विजेंद्र








विजेंद्र जी हमारे समय के न केवल एक बड़े कवि हैं अपितु वे एक बेहतर चित्रकार एवं विचारक भी हैं. हम सब ‘कृति ओर’ में उनके सम्पादकीय आलेख पहले से ही पढ़ते आ रहे हैं जो हमेशा एक नए तरीके से सोचने के लिए हमें बाध्य करते हैं. प्रस्तुत आलेख में मार्क्सवाद की विवेचना करते हुए विजेंद्र जी ने यह साबित किया है कि आज 21 वी सदी में मार्क्सवाद ही एक मात्र ऐसा रास्ता बचा है जो हमें सामंती पूँजीवादी नारकीय जीवन से उबार सकता है। तो आईये पढ़ते हैं विजेंद्र जी का यह चिंतनपरक आलेख  
 

इक्कीसवी सदी और कार्ल मार्क्स


समाजवादी सोवियत संघ के दुर्भाग्यपूर्ण पतन के बाद दो तरह के लोगों को खुशी हुई होगी। एक तो पथभ्रष्ट- मौकापरस्त-मार्क्सवादी-दुनियादार लोग। उन्हें यह कहने का मौका मिला कि वे दूरदृष्टि संपन्न हैं। अतः समाजवादी ढाँचे के खसकने से पहले ही उन्होंने मार्क्सवाद से अपने हाथ धो लिये। हिंदी में सत्तर के आस पास मार्क्सवादी कहे जाने बाले प्रमुख आलोचक नामवर सिंह ने मार्क्सवाद त्याग कर अमरीकी नई समीक्षाका रूपवाद अपना लिया था। यह एक प्रकार से एक तथाकथित मार्क्सवादी द्वारा मार्क्सवाद को विकृत करने का चतुराई भरा तरीका था। मार्क्स ने एक जगह जीवन संघर्षों में अपने साथियों के रंग बदलने के संदर्भ में कहा है कि बहुत से लोग रूप‘ ( भेष) में वाम होकर कथ्य‘ ( मन) में अवसरवादी होते हैं। ऐसे लोग अपनी हवा बनाने के लिये चुप नहीं बैठते। वे चाहते हैं उनकी बात और भी माने। उसे प्रचारित करें। यही हुआ। नामवर सिंह की देखा देखी - उनकी लाभकारी स्थिति से अपना काम बनाने के लिये कई अन्य प्रमुख-अप्रमुख लेखकों ने भी वैसा ही किया। वे आज तक उसी रंग में तर हैं। आये दिन भेस बदलने को दिल्ली सबसे सुरक्षित जगह है। पर यह काम बड़ी चतुराई से किया गया। यानि जरूरत पड़े तो मार्क्सवादी भी बने रहें। पर उदारता में निहित अवसरवाद के जरिये सत्ता से रजत सिक्के तथा पद-प्रतिष्ठान भी पाते रहें। निम्नमध्यवर्गीय चित्त के ऐसे लोग साहित्य तथा राजनीति में एक ऐसी फिज़ा पैदा करते हैं जिससे साहित्य में सर्वहारा की ताकत का सृजनशील चित्रण तथा प्रशिक्षण रुके। साहित्य तथा सर्वहारा वर्ग  चेतन न हो पाये। दूसरे वुर्जुआ वर्ग से जुड़े वे लोग थे जो पूँजीवाद का कोई्र बेहतर विकल्प कभी सोच ही नहीं पाये! इक्कीसवी सदी के पहले दशक के बाद दोनों तरह के लोगों को अपनी गलती का एहसास शायद हाने लगा होगा! पर जिन्होंने मार्क्स को अपने हित साधने के लिये ही अपनाया हो उन्हें एहसास भी क्या होगा!

आज फिर विश्व में मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार करने की जाने अजाने, दिलचस्पी बढ़ रही है। योरुप तथा अमरीका की दमित शोषित जनता ने पूँजीवाद को नकारना शुरू कर दिया है। औकुपाई  द वालस्ट्रीटसे लेकर योरुप में हुये भारी प्रदर्शन पूँजीवाद को नकारने की अलामत है। प्रदर्शन के दौरान पूँजीवाद के विरुद्ध गगनभेदी नारे गूँज रहे थे। जो बुर्जुआ अर्थशास्त्री  (इसमें हमारे प्रधानमंत्री जैसे विद्वान अर्थशास्त्री भी शामिल हैं जो मार्क्स की विचारधारा को सदा घिसीपिटी तथा अप्रासंगिक बताते रहे हैं) पूँजीवाद को ही अंतिम सत्य मान कर जीते हैं वे इस नई अलामत को देख कर भैाचक्के हैं। पूँजीवाद के समर्थन में अब उन्हें कोई नया तर्क नहीं सूझ रहा है। 

 प्रख्यात माकर्सवादी इतिहासकार इरिक होब्सवाम ने अपनी महत्वपूर्ण कृति, हाउ टू चेन्ज द वर्ल्ड (2011) में मार्क्स को आज पुनः इक्कीसवी सदी का अत्यंत महत्वपूर्ण तथा अपरिहार्य आर्थिक चिंतक बताया है। पूरी पुस्तक की टोन तथा लय संकेत देती है कि इक्कीसवी सदी के आर्थिक संकट से उपजी चुनौतीपूर्ण समस्याओं के समाधान सिर्फ मार्क्सवादी दर्शन में ही खेाजे जा सकते है। इसके लिये जरूरी नहीं कि मार्क्सवाद को हम योरुप के समाजवादी देशों तक ही सीमित करके देखें। जैसे आईन्स्टीन तथा शेक्सपीयर किसी एक देश के हो कर भी देश तथा दिक्काल का अतिक्रम करते हैं। ध्यान देने की बात है कि पूँजीवाद आज ठीक उस अलामत से आक्रांत है जिसकी कल्पना मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र‘ (1847 -48)  में बहुत पहले की थी। कहते हैं यह महान कृति शासक-शोषक वर्ग को पढ़ना अपराध समझी गई थी। जबकि विश्व के श्रमियों के लिये पूँजीवाद की क्रूरता से मुक्त होने के लिये यह एक ज्योतिर्मयम कार्यक्रम था। सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य है कि इस बार मार्क्स की पुनर्खोज समाजवादी नहीं बल्कि पूँजीवादी लोग कर रहे हैं।

मार्क्स की जिस अमर कृति पूँजी  को कबाड़खाने की वस्तु मान लिया गया था उसको हज़ारों की संख्या में पुनर्प्रकाशित करने की जरूरत पड़ी है। कहा जाता है कि वैटिकन पोप तक ने पूँजी की प्रतियाँ खरीदवा कर उसे पढ़ा है। यानि जो कभी कम्युनिस्ट नहीं रहे वे भी मार्क्स को बड़ी जिज्ञासा से आज पढ़ने के लिये आतुर हुए हैं। दुनिया में लाखों-करोड़ो लोग ऐसे है जो पूँजीवाद से नफरत करते हैं। उससे भिन्न, अलग, नई औेर बेहतर समता मूलक दुनिया देखने को बेचैन हैं। पूँजीवाद के इस गाढ़े -घने अँधेरे में उनके लिये मार्क्स ही एक जोतिस्तंभ हैं। जिन्हें हम आज तक पूँजीवादी अर्थशास्त्र के पथप्रदर्शक समझते थे, वे अब बुझ कर भग्नावशेष हैं। कहा जाता है कि अक्टूबर 2 0 0 8 के लंदन फिनेनशियल टाइम्सने सुर्खियों में बताया है कि पूजीवाद विनष्ट होने की स्थितिमें आ चुका हे। मार्क्स ने एक जगह कहा है कि प्रभुजनों की दुर्बलतायें कोई बुनियादी सामाजिक परिवर्तन नही ला सकती। वह दुर्बलों की शक्ति का ही प्रतिफल होगी। क्या इन स्थितियों में हमें नहीं लगता कि मार्क्स ही हमें रास्ता दिखायेंगे! यहाँ सवाल हो सकता है कि 21वी सदी में मार्क्सवाद का क्या स्वरूप होगा। क्या वह वैसा ही होगा जैसा हम उसे योरुप में देख चुके हैं । या वह बदले हुए रूप में सामने आयेगा। यदि हम मार्क्स के द्वंद्वमयतातथा निषेध का निषेधनियमों से परिचित हैं तो यह सवाल मन में पैदा ही नहीं होना चाहिए। सोवियत रूस में यदि समाजवाद का पतन न हुआ होता तो भी वह आज जैसे का तैसा न होता। क्योंकि उक्त दोनों नियम बताते हैं कि किसी भी हालत में स्थितियाँ सदा एक सी नहीं रही है। न हैं। न आगे रहेंगी। विकास की प्रक्रिया निर्बाध है। वह सतत है।

दूसरे, मार्क्सवादी सिद्धांत में यह भी निहित है कि वह हर देश की समाजैतिहासिक-सांस्कृतिक स्थितियों के अनुसार ही पनपता है। उत्तरी कोरिया में मार्क्सवाद जिस रूप में है वैसा क्यूबा में नहीं है। जैसा उत्तरी वियतनाम में है वैसा चीन में नहीं है। जैसा चीन में है वैसा लैटिन अमरीकी देशों में नहीं है। नेपाल ने अपने लिये जो माडिल चुना है वह इन सबसे अलग है। इससे लगता है मार्क्सवाद कोई बना बनाया स्टील का चौखटा नहीं है जिसे जहाँ चाहो-जैसा चाहो -फिट कर दो। वह हर देश की ऐतिहासिक स्थितियों से कमीकमाई उर्वर भूमि तथा वहाँ की जलवायु के अनुसार ही प्रस्फुटित होता है। अतः न तो वह जड़ है। न रूढ़ि। न किसी देश खास से दूसरे देश को निर्यात करने की पण्य वस्तु। ध्यान रहे 21वी सदी में कोई भी बुनियादी परिवर्तन लोकतांत्रिक ढंग से ही होगा। होना चाहिए भी। आज विश्वमनुष्य की सामान्य चेतना का स्तर विकसित हो चुका है। यह अब कतई जरूरी नही कि एकदलीय प्रणाली ही वजूद में आये। वैसे बहुदलीय प्रणाली का प्रयोग बहुत पहले समाजवादी देश पूर्वी जर्मनी में हो चुका है। हमारे यहाँ बंगाल में वाममोर्चा तथा केरल में एल0 डी0 एफ0 उसके प्रमाण हैं। नेपाल में बहुदलीय वामपंथी सरकार है। ध्यान देने की बात है कि जो माओवादी नेपाल में हिंसा से व्यवस्था परिवर्तन की माग कर रहे थे उन्हें भी अंत में शांति प्रक्रिया द्वारा जनतांत्रिक ढंग से सरकार बनाने को बाध्य होना पड़ा। हमारे यहाँ के माओवादी क्या इस पर गंभीरता से विचार करने को तैयार न होंगे! ध्यान रहे इतिहास द्वारा प्रदत्त स्थितियाँ हमारे हाथ में नहीं होती। अतः बुनियादी तथा बड़े क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिये बहुत धैर्यं, साहस तथा अपने लक्ष्य के प्रति अटल विश्वास रखने पड़ते हैं।
       
देखने-परखने से लगता हे कि 20 वी सदी में मार्क्सवाद, मार्क्स की उत्तरवर्ती व्याख्याओं पर टिका है। मसलन संशोधनवाद, साम्राज्यवाद, तथा राष्ट्रवाद जैसे सवाल पहले से खड़े हो चुके थे। इन सब बहसों का असर मार्क्सवाद पर किसी न किसी रूप में दिखाई दे सकता है। विश्व का बहुत बड़ा वर्ग अब यह मानने लगा है कि पूँजीवाद अपनी साख खो चुका है। आगे पीछे पूँजीवाद का पतन सुनिश्चित है। पर यह अपने आप समाप्त नहीं होगा। एक विशेष वर्ग (सर्वहारा) ही इसे दुर्धर्ष संघर्ष से समाप्त करेगा। यह वर्ग (सर्वहारा) पूँजीवाद ने ही पैदा किया हैं। कहा जाता हे कि बुर्जुआ ने अपनी मृत्यु के लिये हथियार ही नहीं गढ़े, बल्कि उस आधुनिक श्रमिक वर्ग (सर्वहारा) को भी गढ़ा जो उन अस़्त्रों का प्रयोग करेगा। इसीलिए संगठित संघर्षशील सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच शत्रुवत वर्गसंघर्ष अपरिहार्य हैं। ध्यान रहे सर्वहारा के साथ छुटभैया किसान, छोटे व्यापारी,  हस्तशिल्पी, बुद्धिजीवी तथा निष्क्रिय यथास्थिवादी सर्वहारा भी साथ होंगे। दूसरे, जनवादी मानव मूल्यों को यदि ध्यान में रखें तो समतामूलक समाज पूँजीवादी व्यवस्था से आगे की उन्नत व्यवस्था है। बेहतर भी। लोकतंत्र का सही रूप हमें समतामूलक समाज में ही देखने को मिलता है। पूँजवादी सर्वदेशीय शोषण को विश्व भाईचारा कहना बुर्जुआ की चाल हो सकती है। हमारे यहाँ राज्य सत्ता का रूपभर लोकतांत्रिक है।  इसका कथ्य-शोषण, दमन, कालेधन की एक समानांतर व्यवस्था, खनन -भू -वन माफिया, अपराध, धेाखाधड़ी, घोटालों आदि से निर्मित है। इससे लगता है कि किसी सुंदर रूप में जनविरोधी कथ्य सहेजा जा सकता है। इसका उलट भी संभव है। साहित्य तथा राजनीति में भाषा का छल कोई अनहोनी बात नहीं है। भाषा में जनवादी। कथ्य में जनविरोधी। अनेक कवि बहुत ही सरल भाषा लिख कर अपने को लोक के करीब दिखाना चाहते हैं। पर वे कथ्य में उसके विपरीत होते हैं। रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह या इनकी नकल करने वाले विनोद कुमार शुक्ल आदि भाषा के छल से लोक के करीब होने का छल करते हैं। इनका कथ्य बुर्जुआ है। न यहाँ श्रमिकों-मेहनतकश किसानों- के चित्र हैं। न आज़ादी के बाद उभरी जनशक्ति का कोई प्रेरक रूप। पेशेवर आलोचक उसी बुर्जुआ मन के होने की वजह से ऐसी कविता को सराहते रहे। एक वजह यह भी है कि हमारे अधिकांश पाठक जाने अनजाने बुर्जुआ कथ्य की कविता में ही रस लेने लगे हैं ।
  
कहने की जरूरत नहीं कि पूँजीवाद से समाजवाद उन्नत तथा बेहतर व्यवस्था है। क्योंकि यहाँ बड़े पैमाने पर उत्पादन निजी लाभ को न होकर देश की सामान्य जनता के लिये होता है। मार्क्स ने एक बिंदु पर आकर पूँजीवाद में विकास के अवरुध्द होने की बात कही है। वह आज भी सत्य है। क्योंकि मुनाफा बटोरने के लिये उत्पादन तो बड़े पैमाने पर लगातार बढ़ता जाता है। पर आम आदमी की क्रय क्षमता कम होती जाती है। अतः उत्पाद मालगोदामों में जमा हो कर उत्पादन को अवरुद्ध करता है।

समाजवाद में जोर निजी मुनाफे पर न होकर सामान्य जन के कल्याण पर होता है। अतः उत्पादित वस्तुओं की खपत होती रहती है। मार्क्स का यह कहना आज भी सही है कि पूँजीवाद अपने प्रकृत स्वभाव के कारण सामाजिक उत्पादन के लिये जानबूझ कर अक्षम बन जाता है। इससे लगता हे कि 20वी सदी में मार्क्सवादी वहस तथा उसके मूल्यांकन के केंद्र में समाजवादी व्यवस्था रही है। चूँकि सभी समाजवादी व्यवस्थाओं के पीछे मार्क्स की प्रेरणाएँ थीं। अतः समाजवादी व्यवस्था को मार्क्सवादी व्यवस्थाएँ भी कहने लगे। समाजवादी समाज से ही कम्युनिस्ट व्यवस्था विकसित हो सकती है। यानि समाजवादी व्यवस्था ही कम्युनिस्ट समाज की देहरी है। 

वैसे देखा जाये तो नवउदारवादी आर्थिकी की  आलोचना मूलतः मार्क्सवाद में निहित नहीं है। क्योंकि मार्क्स के समय में यह तथ्य था ही नहीं। पर 1970 के आसपास से मुक्त आर्थिकी द्वारा उपजे आर्थिक संकट से उवरने के लिये उसकी तीखी आलोचना केवल मार्क्सवादी दलों ने ही की है। भारत में वाम दलों के सिवा आज कोई्र अन्य दल उदार आर्थिकी की गहन तथा तीखी आलोचना नहीं कर पा रहा है। वाम दलों ने इस आर्थिकी की आलोचना के लिये प्रेरणा मार्क्स से ही ली है। वे मार्क्सवाद के आधार पर उग्र होते साम्राज्यवाद की भी तीखी आलोचना कर रहे हैं। बुर्जुआ चिंतक, लेखक तथा राजनेता इन सबसे बचते है। क्योंकि यह आर्थिकी बुनियादी तौर पर उस सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध है जो बड़े पैमाने पर उत्पादन करके दे रहा है। मार्क्स जिसे हर क्रांति की प्रथम शक्ति मानते हैं। 

यहाँ सवाल किया जा सकता है आखिर मार्क्स सर्वहारापर ही इतना जोर क्यों देते है। क्योंकि संगठित श्रमिक वर्ग (सर्वहारा) ही शोषकों के विरुद्ध सतत संघर्ष कर सकता है। उसकी विजय का अर्थ है पूरे राष्ट्र की शेाषण तथा दमन से मुक्ति। मार्क्स ने ही दिखाया है कि किसी भी जनविरोधी आर्थिकी की कटु से कटु आलोचना करके प्रतिरोध दर्ज कराना किसी भी मार्क्सवादी का नैतिक दायित्व है। मार्क्सवाद ही बताता है कि उदारवादी आर्थिकी अंधाधुंध मुनाफा कमाने के उन्माद में देश की गरीब जनता को नरक में ढकेलती रहती है। ऐसा लगता है कि मनुष्य समाज को हमने संवेदनहीन लाभोन्मादी धनी दैत्यों के हाथों में सौप दिया है। इतनी क्रूरता पहले कभी न थी। अमरीका तक में नहीं। इरिक होब्सवाम के अनुसार तो आजकल मार्केट फण्डामैंट्लिज़्मने प्रकारांतर से आर्थिक सचाईको जैसे धर्मोन्मादी जुनूनमें बदल दिया है। इस तरह आज के हालात में मार्क्स की उपस्थिति कभी आँख से ओट होती नहीं दिखती।

इसके अलावा भी मार्क्स आज अत्यंत प्रासंगिक है। ऐसा समर्थ तथा परिपूर्ण आर्थिक चिंतक और कोई्र दिखाई नहीं देता जो हमें पूँजीवाद के नरक से उबार सकें। दूसरे, मार्क्सवाद में द्वंद्वमय इतिहास तथा उसमें आद्यंत व्याप्त वर्ग संघर्ष का मौलिक विचार आज की बेबाक सचाई है। जैसा तथ्यपरक वैज्ञानिक विश्लेषण मार्क्स कर पाये हैं वैसा आज तक अन्यत्र दुर्लभ है। गहराई से देखा जाये तो सही अर्थों में वह हमारी वैज्ञानिक आधुनिकताके प्रथम पुरुष हैं। पूँजीवाद के विकास तथा विनाश के बारे में उन्होंने जो बहुत पहले कहा था वह आज सही साबित हो रहा है। ऐसा दूरद्रष्टा महा ऋषि अन्यत्र दिखाई्र नहीं देता।

कुछ लोग फिर भी सवाल करेंगे कि 21वी सदी में मार्क्स क्या उस समय प्रासंगिक हो सकते हैं जब योरुप में सारी समाजवादी व्यवसथा ध्वस्त हो चुकी हो। यह बात मैं पहले भी कह चुका हूँ  कि मार्क्स को योरुप की समाजवादी व्यवस्थाओं तक सीमित करके देखना उन्हें खुले मन से न समझने का दुराग्रह होगा। यह तय है एशिया महाद्वीप, अफ्रीका या लैटिन अमरीकी देशों में समाजवाद का रूसी संस्करण मुमकिन नहीं है। मार्क्सवाद यही तो कहता है कि प्रत्येक देश में समाजवाद का रूप अलग और भिन्न होगा। वह उसी देश की सांस्कृतिक विरासत तथा इतिहास की प्रकृति के अनुरूप ही ढलेगा। यह बात किसी सन्दर्भ में पहले भी कही जा चुकी है। प्रमुख सवाल है आज के अमानवीय, क्रूर, संवेदनाहीन, पतनशील तथा विकृत होती संस्कृति, जड़ीभूत सौंदर्यबोध तथा  राजनीतिक-सामाजिक क्षरण को कैसे रोका जाय! अंधाधुंध धन कमाने की जनविरोधी मानवीय आकंक्षायें बेहद बढ़ी हैं। उस अनुपात में उच्च मानवीय नैतिक मूल्यों की तरफ से हम जड़ हुए हैं।  इससे अर्थोन्मादी एक अजब किस्म की पाशविक प्रवृत्ति वजूद में आई है। मार्क्स बता चुके हैं पूँजीव्यवस्था हमें इस कदर हृदयहीनतथा संवेदनाविहीनबनाती है कि हम कोमल मानवीय संबंधों को खो बैठते हैं। कविता, सभी प्रकार की ललित कलायें तथा अन्य मानवीय मूल्य पण्य वस्तुमें बदल जाते है। सृजन की स्वायत्त्ता छीन ली जाती है। इससे आदमी क्रमशः बड़े सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर सिर्फ अपनी सुख सुविधाओं के बारे में सोचता है।

भारत में पिछले दो दशको से एक ऐसा नवधनाढ्य वर्ग वजूद में आया है जो किसी बुनियादी सामाजिक परिवर्तन की बात न सोचता है। न सोचने देता है। कहने को अंदर से वह दुखी है। क्योंकि अंतःकरण की रिक्त शून्यता से उसे एक अजब किस्म की बेचैनी बनी रहती है। पर वह यथास्थिति में कोर्इ्र बुनियादी परिवर्तन के पक्ष में नहीं होता। खासतौर से वर्तमान आर्थिक ढाँचे को वह यथावत रखने के पक्ष में होता है। यह वैश्विक तथ्य है। इससे विश्व पूँजीवादी सन्निपात का संकट पैदा हुआ है। सारे देश घबराये हुये हैं। पूँजीवाद उन्हें कोई्र नया पथ आलोकित नहीं करता। मार्क्स ने बार बार पूजीवादी संकट की बात कही है। 1930 के आर्थिक संकट की समृति आज ताज़ा होने लगी है। सामान्य जन के लिये पर्याप्त पौष्टिक आहार नहीं। जरूरी दवायें नहीं। अच्छी शिक्षा नहीं। रोज़गार नहीं। कपड़े-लत्ते नहीं। उचित आवास नहीं। कितने लाख लोग झुग्गियों, फुटपाथों और तिरपालों में जीवन वसर करते हैं।

स्त्रियों के प्रति क्रूरता तथा उनका यौनशोषण बहुत बढ़ा है। लोकतंत्र में यह कितनी शर्मनाक बात है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का सपना स्वराज तथा हर प्रकार से समतामूलक समाज ही निर्मित करना था. धनोन्मादिता के सबब जैवमण्डल को नये खतरे पैदा हुये हैं। पृथ्वी का क्रूर विदोहन कर उसे नष्ट किया जा रहा है। जिस पारिस्थितिकी को हम आज बचाने के लिये चिंतित है उसे मार्क्स ने 19वी सदी में ही चीन्ह लिया था। उनके अनुसार धरती का अंध विदोहन पूँजीवादी व्यवस्था में प्रकृति तथा मनुष्य के बीच और मनुष्य, मनुष्य के बीच भी मैटाबौलिक रिफ्टपैदा करता है। यही रिफ्टशहरों और गाँवों के बीच पैदा होता है। गाँव के लोगों को पिछड़ा समझना। जो साहित्य गाँव के यथार्थ को व्यक्त कता है उसे पिछड़ी संवेदना का साहित्य बताना। गाँव छोड़-छोड कर लोग शहर को भाग रहे हैं। मार्क्स ने यह भी सुझाया है कि बिना इस मैटाबौलिक रिफ्ट  को दूर किये कोई सुंदर समता मूलक समाज की रचना मुमकिन नहीं है। यहाँ मार्क्स ही हमें बताते है कि अंधाधुंध मुनाफा कमाने की धनोन्मादी प्रवृत्ति से पैदा हुई मनुष्य तथा प्रकृति विनाशी होड़ को कैसे सामाजिक हित में मोड़ा जा सकता हे।

कुछ लोग बड़ी जल्दबाजी में कहते हैं कि आखिर कब तक हम मार्क्स को दोहराते रहेंगे। मार्क्स के आगे क्यों नहीं सोचा जाये! उसके लिये उनके तर्क हैं। मसलन मार्क्स ने स्त्री समस्या के बारे में कोई्र विचार नहीं किया। दूसरे, आदिवासियों की समस्याओं को कैसे मार्क्सवाद से सुलझायेंगे। तीसरे भारत में जात बिरादरी इतनी ज्यादा है उसका सामना मार्क्सवाद से कैसे करेंगे। पहले तो यह समझना जरूरी है कि मार्क्सवाद एक नितांत वैज्ञानिक दर्शन है। अतः उसके नियम हर जगह वहाँ की समाजैतिहासिक स्थितियों के अनुसार ही लागू हो सकते हैं। अकेले मार्क्स ने दलित, पीड़ित, शोषित, श्रमशील सर्वहारा की मुक्ति का दर्शन दिया है। क्या हमारे देश की उत्पीड़ित स्त्रियाँ,  दलित तथा आदिवासी इस दायरे में नहीं आते! कोई भी मुक्ति सर्वसमाज की मुक्ति से नालबद्ध है। उत्पीडित तथा शोषितों की बुनियादी मुक्ति में उत्पीड़ित स्त्रियों की मुक्ति भी निहित है। हम माओवादियों की हिंसक रणनीति में यकीन नहीं करते। पर वे आदिवासियों के लिये मार्क्सवाद के नाम से ही लड़ रहे हैं। क्या हमने आज तक उन स्थितियों से निजात पा ली है जिनकी वजह से मार्क्स के दर्शन का जन्म हुआ। यदि नही तो मार्क्स से आगे जाने की इतनी उतावली क्यों! क्या पूँजीवाद से उबरने के लिये हमारे पास मार्क्सवाद से ज़्यादा वैज्ञानिक, व्यापक तथा परिपूर्ण कोई और दर्शन है! एक बार पूँजीवादी व्यवस्था से मुक्ति पा कर देखें तो सही। आज भी भारत में एक खास कौम के लोग हाथ से आदमी का मैला उठाते है। मार्क्स से आगे भागने से पहले क्या हमें इन बातों पर सोचने की जरूरत नहीं है। ऐसा नारकीय काम वे गरीबी की वजह से ही करते हैं। जहाँ तक जात बिरादरी की समस्या का सवाल है वह भारत में सचमुच बहुत पेचीदा है। पर ध्यान इस बात पर दिया जाये कि आज़ादी के बाद ज्यों-ज्यों पूँजीवाद विकसित और क्रूर हुआ है उसी अनुपात में जात बिरादरी का कोढ़ बढ़ा है। अभी सामंती अर्धसामंती अवशेष बचे हैं। वे जातबिरादरी को बल देते है। 

मार्क्स से आगे दौड़ने वाले लेखक सामंती तथा पूँजीवादी व्यवस्था पर सीधा प्रहार क्यों नहीं करते। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह रोग भी इस व्यवस्था पर फल फूल रहे है! अन्यथा पूँजीवाद के सतत विकास के बाद उसे कम होना चाहिये था। हमें उम्मीद रखनी चाहिये कि सामंतवाद तथा पूँजीवाद के पूरी तरह खत्म होने के बाद इन रोगों में भी भारी कमी आयेगी। फिर हमें शायद लगे कि जिन बातों के लिये हमारी शंकायें थी - हम बेचैन थे -वे निर्मूल थी। दूसरे मार्क्स के आगे जाने के लिये जल्दवाज़ी दो बातों की ओर संकेत करती है। या तो हमने मार्क्स को ध्यान से गहराई तक पढ़ा नहीं। दूसरे, जाने-अनजाने हम सामंती तथा पूँजीवादी व्यवस्था से मुक्ति चाहते ही नहीं। कहना न होगा कि मार्क्स अपनी वैज्ञानिक विचाधारा के साथ इतिहास में सर्वहारा के संघर्ष तथा उसकी विजय के लिये सदा पथप्रदर्शक बने रहेंगे। कोई अन्य ऐसी विचारधारा अभी तक वजूद में नहीं आई जो सर्वहारा के हित में इस क्रूर होती दुनिया को बदलने का पथ दिखा सके। मार्क्सवाद ने समाजवाद के स्वप्न को वास्तविकता में बदल कर दिखा दिया। आज सर्वहारा के पक्ष में समग्र अग्रगामी विकास के लिये मार्क्सवाद ही एक वैज्ञानिक विश्वदृष्टि है। 

इस प्रसंग में हमें अपनी 1857 की प्रथम राज्यक्रांति विस्मृत नहीं करनी चाहिए। तर्कपूर्ण ढंग से समतामूलक जनकल्याणकारी व्यवस्था लाने के लिये वह अभी अधूरी है। उसे तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने के लिये हमें मार्क्स से ही प्रेरणा लेनी होगी। पूँजीवादी आर्थिक एकाधिकार तथा साम्राज्यवाद के बढ़ते दुष्प्रभावों से लड़ने के लिये हमें मार्क्सवाद ही ताकत देगा।  देता रहा है। हमारा पथ प्रदर्शक भी बनेगा। यही नहीं बल्कि हमारी राष्ट्रीय स्वाधीनता और अंतर्राष्ट्रीय शांतिपूर्ण सदभाव की प्रक्रिया को अग्रसर करने में भी वह मददगार होगा। भारत में ही नहीं -पूरे एशिया महाद्वीप, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीकी देशों के मुक्तिसंघर्षो में भी मार्क्सवाद की भूमिका प्रमुख होगी। तेज़ी से विकसित होते विश्व की अत्यंत वक्र तथा संश्लिष्ट बारीकियों को भी हम मार्क्सवाद की तत्वमीमांसा के द्वारा समझ कर भारत का पक्ष मज़बूत कर सकते हैं। आज की विश्वपूँजी व्यवस्था (साम्राज्यों द्वारा समर्थित) में वर्ग संघर्ष का होना ऐतिहासिक लय के अनुसार परीक्षित सत्य है। वह अपरिहार्य है। पिछला लंबा अनुभव हमें बताता है कि सुधारवादी नुस्खे-टोटके- व्यर्थ साबित हुए हैं। 

पिछले दिनों पूरे विश्व के युवाओं द्वारा सुधारवादी आर्थिकीका भारी विरोध हो चुका है। बल्कि कहें सुधारवादी सिद्धात  व्यवहार में आज दिवालियाहो चुका है। यह एक ऐसा मीठा ज़हर है तो मेहनतकश अवाम को अधमरा किये रहता है। यानि न मरने में। न जीने मे। प्रकारांतर से पूँजी तंत्र को मज़बूत करने का यह मनमोहक विषराग है। ऊपर से कल्याणकारी। रूप में सुंदर। कथ्य जनता की अंतड़ियों को गला देने वाला। क्या यह भी आज दोहराने की बात है कि मार्क्स की कही बातें आज भी इतिहास के इस दौर में सच साबित हो रही हैं। कौन नहीं जानता आज साम्राज्यवाद एकध्रुवीय होने की वजह से बहुत आक्रामक हुआ है। भारत जैसा महान देश पुनः अमरीका का उपनिवेश बनता जा रहा है। हमने विश्व में अपना राष्ट्रीय सम्मान खोया है। पूँजी की सांस्कृतिक तथा आर्थिक विकृतियों ने लेाकतंत्र जैसी पवित्र जीवन पद्धति पर कालिख पोती है। अतः आज 21 वी सदी में मार्क्सवाद ही एक रास्ता बचा है जो हमें सामंती पूँजीवादी नारकीय जीवन से उबार सकता है। साम्राज्यवादी दासता से मुक्ति के लिये संघर्ष हेतु क्षमता तथा शक्ति प्रदान कर सकता है। मार्क्स के ही शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति का मुक्त विकास ही सब के मुक्त विकास की पूर्व शर्त है

संपर्क-
मोबाईल- 09928242515   

टिप्पणियाँ

  1. एक आवश्यक निबंध...........
    सुबोध शुक्ल

    जवाब देंहटाएं
  2. Mishir Arun- अच्छा आलेख संतोष जी ...मार्क्सवाद के निष्कर्षों को पाए बिना उससे आगे जाने की बात दरअसल मार्क्सवाद से बचने की एक चाल है !

    जवाब देंहटाएं
  3. Tiwari Keshav- Ak behatreen aalekh. Marx wad hi antim vikalp ha. Ye hai.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत मौजू और सटीक ...ऐतिहासिक सदर्भों को वर्तमान और भविष्य से जोड़ता हुआ ...

    जवाब देंहटाएं
  5. वर्तमान स्थतियों में से उबरने के लिए मार्क्सवाद ही एकमात्र विकल्प है.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'