाल, वह विख्यत एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक
होने के बाद बड़ौदा के शासक की सहायता से अमरीका और इंग्लैंड से कानून की सर्वोच्च
डिग्रियां प्राप्त कर सके। वह लगातार कानून, राजनीतिविज्ञान, समाज विज्ञान और दर्शन का अध्ययन करते रहें और भारत ही नहीं पश्चिम
के विचारकों की मदद लेते हुए अपनी सुधारक की भूमिका की बौद्धिक तैयारी करते रहे।
26 साल की उम्र में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के सामने शिकायत रखी कि
भारतीय समाज का सबसे बड़ा विभाजन है अछूत और गैर-अछूत के बीच और अछूत की समज में
गुलाम जैसी स्थिति है। पर समाज ऐसा बना दिया गया है कि शूद्र कभी शिकायत भी नहीं
कर सकता।
उन्होंने ‘मूक नायक’ नाम से एक पत्रिका शुरू की ताकि जनता
तक बातें पहुंचे और वह अपनी जबान खोलने की हिम्मत जुटा पाएं। कुछ दिनों बाद
उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ नाम से एक पाक्षिक शुरू किया पर ये
प्रयास बहुत दिनों तक नहीं चल पाए।
वह सामाजिक नेता के रूप में महाड़
सत्याग्रह के बाद स्थापित हुए। वह ‘पहला अछूत मुक्ति आंदोलन’ कहा जा सकता है। आंदोलन एक सार्वजनिक तलाब से पानी भरने के अछूतों के
अधिकार से शुरू हुआ था। आंदोलन असफल हो गया पर अम्बेडकर अछूतों को जगाने में सफल
हो गए। मनुस्मृति वह ग्रन्थ है, जिसने हिन्दू समाज को पूरी तरह बांट कर दलितों और नारियों को पशु से
भी नीचे का दर्जा दिया है। आज भी वह ब्राह्मणवाद का मानसिक आधार है। दलितों का
हौसला इतना बढ़ गया कि उन्होंने मनुस्मृति को कई जगह जला कर विरोध प्रकट किया।
इस बढ़ती जागृति से उस समय देश की आजादी
का नेतृत्व करने वाली पार्टी कांग्रेस ने अछूत-प्रथा के अन्त की बात तो मान ली पर
इन जातियों को कोई विशेष अधिकार देने को तैयार नहीं हुई। भारत की आजादी के सवाल को
ले कर लंदन में भारत के प्रतिनिधियों के साथ ब्रिटिश सरकार ने ‘राउण्ड टेबल’ बैठकें कीं। उसमें अम्बेडकर ने स्पष्ट
कह दिया कि दलित वार्गों को राजनीतिक कारणों से हिन्दू कहा जाता है पर उन्हें
हिन्दू माना नहीं जाता। इसलिए उन्हें हिन्दुओं से अलग दर्जा मिलना चाहिए। अंग्रेज
सरकार ने यह बात मान ली तो गांधी जी ने आमरण आनशन शुरू कर दिया कि वह जीते जी
हिन्दू समाज को टूटने नहीं देंगे। वह दलितों को ‘हरिजन’ कहते थे पर पारम्परिक वर्णाश्रम धर्म
में विश्वास बनाए हुए थे। वह तो भंगियों को भी अपने काम को पवित्र समझ कर करते
जाने को कहते थे। इसलिए दलित उन पर उस तरह विश्वास नहीं करते जैसे अम्बेडकर पर।
लेकिन गांधी जी इतने बड़े नेता बन गए थे कि अम्बेडकर को झुकना पड़ा और दलितों को
हिन्दुओं से अलग करने की माँग छोड़नी पड़ी।
अम्बेडकर बहुत दुखी हुए इस समझौते से
और लगातार सोचने लगे कि दलितों को हिन्दू धर्म की घुटन से बाहर आना चाहिए। उनके
अनुसार मनुष्य को किसी न किसी प्रकार के धर्म की तो जरूरत हो सकती है, पर वह सिद्धांतों वाला धर्म होना
चाहिए-कर्मकाण्डों वाला नहीं। लगातार सोचने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म को
स्वीकारा और अपने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध हो गए, क्योंकि उन्हें बौद्ध धर्म सबसे अधिक
तर्कसंगत और आडंबरहीन लगा। उसी में दुख का कारण ढूंढ़ कर उसके निवारण की बात थी।
दलितों को राजनैतिक रूप से संगठित करने
के लिए उन्होंने एक पार्टी भी बनाई जो एक तरह से किसान-मजूदर पार्टी थी, जिसका नाम झंडा कम्युनिस्टों के झन्डे
की तरह लाल था। इस ‘इंडिपेंडेंट रिपब्लिक’ का नाम और स्वरूप बदलता गया और अंत में
वह रिपब्लिकन पार्टी कहलाई।
भारत की संविधान सभा में अम्बेडकर इसी
उद्देश्य से शामिल हुए थे कि आजाद हिन्दुस्तान के लिए बनने वाले संविधान में
दलितों के हित की रक्षा हो सके। हालांकि उन्हें संविधान की मसविदा सममित का
अध्यक्ष बना दिया गया था और इसीलिए उन्हें भारत का संविधान निर्माता कहते हैं पर
वह तो इस संविधान से सबसे अधिक असंतुष्ट थे और यहां तक कह दिया था कि अगर इसे
जल्दी ही बदला नहीं गया तो वह निरर्थक हो जाएगा।
भारत को गांधी जी ग्राम प्रधान देश
कहते थे। कवि लोग गाते थे ‘भारत माता ग्रामवासिनी।’ पर अम्बेडकर ने देखा कि गांव में ही सामाजिक गैर बराबरी और जकड़ सबसे
अधिक मजबूत है। गांव में दलित रोज-रोज अपमानित होता है। इसलिए उन्होंने दलितों को
गांव छोड़ने का आह्नान किया। शहरों में मलिन बस्तियों में रोज-रोज अनगिनत कठिनाइयां
झेलते हुए भी दलित अपने गांव की अपेक्षा कम अपमानित महसूस करते हैं।
बहरहाल, अम्बेडकर की वास्तविक उपलब्धि भारत का
संविधान नहीं दलितों में पैदा हुआ आत्म-सम्मान है। उन्होंने ‘शूद्र कौन थे’- लिख कर जाति-व्यवस्था की पोल खोल दी और ‘जाति व्यवस्था का अंत’ लिख कर स्पष्ट कर दिया कि जाति
व्यवस्था का खात्मा हुए बिना न केवल दलितों का बल्कि सारे भरतीय समाज का कल्याण
नहीं हो सकता।
इस देश में सबसे पिछड़ा समझे जाने वाले
दलितों ने सबसे पहले सारे मानव समाज को सामने रखा था। ज्योतिबा फुले ने दलितों की
गुलामगिरी के विरुद्ध जब आवाज उठाई थी तो उन्होंने दूर-दराज अमरीका के काले लोगों
के नस्लवाद विरोधी संघर्ष से अपने को जोड़ा था। उनके लिए अमरीका के अफ्रीकी मूल के
काले लोगों का श्वेत शासकों के विरुद्ध संघर्ष उनके लिए प्रेरणा का स्रोत था।
वास्तव में दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं- एक वे जो अपनी कमाई से किसी तरह जी
पाते हैं और दूसरे वे जो दूसरों की कमाई पर मौज करते हैं। बीच में एक भारी मध्य
वर्ग है, जो ऊपर वालों की तरह बनने के लिए
उन्हीं के हथकन्डे अपनाता है और दलितों के विरुद्ध खड़ा होने में तनिक नहीं हिचकता।
उन्हें भी अम्बेडकर से मुक्ति संदेश मिल सकता है।
अम्बेडकर ने उसी तरह समस्या का
विश्लेषण किया था जैसे मार्क्स ने पूंजी का। दोनों का उद्देश्य था कि दुनिया बदले
और मेहनत करने वालों को उनका हक मिले और वे सारे आनंद पा सकें, जो इस दुनिया में ही मिल सकते हैं और
जिसकी मेहनत करने वाले लोग ही नींव रखते हैं। दोनों, सबसे दुखी और अपमानित लोगों की विशेष
रूप से बात करते थे पर उनका मतलब यह था कि यह पूरी दुनिया बदले ताकि अन्याय की जड़
ही खत्म हो जाए। पर दोनों के अनुयायियों की सोच छोटी होती गई और नतीजा यह निकला कि
सभी बड़ी-बड़ी बाते करते हुए छोटे-छोटे तात्कालिक लोभों के चक्कर में फंसते गए।
आज जरूरत यही है अम्बेडकर को सारे विश्व
के दलितों और सारे समाज के नेता के रूप में देखा जाए और सारी दुनिया को बदलने के
काम में जुटा जाय-तभी दलित की दुनिया भी बदलेगी।
आज लगता है कि अम्बेडकर सभी पार्टियों
के लाडले हो गए हैं,
क्योंकि
सबको लगता है कि अम्बेडकर के अनुयायी जितने संगठित और चुनाव के समय जितने मददगार
हो सकते हैं, उतना और कोई समुदाय नहीं। इससे
अम्बेडकर का प्रभाव तो चिन्हित होता है, इसी से अम्बेडकर के अनुयायियों की परिपक्वता की भी परख हो सकेगी।
उन्हें भी अपनी संकीर्णताओं और तात्कालिक लाभ के लोभ से ऊपर उठ कर पूरे भारतीय
समाज के रूपांतरण की अगुआई करनी होगी।
अम्बेडकर से प्यार करने का मतलब
1. हीन भाव से पूरी तरह मुक्त होना, इसलिए अपने को किसी से कम न समझना।
2. अपने को ही नहीं, दूसरों को भी, औरतों और बच्चों को भी, सबके बराबर समझना।
3. न अत्याचार सहना, न अत्याचार करना - न घर में न बाहर में।
4. अपने को लगातार पहले से बेहतर बनाते
जाने की कोशिश करते रहना। जैसा कि अम्बेडकर ने किया था।
5. यह मान कर चलना कि मिलजुल कर रहने और
संघर्ष करने से ही दुनिया बेहतर होगी।
6. जैसे जीने की लड़ाई रोज-रोज लड़नी पड़ती
है, वैसे ही अपनी जिन्दगी और दुनिया को
बदलने की लड़ाई रोज-रोज लड़नी पड़ेगी।
7. जो अम्बेडकर कर सकते थे, हम भी कर सकते हैं - उनसे भी आगे जाने
की कोशिश करें।
सम्पर्क –
मोबाईल - 09454069645
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-09-2016) को "शब्द दिन और शब्द" (चर्चा अंक-2467) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
म्हार की जगह महार होना चाहिए.यह टाइपिंग त्रुटी है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन आलेख.
जवाब देंहटाएंAbsolute realty
जवाब देंहटाएंजबरदस्त लेख।
जवाब देंहटाएंBaba sahab samvidhaan se sabse adhik asantust they aur yeha tak kah diyaa thaa ki agar isey jald hi badlaa nahi gayaa to wah nirarthak ho jaayega -wakya gale se nahi utartaa. Kyaa mai jaan saktaa hoon ki yeh baat baba saahab ne kahaan kahi yaa likhi....
जवाब देंहटाएंLekh bahut achchhaa hai kewal uparlikhit baat ko chhodkar.....
जवाब देंहटाएंअच्छा है !
जवाब देंहटाएंकई चीज़ें इतिहास में नहीं मिलती / या फिर मिलती हैं तो बहुत ही हलके रूप में / महादेव आंबेडकर को यहां भी छोड़ दिया गया है /
जवाब देंहटाएंसर को एक बार सुना था। और आज पढ़ भी लिया। शानदार लेख है।
जवाब देंहटाएंसरल सहज और सूचनाप्रद
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