प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा की कविताएँ

प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा


जन्म-तिथि 01/03/1981
शिक्षा- एम.ए., बी.एड.,पी-एच.डी. (अर्थशास्त्र)
व्यवसाय- सरकारी सेवा
प्रकाशन तद्भव, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, बया, परिकथा, कादम्बिनी, शुक्रवार, यात्रा, कथादेश, समयांतर, हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर, दैनिक-भास्कर, जनपथ, चौथी दुनिया, गुंजन, कविता-प्रसंग आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख व टिप्पणियां प्रकाशित. राष्टीय-प्रसंग में समकालीन कवियों पर श्रंखला, जनपथ पत्रिका में स्तम्भ लेखन.
अयन प्रकाशन द्वारा फेसबुक के कवियों पर आधारित एक पुस्तक के कवि. आकाशवाणी और दूरदर्शन से कविताओं और टिप्पणियों का प्रसारण 


भूमंडलीकरण के पश्चात स्थितियाँ काफी बदली हैं. कहना न होगा कि यह दुनिया भी काफी कुछ बदल गयीं हैं. हमारे जीवन से जुड़ी तमाम चीजें, घटनाएँ, परिदृश्य मसलन ढेंकी हों या कौवे, नदी हो या बरगद, तीज त्यौहार हों या लोक कथाएं-लोक गीत जो कभी हमारी जिन्दगी के अटूट हिस्से हुआ करते थे, वे सब या तो गायब होते जा रहे हैं, या हमारी बेइंतिहा शोषणपरक स्वार्थपरकता के कारण लुप्तप्राय होते जा रहे हैं. दुनिया और जीवन से ही नहीं स्मृतियों से भी. शहरीकरण के दौर से आगे बढ़ते हुए इस भूमंडलीकरण ने जैसे सब कुछ जमींदोज कर कर दिया है. इसे बचाने की एक चुनौती हम सबके सामने है. इनके बिना दुनिया क्या वह दुनिया रह पाएगी जिससे हमारे इतिहास ही नहीं बल्कि हमारे प्राचीनतम सभ्यताओं की एक समृद्ध कड़ी जुडी हुई है. कवि प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा इस संक्रमणकालीन समय के साक्षी रहे हैं. इनकी कविताओं से गुजरते हुए हमें एक भरोसा होता है कि यह दुनिया बहुत खूबसूरत है. वे अपनी एक कविता में लिखते हैं - 'मैं वापस जाना चाहता हूँ अपने घर'. वह घर जो हमें सुकून देता है, जहां रिश्तों की गर्माहट बची होती है, जो दुनिया की वो सबसे खूबसूरत जगह होती है जहाँ आजीवन रहते हुए भी हम ऊब नहीं, बल्कि नित-नवीनता महसूस करते हैं. इस दुनिया की खूबसूरती का राज इसका एकरूप होना नहीं, बल्कि विविधवर्णी होना ही है. तो आइए आज हम रू-ब-रू होते हैं प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा की कविताओं से. 
                  

प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा की कविताएँ

घर

वह बचपन का कोई दिन था
जब पिता के सपने ने मुझे दूर कर दिया था घर से
रही होगी अपनी भी कोई इच्छा अचेतन में कहीं
घर को इसकी जरूरत भी थी

मुझे भी जरूरत हो सकती है घर की
यह बात किसी के जेहन में नहीं थी

विस्थापितों-सा भटकता रहा
अपना तम्बू लिये 
धरती के इस कोने से उस कोने तक

सीमाएं कभी मेरी दृष्टि में नहीं रही
न शासकों की भाषाएँ
कोई चमकता ख्वाब भी नहीं

मैं अपने दरकते सीने के साथ
हर बार घर जाने की इच्छा लिये
घर से दूर होता रहा

खून और आंसुओं से सना रहा मेरा स्वप्न संसार
जिसमें दीमकों की लगातार आवाजाही थी
बाद, बहुत बाद में समझ में आया
किसी एक ख्वाब के सच होने में
किसी दूसरे ख्वाब का टूट जाना भी छिपा रहता है

शहरों की भटकन में नहीं था मेरा घर
मैं जिस घर में रहता था वहां से बहुत साफ-साफ
दिखता था क्षितिज और आकाश

आज शरणार्थी शिविरों से भरे इस शहर में
जब हर तरफ उड़ रही है निराशा की धूल
और उम्मीद पर भारी पड़ रही है ऊब
अनंत आकाश के अंतहीन सपने को छोड़
मैं वापस जाना चाहता हूँ अपने घर


ढेंकी

आलतू-फालतू और अगड़म-बगड़म की चीजें पड़ी हैं वहां
फटकना भी नहीं चाहता कोई उसके आस-पास
धुल और गन्दगी ने मकड़ियों के साथ बना लिया है वहां
एक छोटा-सा साम्राज्य

घर में सबसे बेकार की जगह है वह
बिलकुल उपेक्षित
बच्चे जो कबाड़ के प्रति एक अतिरिक्त लोभ रखते हैं 
जब भूले-भटके पहुँचते हैं वहां
तो डांट कर वापस बुला लिए जाते हैं तुरत 

यह घर का वह कोना है
जहाँ कभी एक ढेंकी रहती थी
जहाँ से उठती थी एक गंध
ताजा चावल और भूसी की  

हम माँ के साथ ढेंकी कूटते
धान, बोंकड़ी और छांटी की हर प्रक्रिया
हमें रोमांचित करती
हम भूसी और चावल के साथ खेलते
खाते गरमा-गरम मांड-भात और घी
सब कुछ अच्छा लगता

अब ढेंकी नहीं है
कहीं नहीं है
यंत्रों और तकनीक की इस दुनिया में
अब कोई स्थान नहीं है ढेंकी का

मैं भावुक नहीं हो रहा हूँ
बस एक कसक है - माँ के गीतों की
पड़ोसनों के बतियाने की
ताजा चावल के महक की
और सबसे बढ कर भूसी को उड़ाने की 

तब सृजन की प्रक्रिया में साहचर्य था 
जब ढेंकी थी तो ये सारी चीजें थी.


पुनपुन

बिलकुल पास तो नहीं बहती थी तुम
पर तुम्हारे ख्याल से कभी जुदा नहीं पाया खुद को
खेतों मैदानों से गुजरती स्मृतियों में भी बहती रही तुम लगातार
बहुत बचपन की यादें हैं जब
तुम्हारा पानी किनारों को तोड़ कर आता था
हमारे गाँव की सरहद पर

पानी लाता था ढेर सारा उल्लास
छोटी-छोटी मछलियाँ, सीप और घोंघे
बहुत मुलायम और नर्म मिट्टी का कोई छोटा-सा हिस्सा
धान के अधडूबे खेत     
पानी की धार पर जाता कोई डोडवा
अपने बैलों को लेकर बाजार से लौटते पैकार

सोन का लाल पानी भी आता था कभी-कभी
पुनपुन के इस हिस्से में
और रह जाता था महीनों
कभी-कभी तो वर्षों तक

तुम्हारे बाढ़ को ले कर कोई गुस्सा नहीं था हमारे भीतर
और न ही किसी नदी के कोख से पैदा होने का कोई गुरुर
बहुत छोटे थे हम और शायद हमारे पूर्वज भी
मिथक हमें सिर्फ इतना बताते हैं कि
कभी पांडवों ने जल दिया था अपने पूर्वजों को
तुम्हारे घाट पर
और कवि बाण जब उबते थे सोन से
तुम्हारे ही पानी से बुझाते थे अपनी काव्य प्यास

पुनपुन बहुत छोटी नदी हो तुम
नदियों के इतिहास में दर्ज नहीं है तुम्हारा नाम
स्वर्ण और चांदी के अक्षरों में
नक्शे में भी शायद ही दिखे तुम्हारी
पतली सी लकीर

लेकिन जो लकीर तुमने खींच रखी है
हमारे दिलों में
वह इन अकादमिक रेकार्डों से
कहीं ज्यादा गहरी है
और यह कविता इसकी एकमात्र गवाही नहीं है
पुनपुन, बहती रहो तुम इसी तरह हमेशा
धरती के इस हिस्से में प्रवेश करती रहो
मनुष्यों और फसलों के भीतर
ज्ञान और सूचना के इस अराजक समय में
सींचती रहो हमारी सम्वेदना.


नेपाल में भूकंप

1.

चारो तरफ बिखरे हुए मलबे में 
वह बूढी औरत क्या ढूढ रही है
दो दिनों से कुछ भी नहीं खाया उसने
खो चुकी है वह अपनी दुनिया
उस औरत के आंसू आसमान से गिर रहे हैं
क्योंकि धरती खो चुकी है
उसके आंसुओं को समझने की ताकत
भूख और प्यास से ज्यादा उसकी आँखों में
अकेलेपन की बेबसी है
प्रार्थना में जुड़े उसके दोनों हाथ
बस यही दुआ मांग रहे हैं
कि उसे भी ले चला जाए उसके परिजनों के पास.

2

जब तबाही आती है तो सिर्फ घर ही नहीं गिरता
बिखरे हुए ढूहों में सिर्फ लोग ही नहीं मरते
हवा में सिर्फ सिसकियाँ और रुदन ही नहीं होते
विनाश के समय
जब तबाही आती है तो एक स्वप्न भी बिखर जाता है
ठिठकते-डगमगाते थम जाते हैं चलते हुए पाँव
बुझ जाती है छोटी सी उम्मीद की किरण
हवा में बिखरे होते हैं बहुत सारे सच
आंसुओ में लिपटे हुए
टूटते हुए हर पत्थर के साथ बहुत कुछ टूटता है
स्वप्न और उम्मीद और सच भी
टूटता है कहीं न कहीं
मन, आत्मा और शरीर के साथ
जब धरती दरकती है
तब बहुत कुछ दरक जाता है.

3.

यहाँ मंदिर का एक घंटा था
बड़े शोर के बाद सन्नाटे में डूब गया

एक गली थी यहाँ रौनके-जहाँ से भरी हुई
अब जिन्दा और मुर्दा लाशों से पटी पड़ी है

एक बाग़ था यहाँ शाम की चहलकदमी से गुलजार
अब वीराने में डूबा जख्मों से सराबोर है

एक लड़की थी यहाँ नीली आँखों वाली हंसती मुस्काती
कल शाम से ही उसकी आँखों में पत्थर बसा है

एक शहर था यहाँ काठ का बना हुआ सदाबहार
कल शाम से ही वह सिर्फ काठ का हो गया.

4.

बिखरे हुए मलबे में दबी हुई खिड़कियाँ
और दरवाजे सभी काठ के हैं
दूर-दूर तक बिखरे हुए पत्थरों और ढूहों के बीच
सिर्फ काठ के टहलने की आवाजें हैं
जो दब गए इन मलबों में वे काठ बन गए
और जो जिन्दा बच गए वे काठ बन जीने को अभिशप्त

‘आखिर हम सब काठ के पुतले हैं’-
काठ के इस शहर में काठ के बीच रह कर 
हम जान पाते हैं काठ के इस सच को.




कव्वे और मोबाइल

मोबाइल की सुविधाओं के बारे में पूछिये मत
अब हर आये गये की खबर रहती है पहले से ही
कहाँ रहता है अब किसी के आने का उत्साह
और आप रोक भी नहीं सकते जाने वाले को
सब कुछ तय रहता है पहले से ही अक्सर
मुश्किल है फर्क करना सुविधाओं और दुविधाओं में
घटती हुई हर घटना सूचनाओं में बदल दी जाती है तुरंत
उँगलियाँ हर वक्त दबाती ही रहती है मोबाइल के बटन को
मेरी आत्मा भी दबाती है बहुत कुछ
इतना बतियाता हूँ दिन भर सबसे
कि बात करने की इच्छा ही नहीं होती
चाहता हूँ कुछ देर अकेले में बैठना 
ऐसे समय में कौवे याद आते हैं
छत की मुंडेर पर इन दिनों दीखते भी बहुत कम हैं
उनकी हर कर्कश आवाज से जुड़ी है
किसी आत्मीय के घर आने की याद
हम अक्सर बुलाते थे कव्वों को छत पर
रोटी और चावल के साथ
माँ कहती भी है- कहाँ गये कव्वे
कव्वे कहाँ गये
यह बात सिर्फ कव्वे जानते हैं
वे जानते हैं सीमित हो गयी है उनकी भूमिका
और उनका काम
जब से बढ़ा है मोबाइल
घर की छतों पर अब उनका इन्तजार नहीं किया जाता.


मीठा कुआँ

दिनों बाद आज बैठा हूँ
कुएं की जगत पर
कीचड़ और गाद के ऊपर
मुश्किल से थोडा-सा जल है
और दूर पश्चिम में जाती सूर्य की किरणें
कुआँ इस समय पीलिया के किसी मरीज-सा दिख रहा है
एक सन्नाटा है हवा में इस वक्त
और थोड़ी कंपकपी भी
कुएं के अटल गह्वर की ओर मुंह कर के
मैं एक आवाज लगाता हूँ
कुआँ लौटा देता है
मेरे मुंह से निकली सारी ध्वनियाँ
लगता है कुआँ मिला रहा है मेरी याद से अपनी याद
यह वक्त एक उलझे हुए ऊन का एक गोला है
और मैं इस समय उसका कोई सिरा ढूढ रहा हूँ
मेरे गाँव का सबसे पुराना कुआँ था यह
ठंढे और मीठे जल से भरा
हम तक पहुँचाता धरती की कोख का पानी
कीचड़ और गाद से भरा 
अब खुद प्यासा
यह कुआँ अब खाली है और मैं
इस खालीपन को लगातार पसरते हुए पा रहा हूँ
कुएं के भीतर भी और कुएं के बाहर भी.


अगरबत्ती

चूल्हे की धीमी आंच पर पक रहा है चावल
चार बच्चे खड़े हैं वहां
उन्हें इन्तजार है देगची के उतरने का
उनके बाजु में एलुमिनियम के कटोरे पड़े हैं
बच्चों की ख़ामोशी से एक सन्नाटा निकल रहा है
चावल की महक से सन्नाटे में रोमांच है
दूर स्कूल का तीसरा घंटा बजा है
सबसे छोटा बच्चा सबसे ज्यादा चिंतित है
वह जानता है कटोरा सबसे पहले उसी का भरेगा मांड से
वही सबसे पहले लायेगा राख
गंध की शीशी भी वही चुनेगा
बाकी उसका अनुसरण करेंगे
तैयार होंगी अगरबत्तियां
कई तरह की गंध और रंग वाली अगरबत्तियां
जब जलेंगी
मन्दिर मस्जिद और चर्चों में
प्रसन्न होंगे शिव, विष्णु, ईसा, हजरत और तमाम भगवान्
अगरबत्तियों की महक से ढंक जाएँगी
ईश्वर के पास की बदबू
वह थोड़ा ज्यादा पवित्र हो जायेगा
छोटा बच्चा तेजी से चलाता है अपने हाथ
पीढ़े पर तेजी से फिसलती है सींक 
वह हँसता है साथ वाले बच्चों पर
वे धीमे हैं बात और काम दोनों में
अगरबत्तियों का निर्माण बच्चों के लिए एक खेल है
जहाँ वक्त उतनी ही तेजी से फिसलता है
जितनी तेजी से पीढ़े पर सींक
न आग न ताप न विस्फोट
जहाँ भी जलती है बहुत धीमे जलती है अगरबत्ती.


पिता

वह शनिवार होता था
जब पिता लौटते थे हाट से
लटकाए हाथ में झोला
झोले में पड़ी रहती थी
हमारी खुशियाँ, छोटी की उत्सुकतायें
माँ की नाराजगी, व्यस्तताएं
पिता को सब कुछ सँभालने का हुनर पता था
शनिवार को ही तय होता था
उनका इतवार
अपनी पुरानी सायकिल पर वे नाप
आते न जाने कितनी ही दूरियां
पास पड़ोस सगे संबंधियों के बीच बड़े लोकप्रिय थे पिता
जिसका फायदा हमें मिलता अक्सर
उनके साथ सैर की हमने
न जाने कितने शहरों की कितनी गलियों की
सुनी कितने ही लोगों की बातें
चाँद तारों से भरी रातों में
समय के इस मोड़ पर नहीं हैं पिता
याद आ रही है एक-एक बातें रुलाई के साथ
अब शनिवार तो है गायब हो गया है इतवार
सभी नाराज हैं मुझसे
मित्र, पत्नी, बच्चे
कहाँ से लाऊँ इन्हें सँभालने का हुनर
अब तो काटने को दौड़ता है बाजार.


 
फगुआ के बिहान

खत्म हो गया है फगुआ
थक कर सो गया है चैत की गोदी में
उदास है मोहना, रमेसर और सुरज्जन
सभी तो आये थे इस बार
हुलस कर साड़ी ली थी भौजी ने
भतीजी चढ़ गयी थी गोद में
चाची नें औंऊछां था उसे
सबने गाई थी होली
खाया था मीट-भात
कहाँ था बाजार-
एक हूक-सी गले में उठ रही है बार-बार
पता नहीं अगली बार कब लौटेगा
तीन दिन तो लगते हैं आने में मद्रास से
आखिर इतना दूर क्यों है मद्रास?
और इतनी जल्दी क्यों बीत जाता है फगुआ?
इन्तजार में बिछी पलकें अब नम हो रही हैं
धूल भरी पगडंडियों से गायब हो रहे हैं
उनके पावों के निशान
दिय जा रहे हैं आश्वासन
लौटूंगा जल्दी इस बार

क्या कोई इसी तरह करता होगा वहां भी इन्तजार
और गाता होगा उसी सूर लय और ताल के साथ
‘फगुआ के बिहान काहे लागी अयले करमजरुआ’ 


चेहरा

कई लोग चेहरा देख कर बता सकते हैं
सामने वाले का हाल
कई तो इसे पढ़ने का दावा भी करते हैं
सपाट होते चेहरों ने अक्सर उनके दावों की पुष्टि भी की है
जब से बढ़ने लगी है बीमारियां और
हावी होता गया है तनाव
चेहरे भी सपाट होते चले गये हैं 
मनोविज्ञान का काम इससे आसान भी हुआ है और मुश्किल भी
इससे इतर शिल्प विज्ञान में इन दिनों
कुछ ज्यादा ही तरक्की हुई है
गढ़ी जा रही है कई तरह के
रूप, रंग और भाव वाली मूर्तियाँ
अलग-अलग होता जा रहा है
उनका आकार और स्वरूप 
विविधता से भरी ये मूर्तियाँ चेहरों के सच को बता रही हैं
चेहरे मूर्तियों में बदलने लगे हैं और मूर्तियाँ चेहरों में
ऐसे विरोधाभासी समय में कुछ चेहरे अब भी हैं जो सोचते हैं
मूर्तियों ने अब तक यह काम शुरू नहीं किया है.


बनजारे

परिंदों के झुण्ड उतरे हैं
दूर किसी आसमान से
थम चुकी है उनके पंखों की उड़ान
पसीने की गंध से डूबे हैं उनके शरीर
भूख और प्यास से बेहाल है उनका कुनबा
धरती के इस हिस्से में बन रहे हैं उनके घर
आंसू और मुस्कान के साथ
बांस और प्लास्टिक एक दूसरे पर टिकाये जा रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
परिंदों को एक ठौर मिला है
जहाँ एक बार फिर शुरू होगा सभ्यता का आदिम राग
एक औरत है यहाँ जो आंच सुलगा रही है
दूसरी चूल्हा बना रही है
मर्द निकले हैं शिकार पर
बच्चों के झुण्ड में विजेता बनने की होड़ है
एक बूढी औरत भी है यहाँ
जिसके गले से अस्फुट-सा कुछ निकल रहा है
पूरे वातावरण में फ़ैल रही है आदिम गंध
सभ्यताओं के हजार लाख सालो के इतिहास में
यही एक गंध है
जो बच रहा है उनके पास
दुःख के साथ प्यार है नफरत के साथ ख़ुशी
तमाम झुकी गर्दनों के साथ भवें हैं
जो टेढ़ी हो रही हैं
कुछ सभ्य चतुर लोगों के लिय
वे असभ्यता और बर्बरता के प्रतीक हैं
कुछ ज्यादा सभ्य और ज्यादा चतुर लोगों के लिय
वे सस्ते मजदूर
जिन्हें उत्पादन की भट्ठी में खपाया जा सकता है
कुछ और ज्यादा सभ्य लोगों की नजर में वे
सभ्यता के छूट चुके हैं पहरूए
कहने को उनके बहुत से नाम हैं 
पर एक पहचान
वे परिन्दे हैं
कहने को उनके पास कुछ भी नहीं है
हमारी तुलना में
यह सच है
पर यह भी सच है
कि इन दिनों हमारे खून में भी नहीं आ पाता उबाल
किसी भी बात  पर
कि इन दिनों दूर हो गयी है हमारे पसीने से भी
श्रम की खुशबू
कि इन दिनों गायब हो गयी है
हमारे दिलों से भी भावनाओं की हिलोरें
जबकि उनके पास बचा हुआ है
बहुत कुछ, बहुत कुछ
उनके जीने में हमारी
अतीत की परछाईयां है.


गुस्सा

तुम अक्सर कहते हो
मेरा गुस्सा ठंढा है
मैं कोई जवाब नहीं देता
मैं जानता हूँ-
कि जिसे तुम चाह रहे हो
मेरे गुस्से की तरह दिखना
और जो तुम्हे मेरी आग की तरह दिखाई नहीं देती
शायद तुमने मेरे शब्द नहीं देखे
नहीं देखी मेरी शिराएँ
जब गिर चुका होता है अँधेरी रात में धरती का तापमान
और तुम अपने गुस्से को उतार कर
मीठी नींद की आगोश में होते हो
एक लावा मेरे भीतर पिघल रहा होता है
मैं बटोर रहा होता हूँ अपने भीतर
सच को सच कहने की ताकत
लावे की आंच में पके होते हैं मेरे शब्द
मैं चढ़ाता हूँ उनपर अनुभव की लेप
अब की बार जब आना तो
शीशे की तरह साफ होकर आना
और तब, हाँ तब, मापना-
मेरे गुस्से का तापमान

चीख
(गोविन्द पानसारे, नरेंद्र दाभोलकर और एम. एम. कलबुर्गी को समर्पित)

इस वीराने को तोड़ा
मेरी पदचाप ने
इस हताशा को तोड़ा
मेरी उम्मीद ने
इस स्वीकार को तोड़ा
मेरे इनकार ने
इस प्रार्थना को तोड़ा
मेरी जिद ने
इस चुप्पी को तोड़ा
मेरी चीख ने.

कुर्सी
(शिखा के लिये)

वह कुर्सी अभी खाली है
अभी थोड़ी ही धूल जमी है वहां पर
धीरे-धीरे धूल भी हट जाएगी
कोई दूसरा आ कर बैठ जायेगा वहां


दूसरा जल्द ही ले लेगा पहले की जगह
लेकिन मन के किसी कोने में बना रहेगा खालीपन
स्मृतियों के किसी कोने से आती रहेगी टिफिन की महक
कुछ संवाद गूंजते रहेंगे हवा में
दीवारों से अक्सर झाँकेगी कोई पुरानी हंसी

ऑफिस की बातचीत में शामिल होंगी कुछ पुरानी बातें
फिल्मों, खेल और राजनीति के बारे में
महंगाई और बढ़ते स्कूली फ़ीस के बारे में
कम होते कर्मी और काम के बढ़ते बोझ के बारे में

गरियाया जायेगा सरकार को
संविदा के प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई जाएगी
सब साले बनिया हो गये हैं-
कहा जायेगा बार-बार

फिर सब कुछ लौट आयगा ढर्रे पर
नए लोग आयेंगे और रम जायेंगे पुरानी जगह
स्मृतियों में और भीतर होते जायेंगे पुराने लोग
इस तरह एक दिन कुर्सी की गर्द
पूरी तरह चुक जाएगी
बस कुछ तेल की चिकटे होंगी
अपनी जगह पर जमी हुई.

कहाँ चले गये दोस्त
(मित्र सतीश्वर प्रसाद की स्मृति को)

तुम कहाँ चले गये दोस्त
कल शाम तक तो सब ठीक-ठाक था
समय अपनी रफ्तार चल रहा था तुम अपनी
तुम्हारी दिनचर्या में सूत भर भी नहीं
खिसकाया जा सकता था वक्त के सिरे को

सुबह पांच बजे की बस फिर ट्रेन
थोडा-सा नास्ता फिर क्लास का दौर 
मुश्किल से मुश्किल सवाल तुम्हारी चुटकियों में हल होता

लगता था तुम गणित के लिए बने हो
और गणित तुम्हारे लिए
पर जीवन का गणित
तुम पार नहीं पाए दोस्त

पहाड़ों की तरफ से आये थे न तुम
अपने हृदय में उन्ही पहाड़ों की विशालता और निर्मलता लिए
सादगी और सच्चाई तुम्हारे लिए सामान्य बात थी न

पर क्यों आये इधर मैदानों में दोस्त
देख लिया होता गंगा का हाल
जो मैदानों में आते ही सब कुछ खो देती है

संवेदना के जिन स्तरों से मैं गुजरता रहा
उनमें शुरू से ही तुमको ले कर एक आशंका थी

उपर उपर लगता था सब कुछ ठीक हो जायेगा एक दिन
बह पड़ोगे तुम भी इन्ही मैदानों में अपने कचरे के साथ
लेकिन नहीं, तुम्हारी तो मिट्टी ही अलग थी
कहाँ से पचा पाते तुम इतना कचरा
कहाँ से लाते इतनी असंवेदनशीलता
चले गए तुम इन तमाम तिकड़मों के पार
सहज होती हुई इन तमाम चीजो को असहज छोड़ कर

सारी चीजे अब भी वैसी ही है
बस तुम्हारी उपस्थिति कहीं नहीं है दोस्त 
और यहाँ कमरे के इस एकांत में
मैं सोच रहा हूँ तुम्हारे बारे में
कम से कम अपने इस कवि मित्र की ही तरह
तो बना लिया होता अपना चरित्र.



हरख बाबा की स्मृति के साथ

वह फागुन की एक शाम थी
जब शिवाले पर पहली बार देखा था तुम्हे होली गाते
नब्बे की उम्र रही होगी तुम्हारी और
और हमारी तो तब दाढ़ भी नहीं उगी थी 
     
भर फागुन बुढऊ देवर लागे-भर फागुन
गोरिया करी के सिंगार अंगना में पिसे ला हरदिया
झाल और ढोलक से गूंज रहा था शिवाला
और गूंज रही थी तुम्हारी आवाज
फागुन की उस शाम में

हमारी तब इतनी उमर नहीं थी
कि इन गीतों का अर्थ समझते
लेकिन फगुनहट का स्पर्श अपने बदन पर
महसूसने लगे थे हम उन दिनों
स्पर्श और आवाज का बिरवा
तब हमारे भीतर फूटा ही था
और तुम्हारी वह मादक आवाज, वह तन्मयता
वह नब्बे की उमर में तुम्हारा झूमता हुआ बदन
और वह फागुन की मादक हवा
पड़ोस की खिड़की से आती हुई

यह नब्बे का दशक था
हमारे सब कुछ आँखे खोल कर देखने
और ध्यान से सुनने का समय
शहर में भरते गाँव
और गाँव में भरते हुए शहरों का समय
हमारी धरती खून से लाल थी
लेकिन बचा हुआ था उसका हरापन
हम खून के धब्बे मिटाते
तो मिट जाता धरती का हरा रंग
और जब हरापन बचाते
तो खून के छींटे भी बच जाते

अपनी आत्मा, अपने दिल और अपने दिमाग पर
एक न मिट पाने वाले दाग के साथ
हम शहर आए भयजनित सपने ले कर

भय शहर की भीड़ में खो जाने का नहीं
गाँव से रगेद दिए जाने का था
जैसे रगेद दिए गए तमाम लोग
अपने घरों से, गलियों से
खेतों और खलिहानों से
इच्छाओं और सपनों से

हमें लील लिया शहर के कंक्रीटों ने
सुविधाओं ने बढाई हमारी लालच 
छीन लिया इस शहर ने हमारे समय
हमारी आजादी को

लेकिन इतना आसान नहीं था हमें
अपनी स्मृतियों से अलग करना
हमारे पास तुम्हारे गीत थे
हत्याएं, नफरत और हताशा के दौर को
काटने का सबसे बड़ा हथियार 

इस तरह हमने इस सुखी नदी के देश में
बचाए रखी थोड़ी-सी नमी

हमने न तो रोना छोड़ा न गाना
और इस तरह मनुष्य बने रहने की
बुनियादी शर्तों के साथ
अपना संघर्ष जारी रखा

और यह संघर्ष आज भी जारी है
कि आओ हम लौट चलें अपने पेड़ों के पास
अपने ढोरों और डंगरों के पास
अपने तालाबों और अपने लोगों के पास

लहरा दो हवा में अपनी मुठ्ठियाँ
और चिल्लाओ जोर-जोर से
कि यह धरती अब भी हमारी है 
यह आकाश अब भी हमारा है

देखो कि हमारे लबों से फुट रहें हैं गीत
और उग रही है हमारी ईच्छाओं की घास

बरगद

हमारे गाँव में बहुत कम बचे हैं बरगद
जो बचे हैं
उन्हें कीड़ों ने चाट लिया
कुछ को धूप ने, हवा ने, पानी ने
इन सबके बीच वक्त
सबसे बड़ा दीमक साबित हुआ
जो कुतरता रहा हर नए बरगद के विश्वास को
और इस तरह उन्हें बरगद बनने से रोकता रहा.


पता-
प्रत्यूष चन्द्र मिश्र c/o राधा मोहन राय
दुर्गा आश्रम गली
पटना मिडिल स्कूल के सामने
शेखपुरा, पटना-14
मोबाइल – 9122493975
         09801090301
Email - pcmishra2012@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. सारी कविताएं एक से बढ़कर एक...पढ़ते पढ़ते अपने गाँव परिवार को जीती रही ,हुक सी उठी भीतर...
    कवि को बधाई, आपका आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  2. सारी कविताएं एक से बढ़कर एक...पढ़ते पढ़ते अपने गाँव परिवार को जीती रही ,हुक सी उठी भीतर...
    कवि को बधाई, आपका आभार ।

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  3. बहुत प्यारी कविताएं ।कवि स्मृतियों को सादगी से बरतकर उसे वर्तमान से जोड़ने में सिद्धहस्त हैं ।अभी युवा हैं और कविता की बनक पर आगे इनमें इनमें और परिपक्वता आएगी ।ईमान है इन कविताओं में ।मुझे बहुत पसंद आई ।

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  4. बहुत प्यारी कविताएं ।कवि स्मृतियों को सादगी से बरतकर उसे वर्तमान से जोड़ने में सिद्धहस्त हैं ।अभी युवा हैं और कविता की बनक पर आगे इनमें इनमें और परिपक्वता आएगी ।ईमान है इन कविताओं में ।मुझे बहुत पसंद आई ।

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